BCom 2nd year Public Finance Meaning Scope Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd year Public Finance Meaning Scope Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd year Public Finance Meaning Scope Study Material Notes in Hindi:  Meaning and Definitions of Public Finance  Subject matter Scope of Public Finance Nature of Public Finance Positive Science Vs Normative Science Public Finance as a Normative Science Importance of Public Finance Objectives of Public Finance Policy Relative of Public Finance With Other Subjects  Similarities Between Public and Private Finance Difference Between Public and Private Finance Examination Questions Long Answer Question :

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लोकवित्त : अर्थ एवं क्षेत्र

[Public Finance: Meaning and Scope]

“लोकवित्त केवल सरकार के वित्त से सम्बन्धित है। सरकार के वित्त मे सरकारी धन एकत्रित करना तथा उसका वितरण करना शामिल है। यह सार्वजनिक कोष के संचालन से सम्बन्धित है। इसलिए जिस सीमा तक यह एक विज्ञान हैं, यह एक राजस्व विज्ञान है। इसकी नीतियाँ राजकोषीय हैं तथा इसकी समस्याएँ राजकोषीय समस्याएँ हैं।”

–P.F. Taylo

लोकवित्त कोई नया विषय नहीं है। इसका प्रारम्भ प्राचीनकाल में ही हो गया था, किन्तु तब इसका स्वरूप अन्य विषयों के साथ मिश्रित तथा इसकी अलग से कोई पहचान नही थी। एडम स्मिथ, रिकार्डो व जे० एस० मिल ने कर, व्यय एवं सार्वजनिक मुद्रा के विस्तृत पहलुओं की चर्चा तो की थी, किन्तु वे इसे वैज्ञानिक स्वरूप नहीं दे सके। मार्शल-एजवर्थ युग में इसे एक ठोस पहचान मिली। इस समय में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के रूप में इसकी पहचान समाप्त हो गई और यह एक विषय के रूप में उभरने लगा। बैस्टेबल, डाल्टन और पीगू आदि के द्वारा लोकवित्त विषय पर महत्वपूर्ण अध्ययन किये गये और उनका प्रकाशन हुआ। आधुनिक समय में यह विषय अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

Public Finance Meaning Scope

वर्तमान समय में सरकारी कार्यकलापों का उद्देश्य जन-कल्याण से सम्बन्धित है तथा इसके प्रमुख कार्य राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक हैं। देश को बाह्य तथा आन्तरिक सुरक्षा प्रदान करना भी इसके मुख्य कार्यों में से एक है। इन सभी कार्यों के साथ-साथ नागरिकों को न्यूनतम सुविधाएँ प्रदान करना, सामाजिक उत्थान एवं सुधार की दशाएँ उत्पन्न करना है। राज्य की आर्थिक समस्याओं को दूर करने तथा देश के आर्थिक विकास को तीव्र गति से बढ़ाने के लिए कार्य करना भी अब सरकार का दायित्व है। इन सभी कार्य कलापों के लिए सरकार को धन की आवश्यकता होती है। सरकार द्वारा धन की प्राप्ति तथा उस प्राप्त आय को विभिन्न मदों पर खर्च किया जाना लोकवित्त के अध्ययन के अन्तर्गत आता है। राज्य के निरन्तर बढ़ते कार्यों एवं जनसाधारण के प्रति उसके बढ़ते हुए उत्तरदायित्वों के कारण आज लोकवित्त की विषय सामग्री काफी जटिल, विस्तृत एवं बहु आयामी रूप धारण कर चुकी है।

Public Finance Meaning Scope

लोकवित्त (राजस्व) का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definitions of Public Finance)

लोकवित्त (Public Finance) दो शब्दों से मिलकर बना है। Public तथा Finance, यहाँ Public का अर्थ “जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएँ” तथा Finance का अर्थ आय प्राप्त करना तथा व्यय करना है। सरल शब्दों में, लोकवित्त का अर्थ सरकार की वित्त से सम्बन्धित क्रियाओं के अध्ययन से है जिसमें मुख्यतः सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण के वित्तीय प्रबन्धन को सम्मिलित किया जाता है। लोकवित्त को राजस्व के नाम से भी जाना जाता है।

लोकवित्त वह विज्ञान है जो सरकार की धन प्राप्त करने तथा धन के व्यय करने सम्बन्धी क्रियाओं का अध्ययन करता है। राजस्व की परिभाषा को तीन वर्गों में निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है

1 अत्यधिक विस्तृत परिभाषाएँ (Very Broad Definitions ) : इस वर्ग के अन्तर्गत उन अर्थशास्त्रियों की परिभाषाओं को सम्मिलित किया जाता है जिन्होंने राजस्व को बहुत ही विस्तृत रूप में। लिया। इनकी मुख्य परिभाषाएँ निम्नवत हैं

Public Finance Meaning Scope

प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार, “लोकसत्ता द्वारा साधनों की प्रप्ति तथा व्यय सम्बन्धी सिद्धान्तों। का अध्ययन ही राजस्व कहलाता है।”

डॉ० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व का सम्बन्ध लोक सत्ता के आय तथा व्यय और इनके पारस्परिक समायोजन से है।”2

सी० एफ0 बेस्टेबल के अनुसार, “राजस्व सार्वजनिक सत्ताओं के आय-व्यय, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, वित्तीय प्रशासन एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता है।”3

प्रो० एडम्स के अनुसार, “राजस्व वित्त का विज्ञान है तथा इसे सार्वजनिक आय तथा व्यय के अनुसंधान कह सकते हैं।”4

आलोचनाउपरोक्त परिभाषाओं में भौतिक एवं अभौतिक प्रकार के आय एवं व्यय को सम्मिलित किया गया है, जिस कारण इसका क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है और राजस्व एक अनिश्चित परिधि का क्षेत्र हो जाता है। इसी प्रकार लोक सत्ताओं के अन्तर्गत सार्वजनिक कम्पनियों, सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं आदि को सम्मिलित किया गया है जिससे इसका क्षेत्र अनिश्चित हो जाता है।

विस्तृत परिभाषाएँ (Broad Definitions) : इस वर्ग के अन्तर्गत वे परिभाषाएँ आती हैं जिनम केवल सरकार के ही आय एवं व्यय को शामिल किया गया है। कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

आर्मिटेज स्मिथ के अनुसार, “राजकीय व्यय और राजकीय आय के स्वभाव और सिद्धान्तों की खोज को राजस्व कहते हैं।”

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लुट्ज के अनुसार, “राजस्व उन साधनों को एकत्रित करने की व्यवस्था उनके संरक्षण तथा व्यय का अध्ययन करता है जिनकी सार्वजनिक या सरकारी कार्यों के संचालन के लिए आवश्यकता होती है।”

प्लेहन के अनुसार, “राजस्व वह विज्ञान है जो कि राजनीतिज्ञ की उन क्रियाओं का वर्णन करता है जिन्हें राजस्व के उचित कार्यों के लिए मौद्रिक साधनों को प्राप्त करने एवं प्रयोग करने में उपयोग किया जाता है।”7

श्रीमति उर्सला हिक्स के अनुसार, “राजस्व में उन विधियों की जाँच और मूल्यांकन किया जाता जिनके द्वारा सरकार जनता को अत्यधिक सन्तुष्टि प्रदान करती है और उसके हितार्थ आवर एकत्रित करती है।”

टेलर के अनुसार, “सरकारी संस्था के अन्तर्गत संगठित रूप में जनता का वित्त का व्यवहार ही राजस्व है। इसमें केवल सरकारी वित्त का अध्ययन किया जाता है।” ।

आलोचनाइन परिभाषाओं में केवल राज्य की आय एवं व्यय को सम्मिलित किया गया है, इसलिए ये परिभाषाएँ संकीर्ण हैं। इन परिभाषाओं में आय तथा व्यय का अर्थ तथा स्वरूप निश्चित नहीं किया गया है, इसलिए लोकवित्त के क्षेत्र में अनिश्चितता उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में राजस्व एक । अनिश्चित क्षेत्र वाला अध्ययन बन जाता है।

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संकीर्ण परिभाषाएँ (Narrow Definitions)

इस क्षेत्र के अन्तर्गत उन परिभाषाओं को लिया गया है जिनमें राजस्व के क्षेत्र को सीमित कर दिया गया है। इसमें प्रो० मेहता तथा अग्रवाल की परिभाषा मुख्य हैं।

मेहता एवं अग्रवाल के अनुसार, “राजस्व में राज्य के मौद्रिक एवं साख साधनों के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।”2

टेलर के अनुसार, “एक संगठित समूह के रूप में सरकार की संस्था के अन्तर्गत लोक वित्त, जनता के वित्त से सम्बन्धित होता है। सरकार के वित्त में सरकारी कोषों को जुटाना तथा व्यय करना सम्मिलित होता है।”

आलोचनाउपर्युक्त परिभाषाएँ अत्यधिक संकुचित हैं, क्योंकि इनके अनुसार लोकवित्त राज्य की केवल मौद्रिक आय तथा मौद्रिक व्यय का ही अध्ययन करता है।

एक उपयुक्त परिभाषा-“लोक वित्त वह विज्ञान है जो सार्वजनिक आयव्यय, ऋण तथा वित्तीय प्रशासन के मूल सिद्धान्तों का तथा राज्य की तत्सम्बन्धी क्रियाओं का समाज और अर्थव्यवस्था पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है।

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लोकवित्त (राजस्व) की विषय सामग्री/क्षेत्र

(Subject Matter/Scope of Public Finance)

लोकवित्त (राजस्व) की विषय सामग्री सरकार के समस्त धन से सम्बन्धित है, जिसमें सरकार के समस्त आय एवं व्यय का अध्ययन किया जाता है। राजस्व का क्षेत्र बहुत विस्तृत है अतः अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से राजस्व को निम्नलिखित पाँच भागों में बाँटा जा सकता है

लोकवित्त (राजस्व) की विषय सामग्री

सार्वजनिक व्यय      सार्वजनिक आय       सार्वजनिक ऋण         वित्तीय प्रशासन       राजकोषीय नीति

1 सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)-जिस प्रकार उपभोग अर्थशास्त्र का एक विभाग है। ठीक उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय राजस्व का विभाग है। सरकार अपने कार्यों को पूरा करने के लिए जो धन व्यय करती है उसे सार्वजनिक व्यय कहा जाता है। सरकार व्यय करने की योजना पहले बनाती है फिर उसके अनुसार आय का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। सार्वजनिक व्यय के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके अनुसार सरकार व्यय करती है। इसके अतिरिक्त इसके प्रभावों का भा अध्ययन किया जाता है। सार्वजनिक व्यय का आर्थिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः सार्वजनिक व्यय एवं उसके आर्थिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन भी इसके अन्तर्गत किया जाता है।

2. सार्वजनिक आय (Public Revenue)-सार्वजनिक व्यय की पूर्ति हेतु सरकार को आय की आवश्यकता होती है। सार्वजनिक आय के अन्तर्गत आय के प्रमुख स्रोतों, इसके विभिन्न सिद्धान्तों तथा इसके एकत्रीकरण में आने वाली समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। सार्वजनिक आय के मुख्य स्रोत कर हैं। अतः इसके अन्तर्गत करों के प्रकार, करारोपण के सिद्धान्त, कर देय क्षमता, कर भार एवं विवर्तन का अध्ययन किया जाता है। सार्वजनिक आय का देश के उत्पादन, वितरण आदि पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी इसके अन्तर्गत किया जाता है।

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3. सार्वजनिक ऋण (Public Debt)-यदि सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति सार्वजनिक आय से नहीं हो पाती तो इसकी पूर्ति के लिए सरकार को ऋण लेने की आवश्यकता होती है। वर्तमान में राज्य के कार्यों में वृद्धि होने से सार्वजनिक आय की तुलना में सरकार को अधिक व्यय करना पड़ता है, इसलिए ऋण लेने की सरकार की तीव्रता और भी अधिक बढ़ गई है। ऋण आन्तरिक एवं बाह्य (विदेशों से) दोनों प्रकार के हो सकते हैं। साधारण ऋण की तरह ही इस पर भी ब्याज लगता है जिसका भुगतान सरकार को करना होता है। सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत ऋण के स्रोतों, इसके सिद्धान्तों, ऋण के भूगतान, इनके प्रभाव तथा भारों का अध्ययन किया जाता है।

4. वित्तीय प्रशासन (Financial Administration)-राजस्व की सार्वजनिक आय, व्यय एवं ऋणों की व्यवस्था के लिए एक प्रशासन तन्त्र की आवश्यकता होती है। सरकारी लेखे-जोखे की देखभाल, बजट का निर्माण एवं उसका प्रकाशन इसी में सम्मिलित किये जाते हैं। प्रो० बेस्टेबल के अनुसार, “कोई भी वित्त की पुस्तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन एवं बजट की समस्याओं का अध्ययन न करे।”

5. राजकोषीय नीति/आर्थिक स्थिरता (Fiscal Policy/Economic Stability)-राजकोषीय नीति का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। राजकोषीय नीति का मुख्य कार्य अर्थव्यवस्था में सन्तुलन बनाये रखना है। इस नीति से देश के अन्दर उत्पादन से सम्बन्धित क्रियाओं का नियमन होता हैं। इस नीति का मुख्य कार्य वितरण को न्यायपूर्ण बनाना है और मूल्यों को स्थिरता प्रदान करना है। इसमें देश में आर्थिक स्थायित्व लाने हेतु राजकोषीय नीति के प्रयोगों का अध्ययन किया जाता है।

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लोकवित्त (राजस्व) की प्रकृति

(Nature of Public Finance)

राजस्व विज्ञान है अथवा कला अथवा दोनों, इस सम्बन्ध में राजस्वविदों में मतभेद है। इसीलिए राजस्व की प्रकृति को जानने से पहले विज्ञान एवं कला का अर्थ समझना आवश्यक है।

विज्ञान का अर्थविज्ञान ज्ञान का क्रमबद्ध अध्ययन है, जोकि कार्य या कार्यों के कारण एवं परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को बताता है, किन्तु केवल तथ्यों को एकत्रित करना ही विज्ञान नहीं है। “विज्ञान तथ्यों से इस प्रकार बना है जिस प्रकार पत्थरों से एक मकान बनाया जाता है।” एक भौतिक शास्त्री ने विज्ञान की परिभाषा इस प्रकार दी है, “विज्ञान किसी वस्तु के पूर्ण ज्ञान को आँकता है और उसका आधार सतर्क प्रयोग, ध्यानपूर्वक निरीक्षण और ठीक-ठाक विज्ञान के लिए तथ्यों को क्रमबद्ध रूप में एकत्रित करना और उनका वर्गीकरण एवं विश्लेषण करना आवश्यक है।

विज्ञान दो प्रकार का होता है

(1) वास्तविक विज्ञान (Positive Science)-वास्तविक विज्ञान किसी कार्य के कारण एवं परिणाम के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। यह ‘क्या है?’ (What is ?) प्रश्न का उत्तर देता है, किन्तु ‘क्या होना चाहिए ?’ प्रश्न से कोई सम्बन्ध नहीं रखता।

(2) आदर्श विज्ञान (Normative Science)-विज्ञान का आदर्शात्मक पहलू, ‘क्या होना चाहिए ?’ प्रश्न का उत्तर देता है। यह केवल तथ्यों का यथावत् वर्णन ही नहीं करता, वरन् यह भी बताता है कि क्या होना चाहिए ? यह सम्बन्धित विषय की अच्छाई और बुराई की विवेचना करता है तथा एक आदर्श हमारे सामने रखता है। यह मानवीय व्यवहार के आदर्श निर्धारित करता है तथा वांछनीयता व। अवांछनीयता की ओर संकेत करता है।

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राजस्व विज्ञान हैराजस्व एक विज्ञान है, क्योंकि

(i) यह सम्पूर्ण मानव विज्ञान का अध्ययन नहीं करता, अपितु मानव ज्ञान के सीमित व निश्चित क्षेत्र का ही अध्ययन करता है।

(ii) इसमें सिद्धान्तों एवं तथ्यों का अध्ययन नियमित रूप से किया जाता है। अनेक नियम केवल इसी विज्ञान में लागू होते हैं।

(iii) राजस्व के अध्ययन तथा खोज में वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन किया जाता है।

(iv) राजस्व में कुछ तथ्यों की स्पष्ट व्याख्या की जा सकती है तथा उनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

एक वैज्ञानिक की भाँति समाज के प्रति अर्थशास्त्री के भी दो प्रकार के दायित्व हैं

प्रथम, वह आर्थिक पद्धति का विश्लेषण करे और उसके आधार पर निकाले गये तथ्यों को समाज के सम्मुख रखे।

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द्वितीय, उस विश्लेषण के आधार पर वह अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए सलाह दे सके। उदाहरण के लिए, कर लगाते समय राज्य अधिकारी को यह देखना होगा कि कर का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह विश्लेषण वास्तविक विज्ञान से सम्बन्धित है, परन्तु करारोपण की कौन-सी नीति सर्वोत्तम है, यह बताना भी अर्थशास्त्री का कार्य है और करारोपण का विश्लेषण प्रथम लक्ष्य की प्राप्ति मात्र है। अतः राजस्व एक आदर्श विज्ञान भी है।

राजस्व आश्रित विज्ञान हैराजस्व एक स्वतन्त्र प्रकृति का विज्ञान नहीं है, यह एक आश्रित विज्ञान है तथा अपनी विषय सामग्री के अध्य्यन के लिए बहुत सीमा तक अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र पर निर्भर है। डाल्टन के अनुसार, “राजस्व उन विषयों में से एक है जो अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की सीमा पंक्ति पर स्थित है।

अर्थ-कला से अभिप्राय किसी भी कार्य को करने के सर्वोत्तम ढंग से है। कासो (Caso) के अनुसार, “विज्ञान जानने के सम्बन्ध में बताता है, कला करने के सम्बन्ध में बताती है। विज्ञान व्याख्या तथा खोज करता है, कला निर्देशन करती है, व्यावहारिकता की ओर ले जाती है या नियमों को प्रस्तावित करती है।” कीन्स (Keynes) के अनुसार, “कला एक दिए हुए उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नियमों की एक प्रणाली है।” दूसरे शब्दों में विज्ञान के सिद्धान्तों का क्रियान्वयन ही कला है।

राजस्व कला हैराजस्व विज्ञान होने के साथ-साथ कला भी है। आय प्राप्त करने की दृष्टि से वित्तमन्त्री कर लगाता है, यह वास्तविक विज्ञान के अध्ययन का विषय है। कर लगाते समय वित्तमन्त्री को यह ध्यान में रखना पड़ता है कि करारोपण से जनता को कम कष्ट हो और राज्य को अधिक से अधिक आय प्राप्त हो, यह आदर्श विज्ञान के अध्ययन का विषय है। जब राज्य प्राप्त आय को अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से व्यय करना चाहता है तो यह कला के अध्ययन का विषय हो जाता है। बजट निर्माण स्वयं एक कला है। श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, “राजस्व एक कला है। इसका सम्बन्ध वास्तविक समस्याओं से है।” “Public finance is an art, it is concerned with actual problems.”

संक्षेप में, राजस्व कला और विज्ञान दोनों है। राजस्व में आय जुटाने तथा व्यय के सिद्धान्तों का अध्ययन विज्ञान का पक्ष धारण करता है। जब इन सिद्धान्तों तथा नीतियों को सरकार द्वारा वित्तीय समस्याओं को हल करने में प्रयुक्त किया जाता है, तब वह कला का रूप धारण कर लेता हैं ।

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लोकवित्त (राजस्व) की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न विचारधाराएँ

राजस्व की प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक विचारधाराएँ प्रचलित हैं

(1) राजस्व का विशुद्ध सिद्धान्त (Pure Theory of Public Finance)-सैलिगमैन द्वारा समर्थित यह सिद्धान्त सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण का वस्तुगत ढंग से अध्ययन करता है जिसका सामाजिक कल्याण से कोई सम्बन्ध नहीं है।

(2) राजस्व का सामाजिक राजनीतिक सिद्धान्त (Socio-political Theory of Public Finance)-वैगनर तथा पीग द्वारा समर्थित राजस्व का सिद्धान्त राजकोषीय नीतियों द्वारा समाज का अधिकतम कल्याण करने पर बल देता है।

(3) नये अर्थशास्त्र का सिद्धान्त (Theory of New Economics)-कीन्स द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त का उद्देश्य राजकोषीय नीतियों द्वारा उपभोग के एक स्तर को बनाये रखना है जिससे अर्थव्यवस्था को कीमतों के उतार-चढ़ाव से बचाया जा सके।

(4) कार्यात्मक वित्त का सिद्धान्त (Theory of Functional Finance)-प्रो० लर्नर द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार राजस्व का कार्य आय और रोजगार स्तर को बढ़ाना है और आर्थिक स्थिरता को बनाये रखना है।

(5) कार्यशील वित्त का सिद्धान्त (Theory of Activating Finance)-यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि राष्ट्रीय आय बचत और निवेश का परिणाम होती है तथा लोगों की निर्धनता का कारण राष्ट्रीय आय का कम होना है। राष्ट्रीय आय को बढ़ाने के लिए साधनों का अनुकूलतम बँटवारा आवश्यक है। राष्ट्रीय उपायों की सहायता से उन्हें सर्वोत्तम ढ़ग से उपयोग किया जाना चाहिए।

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राजस्व : वास्तविक विज्ञान बनाम आदर्श विज्ञान

(Public Finance : Positive Science Vs. Normative Science)

परम्परावादी अर्थशास्त्री पूँजीवादी ‘अबन्ध नीति’ के कट्टर समर्थक थे। स्मिथ की पुस्तक ‘Wealth of Nations’ में यह स्पष्ट था कि पूँजीवाद स्वतन्त्र बाजार व्यवस्था पर आधारित है। वे आर्थिक एवं व्यावसायिक क्रियाओं में सामन्तवाद, वणिकवाद अथवा अन्य किसी भी प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी थे और बाजार के स्वतन्त्र व्यवहार पर किसी प्रकार की बाधा को पसन्द नहीं करते थे। उनका तर्क था कि अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इस दृष्टि से पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए कि वह अपने निजी लाभ को अधिकतम करने के लिए अपना मार्ग स्वयं चुने। परम्परावादी अर्थशास्त्रियों का अदृश्य मूल्य यन्त्र, लाभ-उद्देश्य, स्वतन्त्र एवं पूर्व प्रतिस्पर्धा आदि में अटूट विश्वास था। उनके अनुसार, निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक कार्य कुशल हैं इसलिए राज्य को आर्थिक क्रियाओं में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए और इसलिए बजट भी न्यूनतम होना चाहिए।

इस प्रकार प्रारम्भ में राजस्व का सम्बन्ध केवल इस बात से था कि कोषागार किस प्रकार निजी क्षेत्र की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करता है और किस प्रकार इस हस्तक्षेप को न्यूनतम रखा जा सकता है इसीलिए राजस्व को सरकारी आय-व्यय के रूप में परिभाषित किया गया। अधिकांश प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने वित्त की विषय सामग्री को आगम, व्यय एवं ऋण में विभक्त किया। इनमें भी एडम स्मिथ ने सार्वजनिक व्यय और रिकार्डो जे० एस० मिल ने सार्वजनिक आगम पर अपने अध्ययन को केन्द्रित रखा। उनका तर्क था कि सरल व विशुद्ध राजकोषीय समस्या को सामाजिक व आर्थिक नीतियों के साथ सम्बद्ध नहीं किया जाना चाहिए। एक वास्तविक विज्ञान के रूप में राजस्व का सम्बन्ध सार्वजनिक आगम के स्रोत, सार्वजनिक व्यय के भेद, बजट के अंग ओर राजकोषीय क्रियाओं के प्रभावी भार से है।

अधिकांश नवप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अध्ययन में राजस्व का विषय उपेक्षित ही रहा। सर्वप्रथम ‘बैस्टेबल ने राजस्व का एक अलग विषय के रूप में अध्ययन किया, लेकिन उनका भी तर्क यही था कि सरकार को बाजार तन्त्र के कार्यकरण में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। राज्य को निम्नलिखित कार्य सम्पादित करने चाहिएँ

(1) समाज में शान्ति एवं कानून की व्यवस्था तथा आन्तरिक संघर्षों से नागरिकों की सुरक्षा।

(2) देश की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा।

(3) आर्थिक विकास के लिए त्वरित कार्यवाही। सरकार का दायित्व है कि वह सामाजिक सुधारों के द्वारा देश को जड़ता (stagnation) से बाहर निकाले। इसके लिए वह सार्वजनिक निर्माण कार्यों में विनियोग करे, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का सन्तुलित विकास करे और इसके लिए अर्थव्यवस्था का विनियमन करे, वस्तुओं के उत्पादन, उपभोग एवं वितरण पर आवश्यक नियन्त्रण लगाए। ये नियन्त्रण। मौद्रिक एवं राजकोषीय उपायों द्वारा लगाये जा सकते हैं।

राजस्व, राज्य वित्त से सम्बन्धित है। राज्य वित्त का सम्बन्ध राजकोषों के वितरण से है। इस। सीमा तक यह विज्ञान है, यह राजकोषीय विज्ञान है, इसकी नीतियाँ राजकोषीय नीतियाँ हैं और इसकी समस्याएँ राजकोषीय समस्याएँ हैं। इस रूप में राजस्व केवल वास्तविक विज्ञान (Positive Science) है।। एक वास्तविक विज्ञान के रूप में, इसका सम्बन्ध इस बात की व्याख्या करने से है कि सार्वजनिक संस्थाएं

लोकवित्त : अर्थ एवं क्षेत्र किस प्रकार आय एकत्रित करती हैं, किस प्रकार व्यय करती हैं और किस प्रकार आय-व्यय की व्यवस्था करती हैं। एक वास्तविक विज्ञान के रूप में राजस्व का सम्बन्ध इस बात से नहीं होता कि बजट नीतियों के गणों का आँकलन करने के लिए किस मानदण्ड को अपनाया जाए, विभिन्न राजकोषीय परिवर्तनों पर निजी क्षेत्र की क्या प्रतिक्रिया होगी, वे कौन-कौन सी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियाँ हैं जो क्षतिपूरक वित्तीय क्रियाओं को प्रभावित करेंगी?

स्पष्ट है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने राजस्व को केवल वास्तविक विज्ञान मानाः राजकोषीय क्रियाओं के ‘आदर्श पक्ष’ (Normative aspect) से इसका कोई सम्बन्ध नहीं था।

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राजस्व एक आदर्श विज्ञान के रूप में

(Public Finance as a Normative Science)

तीसा की महानमन्दी (The Great Depression of 30′s) ने जे० बी० से0 के बाजार नियम को. जिस पर सम्पूर्ण प्रतिष्ठित विश्लेषण आधारित था, झुठला दिया, क्योंकि इस अवधि में अति उत्पादन एवं सामान्य बेरोजगारी की समस्याएँ भयावह हो गई थीं। अबन्ध नीति माँग और पूर्ति की शक्तियों में सन्तुलन स्थापित नहीं कर सकी और अर्थव्यवस्था में प्रभावी माँग को बढ़ाने के लिए सरकारी हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया। इस समस्या के समाधान के लिए कीन्स ने ‘सार्वजनिक निवेश’ (Public investment) पर बल दिया और सार्वजनिक विनियोगों के लिए सरकार द्वारा नई मुद्रा के सृजन का सुझाव दिया, ताकि देश में रोजगार की वृद्धि की जा सके। 1936 तक आर्थिक क्रियाओं के स्तर को ऊपर उठाने और रोजगार के स्तर को बढ़ाने में राजकोषीय उपाय राजकीय नीति के आवश्यक अंग बन गये और इस प्रकार इस दशक व बाद के अर्थशास्त्रियों ने राजस्व को आदर्श विज्ञान’ के रूप में स्वीकार कर लिया। प्रो० मसग्रेव ने स्पष्ट किया कि आय-व्यय प्रवाह का सम्बन्ध केवल मुद्रा अथवा पूँजी बाजार की तरलता से नहीं है, अपितु इसका सम्बन्ध साधनों के आबंटन, आय के वितरण, पूर्ण रोजगार, मूल्य स्थिरता एवं विकास से भी है। अतः राजकोषीय कार्यवाहियों का प्रमुख उद्देश्य साधनों का विवेकपूर्ण आबंटन, आय का समान वितरण, पूर्ण रोजगार एवं स्थिरता के साथ आर्थिक विकास होना चाहिए। ये सभी राजस्व के विषय हैं।

अतः वर्तमान समय में राजस्व की विषय सामग्री के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यों को भी सम्मिलित किया गया है

(1) आबंटन कार्य (Allocation Function)-यद्यपि यह माना जाता है कि बाजार में मूल्य यन्त्र साधनों का अनुकूलतम आबंटन कर देता है, किन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि बाजार शक्तियाँ साधनों का अनकलतम आबंटन नहीं कर पातीं। यहाँ यह समस्या उत्पन्न हो जाती है कि सार्वजनिक नीति किस प्रकार साधनों का अधिक कुशल बँटवारा करे। ऐसा राजकोषीय नीति (बजट नीति) द्वारा किया जाता है। यह नीति सार्वजनिक आवश्यकताओं’ (Public goods) के सम्बन्ध में विशेष रूप से लागू होती है।

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(2) वितरण कार्य (Distribution Function)-पूँजीवादी प्रणाली में अनेक संस्थागत घटकों के प्रभाव के कारण आर्थिक विषमताएँ बढ़ जाती हैं। आय और सम्पत्ति के वितरण में इस प्रकार समायोजन, कि समाज की दृष्टि से वह उचित एवं न्यायपूर्ण हो, वितरण कार्य कहलाता है। वितरण कार्य बजट पद्धति का महत्वपूर्ण अंग है। वितरण न्यायपूर्ण होना चाहिए, यह बात आज सभी अर्थशास्त्रियों द्वारा स्वीकार की जाती है।

(3) स्थिरीकरण कार्य (Stabilisation Function)-इस कार्य का सम्बन्ध साधनों के उपयोग को ऊँचे स्तर पर बनाये रखने, पूर्ण रोजगार प्राप्त करने और मुद्रा के मूल्य को स्थिर बनाए रखने से है। स्थिरीकरण के लिए राजकोषीय नीति आवश्यक है, क्योंकि पूर्ण रोजगार तथा कीमत स्थिरता बाजार अर्थव्यवस्था में स्वतः नहीं आती। इसके लिए क्षतिपूरक उपाय अपनाये जाने चाहिए, ताकि रोजगार के ऊँचे स्तर को बनाए रखा जा सके।

(4) आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय (Economic Growth and Social Justice)-विकासशील देशों की महत्वपूर्ण समस्या ‘न्याय के साथ आर्थिक विकास’ (Growth with Social Justice) की है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राजकोषीय उपायों का सहारा लिया जाता है।

इस प्रकार राजस्व एक आदर्श विज्ञान है। सभी राजकोषीय क्रियाओं के लिए मानक (Norms ori Standards) निर्धारित किये जाते हैं और उनका मूल्याँकन किया जाता है। राजकोषीय क्रियाएँ सामान्य आर्थिक कल्याण में वृद्धि का एक सशक्त माध्यम है। इनमें मूल्य निर्माण (Value Judgments) महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

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राजस्व का महत्त्व

(Importance of Public Finance)

वर्तमान समय में सार्वजनिक वित्त अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। प्राचीन अर्थशास्त्री निर्बाधावादी नीति (Laissez Faire Policy) के समर्थक थे। उनके अनुसार राज्य का कार्य क्षेत्र केवल सुरक्षा, न्याय व व्यवस्था स्थापित करना था। 19वीं शताब्दी के अन्त में जर्मन अर्थशास्त्री वैगनर (Wagner) ने राज्य में बढ़ती हुई क्रियाओं का नियम प्रतिपादित किया था जिससे राज्य के कार्यों में निरन्तर वृद्धि होती चली गई। अनेक समाजवादी अर्थशास्त्रियों (जैसेरोबर्ट ओवन, जे० एस० मिल, सिसमाँडी आदि) ने अबन्ध नीति की आलोचना करते हए सरकारी हस्तक्षेप की वकालत की और का मार्क्स, रोडबर्टस, लास्की, शॉ आदि ने श्रमिक वर्ग को पूँजीपतियों के शोषण से बचाने के लिए उत्पत्ति के साधनों के समाजीकरण का सुझाव दिया। 1930 की महान मन्दी (The Great Depression) तथा कीन्स के रोजगार के सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन तो अबन्ध नीति के लिए मौत की घण्टी ही बन गया।

आधुनिक अर्थव्यवस्था में राजस्व का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट है

(1) राज्य के बढ़ते हुए कार्य-आधुनिक समय में यह स्वीकार किया जाने लगा है कि राज्य का उद्देश्य सम्पूर्ण समाज के कल्याण में अधिक से अधिक वृद्धि करना है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह चिकित्सा सुविधाओं, शिक्षा, निर्धनों को आर्थिक सहायता व स्वास्थ्य, रक्षा तथा अनेक जनोपयोगी सेवाओं (जैसे-रेल सड़क, बिजली पानी आदि) की व्यवस्था करता है, आय के वितरण में पाई जाने वाली विषमताओं को कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाता है, आवश्यकता पड़ने पर वस्तुओं के उत्पादन, वितरण व कीमत को नियन्त्रित करता है और व्यापार-चक्रों से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए यथोचित कार्य करता है। इसके अतिरिक्त देश के आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए, रोजगार का एक स्थिर एवं व्यापक स्तर बनाए रखने के लिए और विकास योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए राज्य प्रयत्नशील रहता है।

इन बढ़े हुए कार्यों को पूरा करने के लिए राज्य को अपना व्यय बढ़ाना होता है और इसके लिए उसे विभिन्न स्रोतों से आय प्राप्त करनी होती है। इस प्रकार राज्य के निरन्तर बढ़ते हुए उत्तरदायित्वों के साथ-साथ आजकल राजस्व के अध्ययन का महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है।।

(2) राजकोषीय कार्यवाहियों के प्रभावए०पी० लर्नर के अनुसार, सार्वजनिक वित्त के उपायों का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक जीवन को वांछित तरीकों से एक निश्चित ढाँचे में ढालना है। राजकोषीय नीति के द्वारा निम्न उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है

() रोजगार का उच्च स्तरकीन्स के अनुसार बेरोजगारी का प्रमुख कारण कुल प्रभावी माँग (Effective Demand) में कमी होना है। सार्वजनिक वित्तीय नीति के द्वारा सरकारी व्यय को बढ़ाकर तथा करारोपण को कम करके प्रभावी माँग में वृद्धि की जा सकती है। सार्वजनिक निर्माण कार्यों को प्रारम्भ करके, उद्योग धन्धों को आर्थिक सहायता देकर व निर्धनों को अनेक प्रकार की वित्तीय सहायता देकर प्रभावी माँग को बढ़ाया जा सकता है और इस प्रकार रोजगार के उच्च स्तर को प्राप्त किया जा सकता है।

Public Finance Meaning Scope

() आर्थिक विकासराजकोषीय नीति के द्वारा आर्थिक विकास की दर को निम्न प्रकार बढ़ाया जा सकता है

(i) उत्पादन में वृद्धिसरकार द्वारा उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है, करों में छूट देकर नये उद्योगों को संरक्षण दिया जा सकता है, निर्यातक उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर निर्यातों में वृद्धि की जा सकती है। इस प्रकार राजकोषीय नीति उत्पादन वृद्धि में सहायक होती है जिससे देश के आर्थिक विकास को प्रोत्साहन मिलता है।

(ii) पूँजी निर्माण की दर में वृद्धिपूँजी निर्माण की दर देश में लोगों की बचत करने की शक्ति पर निर्भर करती है। सरकार दिखावटी उपभोग व विलासिता की वस्तुओं पर कर लगाकर बचत को पोत्साहित कर सकती है और इस प्रकार विकास कार्यों के लिए धन जटा सकती है।

(iii) कीमतों में स्थायित्व-आन्तरिक कीमतों में उच्चावचन आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं का प्रमुख लक्षण है। सरकार राजवित्त की नीति के द्वारा कीमतों के उतार-चढ़ाव को रोकने का प्रयत्न करती है। तेजी काल में जब कीमतें ऊपर चढ़ रही होती हैं, अधिक कर लगाकर अथवा ऋण लेकर समाज में क्रय शक्ति को कम कर दिया जाता है और इस प्रकार कीमतों में वृद्धि को रोकने का प्रयत्न किया जाता है। मन्दी के समय सरकार राजकीय व्यय में वृद्धि करके, प्रत्यक्ष रूप से लोगों को आर्थिक सहायता देकर तथा उत्पादन क्षेत्रों में स्वयं निवेश करके प्रभावी माँग (Effective Demand) को बढ़ाती है जिससे लोगों की क्रयशक्ति में वृद्धि होती है और कीमतों का गिरना रुक जाता है।

(iv) आय और धन के वितरण की विषमताओं को कम करना-सरकार प्रगतिशील प्रत्यक्ष करों (Progressive direct taxation) द्वारा धनवानों से क्रयशक्ति लेकर और उसे निर्धनों पर व्यय करके (Progressive expenditure) आय और धन के विषम वितरण को कम कर सकती है।

(v) अवांछनीय वस्तुओं के उपभोग पर रोक-सरकार मादक व नशीली वस्तुओं पर भारी कर लगाकर उनके उत्पादन और उपभोग में कमी कर सकती है और उनके स्थान पर कार्यक्षमता व स्वास्थ्यवर्द्धक वस्तुओं के उत्पादन व उपभोग को प्रोत्साहित कर सकती है। इससे देश का अधिकतम कल्याण सम्भव होता है। इसीलिए जे०सी० कुमारप्पा के अनुसार, “सरकारी विभागों में राष्ट्र के कल्याण से अन्य किसी का इतना गहरा सम्बन्ध नहीं है जितना कि सार्वजनिक वित्त का है।”

Public Finance Meaning Scope

एक विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति की भूमिका

(Role of Public Finance Policy in a Developing Economy)

श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, “इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि किसी राष्ट्र का चिर कल्याण जितना उसके कारीगरों की प्रवीणता व श्रमशीलता और उसके सैनिको पर निर्भर करता है, वह सार्वजनिक वित्त सम्बन्धी प्रश्नों के सफल समाधान पर भी निर्भर है।”

लोक वित्त नीति (Public Finance Policy)- लोकवित्त नीति से अभिप्राय एक ऐसी नीति से है जिसके द्वारा सरकार किसी विशेष उद्देश्य; जैसे-कीमतों में स्थायित्व लाना, आर्थिक विकास एवं पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को प्राप्त करना, कर संरचना, लोक व्यय तथा लोक ऋण का निर्धारण करती है। श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, राजकोषीय नीति का सम्बन्ध उस पद्धति से हैं, जिसमें लोकवित्त के विभिन्न अंग अपने प्राथमिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए (जैसे कर का प्रथम कर्त्तव्य धन का चुराना है) सामूहिक रूप से आर्थिक नीति के उद्देश्यों का बढ़ाने के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। संक्षेप में राजकोषीय नीति से आशय सरकार के व्यय, करों तथा ऋण सम्बन्धी क्रियाओं से है तथा इसका सम्बन्ध सरकारी कर तथा व्यय नीति के निर्धारण से है। इसे लोकवित्त नीति भी कहते हैं।

लोकवित्त (राजस्व) नीति के उद्देश्य

(Objectives of Public Finance Policy)

प्रो० मसग्रेव (Prof. Musgrave) के अनुसार, “राजस्व नीति का उद्देश्य उच्च रोजगार, कीमत स्थायित्व का उचित स्तर, विदेशी खातों में सन्तुलन तथा आर्थिक विकास की दर प्राप्त करना अथवा बनाए रखना होता है।” ए० पी० लर्नर के अनुसार, “लोकवित्त के उपायों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक जीवन को वांछित तरीकों से एक निश्चित ढाँचे में ढालना है।” राजस्व नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित

() आर्थिक विकास के लिए साधन जुटाना।

() साधनों का आबंटन करना।

() उत्पादन, रोजगार व कीमतों को प्रभावित करना।

() आय व सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं को दूर करना।

आर्थिक विकास के लिए साधन जुटाना (Mobilization of Resources for Development)-विकसित एवं अल्पविकसित राष्टों में राजस्व के उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। विकसित देशों की प्रमुख समस्या आर्थिक स्थायित्व की होती है, जबकि अल्पविकसित देशों की प्रमुख समस्या उनके आर्थिक विकास की होती है। अल्पविकसित देशों में साधनों की दुलर्भता, पूँजी निर्माण एवं विनियोग के अभाव की समस्या पाई जाती है। इन देशों में राजस्व का कार्य पूँजी निर्माण एवं पूँजी की गति को बढ़ाने में सहायता करना होता है अर्थात् इन देशों में सरकार का मुख्य कार्य बचत तथा निवेशों को प्रोत्साहन देना होता है। गन्नार मिर्डल के अनसार, अल्पविकसित देशों में लोकवित्त इन देशों के आर्थिक विकास के लिए एक उपयुक्त उपकरण है।

अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास को राजस्व नीति द्वारा निम्न प्रकार प्रोत्साहित किया जा सकता है

1 पूँजी निर्माण को प्रोत्साहित करनाअल्पविकसित अर्थव्यवस्था पूँजी की दृष्टि से निर्धन होती है। इस कारण पूँजी का अभाव इन देशों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण आय का अधिकांश भाग उपभोग पर व्यय कर दिया जाता है। अतः घरेलू बचत एवं विनियोग बहुत कम होते हैं। पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि करके ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। रागनर नर्से के अनुसार, “मेरा विश्वास है कि अर्द्धविकसित देशों की पूँजी निर्माण की समस्या के समाधान में राजस्व को नई महत्ता प्राप्त हुई है। करारोपण द्वारा वर्तमान उपभोग को कम करके बचतों में वृद्धि की जा सकती है जिससे अधिक मात्रा में पूँजी निर्माण हो सके, परन्तु करारोपण द्वारा निजी बचतें हतोत्साहित नहीं होनी चाहिएँ। पूँजी निर्माण की दर को बढ़ाने के लिए सरकार निम्नलिखित कदम उठाती है

(i) सरकार द्वारा स्वयं ऊपरि पूँजी (परिवहन, बिजली, जलापूर्ति नहरों का निर्माण आदि) में धन का विनियोजन।

(ii) अपनी बैंकिंग व वित्तीय संस्थाओं द्वारा उधार (ऋण) दिलाने की व्यवस्था। (iii) देश-विदेश के निजी निवेशकों को धन का विनियोग करने के लिए प्रोत्साहन। इस प्रकार राजस्व अपनी राजकोषीय नीति द्वारा उपभोग में कमी लाकर बचत में वृद्धि कर सकता

2. उत्पादन को प्रोत्साहन देनाअल्पविकसित देशों में सरकार का मुख्य उद्देश्य बचतों को अधिकतम बनाना तथा उसे उत्पादक प्रयोग में लगाना होता है। कर-नीतियों में हेर-फेर करके सरकार बचत की मात्रा को बढ़ा सकती है। अतिरिक्त करों के द्वारा सरकार जनता से अधिक आय लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में लगा सकती है। निजी विनियोग को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार कर अवकाश (Tax Holiday), विकास छूट (Development rebate), विनियोग भत्ता (Investment Allowance) आदि सुविधाएँ दे सकती है। सरकार निर्यातक उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर निर्यात बढ़ा सकती है तथा संरक्षण-कर लगाकर घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता से संरक्षण दे सकती है। इन सब उपायों द्वारा उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

3. सरकार द्वारा स्वयं आर्थिक क्रियाएँ करना-आज नियोजन का युग है। अतः अल्प विकसित देशों की सरकारें आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए योजनायें बनाती हैं। इन योजनाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन जुटाने पड़ते हैं। तत्पश्चात् प्राथमिकताएँ सुनिश्चित करके वित्तीय साधनों को विभिन्न क्षेत्रों में प्रवाहित करना पड़ता है। सरकार, कृषि, सिंचाई, विद्युत, परिवहन व संचार उद्योग आदि में स्वयं पूँजी का विनियोग करती है, ताकि व्यक्तिगत निवेश की कमी पूरी हो जाए।

() साधनों का आबंटन करना (Allocation of Resources)-अविकसित एवं अल्प विकसित देशों के पास प्रायः साधनों का अभाव रहता है। अतः उनके विकास के लिए साधनों को जटाना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् साधनों का विभिन्न कार्यों अथवा प्रयोगों में प्रभावी ढंग से वितरण करना भी आवश्यक है, ताकि उनका अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके और कोई भी साधन निष्क्रिय न पड़ा रहे। इन उपलब्ध साधनों के पूर्ण उपयोग एवं उचित वितरण के लिए लोकवित्त का बड़ा महत्व है।

परम्परावादी अर्थशास्त्री यह मानते थे कि पूर्ण प्रतियोगिता एवं स्वतन्त्र प्रतियोगिता से यह उद्देश्य स्वयं प्राप्त हो जाता है, परन्तु 1929 की महान मन्दी ने इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया। अब यह माना जाने लगा है कि देश के आर्थिक साधनों का विभिन्न व्यवसायों में उपयोग और उनका सर्वोत्तम आबंटन राज्य की उचित मौद्रिक एवं राजस्व नीतियों द्वारा ही सम्भव है। आज सरकार अपनी बजट नीति द्वारा उपभोग, उत्पादन एवं वितरण को वांछित दिशाओं में मोड़ सकती है। निवेश के प्रवाह को सरकार वांछनीय दिशाओं में मोड़ने के निम्नलिखित तरीके अपना सकती है

(i) बजट नीति द्वारा अर्थव्यवस्था के आधार ढाँचे को सुदृढ़ आधार प्रदान करके-सिंचाई व विद्युत साधनों का विकास करके, परिवहन व संचार के साधनों का निर्माण करके, शिक्षा, प्रशिक्षण केन्द्र तथा चिकित्सालयों की स्थापना करके सरकार अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढाँचे को सुदृढ़ कर सकती है।

(ii) करों में छूट रियायत देकर-अर्थव्यवस्था के पिछड़े क्षेत्र का विकास करने तथा देश में उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार नये उद्योगों को कर मुक्त कर सकती है अथवा कर में रियायत दे सकती

(iii) आधारभूत उद्योगों की स्थापना करके-सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में लोहा एवं इस्पात उद्योग तथा अन्य आधारभूत उद्योग स्थापित करके देश के औद्योगिक विकास को बढ़ावा दे सकती है।

(iv) सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं का विस्तार करके-सरकार प्रगतिशील करारोपण द्वारा अपनी आय में वृद्धि करके उसे गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा पर व्यय कर सकती है जिसका अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सामाजिक सुरक्षा कार्यों में निःशुल्क शिक्षा, चिकित्सा, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, मातृत्व लाभ आदि सुविधाएँ सम्मिलित की जाती हैं। ।

(v) हानिकारक वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करके-सरकार मादक वस्तुओं तथा विलासितापूर्ण वस्तुओं पर भारी कर लगाकर इनके उत्पादन और उपभोग को कम कर सकती है। इनके स्थान पर स्वास्थ्यवर्द्धक वस्तुओं पर कम कर लगाकर इनके उत्पादन और उपभोग को बढ़ा सकती है।

() उत्पादन, रोजगार कीमतों को प्रभावित करना (Determination of Output, Employment and Prices)-लोकवित्त देश में उत्पादन, उपलब्ध रोजगार तथा कीमतों को प्रभावित करता है। इसे निम्नलिखित तीन उपशीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है

(1) उत्पादन को प्रभावित करनासरकार अपनी राजस्व नीति के माध्यम से उत्पादन को निम्न प्रकार से प्रभावित कर सकती है

(i) सरकार स्वयं उद्योग स्थापित करके उत्पादन में वृद्धि कर सकती है।

(ii) सरकार आर्थिक सहायता देकर या करों में रियायत देकर या कर-मुक्त माध्यम से उत्पादन को निम्न प्रकार प्रभावित कर सकती है

(a) घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के लिए संरक्षण-कर लगा सकती है।

(b) निर्यातों में वृद्धि करने के लिए उद्योगों को आर्थिक सहायता दे सकती है।

(c) मादक वस्तुओं तथा विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन को भारी कर लगाकर हतोत्साहित कर सकती है।

(d) एकाधिकारी प्रवृत्तियों पर रोक लगाकर उत्पादन बढ़ा सकती है।

(2) रोजगार पर प्रभावपूर्ण रोजगार की स्थिति वह स्थिति है जिसमें सभी व्यक्ति जो काम करने योग्य हैं और प्रचलित मजदूरी की दरों पर काम करने को तैयार हैं, रोजगार पा जाते हैं। पूर्ण रोजगार से अभिप्राय यह नहीं है कि समाज में काम करने योग्य सभी व्यक्ति किसी न किसी कार्य में अवश्य लगे हों, क्योंकि ऐसी स्थिति को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। प्रत्येक देश में हर समय कछ न कछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो प्रचलित मजदूरी की दर पर अपनी इच्छा से काम करना नहीं चाहते अर्थात् स्वैच्छिक बेरोजगारी अवश्य रहेगी।

कीन्स के अनुसार, “प्रत्येक देश के 3 से 5% लोग सदैव बेकार रहते हैं। पूर्ण रोजगार अनैच्छिक वत्तिहीनता की अनपस्थिति में ही सम्भव है। पूर्ण रोजगार के लिए यह आवश्यक है कि जब कभा मनुष्य बेकार हो, तब उसे तुरन्त ही उचित मजदूरी पर अपनी योग्यतानुसार कार्य मिल जाए।”

सर विलियम बैवरिज (William H. Beveridge) के अनुसार, “पूर्ण रोजगार ऐसी स्थिति है, जबकि बेरोजगारी से खाली स्थानों की संख्या अधिक हो।” कीन्स (Keynes) के अनुसार, “पूर्ण रोजगार की अवस्था तभी विद्यमान रह सकती है, जबकि कोई भी व्यक्ति, जो कि वर्तमान मजदूरी की दर पर काम करने का इच्छुक है, बेकार न रहे।”

पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करने की विधियाँ

प्रो० हैन्सन के अनसार, “राजकोषीय नीति का एक नया उद्देश्य उभर कर आ रहा है जिसका कुछ व्यक्तियों द्वारा तीव्र विरोध किया जाता है. जबकि कुछ व्यक्तियों द्वारा इसका कट्टर समर्थन किया जाता है-यह उद्देश्य है, उत्पत्ति के सभी साधनों को पूर्ण रोजगार दिलाना।सरकार पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित रीतियाँ काम में ला सकती है ।

(1) उपभोग की प्रवृत्ति को बढ़ानाकीन्स के अनुसार प्रभावपूर्ण माँग में कमी का मुख्य कारण उपभोग की मात्रा में कमी हो जाना है। अतः सरकार का यह कर्तव्य है कि वह उपभोग प्रवृत्ति को बढ़ाने का प्रयास करे। एक, सरकार करों की दरों को कम करके अथवा कम आय वाले व्यक्तियों को आर्थिक सहायता देकर उपभोग प्रवृत्ति को बढ़ा सकती है। जब करों को कम कर दिया जाता है अथवा आर्थिक सहायता दी जाती है तो जनता के पास पहले से अधिक क्रय-शक्ति हो जाती है और उसकी उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। दूसरे, प्रगतिशील करारोपण द्वारा प्राप्त आय को गरीबों पर व्यय करके भी उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ाई जा सकती है।

(2) निवेश बढ़ानाराजस्व नीतियाँ निम्न प्रकार से निवेश वृद्धि में सहायक हो सकती हैं

(i) निजी निवेश में वृद्धि-ब्याज की दर घटाकर, मुद्रा की मात्रा बढ़ाकर तथा करों में छूट देकर निजी निवेशों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है और विदेशी पूँजी को आकर्षित किया जा सकता है।

(ii) सरकारी निवेश में वृद्धि-मन्दी काल में पूर्ण रोजगार देने के लिए सरकार को स्वयं निवेश करना चाहिए। सार्वजनिक निर्माण कार्य (नहर बनवाना, पुल बनवाना, सड़कें बनवाना, रेल की पटरियाँ बिछवाना) चलाकर सरकार लोगों को रोजगार दे सकती है जिससे क्रय-शक्ति बढ़ेगी और प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि हो जाएगी।

(ii) विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन-रोजगार के स्तर को बढ़ाने के लिए विदेशी विनियोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे आर्थिक साधनों की कमी दूर हो जाए। इसके लिए कर-प्रणाली में सुधार, विनिमय हस्तान्तरण की सुविधा तथा निश्चित आर्थिक कार्यक्रम की व्यवस्था होनी चाहिए।

(3) कीमतों को प्रभावित करनाआधुनिक अर्थव्यवस्थाओं का एक प्रमुख लक्षण कीमतों में उतार-चढ़ाव है। औद्योगिक देशों में तेजी व मन्दी के चक्र चलते रहते हैं। इन देशों में तेजी के बाद मन्दी और मन्दी के बाद तेजी का दौर चलता है। तेजी के काल में कीमतें बढ़ जाती हैं, रोजगार की मात्रा बढ़ जाती है, उत्पत्ति तथा माँग बढ़ जाती है और अर्थव्यवस्था का तेजी से विस्तार होने लगता है। इसके विपरीत, मन्दी के काल में कीमतें गिर जाती हैं, उत्पादन, माँग तथा रोजगार का स्तर गिर जाता है और अर्थव्यवस्था का संकुचन हो जाता है।

मन्दी काल के प्रभावों को रोकने के उपाय-इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

(i) कर तथा सार्वजनिक व्यय में परिवर्तन-मन्दी काल में करों में छूट देनी चाहिए और सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करनी चाहिए। इससे व्यक्तियों की आय में वृद्धि हो जाती है जिससे मन्दी के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।

(ii) सार्वजनिक निर्माण कार्यों में व्यय करना-सार्वजनिक निर्माण कार्य; जैसे-रेलवे की पटरी बिछाना, सड़कों का निर्माण करना, पल व बाँध आदि का निर्माण करना आदि पर व्यय बढा देना चाहिए। इससे लोगों को रोजगार मिलेगा और उनके हाथों में क्रय-शक्ति पहुँचेगी।

(iii) सरकार द्वारा क्रय-सरकार मन्दी के समय वस्तुएँ समर्थित मूल्य पर खरीदनी आरम्भ कर दे जिससे कुल माँग बढ़ जाएगी।

(iv) घाटे का बजट बनाना-सरकार घाटे का बजट बनाने की नीति अपनाये।

इस प्रकार राजस्व नीति मन्दी को रोकने तथा रोजगार बढ़ाने में प्रभावशाली सिद्ध होती है। तेजी काल में भारी करारोपण एवं सरकार द्वारा ऋण लेने की व्यवस्था करने से जनता की क्रय शक्ति को कम करके बढ़ती हुई कीमतों को नियन्त्रित किया जाता है। मुद्रास्फीति को इस नीति द्वारा कम तो किया जा सकता है, परन्तु समाप्त नहीं किया जा सकता है। ।

() आय सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं को कम करना (Minimising the inequalities in the Distribution of Income and Wealth)-अल्प विकसित देशों में न केवल आय-स्तर नीचा होता है, वरन आय के वितरण में भी बहुत असमानता पाई जाती है। यह असमानता आर्थिक विकास के साथ-साथ बढ़ती जाती है। एक ओर धनी वर्ग के रहन-सहन का स्तर ऊँचा होता है। तथा दसरी ओर निर्धन वर्ग को भरपेट भोजन भी उपलब्ध नहीं होता। राजस्व आय की इस असमानता को दूर करने के लिए सरकार की बड़ी सहायता करता है। लोक-व्यय तथा करारोपण नीति द्वारा राज्य आय व धन की असमानता को कम कर सकता है। प्रगतिशील व प्रत्यक्ष करों द्वारा राज्य धनी वर्ग से धन। को गरीबों की शिक्षा, चिकित्सा, गृहनिर्माण, सामुदायिक योजनाओं, कुटीर उद्योगों के विकास तथा अमकल्याण आदि पर व्यय करके निर्धन वर्ग को लाभ पहुँचा सकता है। इससे निर्धन वर्ग की वास्तविक आय तथा उपभोग बढ़ेगा और उनकी कार्यक्षमता भी बढ़ जाएगी। हैलर (W.W. Heller) के अनुसार, “पनर्वितरण करने वाला वित्त कम लागत पर अधिक लाभ प्रदान करता है, परन्तु यह बात विकसित देशों की अपेक्षा अल्प विकसित देशों के विषय में अधिक सत्य है।” इस प्रकार सरकार पुनर्वितरण करने वाली सरकारी व्यय नीति तथा पुनर्वितरण करने वाली कर नीति का सहारा लेकर आय व धन के वितरण की असमानता को कम अथवा दूर करने में समर्थ होती है।

परन्तु यहाँ ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि सरकार वस्तु पर कर न लगाये, क्योंकि उसका भार गरीब जनता पर अधिक पड़ता है। दूसरे, विलासितापूर्ण वस्तुओं का जितना उपभोग धनी वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता है उतना निर्धन वर्ग द्वारा नहीं। अतः इन पर भारी कर लगाए जाने चाहिए, परन्तु इतने कर न लगाए जाएँ जिससे निजी क्षेत्र की बचतें व निवेश हतोत्साहित होने लगें। आय और धन पर प्रगतिशील कर, भूमि कर, उत्तराधिकार कर तथा पूँजी कर आदि आय और धन के असमान वितरण को कम करने के महत्वपूर्ण अस्त्र हैं।

() साधनों का उचित वितरण (Rational Allocation of Resources)-देश के प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का प्रयोग देश के आर्थिक विकास के लिए किया जाता है। उपलब्ध साधनों के पूर्ण तथा उचित प्रयोग के लिए लोकवित्त की क्रियाएँ महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। निवेश के प्रवाह को वांछनीय दिशाओं में निम्न प्रकार मोड़ा जा सकता है

(i) अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढाँचे को मजबूत बनाकर,

(ii) अल्प विकसित क्षेत्रों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देकर,

(iii) सार्वजनिक क्षेत्र में आधारभूत उद्योगों की स्थापना करके,

(iv) धनी वर्गों से प्राप्त कर आय को सामाजिक कल्याण कार्यों पर व्यय करके, (v) विलासिता व मादक वस्तुओं पर भारी कर लगाकर।

राजस्व का अन्य विषयों से सम्बन्ध

(Relation of Public Finance with Other Subjects)

राजस्व का क्षेत्र बहुत व्यापक है तथा यह मात्र एक विषय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह अन्य महत्वपूर्ण विषयों से भी सम्बन्धित है। कुछ मुख्य विषयों के साथ राजस्व का सम्बन्ध निम्नलिखित है

1 राजस्व एवं समाजशास्त्र (Public Finance and Sociology)-राजस्व तथा समाजशास्त्र में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि विकासशील देशों में सरकार के समस्त कार्यों का मुख्य उद्देश्य समाज कल्याण होता है। सरकार राजस्व में ऐसी योजनाएँ बनाती है जिसके द्वारा निर्धन जनता को अधिक से। अधिक लाभ मिल सके तथा साथ-ही-साथ कर लगाते समय या ऋण लेते समय इस बात का ध्यान रखती है कि उसका विपरीत प्रभाव निर्धनों पर ना पड़े।

2. राजस्व एवं मनोविज्ञान (Public Finance and Psychology)-राजस्व का मनोविज्ञान से। गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि दोनों ही मानव व्यवहार के अध्ययन से जड़े हैं। राजस्व में कर लगाते समय मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के विषय में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है क्याकि याद भार अधिक है तो जनता में असन्तोष हो सकता है जिसका परिणाम अशान्ति के रूप में सामने आता है। राजस्व की कहावत, “पूराना कर कोई कर नहीं है, क्योंकि करदाता इन करों को चुकाने के आदा हा जाता हैं” भी मनोविज्ञान पर ही आधारित है।

3. राजस्व एवं राजनीतिशास्त्र (Public Finance and Political Science)-किसी देश का। आर्थिक नीति तथा राजस्व उसकी राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करती है। इसी को देखते हुए डाल्टन ने भी कहा है कि राजस्व अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र की सीमा पर स्थित है। देश में धन का उत्पादन, वितरण, उद्योगों पर नियन्त्रण तथा नियमन आदि निर्णय राजनीतिक संस्थाओं तथा उन्हीं के अनुसार लिए जाते हैं। राजनीतिशास्त्र तथा राजस्व की अध्ययन सामग्री जो दोनों विषयों के अन्तर्गत आती है उनमें से कुछ मुख्य निम्नवत है जो कि राजस्व की नीतियों को प्रभावित करती हैं

4.सरकारी कार्यों का विश्लेषण,

5.संघीय सरकार, राज्य सरकार एवं स्थानीय सरकारों के बीच सम्बन्ध,

6. वित्त से सम्बन्धित सरकारी प्रशासन व्यवस्था आदि। _इस सम्बन्ध में एडम्स का मत है कि “राजस्व की सुदृढ़ नीति राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पूर्ण जानकारी पर निर्भर करती है।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजस्व का राजनीतिशास्त्र से निकट का सम्बन्ध है।

7. राजस्व एवं अर्थशास्त्र (Public Finance and Economics)-अर्थशास्त्र एक वृहद विषय है। तथा राजस्व उसी का भाग है। बैस्टेबल के अनुसार, “राजस्व के विद्यार्थी को अर्थशास्त्र का ज्ञान होना अति आवश्यक है।”2 राजस्व के सिद्धान्तों को समझने के लिए अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों को समझना आवश्यक है। उनमें से कुछ मुख्य, समसीमान्त उपयोगिता नियम (Law of Equi-marginal Utility), उत्पत्ति के नियम (Laws of Returns), माँग व पूर्ति का नियम (Laws of Demand and Supply), माँग व पूर्ति की लोच (Elasticity of Demand and Supply), राष्ट्रीय आय (National Income), तथा रोजगार का सिद्धान्त (Theory of Employment) आदि हैं। इन सिद्धान्तों की सहायता से राजस्व की अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बिना अर्थशास्त्र के ज्ञान के राजस्व को समझना बहुत कठिन है।

8. राजस्व एवं सांख्यिकी (Public Finance and Statistics)-राजस्व सांख्यिकी से गहन रूप से सम्बन्धित है। राजस्व की नीतियों के निर्माण के लिए सांख्यिकी आँकड़े उपलब्ध कराती है। सांख्यिकी के आँकड़ों के आधार पर अनुमान लगाकर ही निष्कर्ष निकाले जाते हैं तथा उनके मध्य सम्बन्ध निकाले जाते हैं। सरकार की आय के स्रोत एवं उनसे प्राप्त होने वाली राशि, सार्वजनिक व्यय के मद एवं उनमें व्यय होने वाली राशि, प्रति व्यक्ति कर का भार, करदेय क्षमता, सार्वजनिक व्यय का उत्पादन, वितरण तथा पूँजी निर्माण पर पड़ने वाला प्रभाव, बजट बनाने के लिए आवश्यक आँकड़े, सार्वजनिक ऋण के भार की सीमा आदि की जानकारी सांख्यिकी के द्वारा ली जाती है। इस प्रकार राजस्व सांख्यिकी के बिना अधूरा

9. राजस्व एवं इतिहास (Public Finance and History)-इतिहास भूतकालीन जानकारी का अध्ययन है और इसी के आधार पर भविष्य की योजनाएँ बनायी जाती हैं। राजस्व की नीतियों का निर्माण करने से पहले इतिहास की सहायता से पूर्व में समय-समय पर अपनाये गये राजस्व सम्बन्धी सिद्धान्तों को, उनके सफल या असफल होने के कारणों को जाना जा सकता है तथा उनमें वर्तमान समय के अनुसार परिवर्तन करके सफल बनाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में बेस्टेबल का मत है कि “वित्त विज्ञान का इतिहास से मुख्य सम्बन्ध है जिसमें राजस्व के सिद्धान्तों के उदाहरण, सत्यापन एवं पुष्टिकरण किया जाता है।”

राजस्व एवं निजी वित्त की तुलना

(Comparison between Public Finance and Private Finance)

सामान्य रूप से राजस्व एवं निजी वित्त एक ही हैं दोनों में ही आय-व्यय का लेखा जोखा होता है और दोनों का ही उद्देश्य अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना होता है लेकिन जहाँ एक ओर दोनों में यह समानताएँ हैं वहीं दोनों में अन्तर भी हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर कीन्स ने कहा है कि, “जो बात एक व्यक्ति के लिए सत्य है, वही बात राज्य के लिए सही हो भी सकती है और नहीं भी।”। दोनों में समानता एवं असमानता को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है

लोकवित्त एवं निजी वित्त में समानताएँ

(Similarities between Public and Private Finance)

लोकवित्त व निजी वित्त में निम्नलिखित समानताएँ पायी जाती हैं

1 उद्देश्य की समानता-लोकवित्त एवं निजी वित्त दोनों का ही अन्तिम उद्देश्य “अधिकतम सन्तष्टि” है। एक व्यक्ति श्रम एवं पूँजी का प्रयोग अपनी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए करता है। दोनों के पास सीमित साधन होते हैं और दोनों ही इनसे अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहते हैं।

2.ऋणों की प्राप्तिजिस प्रकार निजी वित्त में जब व्यय आय से अधिक हो जाता है, तो उस घाटे की पूर्ति के लिए ऋण लिये जाते हैं, उसी प्रकार सरकार भी घाटे की पूर्ति के लिए आन्तरिक तथा बाह्य ऋण लेती है।

3.सन्तुलित बजटनिजी तथा लोक वित्त दोनों में ही आय तथा व्यय के बीच सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया जाता है जिससे ऋण लेने की आवश्यकता ना पड़े।

4. समसीमान्त उपयोगिता सिद्धान्त का पालन-दोनों वित्त ही सम सीमान्त उपयोगिता के सिद्धान्त का पालन करते हैं तथा उपलब्ध सीमित साधनों का अधिकतम प्रयोग करते हैं।

5. आय की अस्थिरतासार्वजनिक आय तथा निजी आय दोनों में अनिश्चितता तथा अस्थिरता होती है। निजी व्यवसायों की आय स्थिर न रहकर व्यापारिक उच्चावचनों पर निर्भर करती है तथा इसी प्रकार सरकारी आय भी स्थिर नहीं होती, बल्कि परिवर्तित होती रहती है।

लोकवित्त एवं निजी वित्त में अन्तर

(Difference between Public and Private Finance)

उपरोक्त समानताओं के होने के बावजूद भी लोकवित्त तथा निजी वित्त में कुछ अन्तर होते हैं जो कि निम्नलिखित हैं

1 आयव्यय समायोजन में अन्तर-निजी वित्त में व्यक्ति अपनी आय के अनुसार व्यय करता है, जबकि लोक वित्त में राज्य अपने व्यय के अनुसार आय को समायोजित करने का प्रयास करता है। इस प्रकार ये दोनों एक दूसरे के विपरीत सिद्धान्त हैं। बैस्टेबल के अनुसार, “व्यक्ति कहता है कि मैं इतना व्यय कर सकता हूँ। वित्तमन्त्री का कहना है कि मुझे इतनी धनराशि की व्यवस्था करनी है।”

फिन्डले शिराज के अनुसार, “व्यक्तिगत व्यय आय के द्वारा निर्धारित होता है, जबकि सार्वजनिक व्यय उस आय को निर्धारित करता है, जो उस व्यय के लिए आवश्यक है।”

2. उद्देश्यों में अन्तरनिजी वित्त में व्यक्ति का उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जित करना होता है, जबकि लोक वित्त में सरकार का अन्तिम उद्देश्य सामाजिक लाभ होता हैं व्यक्ति अपनी वर्तमान आवश्यकताओं को प्राथमिकता देता है, जबकि सरकार वर्तमान के साथ-साथ भविष्य पर इसके प्रभाव को भी देखती है।

3. प्रकृति में अन्तरव्यक्ति अपना ऋण किसी भी संगठित या असंगठित स्रोत से ले सकता है तथा यह ऋणदाता की इच्छा पर निर्भर है कि वह धन दे या ना दे जबकि सरकार ऋण लेने के लिए नागरिकों को मजबूर कर सकती है। सरकार अपनी ही शर्तों पर ऋण प्राप्त करती है, जबकि व्यक्ति को ऋणदाता की शर्तों को मानना पड़ता है।

4. आय के स्रोतों की प्रकृति में अन्तर-एक व्यक्ति की आय के साधन सीमित होते हैं, जबकि सरकार की आय के अनेक साधन होते हैं। सरकार नये कर लगाकर या करों की दरें बढ़ाकर या बाह्य या आन्तरिक ऋण लेकर या नयी मुद्रा छापकर अपनी आय को बढ़ा सकती है, जबकि व्यक्ति की आय के। स्रोत निश्चित होते हैं तथा अधिकांशतः उनमें परिवर्तन नहीं होते। हाल्टन ने इसका कारण बताते हए कहा है कि मुख्य कारण है. इस पर समदाय की समस्त सम्पत्ति है. इसके अतिरिक्त बाह्य ऋणों के प्राप्त होने की भी सम्भावना बनी रहती है।

5. व्यय का अन्तरनिजी वित्त निजी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होता है तथा यह वर्तमान आवश्यकताओं को प्राथमिकता प्रदान करते हैं, जबकि सार्वजनिक व्यय समाज की तथा देश की आवश्यकताओं तथा देश के विकास को ध्यान में रखकर बनायी गयी आर्थिक नीतियों के अनुसार होता

6. गोपनीयता का अन्तरनिजी वित्त में गोपनीयता का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी आय तथा व्यय को निजी समझता है तथा इसकी गोपनीयता को बनाये रखना चाहता है, जबकि सरकार को अपनी क्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए इसे सार्वजनिक करना आवश्यक है।

7. समसीमान्त उपयोगिता नियम के पालन में अन्तर-प्रत्येक व्यक्ति का उद्देश्य अपनी आय से सन्तुष्टि प्राप्त करना होता है इसके लिए वह अपनी आय को व्यय किये जाने वाले मदों पर समान रूप से वितरित करता है जिससे व्यय की सीमान्त उपयोगिता समान रहे, जबकि सरकार अनिश्चित व्यय निर्णयों का एकीकरण न होना तथा राजनैतिक कारणों के कारण ऐसा नहीं कर पाती।

8.बजट की प्रकृतिव्यक्ति अपनी आय तथा व्यय के अनुसार बचत का बजट बनाता है तथा आय को अधिक तथा व्यय को कम से कम करके बचत करना चाहता है, इसके विपरीत सरकार आर्थिक विकास तथा युद्ध काल में घाटे का बजट बनाना उचित समझती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत अर्थ-प्रबन्धन में व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं की तृप्ति के सम्बन्ध में वित्तीय कार्यकलापों का अध्ययन किया जाता है और राजस्व में सरकार की उत्पादक क्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है, जिसके द्वारा जनता की सामूहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हो सके।

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. लोकवित्त की परिभाषा दीजिये। उसकी विषय सामग्री का वर्णन कीजिये।

Define Public Finance. Describe its subject matter.

प्रश्न 2. किसी देश के विकास में लोकवित्त की भूमिका की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये।
Critically explain the role of public finance in the development of a country.

प्रश्न 3. लोकवित्त की परिभाषा दीजिये एवं उसका ‘अन्य विज्ञानों’ से सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये।

Explain the definitions of Public Finance and describe its relationship with other sciences.

प्रश्न 4. राजस्व की परिभाषा दीजिये। राजस्व तथा निजी वित्त में अन्तर बताइये।

Define Public Finance. Distinguish between Public Finance and private finance.

प्रश्न 5. सार्वजनिक वित्त से क्या तात्पर्य है ? सार्वजनिक वित्त के क्षेत्र एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

What is meant by Public Finance ? Explain the scope and importance of Public Finance.

प्रश्न 6. राजस्व एक आदर्श विज्ञान है या वास्तविक विज्ञान ? अपने उत्तर के कारण दीजिये और बताइये कि यह राज्य को किस प्रकार इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करता है ?

Is Public Finance a positive science or normative science? Give reasons and explain how it helps the state to obtain this objective.

प्रश्न 7. राजस्व की परिभाषा दीजिये तथा इसके प्रमुख उद्देश्य बताइये।

Define public finance and state its objectives.

Public Finance Meaning Scope

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. लोकवित्त का अर्थ स्पष्ट कीजिये।

Explain the concept of public finance.

प्रश्न 2. “राजस्व एक कला है।” स्पष्ट कीजिये।

“Public Finance is an art.” Explain.

प्रश्न 3. लोकवित्त का महत्त्व बताइये।

Explain the importance of public finance.

प्रश्न 4. राजस्व की विषय सामग्री को स्पष्ट कीजिये।
Explain the subject matter of public finance.

प्रश्न 5. राजस्व की प्रकृति को स्पष्ट कीजिये।

Explain the nature of public finance.

प्रश्न 6. राजस्व के आदर्शात्मक पक्ष को स्पष्ट कीजिये।

Discuss the normative aspect of public finance.

प्रश्न 7. राजस्व के उद्देश्य बताइये।

Explain the objectives of public finance.
प्रश्न 8. “राजस्व विज्ञान है” के पक्ष में अपने तर्क दीजिये।

“Public finance is a science” give your arguments in favour of this statement.

प्रश्न 9. सार्वजनिक वित्त और निजी वित्त में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between public finance and private finance.

Public Finance Meaning Scope

chetansati

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