BCom 2nd Year Public Finance Debt Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Public Finance Debt Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Public Finance Debt Study Material Notes in Hindi: Meaning and Nature of Public Debt Importance and Objectives of Public Debt Distinction Between public and private Debt Difference between public debt and tax classification of public debt Sources of Public Debt Internal Resources According to duration Demerits of Public Debts  Limitations of Public Debts Actual Payments Economic Effects of Public Debts Examinations Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Debt Study Material Notes
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BCom 2nd Year Public Finance Effects Taxation Study Material Notes in Hindi

लोक/सार्वजनिक ऋण

(Public Debt)

“आन्तरिक ऋण से सम्बन्धित सभी व्यवहार, समाज के अन्दर, धन के स्थानान्तरण के एक अनुक्रम में घूमते हैं। इसका अर्थ है कि एक आन्तरिक ऋण का कोई स्पष्ट धन भार अथवा स्पष्ट धन लाभ कभी नहीं हो सकता।” -डाल्टन

Public Finance Debt Study

सार्वजनिक ऋण का अर्थ एवं प्रकृति

(Meaning and Nature of Public Debt)

सरकार द्वारा लिये गये ऋण सार्वजनिक ऋण कहलाते है। सरकार में केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय सरकारें आती हैं। यह ऋण अपने ही देश में अथवा विदेश से लिया जा सकता है। अतः राज्य का व्यय आय से अधिक होने पर, जब वह जनता से ऋण लेकर अपना व्यय पूरा करती है, तो उसे सार्वजनिक ऋण कहा जाता है। यह वह लोक आगम है जो सरकार पर उसे ऋणदाता को वापस करने का दायित्व डालता है। सरकार को न केवल ऋण ही वापिस करना होता है, वरन् उस पर ब्याज भी देना होता है। फिण्डले शिराज के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिए कोई सरकार अपने देश के नागरिकों अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी होती है।क्या सार्वजनिक ऋण आगम का एक स्रोत है?

कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि सार्वजनिक ऋण सरकारी वित्त व्यवस्था का अभिन्न अंग है और इसलिए सरकार की आय का एक नियमित स्रोत है। डाल्टन के अनुसार, लोक सत्ताओं की आय का साधन सार्वजनिक ऋण ही है।किन्तु यह धारणा उचित नहीं है र दीर्घकालीन दृष्टि से सार्वजनिक ऋण को सार्वजनिक आगम में सम्मिलित करना भूल है। इसके दो कारण हैं-प्रथम, ऋण को वापस ऋणदाता को चुकाना अनिवार्य होता है तथा द्वितीय, ऋण को चुकाने के साथ-साथ उस पर ब्याज देने का दायित्व भी सरकार पर आ पड़ता है। अतः सार्वजनिक ऋण की प्रकृति लोक आगम की प्रकृति से सर्वथा भिन्न है। प्रो० जे० के० मेहता के अनुसार, “लोक आगम वह प्राप्ति है जिसको उसके देने वाले को वापिस करने के लिए सरकार बाध्य नहीं होती लेकिन, दूसरी ओर, सार्वजनिक ऋण, सरकार पर ऐसा बोझ डालता है कि जिसे लौटाना अनिवार्य होता है। चूँकि ऋण एक प्रकार का आर्थिक बोझ है, अतः साधारण परिस्थितियों में ऋण लेना उत्तम नहीं माना जाता और इसीलिए ऋण को ‘असाधारण वित्त’ कहा जाता है।

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सार्वजनिक ऋण का महत्त्व एवं उद्देश्य

(Importance and Objects of Public Debt)

परम्परावादी अर्थशास्त्री सार्वजनिक ऋण को अच्छा नहीं मानते थे। एडम स्मिथ के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण से अपव्ययिता, बेकार के युद्ध और बुरी आर्थिक दशा उत्पन्न होती है।” बैस्टेबल ने सार्वजनिक ऋणों को देश को एक अस्वाभाविक स्थिति में ढकेलने वाला स्रोत माना था। डेविड ह्यूम ने सार्वजनिक ऋण नीति कोविनाश के मार्गकी संज्ञा दी थी। इसी प्रकार डाल्टन के अनुसार, “एक देश जो बड़ी मात्रा में ऋण संग्रहीत कर लेता है, एक अस्वाभाविक स्थिति में पहुँच जाता है।” किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री सार्वजनिक ऋण की भूमिका को स्वीकार करते हैं, क्योंकि इससे अनेक उद्देश्यों की पूर्ति होती है और इससे अर्थव्यवस्था की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं। राज्य के कार्य क्षेत्र के निरन्तर विस्तार ने सार्वजनिक ऋण के महत्व को और भी अधिक बढ़ा दिया है। वास्तव में सार्वजनिक ऋण का महत्व इसके उद्देश्यों पर निर्भर करता है। सामान्यतः निम्न उद्देश्यों के लिए सार्वजनिक लिये जाते हैं

1 प्राकृतिक आपदाओं से समाज की रक्षा करने हेतु-वर्तमान युग में अकाल, बाढ़, महामारी आदि प्राकतिक आपदाओं से समाज की रक्षा करना सरकार का प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता है। ऐसे समय में यदि सरकार की आय अपर्याप्त हो तो उसे ऋण की शरण लेनी पड़ती है।

2. विदेशी आक्रमणों से देश की रक्षा करने हेतुलोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में सरकार का मरख उद्देश्य समाज को अधिकतम लाभ प्रदान करना होता है और यह तभी सम्भव है, जबकि सरकार रिक पटतों और बाह्य आक्रमणों से नागरिकों के जान-माल की पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करें । इस दिशा में सैनिक आवश्यकता के सम्बन्ध में स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी प्रत्येक राष्ट्र की सरकार को ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती है।

3. लोकमत को अनुकूल बनाने हेतुलोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में सत्तारूढ दल जनमत को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से कभी-कभी जानबूझकर करारोपण में वृद्धि नहीं करता और आवश्यक व्ययों को पूरा करने हेतु ऋण का सहारा लेता है।

4. उत्पादन कार्यों के सम्पादन हेतुदेश के प्राकृतिक साधनों का विकास करने हेतु भी सरकार को ऋण की व्यवस्था करनी होती है। एक अर्द्ध-विकसित देश की सरकार के लिए ऋण की व्यवस्था करना और भी आवश्यक होता है, क्योंकि ऐसे देश में सरकार करारोपण द्वारा अधिक आय प्राप्त नहीं कर सकती, जबकि अर्थव्यवस्था के विकास हेतु बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है।

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5. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना करने हेतु-सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग-धन्धों की स्थापना करने अथवा सार्वजनिक निर्माण कार्यों का सम्पादन करने हेतु ऋण का सहारा लेना पड़ता है।

6. समाजवादी समाज की स्थापना करने हेतु-समाजवादी भावना के विकास के फलस्वरूप आजकल अधिकांश देशों की सरकारें व्यापार एवं उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर रही हैं तथा उनके स्वामित्व और संचालन को अपने हाथ में लेती जा रही हैं, जिसके लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति सरकार ऋण लेकर करती है।

7. प्रशासनिक कार्यों के व्यय को पूरा करने हेतुसरकार को करारोपण द्वारा वर्ष के अन्त में ही आय प्राप्त होती है, जबकि प्रशासनिक कार्यों पर उसे वर्ष के प्रारम्भ में ही खर्च करना पड़ता है। अतएव आय प्राप्त होने तक प्रशासनिक कार्यों के व्यय को पूरा करने हेतु सरकार को अल्पकालीन ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती है।

8. कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने हेतु19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से प्रत्येक देश की सरकार ने अपना अन्तिम लक्ष्य ‘कल्याणकारी राज्य’ (Welfare State) की स्थापना करना स्वीकार कर लिया है, जिसकी पूर्ति हेतु आजकल प्रत्येक देश की सरकार शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, आवास आदि समाज सेवाओं पर अधिक से अधिक व्यय करती है तथा आवश्यकता पड़ने पर इन सेवाओं के सम्पादन हेतु ऋण की व्यवस्था करती है।

9. आर्थिक एवं व्यापारिक दशाओं में स्थिरता कायम करने हेतु-प्रो० लर्नर के मतानुसार, सार्वजनिक ऋण का मुख्य उद्देश्य आय प्राप्त करना न होकर आर्थिक जीवन को सन्तुलित बनाना होना चाहिए। सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था मन्दी और अभिवृद्धि दोनों कालों में लाभप्रद साबित हो सकती है, अभिवृद्धि (Boom) काल में सरकार ऋण की व्यवस्था द्वारा नागरिकों से अतिरिक्त क्रय-शक्ति को हस्तगत करके मूल्यस्तर के ऊपर उठने की प्रवृत्ति को रोक सकती है, जबकि मन्दी (Depression) काल में सरकार बैंकों से ऋण प्राप्त करके तथा इस धन से नई-नई योजनाएँ चलाकर (अथवा पुराने ऋणों का भुगतान करके) नागरिकों की क्रय-शक्ति में वृद्धि कर सकती है तथा इस प्रकार मूल्य-स्तर में गिरावट की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकती है।

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10. राजनैतिक क्षेत्र में मित्रता स्थापित करने हेतुसार्वजनिक ऋण का अन्तिम उद्देश्य राजनैतिक क्षेत्र में मित्रता उत्पन्न करना होता है, क्योंकि सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था नागरिकों में पारस्परिक सहयोग, निर्भरता और भाई-चारे की भावना उत्पन्न करती है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि राज्य के लिये सार्वजनिक ऋण प्राप्त करना अनिवार्य है, परन्तु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि-(i) चालू व्ययों को करारोपण द्वारा ही पूरा किया जाए, (ii) ऋणों की व्यवस्था आवश्यकता होने पर ही की जाए तथा इसका आकार भी यथासम्भव न्यूनतम हो, (iii) ऋण अनुत्पादक कार्यों में न लगाये जाएँ।

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(i) सार्वजनिक ऋण तथा निजी ऋण में अन्तर

(Distinction between Public and Private Debt)

राज्य भी व्यक्तियों की भाँति ऋण प्राप्त करता है। इन दोनों प्रकार के ऋणों की व्यवस्था तथा उपयोग की दृष्टि में अन्तर होता है। मुख्य अन्तर निम्नांकित हैं

1 अनिवार्यता (Compulsion)-सार्वभौमिक सत्ता होने के कारण सरकार अपने नागरिकों को ऋण देने के लिए विवश कर सकती है। इसके अतिरिक्त वह कम ब्याज पर भी ऋण प्राप्त कर सकती है। इसके विपरीत निजी ऋण के अन्तर्गत ऐसी कोई बात नहीं है, क्योंकि ऋण देना ऋणदाता की इच्छा पर निर्भर करता है तथा ब्याज का निर्धारण भी ऋणदाता के ऊपर ही निर्भर करता है।

2. अवधि (Period)-व्यक्तियों की आय सीमित व अनिश्चित होने के कारण ऋण दीर्घकाल के लिए नहीं मिल सकते हैं, जबकि राज्य को स्थायी आय होने के कारण दीर्घकालीन ऋण प्राप्त हो सकते

3. ब्याज की दरें (Rates of Interest)-सरकार की साख एवं भुगतान शक्ति में सबको विश्वास होता है। इसीलिए सरकार जो ऋण लेती है उस पर ब्याज की दर कम होती है तथा भुगतान करने की शर्ते सरल होती हैं। निजी ऋण में ऐसा नहीं है। इसमें ब्याज की दर अधिक होती है तथा भुगतान करने की शर्ते अपेक्षाकृत कठोर होती हैं।

4. भुगतान (Payments)-सरकार केवल बलपूर्वक ही ऋण प्राप्त नहीं कर सकती, बल्कि भुगतान के लिए मना भी कर सकती है। यद्यपि इसके लिए सरकार को भारी संकट का सामना करना पड़ता है, एक व्यक्ति के लिए ऐसा कदम उठाना असम्भव होता है।

5. क्षेत्र (Area)-सार्वजनिक ऋण देश के भीतर से भी लिए जा सकते हैं तथा विदेशों से भी, क्योंकि सरकार की साख विदेशों में भी होती है। निजी ऋण देश के भीतर से ही प्राप्त किये जा सकते हैं विदेशों से नहीं, क्योंकि व्यक्तियों की साख विदेशों में सरकार की साख की अपेक्षा कम होती है।

6. उपभोग (Consumption)-सार्वजनिक ऋण का उपयोग जन-साधारण, जिसमें ऋणदाता भी सम्मिलित होते हैं, के लाभार्थ किया जाता है, लेकिन निजी ऋण का उपयोग ऋण लेने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है।

7.शोधन (Repayment)-सार्वजनिक ऋण के शोधन के लिए करारोपण का प्रबन्ध किया जाता है और इस प्रकार ऋणदाता को भी करदाता के रूप में ऋण का एक भाग चुकाना पड़ता है। निजी ऋण में ऐसा सम्भव नहीं होता है।

8. उत्पादकता (Productivity)-सार्वजनिक ऋण अधिकांश उत्पादक कार्यों के लिये ही लिये जाते हैं, परन्तु निजी ऋण उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों ही कार्यों के लिये, लिये जा सकते हैं।

9. लोचकता (Flexibility)-राज्य परिस्थितियोंवश ऋण प्राप्त करता है, क्योंकि राज्य का व्यय लोचपूर्ण नहीं होता है, राज्य केवल प्रशासन सम्बन्धी व्यय को ही कम कर सकता है और अन्य कार्यों को कम करना न तो उचित ही होता है और न ही सम्भव होता है। अतः राज्य को ऋण प्राप्त करके ही अपन काम चलाना पड़ता है। निजी ऋण लोचपूर्ण होता है, व्यक्ति ऋण न लेकर भी परिस्थितियों का मुकाबला कर सकता है।

10. उद्देश्य (Object)-सार्वजनिक ऋण बिना धन की आवश्यकता के भी लिये जा सकते हैं। अर्थव्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन व उसे प्रभावित करने के लिए भी राज्य ऋण लेता है। मुद्रा प्रसार (Inflation) की स्थिति में व्यक्तियों के पास क्रय-शक्ति को कम करना आवश्यक हो जाता है और सरकार ऋण लेकर आसानी से ऐसा कर सकती है तथा उत्पादन व वितरण पर भी वांछित प्रभाव डाल सकती है। निजी ऋण केवल उसी समय लिये जा सकते हैं जब व्यक्ति को धन की आवश्यकता होती है और इस प्रकार के ऋण उत्पादन व वितरण पर सार्वजनिक ऋण की तरह प्रभाव नहीं डाल सकते।

11 मात्रा एवं प्रतिभति (Quantity and Security)-सार्वजनिक ऋण बड़ी मात्रा में होते हैं तथा उनकी प्रतिभूति  (Security) प्रायः सरकार का वचन मात्र होती है। निजी ऋण में ऐसा नहीं है, यह छोटी मात्रा में होती हैं  व ऋणी अच्छी प्रतिभूति देते हैं ।

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12.ऋण लेने के दंग (Methods of Debt)-सरकार बाहरी व्यक्तियों से ऋण लेने के अतिरिक्त कागज के नोट छाप सकती है। निजी व्यक्ति स्वयं से नोट निर्गमन नहीं कर सकता।

13. दायित्व (Responsibility)-सार्वजनिक ऋण सम्पूर्ण सरकार का दायित्व होता है. निजी ऋण उनके व्यक्तिगत दायित्व का प्रतीक होता है।

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(ii) सार्वजनिक ऋण एवं कर में अन्तर

(Difference between Public Debt and Tax)

सार्वजनिक ऋण भी करों की तरह लोक आगम का एक स्रोत है, लेकिन नियमितता. स्रोत व्यय में सावधानी, लाभ, उद्देश्य तथा भुगतान की दृष्टि से इसमें निम्नलिखित अन्तर हैं

1 नियमितता (Continuity)-सार्वजनिक ऋण को असाधारण वित्त की सजा दी जाती है क्योकि यह ऋण प्रायः असाधारण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही लिये जाते हैं हमला अनियमित साधन है। कर राजकीय वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आय का नियमित साधन है। आधनिक यग में विकासशील अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक ऋण भी आगम का नियमित स्रोत बन गया है। अतः इस अन्तर की तीव्रता कुछ कम हो गई है।

2. स्रोत (Sources)-सार्वजनिक ऋण की प्राप्ति अपने देश तथा विदेशों से की जा सकती है, लेकिन कर केवल अपने देश की जनता से ही वसूल हो सकते हैं।

3. व्यय में सावधानी (Care in Expenditure)-ऋण की राशि को व्यय करते समय सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि इसको ब्याज सहित लौटाना पड़ता है। व्यवहार में यह कहावत प्रचलित है कि ऋणों को बहुत लापरवाही से व्यय किया जाता है, लापरवाही से व्यय वह सरकारें करती हैं जो ऋण लेने की अभ्यस्त हो जाती हैं। जो सरकारें कुशल होती हैं वही ऋणों का सावधानी से उपयोग करती हैं, ऋणों का सदुपयोग कुशल प्रशासन पर निर्भर करता है। फिर भी करों का उपयोग ऋणों के उपयोग की अपेक्षा अधिक सावधानी से किया जाता है।

4. लाभ (Profit)-कर की वसूली जो कि वर्तमान नागरिकों से होती है, इनके व्यय का लाभ वर्तमान नागरिकों को ही होता है, लेकिन ऋणों की प्राप्ति वर्तमान नागरिकों से करके, भविष्य के नागरिकों को लाभ पहुँचाती है। अतः स्पष्ट है कि कर व ऋण वर्तमान नागरिकों से प्राप्त होते हैं, लेकिन करों से वर्तमान पीढ़ी तथा ऋणों से (दीर्घकालीन योजनाओं के रूप में) भविष्य की पीढ़ी को लाभ मिलता

5. उद्देश्य (Object)-सार्वजनिक ऋण प्रायः असाधारण अर्थ-प्रबन्ध से सम्बन्ध रखते हैं और करों से सरकार अपने दिन-प्रतिदिन के व्ययों के लिए धन प्राप्त करती है।

6. भुगतान (Payment)-ऋणों से प्राप्त रकम भविष्य में ऋणदाताओं को लौटा दी जाती है, लेकिन करों से प्राप्त रकम वापिस नहीं की जाती है, क्योंकि करों से सरकार को नियमित आय प्राप्त होती है। इतना अवश्य है कि सरकार करों को उनकी रकम के रूप में वापिस न करके जनता की सेवाओं तथा विकास के कार्यों के रूप में वापिस कर देती है।

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सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण

(Classification of Public Debt)

सार्वजनिक ऋण के अनेक रूप हो सकते हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित प्रकार हैं

1 प्रयोग के आधार पर (According to Use)

() उत्पादक ऋण (Productive Debt)-उत्पादक ऋण वे होते हैं जिनकी धनराशि को ऐसे व्यवसायों में लगाया जाता है जिनकी आय में से उसके मूलधन और ब्याज को ऋण की परिपक्वता के बाद लौटाया जा सके। उदाहरण के लिए सिंचाई योजना, विद्युत उत्पादक योजना, परिवहन के साधनों का विकास आदि कार्यों के लिए लिया गया ऋण उत्पादक ऋण कहलाता है। श्रीमती हिक्स ने इन ऋणों को। सक्रिय ऋण कहा है।

() अनुत्पादक ऋण (Unproductive Debt)-अनुत्पादक ऋण वह होता है जो ऐसे कार्यों पर। व्यय किया जाता है जिनसे कोई प्रत्यक्ष मौद्रिक आय प्राप्त नहीं होती; जैसे—युद्ध, अकाल तथा बाढ़ आदि के लिए लिया गया ऋण। इस ऋण को मृत भार ऋण भी कहा जाता है।

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2. स्वेच्छा के आधार पर (According to Willingness)

() एच्छिक ऋण (Voluntary Debt)-जो ऋण सरकार को जनता द्वारा स्वेच्छा से दिये जाते है उन्हें ऐच्छिक ऋण कहते हैं। इन ऋणों को जनता ब्याज व लाभ कमाने की दृष्टि से सरकार को स्वेच्छा से देती है।

() बलात् ऋण (Forced Debt)-जब किसी राष्ट्रीय संकट के समय जनता को ऋण देने के लिए उसकी इच्छा के विरूद्ध बाध्य किया जाता है तो ऐसे ऋण बलात् ऋण कहलाते हैं। 3. स्थान के आधार पर (According to Place of Origin)

() आन्तरिक ऋण (Internal Debt)-जो ऋण देश के अन्दर नागरिकों या वित्तीय संस्थाआ स प्राप्त किये जा सकते हैं, उन्हें आन्तरिक ऋण कहते हैं। ये ऋण ऐच्छिक तथा बलात् दोनों प्रकार के हा सकते हैं।

() बाह्य ऋण (External Debt)-ये ऋण विदेशी सरकारों, विदेशी निजी व्यक्तियों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों से विदेशी मुद्रा में प्राप्त किये जाते हैं।

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डाल्टन का मत है कि “एक ऋण आन्तरिक या बाह्य हो सकता है। एक ऋण आन्तरिक उस समय होता है जबकि सार्वजनिक अधिकारी, जो ऋण प्राप्त करता है, को सीमा क्षेत्र के अन्दर से प्राप्त किया जाय और इस सीमा के बाहर से प्राप्त करने पर वह बाहा हो जाता है।” बाहा ऋणों का भार देश के नागरिकों को सहन करना पड़ता है। इस ऋण का द्राव्यिक भार ब्याज व मूल धन के रूप में दी जाने वाली राशि से लगाया जाता है तथा उस ऋण का प्रत्यक्ष वास्तविक भार देश के नागरिकों के आर्थिक कल्याण में कमी होना है। बाह्य ऋणों के पक्ष एवं विपक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं :

3. बाह्य ऋणों के पक्ष में तर्क-बाह्य ऋणों के पक्ष में प्रमुख तर्क निम्न प्रकार हैं :

() विनिमय दर की अनुकूलता-बाह्य ऋणों द्वारा विदेशी विनिमय दर को अनुकूल रखा जा सकता है तथा देश को लाभान्वित किया जा सकता है। इससे देश को लाभ प्राप्त होंगे और निर्यात के अवसरों में वृद्धि होगी।

() युद्ध संचालनयुद्ध संचालन के लिये भी बाह्य ऋण लाभकारी हैं क्योंकि युद्ध कार्य में अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है जिसे आन्तरिक साधनों से प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पाता।

() अविकसित राष्ट्रों का विकास-अल्प-विकसित देशों का आर्थिक विकास बिना विदेशी ऋण प्राप्त किये हो ही नहीं सकता। बाह्य ऋणों के साथ विदेशी तकनीक एवं ज्ञान भी प्राप्त होने के कारण देश का आर्थिक विकास सरलता से किया जा सकता है।

नर्निर्माणयदजर्जरित अर्थव्यवस्था को सधारने के लिये भी विदेशी ऋण उपयोगी सिद्ध हये हैं। जर्मनी ने बाह्य ऋण लेकर ही युद्ध-जर्जरित अर्थव्यवस्था को सुधारने के प्रयास किये।

() संकटकालीन स्थिति-प्राकृतिक प्रकोपों से देश को अपार जन-धन की हानि हो जाती है। इस क्षति की पूर्ति हेतु देश में साधनों का अभाव हो जाता है। ऐसी दशा में सरकार भी आन्तरिक ऋण प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाती है और उसे बाह्य ऋणों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

बाह्य ऋणों के विपक्ष में तर्क-बाह्य ऋणों के विपक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं :

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() विदेशों पर निर्भरता-दीर्घकाल में ऋणी देश ऋणदाता राष्ट्र का दास बन जाता है तथा उसी पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जाता है।

() आधक माद्रिक भारमूलधन एवं ब्याज के रूप में अधिक धन का भुगतान करने के कारण बाह्य ऋणों का देश पर अधिक मात्रा में प्रत्यक्ष मौद्रिक भार बढ़ जाता है जो देश के विकास में कष्टकारक होता है।

() मितव्ययिता में कमीबाहा ऋण से अपव्यय होता है और जो राष्ट्र एक बार ऋण ले लता ह ऋण लेने का आदी हो जाता है। इससे वह अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह ठीक ढंग से नहीं कर पाता।

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4. समय के आधार पर (According to Duration)

() अनिश्चितकालीन ऋण (Unfunded Debt)-ये ऋण दीर्घकालीन होते हैं। इन्हें स्थाया कोषित या अशोध्य ऋण भी कहते हैं। ये ऋण सरकार प्रायः नहरें, सड़कें, रेलें तथा उत्पादक काया क लिये लेती है। जब सरकार इस ऋण का भुगतान करने के लिए प्रतिवर्ष एक कोष में कुल धनराशि जमा करती है तो इसे कोषित ऋण कहते हैं।

() निश्चितकालीन ऋण (Funded Debty-ये ऋण अल्पकालीन होते हैं। प्रायः इनका भुगतान एक वर्ष के भीतर कर दिया जाता है। इन ऋणों को अस्थायी, शोध्य (Floating) या अकोषित ऋण भा कहा जाता है।

5. भुगतान के आधार पर (According to Maturity)

() शोध्य ऋण (Redeemable Debt)-जिस ऋण को ब्याज सहित एक निश्चित तिथि पर भुगतान करने का सरकार वचन देती है, वह शोध्य ऋण कहलाता है। मलधन का ब्याज सहित निश्चित अवधि के बाद भुगतान करने के लिए सरकार द्वारा प्रतिवर्ष ऋण-शोध कोष (Debt Redempton Fund) में धन एकत्रित किया जाता है और निश्चित अवधि के पश्चात ऋण का भुगतान कर दिया जाता है। इस ऋण का भार वर्तमान पीढ़ी पर पड़ता है।

() अशोध्य ऋण (Irredeemable Debt)-इन ऋणों का भुगतान नहीं किया जाता, वरन् इन पर ब्याज देने की गारण्टी दी जाती है अर्थात् जब तक ऋण का भुगतान नहीं किया जाता, सरकार ब्याज देती रहती है। इन ऋणों का भार भावी पीढ़ी पर पड़ता है।

6. अन्य वर्गीकरण (Other Classification)

(i) वार्षिक ऋण तथा लाटरी ऋण (Annuity Loans and Lottery Debts)-जब भी सरकार इस प्रकार ऋण लेती है कि ऋण की रकम वार्षिक किस्तों में अदा कर देती है तो ऐसे ऋण को वार्षिक ऋण कहते हैं। लाटरी-ऋण वह ऋण हैं जिस पर सरकार इनाम बाँटती है।।

(ii) पण्य ऋण तथा अपण्य ऋण (Marketable Debts and Non-marketable Debts)-पण्यऋण वे ऋण होते हैं, जिनमें सरकार प्रतिभूतियों को खुले बाजार में खरीदती तथा बेचती है। इन ऋणों को क्रय योग्य ऋण भी कहते हैं। अपण्य-ऋण वे ऋण हैं जिनमें ऋण-पत्रों को खुले बाजार में नहीं बेचा जा सकता, वरन् पुनः निर्धारित दर पर सरकार को ही बेचा जा सकता है। जैसे-डाकखाने के बचत प्रमाण-पत्र।

(iii) ब्याज सहित ब्याज रहित ऋण-जिन ऋणों पर सरकार ब्याज देती है उन्हें ब्याज सहित ऋण कहते हैं। अधिकाँश लोक-ऋण इसी प्रकार के होते हैं। कुछ ऋण ऐसे भी होते हैं जिन पर सरकार ब्याज नहीं देती। ऐसे ऋण ब्याज रहित ऋण कहलाते हैं।

(iv) कुल ऋण और शुद्ध ऋण (Gross and Net Debts)-किसी समय अथवा अवधि विशेष पर सरकार के सभी प्रकार के ऋणों के योग को कुल ऋण कहते हैं। इन कुल ऋणों में से ऋण-शोधन कोष में जमा राशि को घटाकर जो शेष बचता है उसे शुद्ध-ऋण कहते हैं।

सार्वजनिक ऋण के स्रोत

(Sources of Public Debt)

(1) आन्तरिक स्रोत (Internal Resources).

आन्तरिक ऋण की प्राप्ति निम्न स्रोतों से होती है

1 विपणन उधार (Market Borrowing)-सरकार निश्चित तिथि वाले ऋणों का निगमन करती है। इसमें निश्चित तिथि पर भगतान वाले ऋण पत्र व बॉण्डस का निगमन किया जाता है। ये ऋण जनता, व्यापारिक बैंक, बीमा कम्पनियों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं द्वारा क्रय किये जाते हैं।

2. लघु बचतें (Small Savings)-ये ऋण विभिन्न प्रकार के ऋण प्रमाण पत्रों के निगमन द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। ऐसे ऋणों को प्राप्त करने के लिए सरकार अनेक प्रकार के प्रोत्साहन देती है।

3. अकोषित ऋण (Unfunded Debt)-इसके अन्तर्गत भविष्य निधि, अनिवार्य बचत योजनाएँ वार्षिक वृत्ति, जमाएँ आदि आते हैं।

4. कोषागार विपत्रों का निगमन (Issue of Treasury Bills)-कोषागार विपत्र ऋण प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। इनका प्रयोग प्रायः रिजर्व बैंक से ऋण प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त राज्य सरकारें ऋण प्राप्त करने के लिए निम्न स्रोतों का भी प्रयोग करती हैं

1 केन्द्रीय सरकार के ऋण और अग्रिम (Loans and Advances from the Central Governments)-राज्य सरकारें केन्द्र सरकार से ऋण और अग्रिम के रूप में बड़ी मात्रा में ऋण लेती हैं। ये ऋण योजना व्यय एवं गैर-योजना व्यय दोनों ही उद्देश्यों के लिए लिये जाते हैं।

2. बैंक और अन्य संस्थाओं से ऋण (Loans from Banks and Other Institutions)-राज्य सरकारें बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं से भी ऋण प्राप्त करती हैं।

3.रिजर्व बैंक से ऋण एवं अधिविकर्ष (Loans and Over-draft from the Reserve Bank of India)-देश का केन्द्रीय बैंक सबसे बड़ा ऋणदाता होता है। वह ऋण एवं अधिविकर्ष दोनों रूपों में ऋण देता है।

(II) बाहा स्रोत (External Resources)

जब आन्तरिक स्रोतों से सरकार को पर्याप्त ऋण नहीं मिल पाता, तो वह विदेशों से ऋण प्राप्त करती है। ये ऋण अधिकांशतः दीर्घकालीन होते हैं और इनका प्रयोग युद्धोत्तर पुनर्निमाण, विकास व प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए किया जाता है। इसके अन्तर्गत निम्न को शामिल किया जाता है

(i) विदेशी जनता, (ii) विदेशी सरकारें, तथा (iii) विशिष्ट अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ; जैसे-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय विकास परिषद् व एशियन बैंक आदि।

सार्वजनिक ऋणों के लाभ

(Merits of Public Debts)

आन्तरिक एवं बाहा दोनों प्रकार के सार्वजनिक ऋणों से देश को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं जो निम्न प्रकार हैं :

(1) अनुकूल भुगतान सन्तुलनऋण लेने से व्यापार एवं भुगतान सन्तुलन पक्ष में हो जाता है तथा विदेशी विनिमय की समस्या का समाधान हो जाता है। इससे विनिमय दर भी देश के पक्ष में हो जाती है तथा आर्थिक विकास में सहायता प्राप्त होती है।

(2) युद्ध वित्त व्यवस्थावर्तमान युद्ध अधिक महँगे होने से युद्ध का सफल संचालन इन ऋणों के आधार पर ही निर्भर रहना अधिक लाभकारी माना गया।

(3) आर्थिक विकासअविकसित राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिये भी सार्वजनिक ऋणों पर ही निर्भर रहना अधिक लाभकारी माना गया है।

(4) उद्योगों को प्रोत्साहनराजकीय ऋण से देश के उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है, उत्पादन बढ़ता है, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होकर जीवन-स्तर ऊँचा हो जाता है।

(5) सार्वजनिक निर्माण कार्यसार्वजनिक ऋणों की सहायता से सरकार द्वारा सामाजिक कार्यों, जैसे-सड़कें बनवाना आदि को कार्यान्वित किया जा सकता है।

(6) प्राकृतिक विपदाओं पर विजयसार्वजनिक ऋणों की सहायता से प्राकृतिक विपदाओं पर सरलता से विजय प्राप्त की जा सकती है और संकट को टाला जा सकता है।

(7) सुरक्षित विनियोगसार्वजनिक ऋण विनियोग के लिये सुरक्षित साधन माने जाते हैं और प्रत्येक व्यक्ति इसी में धन का विनियोग करना लाभप्रद मानता है। इससे जनता की बचत सार्वजनिक ऋण के रूप विनियोजित हो जाती है तथा सरकार को भी पर्याप्त मात्रा में धन की प्राप्ति हो जाती है।

(8) असमान वितरण में कमी-सार्वजनिक ऋणों की सहायता से देश में आय के असमान, को कम किया जा सकता है। इससे समाज में धन के वितरण में समानता लाने में सहायता प्राप्त होती है।

(9) बैंकों का विकासबैंक अपनी जमा का अधिकांश भाग सरकारी ऋणा म लगातार लाभ प्राप्त करते हैं जिससे देश में बैंकों का विकास हो जाता है।

(10) गैरआर्थिक लाभसार्वजनिक ऋणों से ऋणदाता एवं ऋण देने वाले दशा क सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं और आर्थिक विकास में भी रुचि लेने लगते हैं।

सार्वजनिक ऋणों की हानियाँ

(Demerits of Public Debts)

(1) सरकार के दिवालिया होने का डर-यदि सरकार को सरलता से ऋण प्राप्त भय बना रहता है कि सरकार कहीं क्षमता से अधिक ऋण प्राप्त न कर ले। याद राजकीय अर्थव्यवस्था दोषपूर्ण हो जाती है और सरकार के दिवालिया होने का भय बना

(2) अपव्यय की सम्भावनासार्वजनिक ऋण सरकार की साख के ऊपर न सार्वजनिक ऋणों को सरलता से प्राप्त होने पर उनके अपव्यय होने के भय बने रहते है।

(3) साधनों का शोषणयदि ऋण लेते समय कोई शर्त लगा दी जाती है तो उससे देश क का देशहित में शोषण नहीं हो पाता और अपार धनराशि व्याज के रूप में विदेशों को चला परिणामस्वरूप देश में पूँजी-निर्माण सम्भव नहीं हो पाता।

(4) स्वतन्त्रता को भयसार्वजनिक ऋणों के लेने पर विदेशी शासक राजनैतिक हस्तक्षेप करन लगतह आर ऋण लेने वाले राष्ट्र को अपनी स्वतन्त्रता के जाने का भय सदैव भय बना रहता ह। कहावत है कि “व्यापार ही झण्डे का आगमन करता है” (Trade follows the flag)|

(5) ऋण लेने की आदतसरलता से ऋण मिल जाने के कारण सरकार को ऋण लन का आद हो जाती हैं और उसके दुष्परिणाम सरकार को सहन करने होते हैं। ऋण लेने से सरकार को ब्याज का राशि का भुगतान करना पड़ता है जो कि एक स्थायी भार रहता है।

(6) संकटसार्वजनिक ऋणों से राजनीतिक मतभेद तथा यद्ध जैसे संकट भी उत्पन्न होने के भय बने रहते हैं। इससे देश में आर्थिक व राजनैतिक संकट उत्पन्न होने का भय बना रहता है।

(7) जनता पर भारअनुत्पादक कार्यों के लिये प्राप्त किये गये सार्वजनिक ऋण के मूलधन व ब्याज का भार बढ़ाकर जनता पर करों के भार को बढ़ाया जाता है।

(8) राजनीतिक दासताविदेशी ऋणों से राजनीतिक दासता का भय बना रहता है और ऋण लेने वाले देश अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता खो देते हैं।

(9) अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाना-विदेशी ऋण देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर बना देते हैं और देश अपने आर्थिक विकास के लिये दूसरे देश पर निर्भर रहने लगता है।

सार्वजनिक ऋण की सीमाएँ

(Limitations of Public Debts)

(1) आन्तरिक ऋण की सीमाएँसरकार आन्तरिक ऋण भी असीमित मात्रा में प्राप्त नहीं कर सकती है और इसकी सीमाएँ निम्नांकित प्रकार से हैं :

(1) ऋण की प्रकृतिऋण की मात्रा ऋण की प्रकृति पर निर्भर होती है। यदि ऋण दीर्घकालीन है तो उसे प्राप्त करने में कठिनाईयाँ होंगी। प्रायः अल्पकालीन ऋण सरलता से प्राप्त हो जाया करते हैं।

(ii) आर्थिक नीतिसरकार की आर्थिक नीति पर भी ऋण की शक्ति निर्भर करेगी। यदि आर्थिक नीति देश के विकास में सहायक नहीं है तो आन्तरिक ऋण भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं होंगे।

(iii) बचत करने की क्षमतायह ऋण जनता की बचत करने की क्षमता पर निर्भर करेगा। यदि याने नागरिकों की बचत क्षमता कम है तो पूँजी का निर्माण सम्भव न हो सकेगा और असीमित मात्रा में ऋण प्राप्त न हो सकेगा और आन्तरिक ऋण अपर्याप्त रहेगा।

(iv) पुराने ऋण का शोधनआन्तरिक ऋण की मात्रा इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार ने पिछले ऋणों को किस मात्रा में प्राप्त किया है तथा उनका भुगतान समय पर किया है या नहीं।

(v)  जनता का विश्वासजनता का सरकार में जितना अधिक विश्वास होगा, उतना ही अधिक ऋण प्राप्त हो सकेगा अन्यथा नहीं। यदि जनता का विश्वास सरकार का प्र आन्तरिक ऋण प्राप्त हो सकेंगे।

(2) बाहा ऋण की सीमाएँसरकार द्वारा प्राप्त किये जाने वाले बाहा ऋण की प्रमुख सीमाएं निम्न प्रकार हैं :

(1) साख का अध्ययनबाहा ऋण प्राप्त करते समय सरकार की साख का अध्ययन किया जाता

दि साख अच्छी है तो बाह्य ऋण भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो जायेगा। यदि विदेशों से अच्छे सम्बन्ध हैं तो ऋण प्राप्त करने में सरलता रहती है।

(ii) राजनीतिक कारणराजनीतिक कारणों से भी बाहा ऋण की सीमाएँ निश्चित कर दी जाती हा जिस देश में राजनीतिक स्थायित्व नहीं है, वहाँ पर विदेशी ऋण भी सीमित मात्रा में ही प्राप्त हो पाता

(3) हीनार्थ प्रबन्धन की सीमाएँजब सरकार को काफी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है तो वह अन्य साधनों के अभाव में पत्र-मुद्रा को छापकर वित्तीय व्यवस्था कर सकती है परन्तु इस नीति का भी केवल सीमित प्रयोग ही किया जा सकता है।

सार्वजनिक ऋण का शोधन

(Redemption of Public Debt)

जब ऋण लिया जाता है तो उसका भुगतान करना भी ऋणी का नैतिक दायित्व होता है। इसी प्रकार सार्वजनिक ऋणों का चुकाना सरकार का नैतिक दायित्व है। इसके लिए सरकार विभिन्न रीतियाँ अपनाती हैं। मुख्य रीतियाँ निम्नांकित हैं

1 ऋण निषेध (Debt Repudiation)-ऋण के भार से मुक्ति पाने का एक सरल तरीका ऋण का भुगतान करने से इन्कार कर देना है। जब सरकार अपने ऋण सम्बन्धी दायित्वों को पूरा करने से मना कर देती है तो उसे ऋण निषेध कहते हैं। ऋण निषेध दो प्रकार का हो सकता है

(i) पूर्ण ऋण निषेधइसमें सरकार ऋण एवं ब्याज का भुगतान करने से पूर्णतः मना कर देती हैं।

(ii) आंशिक ऋण निषेधयदि सरकार अपने ऋण सम्बन्धी दायित्वों को पूरा करने को आंशिक रूप में मना करती है, तो इसे आंशिक ऋण निषेध कहा जायेगा। इसमें निम्न बातें शामिल होंगी-(अ) ब्याज को अनिवार्य रूप से कम कर देना, (ब) मूलधन की वापसी की राशि को घटा देना, (स) ऋण का भुगतान स्थगित कर देना तथा ऋणों पर मिलने वाली आय के सम्बन्ध में दी जाने वाली कर मुक्तियों को कम करना अथवा समाप्त कर देना।

ऋण निषेध नीति को अपनाने के अनेक दुष्परिणाम होते हैं। अतः यह नीति सामान्यतः नहीं अपनाई जाती। इसके प्रमुख दुष्परिणाम निम्नांकित हैं

(i) जनता का सरकार पर से विश्वास हट जाता है। फलतः वह भविष्य में ऋण लेने में सफल नहीं हो पाती।

(ii) यह एक अन्यायपूर्ण नीति है। इससे बचतकर्ताओं को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।

(iii) समाज में असन्तोष फैलता है।

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सरकार की साख गिरती है। साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को जन्म मिलता है।

2. ऋण का पुनर्शोधन (Refunding of Debt)-यदि सरकार ऋण की परिपक्वता तिथि पर ऋण। का भुगतान करने में सक्षम नहीं है, तो वह पुराने ऋण के स्थान पर नये ऋण जारी करके ऋण के भगतान को आगे के लिए टाल सकती है। लुट्ज (Lutz) के अनुसार, “एक परिपक्व ऋण को टालना ही। पनर्शोधन कहलाता हैब्यूहलर (Buehlar) के अनुसार, “पुनर्शोधन आवश्यक रूप से किसी ऋण के भुगतान को स्थगित करना है।

पुनर्शोधन की रीति में पुराने ऋण-पत्र आदि को वापस लेकर उनके स्थान पर नये ऋण-पत्र निर्गमित कर दिये जाते हैं। यह विधि निम्न तीन दशाओं में अपनाई जाती है

(i) ऋण के भुगतान का समय आने पर सरकार के पास आवश्यक धनराशि न हो।

(ii) सरकार ने ऋण स्थायी पूँजी में लगा दिया हो और वहाँ से धन निकालना सम्भव न हो।

(iii) राजकोषीय नीति के अनुसार ऋण का पुनर्शोधन उचित हो।

3. ऋण परिवर्तन (Conversion of Loan)-यदि सरकार ऋण-भूगतान की तिथि से पूर्व हा की विभिन्न शतों में परिवर्तन करने के लिए पराने ऋणों के बदले में नये ऋणों का निर्गमन करता हता इसे ऋण का परिवर्तन कहा जाएगा। ऋण परिवर्तन की दो विशेषताएँ होती हैं

(i) यह कार्यवाही ऋण के भुगतान करने की तिथि से काफी पहले की जाती है।

(ii) इस परिवर्तन के अधिकार का उल्लेख मल ऋण की शर्तों में कर दिया जाता है।

जब ब्याज की दर सामान्य काल आने पर कम हो जाती है तो पहले लिये गये ऋणों का भार सरकार पर अधिक पड़ने लगता है। ऋण के भार को कम करने के लिए सरकार अधिक ब्याज वाले ऋणों को कम ब्याज वाले ऋणों में परिवर्तित कर देती है। नये ऋण की राशि से पुराने ऋणों का भुगतान कर दिया जाता है। पुराने ऋणदाताओं को नये ऋण-पत्र खरीदने में प्राथमिकता दी जाती है। इस व्यवस्था को ऋण का परिवर्तन अथवा ऋण का रूपान्तरण कहते हैं। ब्यहलर (Buehlar) के अनुसार, “ऋण परिवर्तन का अर्थ साधारण ब्याज की दरों में कमी से लाभ उठाकर ब्याज की राशि को कम करने हेतु वर्तमान ऋणों का नये ऋणों में बदलना है।”

ऋण परिवर्तन की इस रीति के अन्तर्गत ऋण का भार समाप्त नहीं होता वरन भविष्य के लिए टाल दिया जाता है। डा० डाल्टन के अनुसार, “इस रीति के द्वारा वर्तमान ऋण का भार तो कम हो जाता है किन्तु बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों और बॉण्ड्स का मूल्य बढ जाने के कारण ऋण का भार और अधिक हो जाता है।” ऋणों की वास्तविक अदायगी (Actual Payments)

ऋण के वास्तविक भुगतान की निम्नलिखित रीतियाँ प्रचलित हैं

4. ऋण परिशोधन कोष (Sinking Fund)-ऋण चुकाने की यह रीति अत्यधिक सरल, प्रभावी एवं प्रचलित है। इस पद्धति के अनुसार ऋण का शोधन करने के लिए एक कोष बनाया जाता है जिसे ऋण परिशोधन कोष कहते हैं। कोष में प्रतिवर्ष एक निश्चित धनराशि जमा की जाती है। इस राशि को कहीं लाभदायक रूप में विनियोजित कर दिया जाता है और इसमें प्रतिवर्ष ब्याज भी जुड़ता रहता है। इस प्रकार प्रतिवर्ष विनियोजित राशि तथा ब्याज की राशि निरन्तर बढ़ती जाती है और ऋण के भुगतान की तिथि आने तक उसमें इतनी राशि जमा हो जाती है जिससे कि ऋण का भुगतान सरलता से किया जा सकता है। कोष निर्माण दो प्रकार से किया जा सकता है—(i) सरकार की वार्षिक आय में से, (ii) नये ऋण लेकर कोष में डालने से। परन्तु नये ऋण लेकर कोष का निर्माण करना तो एक प्रकार से ऋण का रूपान्तरण करना कहा जा सकता है। अतः आजकल कोष का निर्माण सरकार अपनी वार्षिक आय में से ही करती है।

डा० डाल्टन के अनुसार परिशोधन कोष दो प्रकार के होते हैं

(i) अनिश्चित कोष (Indefinite Sinking Fund)-इसमें जमा की जाने वाली राशि अनिश्चित तथा अनियमित होती है। यदि बजट में अधिक बचत होती है तो कोष में अधिक राशि डाल दी जाती है। बचत न होने पर उस वर्ष कोष में कोई राशि नहीं डाली जाती।

(ii) निश्चित कोष (Definite Sinking Fund)-इसमें सरकार अपनी वार्षिक आय में से प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि जमा करती है।

परिशोधन कोष की स्थापना के आधारकोष की स्थापना मुख्यतः तीन आधारों पर की जाती

(i) ऋण शोधन की अवधि निश्चित करनासके अन्तर्गत ऋण के भुगतान की अवधि ऩिश्चित होती है  अवधि निश्चित अवाधि प्रायः न्यूनतम रखी जाती है। उस अवधि के आने पर ऋण का भुगतान कर दिया

(ii) पारिशोधन कोष के भगतान का वितरण-इस सम्बन्ध में भगतान की तीन विधियों को अपनाया जाता है-(क) बढ़ते हए वार्षिक भुगतान, (ख) निश्चित या समान भुगतान, (ग) घटते हुए वार्षिक भुगतान-इनमें अन्तिम विधि सबसे अच्छी मानी जाती है।

(iii) विभिन्न प्रकार के ऋणों के भगतान की व्यवस्था-सभी प्रकार के ऋण एक सी प्रकृति के हा हात। उनकी अवधि, भगतान की विधि तथा ब्याज की दर में अन्तर होता है। अतः विभिन्न ऋणों का भुगतान करने के सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि कोष का कुछ भाग विशेष ऋणों के लिए निर्धारित किया जाए तथा शेष भाग को प्रयोग करने में सरकार को स्वतन्त्र छोड़ दिया जाए।

प्रो० जे० के० मेहता के अनुसार, “परिशोधन कोष की रीति ऋण भुगतान का सर्वोत्तम तरीका है। यह एक क्रमबद्ध प्रणाली है और कोई भी इसे विशेष ऋण की आवश्यकताओं की पूर्ति में समायोजित कर सकता है।

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1 वार्षिक वृत्ति (Payment by Terminal Annuities)-यह ढंग तब अपनाया जाता है जब राज्य ऋण के बदले में एक निश्चित अवधि तक एक निर्धारित राशि का भुगतान करने का वचन देता है। इसके अन्तर्गत ऋणों की वापसी किश्तों के रूप में की जाती है। फलतः ऋण का भार प्रतिवर्ष कम होता रहता है और अवधि के समाप्त होने पर ऋण का शोधन पूरा हो चुका होता है। यह रीति सामान्यतः स्थायी एवं दीर्घकालीन ऋणों के लिए अपनाई जाती है। इस पद्धति में ऋण सरलता से अदा हो जाता है।

2.क्रमानुसार भुगतान (Payment by Serial Number) सरकार जो ऋण-पत्र निर्गमित करती है वह उसके भुगतान का एक क्रम निश्चित कर देती है। फिर इसी क्रम में ऋणों का भुगतान प्रतिवर्ष करती जाती है। ऋण-पत्रधारकों को ऋण का रुपया मिलने का समय ज्ञात रहता है।

3. लाटरी रीति (Lottery Method)-बॉण्डों का भुगतान करने के लिए लाटरी डाली जाती है। जिसकी लाटरी पहले निकलती है उसका भुगतान पहले कर दिया जाता है। इसमें ऋणदाताओं को ऋण वापसी के बारे में अनिश्चितता बनी रहती है।

4. पूँजीकर (Capital Levy)-यह कर व्यक्तियों की सम्पत्ति पर लगाया जाता है, जिसका आधार प्रगतिशील होता है। सर्वप्रथम सम्पत्ति की न्यूनतम योग्य सीमा निर्धारित कर दी जाती है और इस सीमा से ऊपर वाले प्रत्येक व्यक्ति पर बढ़ती हुई दर से करारोपण किया जाता है। रिकार्डो तथा उसके अनुयायी इस कर के प्रबल समर्थक थे। डा० डाल्टन (Dalton) ने इस कर के समर्थन में लिखा है, “ऋण को सरलतापूर्वक निपटाने हेतु पूँजी कर अनेक गुणों के कारण सबसे अच्छी नीति है।” पूँजी कर के पक्ष में तर्क

(i) भावी कर भार में कमीविशेष पूँजी कर लगाने के बाद ऋण का भुगतान सरल हो जाता है। फलतः प्रतिवर्ष ऋण के भुगतान करने के लिए कर वसूली की समस्या समाप्त हो जाती है। इस प्रकार सरकारी समस्या और जनता पर कर भार में कमी हो जाती है।

(ii) ऋण भार में कमीयुद्धकाल में ऋण लिया जाता है तो मुद्रा-प्रसार के कारण मुद्रा का मूल्य कम रहता है, परन्तु शान्तिकाल में ऋण का भार बढ़ जाता है, क्योंकि मुद्रा का मूल्य बढ़ जाता है। अतः ऋण चकाने में जितना समय कम लगेगा उतना ही ऋण का भार कम हो जायेगा।

(iii) आर्थिक असमानताओं में कमी-विशेष पूँजी कर धनी लोगों पर लगाया जाता है जिससे आर्थिक असमानताएँ कम हो जाती हैं।

(iv) त्याग की समानतायुद्धकाल में सम्पत्तिवान् लोगों को ही लाभ पहुंचता है। निर्धन लोग सेवा करते हैं और त्याग करते हैं। अतः धनी लोगों को युद्ध में लिये गये ऋण का भुगतान करना चाहिए। इससे धनी व निर्धन वर्ग के साथ त्याग में समानता आ जायेगी।

(v) न्यायसंगतयुद्धकाल में धनी वर्ग खूब लाभ कमाते हैं जिससे उनकी करदान क्षमता बढ़ जाती। यह न्यायसंगत है कि धनी वर्ग पर पूँजी कर लगाकर ऋण का भुगतान कर दिया जाए।

(vi) मूद्रास्फीति पर नियन्त्रणयह दो प्रकार से होता है। एक ओर तो सरकार धनिकों पर पूँजी लगाकर क्रय-शक्ति को चलन से बाहर खींच लेती है। दूसरे, ऋणों के भुगतान करने के लिए सरकार को नई पत्र मुद्रा निर्गमित नहीं करनी पड़ती है।

(vi) कल्याण कार्यों पर अधिक व्यय-पूँजी कर द्वारा ऋणों का भुगतान कर दिये जाने पर सरकार अपनी नियमित आय को कल्याणकारी योजनाओं पर व्यय कर सकती है।

(vii) उद्योग एवं व्यापार का विकासऋणों के भार से मुक्त हो जाने पर सरकार को उद्योग व व्यापार पर अधिक कर लगाने की आवश्यकता नहीं रहती जिससे उनका विकास सुचारू रूप से होता रहता है।

पूँजी कर के विपक्ष में तर्क

(i) कर के आवर्तन का भयडाल्टन के अनुसार, “यह कर केवल एक ही बार लगाया जाता है।” परन्तु यह विश्वास कर लेना कि यह कर दूसरी बार नहीं लगाया जायेगा, बहुत कठिन है। राज्य पुनः ऋण ले सकता है और इस कर को दोबारा लगा सकता है।

(ii) पूँजी का विदेशों में पलायनयदि यह कर बार-बार लगाया जाता है तो लोग इस कर से बचने के लिए अपनी पूँजी को विदेशों में लगाना आरम्भ कर देंगे। इस प्रकार पूँजी का विदेशों में पलायन होने लगेगा।

(iii) उत्पादन पर बरा प्रभावपँजी कर लगाने से काम करने तथा बचत करने की शक्ति पर बरा प्रभाव पड़ता है जिससे राष्ट्रीय उत्पादन घट जाता है।

 (iv) सम्पत्ति का मूल्यांकन कठिन एवं अपव्ययी-अनुभवहीन कर्मचारियों के कारण सम्पत्ति का मूल्यांकन कठिन होता है। दूसरे, यह रीति अपव्ययी है।

 (v) अन्यायपूर्णपूँजी कर न्याय की दृष्टि से उचित नहीं है, क्योंकि यह उन लोगों के साथ पक्षपात करता है जो मितव्ययितापूर्ण ढंग से रहकर बचत करते हैं, परन्तु सम्पत्ति का निर्माण नहीं करते।

(vi) पूँजी संचय पर बुरा प्रभावपूँजी कर का पूँजी के संचय पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इस भारी कर का भुगतान पूँजी में से अथवा बचत में से ही किया जा सकता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूँजी कर एक अच्छा मानसिक एवं सैद्धान्तिक व्यायाम है, परन्तु व्यवहारिकता की कसौटी पर कसने से इसमें अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। इस सम्बन्ध में कॉल्विन समिति के अनुसार, “यदि कर का यथोचित स्वागत भी किया जाए तो भी इससे ऋण मुक्ति का जो लाभ मिलेगा वह इतने बड़े, कठिन और जोखिमपूर्ण प्रयोग के अनुरूप नहीं होगा। इसके अतिरिक्त मत्सुशिता शुतारो (Matsushita Shutaro) के अनुसार, “संक्षेप में भारी पूँजी कर लगाने के परिणामस्वरूप, धोखे, असमानताएँ, व्यावसायिक विघ्न, व्यक्तिगत कठिनाइयाँ निश्चित रूप से बढ़ेंगी-अतएव पूँजी कर केवल तभी लगाना चाहिए, जबकि अत्यधिक आवश्यक हो।”

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सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव

(Economic Effects of Public Debt)

सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव ऋण की मात्रा, ऋण की प्रकृति, ऋण की अवधि, ब्याज की दर तथा भगतान की अवधि आदि बातों पर निर्भर करते हैं। सार्वजनिक ऋण देश की अर्थव्यवस्था को दो प्रकार से प्रभावित करते हैं-(i) ऋण लेते समय उनका प्रभाव करारोपण (Taxation) जैसा होता है. (i) प्राप्त ऋण राशि को व्यय करते समय उनका प्रभाव सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) के रूप में होता है। सार्वजनिक ऋण का उत्पादन, वितरण, उपभोग तथा आर्थिक क्रियाओं पर निम्न प्रभाव पड़ता है

उत्पादन पर प्रभाव (Effect on Production)

1 काम करने और बचत करने की शक्ति पर प्रभाव (Effect on the Ability to Work and Savan- यदि सरकार ऋण द्वारा प्राप्त धन को उत्पादन कार्यों पर व्यय करती है जिससे व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है तो इससे व्यक्तियों की काय करने और बचत करने की शक्ति बढ़ जाती हैं । यदि इस राशि को ऐसे मदों पर व्ययाव भी उनके कार्य करने और बचत करने का शशि को ऐसे मदों पर व्यय किया जाता है जिससे निर्धन व्यक्तियों की आय बढ़ जाती है तो विकरन आर बचत करने की शक्ति बढ़ती है। दसरे, इन उत्पादक कार्यों में लगाये गये ऋणी व्याज व मूलधन के भुगतान के लिए करारोपण की आवश्कता नहीं होती है, क्याक इन ऋणा का भुगतान उत्पादक कार्यों में होने वाले लाभ में से कर दिया जाता है।

इसके विपरीत, यदि ऋण से प्राप्त राशि को अनत्पादक कार्यों में लगाया गया है तब इन ऋणों के व्याज व मूलधन को चुकाने के लिए व्यक्तियों पर कर लगाये जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों की काम करने और बचत करने की शक्ति घट जायेगी। दसरे, यदि सरकार अपने चालू व्यय में कटौती करके ऋणों का भुगतान करती है और कटौती व्यय की उन मदों से की जाती है जिनसे उत्पादन में सहायता मिलती है तो भी इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

2. कार्य करने और बचत करने की इच्छा पर प्रभाव (Effect on the Desire to Work and Save)-सार्वजनिक ऋण के कार्य करने और बचत करने की इच्छा पर अनुकूल व प्रतिकूल दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। सरकारी ऋण बहत सरक्षित एवं सुविधाजनक होते हैं। अतः जनता सरकारी ऋण-पत्रों में रुपया लगाने के लिए धन बचाती है और आय प्राप्त करती है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण काम करने और बचत करने की इच्छा पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं, परन्तु भुगतान करते समय इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब सरकार इन ऋणों के मूलधन व ब्याज का भुगतान करने के लिए करारोपण करती है तो व्यक्तियों के काम करने व बचत करने की इच्छा हतोत्साहित होती है। दूसरे, ऋण-पत्रों धारकों को निश्चित आय प्राप्त होने लगती है जिससे उनकी काम करने की इच्छा कम हो जाती है।

3. साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव (Effect on Diversion of Resources)-सार्वजनिक ऋणों से साधनों का वर्तमान उद्योगों की ओर स्थानान्तरण हो जाता है। जब सरकार ऋण लेती है तो ऋणों से प्राप्त धन को प्रायः उन उद्योगों में लगाती है जिनमें व्यक्तियों ने धन नहीं लगाया है अथवा ऐसे उद्यमों में धन लगाती है जिनमें व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार साधनों के स्थानान्तरण से उत्पादन प्रोत्साहित होता है। इसके विपरीत, यदि सरकार ऋणों से प्राप्त धन को युद्ध-संचालन अथवा चालू व्यय घाटों की पूर्ति में व्यय करती है तो साधनों के इस प्रकार के हस्तान्तरण से उत्पादन हतोत्साहित होता है।

4. वितरण पर प्रभाव (Effect on Distribution) यदि सरकारी ऋण-पत्र केवल धनिकों द्वारा ही क्रय किये जाते हैं और प्राप्त धन को निर्धन व्यक्तियों के लाभ के लिए व्यय किया जाता है तो देश में धन के वितरण की असमानता कम होगी, परन्तु वस्त-स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत होती है। सरकारी ऋण-पत्र धनिकों द्वारा ही क्रय किये जाते हैं और उन्हें ही ब्याज के रूप में आय प्राप्त होती है, परन्तु ऋणों के भुगतान के लिए जो कर लगाया जाता है। उनका भार मूलतः निर्धन व्यक्तियों पर ही पड़ता है। इसे डाल्टन ने ऋण का वास्तविक भार (Real Burden) कहा है। दूसरे, यदि सरकार द्वारा लिये गये ऋण छोटी-छोटी बचतों के रूप में हैं जिनको मुख्यतः छोटी-छोटी आय वाले व्यक्ति ही खरीदा करते हैं तो इस प्रकार के ऋणों के ब्याज का भुगतान सामान्यतः समाज के निर्धन वर्ग के व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है। फलस्वरूप धन की असमानता कुछ कम होगी, परन्तु ऐसे ऋण-पत्रों की संख्या कुल ऋण-पत्रों की तुलना में बहुत कम होती है। अतः सम्पूर्ण रूप से सरकारी ऋण-पत्रों पर दिये जाने वाले ब्याज के भुगतानों से समाज में धन की असमानता बढ़ती है। तीसरे, यदि किसी देश में भारी मात्रा में ऋण लिये जाते हैं, विशेषकर युद्धकालीन ऋण (War-time Debts) तो एक ऐसे वर्ग का जन्म हो जाता है जो पूर्णतया अपना भरण-पोषण ऋण-पत्रों से प्राप्त होने वाले ब्याज से ही करता है। इससे भी धन की असमानता बढ़ती है।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त तीनों दशाएँ उसी समय उत्पन्न होती है जब सार्वजनिक-ऋण अनुत्पादक कार्यों में लगाया जाता है। यदि मूलतः ऋण उत्पादक कार्यों के लिए लिया जाता है या ऐसे कार्यों में लगाया जाता है जिससे निर्धन व्यक्ति ही लाभान्वित होते हैं तो धन का असमानता कुछ अंश तक कम हो जाती है।

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III. उपभोग पर प्रभाव (Effect on Consumption)

यदि लोग सरकारी प्रतिभूतियों को अपनी वर्तमान आय में से खरीदते हैं तो उनकी वर्तमान उपभोग कार्यक्षमता कम हो जायेगी। इसके विपरीत, जब लोगों द्वारा सरकारी प्रतिभूतियाँ अपनी पिछली बचतों पर खरीदी जाती है तो उनके वर्तमान उपभोग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कछ लोगों का मत है कि पड़ती है। इसलियस्तार किया जाता है. वह यह है कि भावी वर लोक/सार्वजनिक ऋण इससे उपभोग का स्तर बढ़ जाता है, क्योंकि एक तो उनका धन अति सुरक्षित प्रतिभूतिया जाता है और दूसरे उस ऋण पर एक निश्चित आय मिलने का आश्वासन हो जाता है। इससस अनावश्यक व्यय को प्रोत्साहन मिलता है, परन्त जब सार्वजनिक ऋण का भुगतान करने काला में कर लगाये जाते हैं तो जनता कर का भुगतान अपनी वर्तमान आय में से करता है। अब अपना उपभोग कम करना पड़ता है।

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प्रो० मेहता के अनुसार,जो कुछ होता है, वह यह है कि भावी वर्षों में ऋण का भुगतान हेत करारोपण का भी विस्तार किया जाता है उसके फलस्वरूप व्यक्तियों को अपने व्ययमक करनी पड़ती है। इसलिये यह कहा जाता है कि सार्वजनिक ऋण वर्तमान उपभोग में ता का नहीं करता, परन्तु भावी उपभोग में आवश्यक कटौती करता है।

1 आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर प्रभाव (Effect on the Level of Economic Activities)

सार्वजनिक ऋण देश की आर्थिक क्रियाओं और रोजगार तथा मूल्य-स्तर पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। सरकार अपने व्यय द्वारा देश के रोजगार और उद्योग में वांछनीय परिवर्तन किया है। सरकार व्यापार, उद्योग, रोजगार तथा मूल्य-स्तर को द्रव्य की मात्रा द्वारा नियामत मुद्रा-स्फीति की दशा में सरकार व्यक्तियों से ऋण लेती है, जिससे समाज में मुद्रा की चलन में मात्रा कम हो जाती है और व्यक्तियों की क्रय-शक्ति घट जाती है और मूल्य-स्तर गिर जाता हा इस सार्वजनिक ऋण मुद्रा-स्फीति को रोकने का एक प्रभावपूर्ण साधन है। _ दूसरे, जब देश में व्यापारिक मन्दी आ जाती है, मूल्य, उत्पादन एवं उपभोग-स्तर गिर जा बेरोजगारी बढ़ जाती है तथा साख संस्थाओं की स्थिति खराब हो जाती है तो सरकार अपनी प्रतिभूतिया की जमानत पर केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर उसे रेलों, सड़कों, नहरों, पुलों तथा नये-नये कारखाना पर व्यय करती है जिससे रोजगार की मात्रा बढ़ जाती है और लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ जाती है, मूल्य म वृद्धि होने लगती है और व्यापार की शिथिलता दूर हो जाती है।

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सार्वजनिक ऋण का भार

(Burden of Public Debit)

सरकार द्वारा जो ऋण लिया जाता है उसका निश्चित अवधि के पश्चात निश्चित शर्तों के अनुसार भुगतान करना पड़ता है। सरकार ऋण द्वारा प्राप्त राशि को किस उपयोग में व्यय करती है तथा ऋण का भुगतान करने हेतु समाज में कौन-से वर्ग पर करारोपण करती है, इन्हीं सब बातों से सार्वजनिक ऋण का भार निर्धारित होता है। सार्वजनिक ऋणों का भार दो प्रकार का होता है-(1) मौद्रिक भार (Monetary Burden), (2) वास्तविक भार (Real Burden)|

1 मौद्रिक भार (Money Burden)-सार्वजनिक ऋण के मौद्रिक भार से अभिप्राय उस धनराशि से है जिसे सरकार ब्याज सहित ऋणदाताओं को भुगतान करती है।

2. वास्तविक भार (Real Burden)-सार्वजनिक ऋणों का वास्तविक भार इनके उपयोग पर निर्भर करता है। वास्तविक भार भी दो प्रकार का होता है-(i) प्रत्यक्ष वास्तविक भार तथा (ii) परोक्ष वास्तविक भार।

प्रत्यक्ष वास्तविक भार (Direct Real Burden)-सार्वजनिक ऋण का प्रत्यक्ष वास्तविक भार इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार को ऋण किस वर्ग से प्राप्त हुआ है और इस ऋण का भगतान करने हेत सरकार ने किस वर्ग पर करारोपण किया है।

परोक्ष वास्तविक भार (Indirect Real Burden)-सार्वजनिक ऋण का परोक्ष वास्तविक भार ___ इस बात पर निर्भर करता है कि ऋण का भुगतान करने हेतु सरकार ने तो अतिरिक्त करारोपण किया है उसके फलस्वरूप करदाताओं को काम करने और बचत करने की इच्छा व शक्ति कहाँ तक हतोत्साहित होती है।

किसी समय विशेष पर आन्तरिक और विदेशी ऋणों में से कौन-सा ऋण कम भार स्वरूप सिद्ध हो सकता है, इस सम्बन्ध में प्रो० मेहता के अनुसार, “चूंकि आन्तरिक ऋण व्यक्तिगत उपभोग से पँजी को बाहर नहीं ले जाता, अतः आन्तरिक ऋण के पक्ष में अधिक कहा जा सकता है। यदि यह उपभोग से निमित्त पूंजी में हस्तक्षेप नहीं करता, तो इसका अर्थ है कि देश में पँजी सस्ती है। याज की दर भी नीची होनी चाहिए। अतः ब्याज की दर को ध्यान में रखना ही अधिक उपयुक्त है। यदि आन्तरिक ऋण हेतु ब्याज की दर दर अदा करनी पड़ती है तो इस दशा में विदेशी बाजा से ही ऋण लेना श्रेयस्कर हैं ।

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आन्तरिक ऋणों का मौद्रिक भार (Monertary Burden) तो नहा हाता, दश का द्रव्य देश में ही रहता है, परन्तु इन ऋणों का वास्तविक भार (Real Burden) कि इनके उपयोग पर निर्भर करता है।  परन्तु इन ऋणों का वास्तविक भार (Real Burden) अवश्य होता है, जो उपयाग पर निर्भर करता है। यदि सरकार ऋण की रकम का उपयोग उत्पादन कायों में अथवा विषमता को घटाने वाले कार्यों में करती है तो ऐसे ऋणों का वास्तविक भार बहुत कम होगा। यदि ण का राशि का उपयोग अनुत्पादक कार्यों में करती है या इनके द्वारा समाज में धन के वितरण ताहता एस ऋण का वास्तविक भार बहत अधिक होगा। अधिकाँश आन्तरिक ऋणों का पावक भार बहुत होता है, क्योंकि ये ऋण एक ओर तो धनी वर्ग से प्राप्त होते हैं और दूसरी इन ऋणा का भुगतान करने के लिए सरकार द्वारा जो करारोपण किया जाता है उसमें निर्धन वर्गको अपना अशदान करना पड़ता है। आन्तरिक ऋणों का परोक्ष वास्तविक भार भी जनता को सहन करना हता ह, क्योकि इन ऋणों के भुगतान हेत सामान्यतः सरकार अतिरिक्त करारोपण का सहारा लेती हैं जिसक फलस्वरूप जनसाधारण की काम करने व बचत करने की इच्छा व शक्ति हतोत्साहित होती है।

विदेशी ऋण का वास्तविक और मौद्रिक भार ऋणी देश के नागरिकों को सहन करना पड़ता है। इन ऋणों का प्रत्यक्ष मौद्रिक भार उस राशि से मापा जाता है जो कि ऋणी देश द्वारा ब्याज और मूलधन के रूप में ऋणदाता देश को चकानी पड़ती है। इन ऋणों का प्रत्यक्ष वास्तविक भार आर्थिक कल्याण में कमी की मात्रा से मापा जाता है अर्थात यदि इन ऋणों का अधिकाँश भुगतान धनी (या निर्धन) वर्ग करता है तो इनका वास्तविक भार कम (या अधिक) होगा। बाह्य ऋणों का परोक्ष मौद्रिक और वास्तविक भार उत्पादन की कमी से मापा जाता है, क्योंकि इन ऋणों का भुगतान करने हेतु सरकार को एक ओर अपने व्यय में कटौती करनी पड़ती है तथा दूसरी ओर जनता पर अतिरिक्त करारोपण करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उत्पादन की मात्रा घटती है। यदि विदेशी ऋण की रकम का उपयोग उत्पादक कार्यों में किया जाये तो इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष वास्तविक भार बहुत कम होता है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. सार्वजनिक ऋण के महत्त्व एवं उद्देश्यों की विवेचना कीजिये। कर की तुलना में ऋण की स्थिति स्पष्ट कीजिये।

Discuss the importance and objectives of public debt. Explain the position of debt in comparison to tax.

प्रश्न 2. सार्वजनिक ऋण क्या होता है ? व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक ऋण में क्या अन्तर है ? सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभावों की विवेचना कीजिये।

What is Public debt? What is the difference between Private and Public Debt ? Discuss the economic effects of Public debt.

प्रश्न 3. सार्वजनिक ऋण के भार का क्या अर्थ है ? क्या इस भार को भावी पीढ़ियों पर विवर्तित किया जा सकता है ?

What is the meaning of the burden of Public Debt? Can this burden be shifted onto future generations?

प्रश्न 4. सार्वजनिक ऋण के वर्गीकरण के प्रमुख आधार क्या हैं ? आन्तरिक एवं बाहा ऋणों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों?

What is the main basis of the classification of public debt? Out of internal and external debts, which one do you prefer best and why?

प्रश्न 5. सार्वजनिक ऋणभार का विवेचन कीजिये तथा अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की समीक्षा कीजिये।

Discuss the burden of Public debt and examine its effects on the economy.

प्रश्न 6. उपभोग, उत्पादन एवं आय के वितरण पर सार्वजनिक ऋण के प्रभावों की समीक्षा कीजिये।

Critically examine the effects of public debt on consumption, producto distribution of income.

प्रश्न 7. “विदेशी ऋण अमिश्रित वरदान नहीं है।” समझाइये।

“Foreign loan is not an unmixed blessing.” Explain.

प्रश्न 8. लोक ऋण की व्याख्या कीजिये और लोक ऋणों के शोधन की विधियाँ बताइये।

Explain Public Debts and mention the methods of repayment of public debts.

प्रश्न 9. सार्वजनिक ऋण के लाभ एवं हानियाँ बताइये।

State the merits and demerits of public debt.

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प्रश्न 10. सार्वजनिक ऋण क्यों लिये जाते हैं। इनके भगतान करने की विभिन्न रीतियों का संक्षेप में वर्णन कीजिये।

Why public debts are obtained ? Mention in short the various methods of repayment.

प्रश्न 11. क्या पूँजीकरण सार्वजनिक ऋण के भुगतान का एक उत्तम साधन है ? तर्क दीजिये।

Is Capital Levy the best source of repaying Public Debts ? Give arguments.

प्रश्न 12. सार्वजनिक ऋणों का वर्गीकरण स्पष्ट कीजिये। सार्वजनिक ऋण के भुगतान करने के विभिन्न तरीकों पर संक्षिप्त टिप्पणी दें।

Explain the classification of Public Debts. Write in brief on the various methods of repayment of Public Debt.

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. सार्वजनिक ऋण के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं ?

What are the main objectives of Public Debt?

प्रश्न 2. सार्वजनिक ऋण तथा निजी ऋण में अन्तर कीजिये।

Distinguish between Public Debt and Private Debt.

प्रश्न 3. सार्वजनिक ऋण तथा कर में भेद कीजिये।

Distinguish between Public Debt and Tax.

प्रश्न 4. सार्वजनिक ऋण के प्रमुख स्रोत बताइये।

Explain the main sources of Public Debt.

प्रश्न 5. बाहा ऋणों के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिये।

Give arguments in favour and against of external debts.

प्रश्न 6. ऋण के पुनर्शोधन से क्या आशय है ?

What is meant by refunding of debt?

 प्रश्न 7. ऋण परिशोधन कोष पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।

Write short notes on Sinking Fund.

प्रश्न 8. पूँजीकर के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिये।

Give arguments in favor and against of Capital Levy,

प्रश्न 9. सार्वजनिक ऋण के उत्पादन पर प्रभाव को स्पष्ट कीजिये।

Explain the effects of Public Debt on Production.

प्रश्न 10. सार्वजनिक ऋण के वास्तविक भार से क्या आशय है ?

What is meant by real burden of public debt?

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chetansati

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