BCom 2nd Year Public Expenditure Meaning Nature Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Public Expenditure Meaning Nature Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Public Expenditure Meaning Nature Study Material Notes In Hindi: Importance of Public Expenditure Factors Responsible For Increase in Public Expenditure Social Factors Is This Increase in Public Expenditure Proper Distinction Between Private And Public Expenditure  Political Public Expenditure ( Hypothesis ) Peacock Wiseman Hypothesis ) Important Question  Long Answer Questions Short Answer Questions :

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BCom 2nd Year Public Finance Deficit Financing Study Material Notes In Hindi

लोकव्यय (सार्वजनिक व्यय) : अर्थ एवं प्रकृति

[Public Expenditure : Meaning and Nature]

व्यय के उस प्रत्येक अंश, जो राज्य में सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने तथा देश की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है, को छोड़कर यदि राज्य द्वारा कोई और व्यय किया जाता है तो वह व्यय अनावश्यक, अन्यायपूर्ण और जनता पर दबाव डालने वाला होगा।                            -पार्सेल

लोक व्यय (सार्वजनिक व्यय) राजस्व का मुख्य अंग है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री सार्वजनिक व्यय के विरूद्ध थे। वे चाहते थे कि सरकार को सीमित मात्रा में व्यय करना चाहिए। राबर्ट पील के अनुसार, “सरकार की अपेक्षा व्यक्तियों के हाथों में धन अधिक फल देने वाला सिद्ध हो सकता है।” एडम स्मिथ के अनुसार, “सरकार के कार्य न्याय, पुलिस तथा प्रतिरक्षा तक ही सीमित होने चाहिए।” एडम्स के अनुसार, “पुराने अंग्रेज लेखकों को व्यय के सिद्धान्त की कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वे राज्य के जिस सिद्धान्त को मानते थे, उससे सरकार के कार्यों की सीमा निश्चित रहती थी।” जे० बी० से० का विचार था, “वित्त प्रबन्ध की सबसे उत्तम योजना वह है जो कि मात्रा में न्यूनतम व्यय हो।”3 पारनैल के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने तथा विदेशी आक्रमणों से रक्षा के लिए अति आवश्यक व्यय से अधिक व्यय का प्रत्येक भाग अपव्यय है तथा जनता पर अन्यायपूर्ण तथा अत्याचारपूर्ण भार है। “4 इसका कारण यह था कि प्रायः सभी प्राचीन अर्थशास्त्री सार्वजनिक व्यय को अपव्ययपूर्ण व अनुत्पादक मानते थे।

Public Expenditure Meaning Nature

किन्तु इस सम्बन्ध में प्रतिष्ठित अर्थाशस्त्रियों के विचार उचित नहीं हैं। आजकल राज्य के बढ़ते हुए कार्यों के कारण सार्वजनिक व्यय का महत्व बढ़ता जा रहा है। आज सार्वजनिक व्यय राष्ट्रीय कल्याण प्राप्ति का साधन है।

वास्तव में आधुनिक समय में राज्य की आर्थिक क्रियाओं के क्षेत्र में वृद्धि को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि वह वृद्धि न्याय और कुशलता के दृष्टिकोण से अति आवश्यक है। सार्वजनिक व्यय की वृद्धि के सम्बन्ध में दूसरा तर्क यह है कि राज्य की तुलना में निजी व्यक्ति धन का अधिक अच्छा प्रयोग कर सकते हैं, भी उचित नहीं है। वास्तविकता यह है कि कुछ ऐसे कार्य हैं जिन पर राज्य धन को व्यक्ति की तुलना में अधिक लाभकारी ढंग से व्यय करता है। जैसे-शिक्षा, चिकित्सा, भारी उद्योग आदि।

सार्वजनिक व्यय का अर्थ (Meaning of Public Expenditure)-वह व्यय, जिसे सार्वजनिक अधिकारियों, सरकारों द्वारा उन सामान्य आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए किया जाता है जिन्हें व्यक्ति, व्यक्तिगत रूप से कुशलतापूर्वक करने में समर्थ नहीं होता, सार्वजनिक व्यय कहलाता है। सार्वजनिक व्यय सामूहिक सामाजिक आवश्यकताओं तथा समाज कल्याण की पूर्ति के लिए किया जाता हैं ।

Public Expenditure Meaning Nature

सार्वजनिक व्यय का महत्त्व

(Importance of Public Expenditure)

19वीं सदी तक सार्वजनिक व्यय को महत्व नहीं दिया जाता था, क्योंकि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री अहस्तक्षेप की नीति के समर्थक थे तथा सरकार की भूमिका को बहुत ही सीमित रूप में स्वीकार करते थे, परन्तु 1930 की मंदी के समय सार्वजनिक व्यय का महत्व बढ़ गया। प्रो० कीन्स ने 1936 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “General Theory” में मन्दी एवं बेरोजगारी को दूर करने के लिए। सार्वजनिक व्यय को अत्यधिक महत्व दिया। प्रो० डाल्टन के अनुसार “आधुनिक अर्थशास्त्री ऐसे गलत विचारों को ठीक करने में ढीले रहे हैं और इस प्रश्न को सिद्धान्त के आधार पर विवेकपूर्ण ढंग से रखने में असमर्थ हुए हैं।”

सार्वजनिक व्यय के महत्व को निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है

1 उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production)-सरकार सार्वजनिक व्यय के द्वारा परिवहन, विद्युत, प्रशिक्षण आदि सुविधाओं का विस्तार करती है तो इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है। जिस सार्वजनिक व्यय से लोगों के स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, उससे भी उत्पादन में वृद्धि होती है।

2.आय एवं सम्पत्ति की असमानता (Reduction in Inequality in Distribution of Income and Wealth)-सरकार सार्वजनिक व्यय की उचित नीति अपनाकर देश में व्याप्त आय एवं सम्पत्ति की असमानता को दूर करके सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकती है तथा गरीब जनता के लिए विशेष योजनाएँ बनाकर उनका कल्याण कर सकती है।

3. आर्थिक विकास में सहायक (Helpful in Economic Development)-सार्वजनिक व्यय की सहायता से अर्थव्यवस्था में मन्दी को दूर करके उत्पादन, रोजगार और आय में वृद्धि की जा सकती है एवं देश में आर्थिक विकास किया जा सकता है। इस प्रकार आर्थिक विकास में सार्वजनिक व्यय की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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4. आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability)-अर्थव्यवस्था में मन्दीकाल में क्षतिपूरक व्यय द्वारा तथा स्फीतिक काल में व्ययों को स्थगित करके आर्थिक स्थिरता को प्राप्त किया जा सकता है जो प्रत्येक अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अति आवश्यक है।

5. सामाजिक कल्याण (Social Welfare)-लोक व्यय द्वारा सामाजिक सुधार करके, कल्याण कार्यों में वृद्धि करके; जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि द्वारा सरकार सामाजिक कल्याण कर सकती है।

6. शान्ति एवं कल्याण (Peace and Welfare)-किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए देश में शान्ति व्यवस्था का होना आवश्यक है। देश में आन्तरिक शान्ति, कानून एवं व्यवस्था तथा विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा की दृष्टि से भी सार्वजनिक व्यय अति महत्वपूर्ण है।

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सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण

(Factors Responsible for Increase in Public Expenditure)

वास्तव में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का मुख्य कारण राज्य के कार्यों में हुई वृद्धि है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अपने मतानुसार सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारणों को स्पष्ट किया है। इसके पीछे मुख्य कारण सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक विकास में तेजी तथा पूर्ण रोजगार की स्थापना है। इस विषय में वेगनर के अनुसार, “विभिन्न राष्ट्रों एवं विभिन्न समयों की विस्तृत तुलना करने से ज्ञात होता है कि विकासशील व्यक्तियों के समाज में जिससे हम सम्बन्धित हैं, केन्द्रीय एवं स्थानीय दोनों ही सरकारों के कार्यों में नियमित वृद्धि होती रही है।”2 डॉल्टन के अनुसार, “अन्य क्षेत्रों में आधुनिक विकास ने जनसत्ता जो कि वास्तव में निजी साहसी द्वारा पूर्ण नहीं किये जा सकते थे।”3 लोक व्यय में वृद्धि को प्रमुखतः चार शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है

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A. आर्थिक कारण (Economic Factors)

सार्वजनिक व्यय में निरन्तर वृद्धि होने के मुख्य आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं

1 मूल्यों में वृद्धि (Price Rise)-गत वर्षों में विश्व भर में मूल्य-स्तर बढ़ा है जिसके फलस्वरूप वस्तुएँ व सेवाएँ पहले की अपेक्षा अधिक महँगी हो गई हैं। अतः सरकार को इन पर पहले की अपेक्षा अधिक व्यय करना पड़ता है।

2. औद्योगिक विकास (Industrial Development)-औद्योगिक विकास की दर को तेज करने के लिए सरकार द्वारा नये-नये उद्योगों की स्थापना की गई है तथा अनेक पुराने उद्योगों का राष्टीयकरण कर उनकी क्षतिपूर्ति के रूप में काफी राशि का भुगतान करना पड़ा है।

3. आर्थिक नियोजन (Economic Planning)-आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत विकास की विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के लिए अपार धन की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति के लिए सरकार को आय के अनेकों साधन खोजने पड़ते हैं, देशी और विदेशी ऋणों की सहायता लेनी होती है तथा कभी-कभी बढ़ते हुए व्यय को पूरा करने के लिए हीनार्थ प्रबन्धन भी करना होता है।

4. राष्ट्रीय आय में वृद्धि (Increase in National Income)-विगत वर्षों में आर्थिक विकास में हुई तीव्र वृद्धि के कारण राष्ट्रीय आय में भी पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई है जिससे एक ओर तो समाज की करदान क्षमता में वृद्धि हुई है और दूसरी ओर आय बढ़ने के फलस्वरूप जीवन-स्तर में हुई वृद्धि के कारण जनता में राज्य से अधिकाधिक सेवाओं एवं सुविधाओं के प्राप्त करने की माँग बढी है।

5. उत्पादकों को आर्थिक सहायता (Economic Assistance to Producers)-देश में कृषि व उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा कषकों व उद्योगपतियों को पर्याप्त मात्रा में ऋण, दान एवं सहायता देनी होती है जिससे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है।

6. अल्पविकसित राष्ट्रों को आर्थिक सहायता (Economic Aid to Under-developed Countries)-वर्तमान वर्षों में विकसित राष्ट्रों द्वारा अल्पविकसित राष्टों को आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त सहायता दी जा रही है जिससे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हुई है।

7. महान् मन्दी (The Great Depression)-तीसा की महान मन्दी भी सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक प्रमुख कारण रही है। इस मन्दी से छुटकारा पाने के लिए तथा अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार के. स्तर को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक व्यय में तेजी से वृद्धि हुई है।

B. सामाजिक कारण (Social Factors)

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के लिए उत्तरदायी प्रमुख सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं

1 सामाजिक सुरक्षा उपायों में वृद्धि (Increase in Social Security)-जनता की सुख-सुविधा एवं विकास का पूरा उत्तरदायित्व सरकार पर है। कल्याणकारी तथा सामाजिक सुरक्षा की क्रियाओं के। रूप में आजकल सभी देशों की सरकारें रोजगार भत्ता, स्वास्थ्य बीमा, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, प्रसव-लाभ आदि की व्यवस्था करती हैं।

2. जनसंख्या में वृद्धि (Increase in Population)-गत वर्षों में विश्व के लगभग सभी देशों में जनसंख्या में तीव्र गति से वद्धि हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विगत 60 वर्षों में विश्व की जनसंख्या 155 करोड से बढ़कर 700 करोड़ से भी अधिक हो गई है। भारत में लगभग 1.87% वार्षिक दर से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। भारत में 1921 के बाद से जनसंख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है।

3. आवश्यकताओं की सामूहिक सन्तुष्टि (Collective Satisfaction of Wants)-जनता की सन्तुष्टि के लिए सरकार सामहिक रूप से कार्य करती है। नगरों में पानी, बिजली, परिवहन आदि की व्यवस्था ऐसे ही कुछ कार्य हैं। इनके अतिरिक्त अस्पतालों, सड़कों, गलियों, पार्क, खेल के मैदान तथा सामुदायिक हाल आदि के निर्माण व रख-रखाव के कारण तथा जीवन-उपयोगी अनिवार्य पदार्थों के वितरण व नियन्त्रण के कारण भी सरकारों पर खर्च का अतिरिक्त भार पड़ता है।

(C) राजनैतिक कारण (Political Factors)

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के लिए उत्तरदायी मुख्य राजनैतिक कारण निम्नलिखित हैं

1 प्रजातन्त्र शासन प्रणाली का विकास (Growth of Democracy)-आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन प्रणाली में प्रशासनिक व्यय में तेजी से वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त लोकतान्त्रिक सरकारों को जनहित में भी अनेक कार्य करने होते हैं। भारत में संघीय व्यवस्था की दोहरी शासन प्रणाली के कारण सार्वजनिक व्यय में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

2. सुरक्षाव्यय में वृद्धि (Increase in Defence Expenditure)-सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक मुख्य कारण अस्त्र-शस्त्रों पर भारी व्यय किया जाना है। वास्तव में अणुशक्ति के विकास, तथा युद्ध की विशालता के कारण युद्ध का व्यय अपेक्षाकृत कई गुना बढ़ गया है।

(D) अन्य कारण (Miscellaneous Factors)

उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं

1 अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का प्रभाव (Effect of International Organisations)-वर्तमान काल में विश्व संघ की भावना से प्रेरित होकर विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई है। इन संस्थाओं की सिफारिशों के क्रियान्वयन के लिए सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है।

2. प्रशासनिक दोष (Administrative Faults)-दोषपूर्ण नागरिक प्रशासन तथा वित्त व्यवस्था के कारण सरकार का व्यय बढ़ जाता है। निर्णय लेने में देरी, अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेईमानी व रिश्वतखोरी आदि अपव्यय को प्रोत्साहित करते हैं।

3. स्थानीय सामाजिक समस्याएँ (Local and Social Problems)-कभी-कभी किसी देश के सामने कुछ सामाजिक समस्याएँ आ जाती हैं जिनका तात्कालिक समाधान आवश्यक हो जाता है और उनके समाधान के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। जैसे-शरणार्थियों की समस्या।

4. सरकार के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन (Change in the Attitude towards Government)-सरकारी व्यय में वृद्धि का कारण जनता का सरकार के प्रति दष्टिकोण में परिवर्तन है। वर्तमान समय में यह एक आम धारणा है कि सामान्य व्यक्ति के लिए अच्छी वस्तएँ तथा सभी व्यक्तियों कोशका जीवन स्तर तब तक उपलब्ध नहा कराया जा सकता जब तक कि सरकार द्वारा आर्थिक है। सामाजिक सेवाएँ उपलब्ध न कराई जाएँ।

उपरोक्त सभी कारणों से सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हुई है।

क्या सार्वजनिक व्यय में वृद्धि उचित है?

(Is this increase in Public Expenditure Proper?)

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि समाज के हित में है अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत पाये है। कछ लोग सार्वजनिक व्यय को अनावश्यक, अनुत्पादक व अपव्ययपूर्ण मानते हैं। इसके विपरीत लोग सार्वजनिक व्यय में वृद्धि को उचित व समाज के हित में मानते हैं। ये सार्वजनिक व्यय में होने वाली वद्धि को व्यावहारिक दृष्टि से देखते हैं और सार्वजनिक व्यय में वृद्धि को आवश्यक मानते हैं। इस सम्बन्ध में प्रो० ब्यूहलर का यह मत उचित प्रतीत होता है

कुछ व्यक्तियों को सार्वजनिक व्यय की बृढती हुई प्रवृत्ति एक आपत्ति दिखाई देती है, जबकि काठ व्यक्तियों के लिए यह प्रसन्नता का कारण होती है और कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं जो इस सम्बन्ध में एकदम तटस्थ रहना चाहते हैं। राष्ट्रीय आय का कोई भी प्रतिशत सार्वजनिक व्यय के लिए निश्चित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह सीमा समाज की अभिलाषाओं तथा आवश्यकताओं पर सार्वजनिक व्यय के प्रभावों तथा उसे पूरा करने हेतु उपलब्ध साधनों पर तथा आय के वितरण पर आर्थिक विकास की गति तथा ऐसे ही अन्य तथ्यों पर निर्भर करती है। किसी समयविशेष में किसी राज्यविशेष का कार्यविशेष के लिए व्यय का औचित्य ही वास्तविक समस्या है।

निजी व्यय सार्वजनिक व्यय में अन्तर

(Distinction between Private and Public Expenditure)

सार्वजनिक तथा निजी व्यय की समस्या प्रायः एक-सी हैं। दोनों में ही आय और व्यय के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाता है, दोनों में ही आय-व्यय के सम्बन्ध में प्रायः एक-सी नीति अपनाई जाती है, दोनों पर आर्थिक नियम समान रूप से लागू होते हैं और इस प्रकार दोनों में ही वित्त-व्यवस्था का रूप प्रायः एक-सा होता है।

सार्वजनिक व्यय (परिकल्पनाएँ)

[Public Expenditure (Hypothesis)]

सार्वजनिक व्यय में निरन्तर होती जा रही वृद्धि के कारणों को समझने के लिये कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया जिनमें दो सिद्धान्त (परिकल्पनाएँ) मुख्य हैं

1.वैगनर का राज्य के बढ़ते क्रियाकलापों का सिद्धान्त (Wagner’s Law of Increasing Star Activities)-सार्वजनिक व्यय में हो रही वृद्धि के विषय में जर्मन अर्थशास्त्री एडोल्फ वैगनर ने 19 शताब्दी में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के द्वारा वैगनर ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि आर्थिक विकास के स्तर में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ राज्य के क्रियाकलापों में अर्थात् लोद व्यय में तेजी से वृद्धि होती जाती है। वैगनर के अनुसार, “विभिन्न देशों तथा विभिन्न कालों के सामयिक विश्लेषण यह प्रकट करता है कि प्रगतिशील राष्ट्रों में केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों की क्रियाओं में नियमित रूप से वृद्धि होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यह वृद्धि गहन तथा व्यापक दोन प्रकार की होती है। केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक तरफ नए कार्यों को अपनाती हैं तो दूसरी तरफ पुराने कार्यों को वे पहले की अपेक्षा अधिक दक्षता व कुशलता के साथ सम्पन्न करती हैं।” इस प्रकार, अर्थव्यवस्थाओं के विकास के साथ-साथ राज्य के व्यय के सभी मदों में वृद्धि हो जाती है।

वैगनर के अनुसार, राज्यों के विभिन्न मदों में वृद्धि की प्रवृत्ति के दो कारण हैं। प्रथमराज्य की सेवाओं के प्रति माँग की लोच एक से अधिक होती है तथा द्वितीय जैसेजैसे आर्थिक विकास होता जाता है, सार्वजनिक क्षेत्र का महत्व निजी क्षेत्र की अपेक्षा बढ़ता जाता है।वैगनर ने राज्य के कार्य को दो भागों में विभाजित किया ।

(1) आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा सम्बन्धी कार्य

(2) कल्याणकारी कार्य

वैगनर की धारणा है कि आर्थिक विकास के साथ-साथ समाज में जटिलता तथा विषमता की वृद्धि होती है। समाज में अपराध बढ़ते हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा पर व्यय निरन्तर बढ़ाना पड़ता है। आधुनिक समय में देश की प्रतिरक्षा हेतु किया जाने वाला व्यय सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। राज्य के कल्याणकारी कार्यों में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। उदाहरणतः शिक्षा एवं स्वास्थ्य आज के प्रगतिशील एवं सभ्य समाज की एक अनिवार्यता हैं। आधुनिक राज्य अपनी आय का निरन्तर वर्द्धमान भाग शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय करते हैं, क्योंकि एक ओर जहाँ औद्योगिकरण, नगरीकरण एवं जनघनत्व में वृद्धि के फलस्वरूप वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि हेतु श्रमिकों को शिक्षित व कुशल बनाना आवश्यक हो गया है।

अन्य अर्थशास्त्रियों का मतवैगनर के नियम को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न रूपों में देखा है। पीकॉक एवं वाइजमैन ने नियम की व्याख्या करते हुए कहा कि इस नियम के अनुसार, “सार्वजनिक व्यय, सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर की अपेक्षा अधिक तेज दर से बढ़ता है।” अन्य शब्दों में, “सार्वजनिक व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद का फलन होता है। [P.E. =f(G.N.P.)] तथा सकल राष्ट्रीय उत्पादन के सन्दर्भ में सार्वजनिक व्यय की लोच एक से अधिक होती है।” इस प्रकार जैसे-जैसे सकल राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होती है, सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत अधिक तेजी से वृद्धि होती जाती है।

मसग्रेव के अनुसार, “वैगनर के नियम को सार्वजनिक क्षेत्र के निरन्तर बढ़ते हुए हिस्से या सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय उत्पादन से अनपात तथा किसी देश के निम्न प्रति व्यक्ति आय से। उच्च प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ सम्बन्धित किया जाना चाहिए।इस प्रकार सार्वजनिक व्यय/सकल राष्ट्रीय उत्पाद = f (प्रति व्यक्ति आय)

यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की अनुक्रिया के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय सात से अनपात (P.E./G.N.P.) में होने वाली वृद्धि का अनुपात जिसे सार्वजनिक व्यय की लोच ठहा। स रकाई से अधिक हो तो वेगनर का नियम क्रियाशील होगा अर्थात यदि GNP में होने वाली बद्धि सोया सार्वजनिक व्यय (P.E.) में होने वाली वृद्धि अधिक होती है तब वैगनर का नियम लागता हैं ।

फ्रेडरिक एल० प्रियर, वैगनर के नियम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस नियम के अनुसार प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय, प्रति व्यक्ति आय का फलन होता है। सार्वजनिक व्यय की लोच को हम निम्नवत् लिख सकते हैं

सार्वजनिक व्यय की लोच = __प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय में आनुपातिक परिवर्तन

प्रति व्यक्ति आय में आनुपातिक परिवर्तन

यदि सार्वजनिक व्यय की लोच इकाई से अधिक हो तब वैगनर का नियम लागू होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैगनर के नियम के अनसार जैसे-जैसे देश का विकास होता जाता है तथा देश में जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति आय बढ़ती जाती है, सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि होती है।

आलोचनावैगनर के सिद्धान्त के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि यह सार्वजनिक व्यय की चिरकालीन प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है, परन्तु सार्वजनिक व्यय के अन्य पहलुओं की उपेक्षा करता है।

  • सिद्धान्त के अनुसार लोक व्यय में वृद्धि की जाय, परन्तु क्या लोक व्यय में इतनी वृद्धि की स्वीकृति दी जा सकती है कि कर का भार लोगों पर असहनीय हो जाय।
  • राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति में इतने लोक व्यय को स्वीकार किया जा सकता है, परन्तु सामान्य स्थिति में नहीं।

पीकॉकवाइजमैन अवधारणा

(Peacock-Wiseman Hypothesis)

एलेन टी० पीकॉक तथा जैक वाइजमैन नामक ब्रिटेन के दो अर्थशास्त्रियों ने 1890 से 1955 के मध्य ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर सार्वजनिक व्यय के सन्दर्भ में अपना एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसे पीकॉक-वाइजमैन परिकल्पना के नाम से जाना जाता है।

पीकॉकवाइजमैन विश्लेषण में सार्वजनिक व्यय का निर्धारण राजनैतिक सिद्धान्त पर आधारित है। उनके अनुसार, सार्वजनिक व्यय के बारे में निर्णय राजनैतिक आधार पर लिए जाते हैं। अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय का स्तर जनमत या मतदान द्वारा प्रभावित होता है। यह कथन यथार्थपरक है, क्योंकि वास्तविक जीवन में हम देखते हैं कि सार्वजनिक व्यय को नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रभावित करते हैं। चुनाव के पश्चात गरीबी उन्मूलन हेतु किए जाने वाले व्यय-कार्यक्रम तथा किसी प्रतिनिधि विशेष के चुनाव क्षेत्र का विकास इसके उदाहरण हैं। प्रजातंत्र में नागरिक उन प्रतिनिधियों का चयन करना चाहते हैं, ताकि उनका प्रतिनिधित्व सरकार में बना रहे।

पीकॉक तथा वाइजमैन की धारणा है कि व्यक्ति सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं का लाभ तो प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कर नहीं देना चाहता। अतः व्यय का निर्धारण करते समय सरकार यह ध्यान रखती है कि सम्बन्धित कराधान के प्रस्ताव पर मतदाताओं की क्या प्रक्रिया होगी? इस प्रकार, उनका विचार है कि कराधान का एक सहन-स्तर होता है। इस स्तर से अधिक लोग कर नहीं देना चाहते, परन्तु आपातकाल परिस्थितियों जैसे युद्ध के समय लोग अधिक कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है। यद्यपि युद्धोपरान्त सार्वजनिक व्यय तथा करो दोनों में कमी आती है फिर भी वह युद्ध-पूर्व स्तर से अधिक ही रहता है, क्योंकि युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध के दौरान लगाए गए सभी कर समाप्त नहीं हो जाते तथा कुछ कर लगे ही रह जाते हैं। इस प्रकार, करारोपण तथा सार्वजनिक व्यय दोनों ही पुराने स्तर को प्राप्त नहीं होते, बल्कि कुछ उच्च-स्तर पर स्थित हो जाते हैं। सार्वजनिक व्यय की वृद्धि में इन अनिरन्तरताओं को ही पीकॉकवाइजमैन ने विस्थापन

प्रभाव (Displacement Effect) कहा है।

पीकॉक-वाइजमैन के अनुसार विस्थापन प्रभाव के कारण सार्वजनिक व्यय में स्थिर वृद्धि (Stable Growth) नहीं होती है, बल्कि अनियमित रूप से मकान की सीढ़ियों की तरह कई चरणों में होती है जैसा कि चित्र (6.1) में दिखाया गया है। चित्र में बिन्दुंकित क्षैतिज रेखाएँ सामान्य अवधि में सार्वजनिक व्यय के स्तर को तथा मोटी क्षैतिज रेखाएँ युद्धकाल के दौरान होने वाले सार्वजनिक व्यय को प्रदर्शित करती हैं। माना युद्ध से पूर्व सामान्य दशा में सकल राष्ट्रीय उत्पादन के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक व्यय का स्तर AB है। युद्ध की दशा में आपातकालीन परिस्थितियों में अतिरिक्त करारोपण से सरकार की आय बढ़ जाने के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में जब वृद्धि होती है तब व्यय का स्तर ऊपर उठ कर CD हो जाता है। अब युद्ध समाप्त होने के उपरान्त (माना D समयावधि में यद्ध समाप्त हो जाता है) दो स्थितियों सम्भव हो सकती हैं।

एक तो यह हो सकता है कि युद्ध के बाद भी कर का वही स्तर रहे जो युद्ध के दौरान था, ऐसी दशा में सार्वजनिक व्यय का स्तर पूर्ववत् CD स्तर पर ही बना रहेगा। दूसरी दशा में, इस बात की सम्भावना अधिक रहती है कि युद्ध के उपरान्त कुछ कर समाप्त कर दिए जाएँ (जिन्हें आपातकालीन परिस्थितियों में कर दाताओं ने स्वीकार किया हो) ऐसी दशा में सार्वजनिक व्यय का स्तर CD से कुछ नीचे आ सकता है जैसा कि EF स्तर से प्रदर्शित है, परन्तु व्यय का स्तर अब भी AB स्तर से ऊपर है। ऐसी स्थितियों की पुनरावृत्ति सम्भव हो सकती है।

आलोचनापीकाकवाइजमैन ने विस्थापन प्रभाव की जो अवधारणा प्रस्तुत की वह ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय के आँकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित थी। यह परिकल्पना एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में तभी स्वीकार की जा सकती है जब इसकी पुष्टि अन्य देशों में उपलब्ध आँकड़े भी करें।

Public Expenditure Meaning Nature

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. सार्वजनिक व्यय से आप क्या समझते हैं एवं हाल के वर्षों में सार्वजनिक व्य के कारणों की व्याख्या कीजिये।

Elucidate the concept of public expenditure and explain the reasons of recent rise in public expenditure.

प्रश्न 2. सार्वजनिक व्यय से क्या आशय है? इसके महत्त्व एवं वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिये।

What is meant by public expenditure ? Explain its importance and classification.

प्रश्न 3. लोकव्यय के सन्दर्भ में वैगनर तथा पीकॉक-वाइजमैन अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।

Explain Wagner and Peacock-Wiseman hypothesis regarding public expenditure. १

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. सार्वजनिक व्यय के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

Discuss the importance of public expenditure.

प्रश्न 2. निजी व्यय एवं सार्वजनिक व्यय में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between private expenditure and public expenditure.

प्रश्न 3. वैगनर के राज्य के बढ़ते क्रियाकलापों के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिये।

Explain the Wagner’s law of increasing state activities.

प्रश्न 4. पीकॉक-वाइजमैन अवधारणा को संक्षेप में समझाइये।

Explain in brief the Peacock’s-Wiseman concept.

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chetansati

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