BCom 2nd Year Problem justice Taxation Study material Notes In Hindi

//

BCom 2nd Year Problem justice Taxation Study material Notes In  Hindi

BCom 2nd Year Problem justice Taxation Study material Notes In  Hindi: Theories of Equity Taxation Financial Theory the benefit Theory Present Views Maximum Welfare Principle Principle of Neutrality Important Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Question :

Problem justice Taxation
Problem justice Taxation

BCom 2nd Year Public Finance Effects Taxation Study Material Notes in Hindi

करारोपण में न्याय की समस्या

(Problem of Justice in Taxation)

करारोपण में न्याय के विचार से आशय कर-भार के वितरण में सामाजिक न्याय से है। करारोपण का भार मौद्रिक तथा वास्तविक होता है जो प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष हो सकता है। करारोपण के प्रत्यक्ष मौद्रिक भार से तात्पर्य मुद्रा की उस धनराशि से है जिसे व्यक्ति करों के रूप में सरकार को चकाते हैं। इससे व्यक्तियों की व्यय योग्य मौद्रिक आय कम हो जाती है। प्रत्यक्ष वास्तविक भार का अर्थ त्याग अर्थात अनुपयोगिता की उस मात्रा से है जो कर भुगतान करने पर क्रय-शक्ति के परित्याग में निहित है।

करों के अप्रत्यक्ष भार का अर्थ मूल्य स्तर, आयों, उत्पादन और रोजगार पर इनके प्रभावों से है। इस प्रकार एक कर-प्रणाली में कर भार के वितरण में समानता होनी चाहिए जिससे कि आर्थिक और नागरिक न्याय की प्राप्ति हो सके। न्यायसंगत करारोपण न होने पर आर्थिक एवं राजनीतिक संकट पैदा हो सकता है। इस सम्बन्ध में श्रीमती हिक्स के विचार उल्लेखनीय हैं। उनका कहना है किरोमन साम्राज्य के पतन का कारण त्रुटिपूर्ण ढंग से संगठित और विस्तृत कर प्रणाली थी। इसी प्रकार फ्रांस की क्रान्ति का मुख्य कारण भी अन्यायपूर्ण कर प्रणाली ही थी जिसमें निर्धन वर्ग की अपेक्षा धनिकों पर कर भार कम था।” अतः करारोपण में न्याय के सिद्धान्त का पालन होना चाहिए। कर का निर्धारण इस ढंग से होना चाहिए कि विभिन्न करदाताओं पर कर का भार न्यायपूर्ण हो। करारोपण में न्याय के उद्देश्य को पूरा करने हेतु अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं ।

Problem justice Taxation Study 

करारोपण में न्याय के सिद्धान्त

(Theories of Equity in Taxation)

(1) वित्तीय सिद्धान्त (Financial Theory);

(2) सेवा लागत सिद्धान्त (Cost of Service Theory);

(3) सेवा लाभ सिद्धान्त (Benefits of Service Theory);

(4) डी मार्को का आय सिद्धान्त (Income Theory of De Marco);

(5) करदेय योग्यता का सिद्धान्त (Ability to Pay Principle);

(6) आधुनिक मत-अधिकतम सामाजिक कल्याण (Maximum Welfare Principle)

(7) तटस्थता सिद्धान्त (Principle of Neutrality)

(1)  वित्तीय सिद्धान्त (Financial Theory)

करारोपण में न्याय की व्याख्या करने वाला यह प्राचीनतम सिद्धान्त है। इसमें करारोपण का मुख्य ध्येय आय प्राप्त करना माना गया है। फ्रांसीसी वित्तमन्त्री कॉलबर्ट के अनुसार, “बत्तख को इस प्रकार नोचो कि वह कमसेकम शोर मचाये।नके अनुसार करारोपण का उद्देश्य यह देखना नहीं है कि कर-भार का वितरण किस प्रकार हो रहा है, बल्कि अधिक-से-अधिक आय प्राप्त करना है। यह उद्देश्य केवल विदेशी शासन में ही पूरा हो सकता है।

आलोचना-वर्तमान में वित्तीय सिद्धान्त को अपनाना सम्भव नहीं है, क्योंकि इसका भार उन व्यक्तियों पर पड़ेगा जिनमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती। जनतन्त्रात्मक राज्य में करारोपण का भार निर्धन व्यक्तियों पर नहीं डाला जा सकता। कल्याणकारी राज्य की स्थापना वाले राष्ट्रों में इस सिद्धान्त को कोई भी महत्त्व नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इससे राष्ट्रीय कल्याण में कमी होने की सम्भावनाएँ। कम हो जाती हैं। अतः वित्तीय सिद्धान्त अव्यावहारिक एवं अवांछनीय है।

Problem justice Taxation Study 

सेवा की लागत सिद्धान्त

(The Cost of Service Theory)

सेवा लागत सिद्धान्त इस बात पर आधारित है कि राजकीय सेवा के आधार पर नागरिकों से कर लिये जाने चाहिएँ। राज्य जो सेवाएँ नागरिकों के लिये प्रदान करता है, उनकी वास्तविक लागत के अनुसार कर की दर निश्चित होनी चाहिए। प्रो० व्यूहलर के अनुसार, “अनेक लेखकों का सुझाव है कि करों को सरकार द्वारा प्रदान की गयी सेवाओं की लागत के आधार पर कि ही लगाया जाना चाहिए, वह भी शायद इस आधार पर कि नागरिकों को सरकारी सेवाओं को चुनने या रद्द करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।” अतः जो व्यक्ति राज्य द्वारा प्रदान की गयी सेवाओं का कोई उपयोग नहीं करता, उससे कोई भी कर नहीं लिया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त के अनुसार कर मूल्यों के समान है। एडम स्मिथ ने कर के सिद्धान्तों में लाभ व योग्यता दोनों सिद्धान्तों का समन्वय करने का प्रयास किया है।

सेवा की लागत सिद्धान्त के दोष-इस सिद्धान्त के प्रमुख दोष निम्न हैं

(i) संकीर्ण विचारधारायह सिद्धान्त संकीर्ण विचारधारा पर आधारित है। वर्तमान समाजवादी अर्थव्यवस्था में यह सिद्धान्त उचित प्रतीत नहीं होता।

(ii) कर की परिभाषा के विपरीतयह सिद्धान्त कर की परिभाषा के विपरीत है, क्योंकि इसमें ‘जैसे को तैसा’ का सम्बन्ध नहीं होता तथा यह कर ऐच्छिक न होकर अनिवार्य होता है। करों का निर्धारण सामान्य हित के लिये किया जाता है, करों को सेवा की लागत के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

(iii) शान्ति सुरक्षा सेवाएँयह सिद्धान्त यह बताने में असमर्थ रहता है कि सेवाओं की लागत को किस आधार पर वसल किया जाना चाहिये। इस प्रकार शान्ति व सुरक्षा सेवाओं पर सेवा की लागत का निर्धारण किस प्रकार किया जाना सम्भव हो सकता है, यह ज्ञात करना कठिन माना जाता है।

(iv) सिद्धान्त का प्रयोग करनाटेलर के अनुसार राज्य द्वारा इस सिद्धान्त का प्रयोग केवल उसी समय किया जा सकता है, जबकि राज्य द्वारा कोई सेवाएँ प्रदान की जाएँ: जैसे-रेलों का किराया या डाक व्यय निश्चित करने में, परन्तु कर लगाते समय अधिकांशतया इन सिद्धान्तों का पालन नहीं किया जाता हैं ।

(v) सार्वजनिक हितार्थ सेवाएँयदि निर्धन व्यक्तियों से सेवा की लागत के आधार पर कर वसूल किये गये तो इन सेवाओं को प्रदान करने का समूचा उद्देश्य समाप्त हो जायेगा। डाल्टन का कथन है कि सेवा की लागत सिद्धान्त कितना ही न्यायपूर्ण क्यों न हो, परन्तु यह व्यावहारिक नहीं है।

(vi) व्यावहारिक महत्व नहींइस सिद्धान्त में व्यावहारिकता नहीं है। इस सम्बन्ध में टेलर के अनुसार, “जब राज्य कुछ सेवाएँ प्रदान करता है तो इस सिद्धान्त का उपयोग किया जा सकता है, परन्तु अधिकांश करों में इस सिद्धान्त से काम नहीं लिया जा सकता है।”

Problem justice Taxation Study 

(3) सेवा लाभ का सिद्धान्त (The Benefit Theory)

जे० एस० मिल इस सिद्धान्त को जैसे को तैसा सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार करों का भार सरकारी सेवाओं से प्राप्त होने वाले लाभ के अनुपात में होना चाहिए। कोहन (Cohn) ने इसी सिद्धान्त के आधार पर सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण किया है। लाइसेन्स, विशेष कर निर्धारण तथा अन्य स्थानीय करों में इस सिद्धान्त का पालन किया जाता है। सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों और सेवाओं से समाज को लाभ होता है। प्रो० ब्यूहलर के अनुसार, “लाभ का सिद्धान्त करारोपण के आधार के रूप में कितना ही असन्तोषजनक क्यों हो, लेकिन करारोपण में यह महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।सैलिगमैन के अनुसार, “सरकार कोई भी काम बिना व्यक्ति-विशेष के लाभार्थ नहीं करती, बल्कि व्यक्ति को समाज का एक अंग मानकर करती है। इस प्रकार विशेष लाभ, सामान्य लाभ में विलीन हो जाता है।”

लाभ सिद्धान्त के दोष (Demerits)-इस सिद्धान्त के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं

(i) कर की परिभाषा के विपरीत (Opposite of Tax Definition)-जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कर एक अनिवार्य भुगतान है। सरकार इसके बदले में किसी करदाता को सेवाएँ प्रदान करने के लिये बाध्य नहीं होती। यदि सरकार अपनी सेवा या लाभ के बदले में कोई धनराशि लेती है तो इसे कर नहीं कहा जा सकता। अतः यह सिद्धान्त कर की परिभाषा के विपरीत है।

(1) अव्यावहारिक (Unconductful)-सरकार द्वारा प्रदान की गई सेवाएँ सामूहिक रूप स सम्पूर्ण समाज के हित के लिये होती हैं। इस बात का अनमान नहीं लगाया जा सकता कि प्रत्येक व्यक्ति का उन सेवाओं से कितना लाभ हआ। उदाहरण के लिये, पुलिस सेवा से एक नागरिक को कितना लाभ हुआ इसकी जानकारी नहीं की जा सकती। अतः यह सिद्धान्त अव्यावहारिक है।

(iii) अन्यायपूर्ण (Unjustice)-यह सिद्धान्त अन्यायपूर्ण है, क्योंकि आज के समाजवादी युग में सरकारी क्रियाओं से निर्धन वर्ग अधिक लाभान्वित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार निर्धन वर्ग के व्यक्तियों से अधिक कर वसूल किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें अधिक लाभ प्राप्त होता है। सेवा-लाभ सिद्धान्त का यह निष्कर्ष अनुचित व अमान्य है।

(iv) आय की विषमता दूर नहीं हो सकती (No-change in Income Inequalities)-यदि करारोपण लाभ के सिद्धान्त का पालन करते हए किया जाये तो इससे समाज में धन की विषमता दूर नहीं। हो सकती, क्योंकि कर का भार निर्धन वर्ग जो सरकारी क्रियाओं से अधिक लाभ प्राप्त करता है, पर ही अधिक होगा।

(v) राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करनालाभ का सिद्धान्त राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित कर देता है।

अतः यह सिद्धान्त न तो न्यायपूर्ण है और न ही सार्वभौम है। ब्यूहलर के अनुसार, “अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लाभ सिद्धान्त, करों का निर्धारण करने में भले ही असन्तोषजनक हो, फिर भी करारोपण पर एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है।

(4) डी मार्को का आय सिद्धान्त (Income Theory of De Marco)

इटली के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डी मार्को ने इस सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक तत्वों के आधार पर बनाया है। उनका कथन है कि देश में राज्य एवं नागरिकों के मध्य विनिमय सम्बन्ध होता है जिसमें राज्य सेवाओं का उत्पादक होता है तथा नागरिक उसका उपभोग करते हैं। नागरिक इन सेवाओं का उपभोग अपनी-अपनी आय के अनुपात में करते हैं। राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ निजी उत्पादन के लिये भी आवश्यक समझी जाती हैं तथा वे निजी उपभोग को भी सम्भव बनाती हैं। अतः सरकारी सेवाएँ समस्त नागरिकों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित करती हैं। इन सेवाओं से प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन बढ़ता है तथा अप्रत्यक्ष रूप से उनके उपयोग में वृद्धि होती है। प्रत्येक नागरिक राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं को अपनी आय के अनुपात में उपयोग करता है अतः उनसे कर भी आय के अनुपात में ही वसूल किया जाना चाहिये। जिस व्यक्ति की आय अधिक है, उससे अधिक मात्रा में कर वसूल किया जाना चाहिये। अतः धनी व्यक्ति अधिक तथा निर्धन व्यक्ति कम कर देगा। इस प्रकार करों का निर्धारण आय के अनुपात में किया जाना चाहिये। यह माना जा सकता है कि व्यक्ति सार्वजनिक सेवाओं का प्रयोग अपनी आय के अनुपात में करता है। अतः उसे कर आय के अनुपात में देना होगा। आय के अनुपात में कर चुकाने पर करदाता को कोई भी मानसिक असन्तुष्टि नहीं होती है।

डी मार्को के सिद्धान्त के दोष (Demerits of De Marco Theory)-इस सिद्धान्त में जो दोष पाये जाते हैं, वे निम्न प्रकार हैं

(i) आय अनुपात में करइस सिद्धान्त में इस बात पर जोर दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय के अनुपात में कर देना चाहिये, परन्तु ऐसा व्यावहारिक नहीं हो पाता।

(ii) आनुपातिक आयकरयह सिद्धान्त आनुपातिक आय-कर की ओर संकेत करता है जिससे इसे करारोपण का आधार नहीं माना जा सकता।

(iii) लाभ सिद्धान्त के दोषयह सिद्धान्त लाभ सिद्धान्त पर आधारित होने से इसमें लाभ सिद्धान्त के समस्त दोष पाये जाते हैं।

(5) कर देय योग्यता का सिद्धान्त (Ability to Pay Principle)

कर देने की सामर्थ्य का सीधा सम्बन्ध व्यक्तियों की आर्थिक परिस्थितियों से हैं। टेलर के अनसार, “व्यक्तियों के बीच कर अदा करने की योग्यता के सिद्धान्त पर कर भार के बँटवारे का अर्थ है कर के भार का समानीकरण।” करदेय योग्यता का सिद्धान्त सामाजिक न्याय के सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। यह सिद्धान्त बहुत पुराना है। 16वीं शताब्दी में जीन बोडिन और 18वीं शताब्दी में विलियम पेटी तथा एडम स्मिथ ने इस सिद्धान्त की व्याख्या की थी। एडम स्मिथ के अनुसार, “प्रत्येक राज्य की जनता को राज्य की सहायता हेतु अपनी योग्यतानसार अनुपात में अंशदान करना चाहिये अर्थात् कर उस आय के अनुपात में देना चाहिये जिसे वे राज्य के संरक्षण में प्राप्त करते हैं।”

अतः स्पष्ट है कि धनी वर्ग पर अधिक कर लगाया जाना चाहिये, क्योंकि उसकी कर देने की क्षमता अधिक होती है, जबकि निर्धन वर्ग की कर देने की क्षमता कम होती है अतः उसे कर-मुक्त कर देना चाहिये अथवा कम दर से कर लेना चाहिये। करदेय योग्यता को ज्ञात करने के लिये अर्थशास्त्रियों ने दो दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं

(1) व्यक्तिगत या भावनात्मक दृष्टिकोण (Subjective Approach)

(II) वस्तुगत या बाह्य दृष्टिकोण (Objective Approach)

(1) व्यक्तिगत या भावात्मक दृष्टिकोण (Subjective Approach)-भावात्मक दृष्टिकोण व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक धाराणा पर आश्रित है। करदाता कर देते समय जिस कष्ट या त्याग का अनुभव करता है उसी कष्ट का अध्ययन इस दृष्टिकोण में किया जाता है, किन्तु इस दृष्टिकोण की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि कर देने के फलस्वरूप करदाता जो त्याग करता है तथा उन्हें जो कष्ट होता है, उसका माप कैसे किया जाये? इसका कारण यह है कि त्याग एक मानसिक स्थिति है जिसका माप करना बहुत कठिन है। इस सम्बन्ध में प्रो० पीगू (Pigou) के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर के समान व्यक्तियों के समूह पर समान परिस्थितियों का समान मानसिक प्रभाव पड़ता है। फिर भी यह प्रश्न पैदा होता है कि न्याय को दृष्टि में रखते हुए कितना त्याग उचित माना जाये ?”

इस सम्बन्ध में विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा तीन सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, जो इस प्रकार हैं

(i) समान त्याग का सिद्धान्त (Principle of Equal Sacrifice)-इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० जे० एस० मिल (J.S. Mill) ने किया। इसके अनुसार प्रत्येक करदाता पर करारोपण का वास्तविक भार समान होना चाहिये। प्रो० मिल के अनुसार, “राजनीति के सिद्धान्त के रूप में करारोपण की समानता का अर्थ यह है कि सरकार के व्यय में प्रत्येक व्यक्ति का भाग इस प्रकार निश्चित किया जाना चाहिये कि उसे अपने अंशदान में दूसरे व्यक्ति के अंशदान की तुलना में तो अधिक और कम असुविधाओं का अनुभव हो।

इसका अर्थ यह है कि विभिन्न करदाता करों के रूप में उपयोगिता की समान राशि का त्याग करें। इसको दूसरे ढंग से यह कहा जा सकता है कि कर अदा करने के पूर्व आय की कुल उपयोगिता तथा कर देने के पश्चात् आय की उपयोगिता प्रत्येक करदाता की समान रहे। यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार किया जाये तो सार्वजनिक आय के लिये प्रत्येक व्यक्ति को कर देना होगा तथा किसी को कर देने से छूट नहीं होगी। यदि हम यह मान लें कि आय की सीमान्त उपयोगिता अनुसूचियाँ सबके लिये समान हैं तथा आय की सीमान्त उपयोगिता भी एक सी रहती है तो इसका अर्थ यह होगा कि प्रत्येक करदाता कर के रूप में आय की समान निरपेक्ष राशि अदा करेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि आय में वृद्धि पर कर की दर नीची हो जायेगी अर्थात् कर प्रतिगामी होगा।

(ii) आनुपातिक त्याग का सिद्धान्त (Principle of Proportional Sacrifice)-इस सिद्धान्त के अनुसार करदाताओं पर कर का भार समान नहीं होना चाहिये, वरन् उनकी आय अथवा राज्य द्वारा प्राप्त किये गये आर्थिक कल्याण के अनुपात में होना चाहिये। इसका आशय यह है कि कम आय वाले व्यक्ति को ऊँची दर पर कर देना चाहिये। समान त्याग की तुलना में यह सिद्धान्त अधिक उपयुक्त है। इस सिद्धान्त के अनसार जो लोग अधिक त्याग कर सकते हैं, उन्हें अधिक कर का भुगतान करना चाहिये।

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 2nd Year Public Finance Taxable Capacity Study Material Notes in Hindi

Next Story

BCom 2nd Year Public Finance Debt Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 2nd year Public Finance