BCom 1st Year Environment Public Sector & Private Sector Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment Public Sector & Private Sector Study Material Notes in Hindi

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Public Sector & Private
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BCom 1st Year Environment Structure Indian Industries Study Material Notes in Hindi

सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र

[PUBLIC SECTOR AND PRIVATE SECTOR)

सार्वजनिक क्षेत्र

(PUBLIC SECTOR)

जगदीश भगवती तथा पदमा देसाई का कहना है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्व भारत एक महत्वपूर्ण औद्योगिक देश था। लेकिन 1947 में ऐसा नहीं कहा जा सकता था। बागची का कहना है कि 1990 में भारत विश्व के निर्धनतम देशों में एक था। भारत की प्रतिव्यक्ति आय 30-40 ₹ अर्थात् 2 पाउण्ड के लगभग थी जबकि ग्रेट ब्रिटेन की प्रतिव्यक्ति आय 50 पाउण्ड यानी 25 गुना थी। प्रतिव्यक्ति आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर एक प्रतिशत थी जो जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर के लगभग बराबर थी। इसी सन्दर्भ में लेविस का कहना है कि किसी भी औपनिवेशिक ताकत ने अपने उपनिवेश के औद्योगीकरण में सहायता नहीं की। (No colonial power helped its colony to industrialise.)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय औद्योगिक दृश्य की निम्न विशेषताएं थीं :

  • औद्योगिक क्षेत्र अत्यधिक पिछड़ा था।
  • आधारभूत उद्योगों के अभाव के प्रति अत्यधिक विरोध था।
  • औद्योगिक क्षेत्र के पक्ष में सरकारी हस्तक्षेप के अभाव को पिछड़ेपन का एक महत्व कारण माना गया।
  • निर्यात का विकास देश के हित में नहीं हुआ था।
  • औद्योगिक स्वामित्व कुछ ही लोगों के हाथ सीमित था।
  • तकनीकी तथा प्रबन्धकीय योग्यता की आपूर्ति अत्यन्त ही कम थी।

उपर्युक्त परिस्थितियों के सन्दर्भ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय आर्थिक नीति में तीव्र गति से औद्योगीकरण पर बल दिया गया जिसमें सरकारी हस्तक्षेप की नीति को अहम भूमिका प्रदान की गई। इस सिलसिले में हमारी औद्योगिक नीति पर समाजवाद की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। औपनिवेशिक शक्तियों से भारत पृथक् दिखे, इस ख्याल से भारत ने केन्द्रीय योजना पर आधारित विकास की रणनीति को अपनाया। इस नीति में राज्य को आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई। 1956 की औद्योगिक नीति में उद्योगों को तीन वर्गों में बांटा गया। प्रथम वर्ग में वे उद्योग रखे गए जिनके भावी विकास का सम्पूर्ण दायित्व सिर्फ राज्य का होगा। इस वर्ग में 17 उद्योग थे, जैसे—हथियार एवं गोला-बारूद, अणु शक्ति, लोहा एवं इस्पात, भारी विद्युत् उद्योग, कोयला, खनिज, वायुयान, रेल परिवहन, टेलीफोन, टेलीग्राफ आदि। दूसरे वर्ग में 12 उद्योग थे, जैसे—ऐलुमिनियम, मशीन टूल्स, उर्वरक, सड़क परिवहन, जलवाहन आदि। इन पर राज्य के अधिकार का क्रमशः विस्तार होगा तथा राज्य ही इन क्षेत्रों में नए उद्योगों की स्थापना करेगा। निजी क्षेत्र इन उद्योगों में राज्य के पूरक के रूप में कार्य करेगा। तीसरे वर्ग में बाकी सभी उद्योग रखे गए। इन्हें सामान्यतः निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया। किन्तु निजी क्षेत्र के उद्योगों को भी राज्य की सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों के अनुकूल चलना होगा तथा इन पर औद्योगिक विकास एवं नियमन कानून (Industries Development and Regulation Act, 1951-IDR) के अन्तर्गत नियन्त्रण एवं नियमन होंगे।।

इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार आर्थिक नीति का प्रायः निदेशक सिद्धान्त हो गया। वस्तुतः इस क्षेत्र का विस्तार हुआ है। 1960-61 में GDP में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा लगभग 10 प्रतिशत था, जो 1980-81 में 19.7 प्रतिशत तथा 1988-89 में 27.1 प्रतिशत हो गया। वर्तमान में यह हिस्सा 25 प्रतिशत से अधिक है।

1995 में भारत में कल 3.53,292 संयक्त पंजी कम्पनियां थी। 2000 में इनकी संख्या बढ़कर 5,42,308, हो गई। इनमें सरकारी कम्पनियों की संख्या 1995 में 1,199 थी, जो 2000 में बढ़कर 1,257 हो गई। बाकी गैर-सरकारी कम्पनियां थीं।

सभी कम्पनियों की प्रदत्त पूंजी (Paid-up Capital) 1995 में 1,31,324 करोड़ रथी जो 2000 में 2,67,898 करोड़ र हो गई। इसमें सरकारी कम्पनियों का हिस्सा 1995 में 71,754 करोड़ ₹ तथा 2000 में 25,842 करोड़ र था। गैर-सरकारी कम्पनियों का हिस्सा क्रमश: 59,570 करोड़ रतथा 1,72,056 करोड़ स्था ।

उपर्युक्त आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 1990 की आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप सरकारी संयुक्त पूंजी की कम्पनियों की संख्या कुल कम्पनियों में 1995 में 0.34 प्रतिशत से घटकर 2000 में 0.23 प्रतिशत हो गई। उसी तरह कुल प्रदत्त पूंजी में सरकारी कम्पनियों का हिस्सा 1995 में 54.6 प्रतिशत से घटकर 2000 में 35.8 प्रतिशत रह गया।

1969 में सभी बड़े बैंकों तथा बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया। 1990 के दशक के प्रारम्भ में इनका हिस्सा वित्तीय क्षेत्र की सम्पत्ति (assets) में 90 प्रतिशत से भी अधिक हो गया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बचत एकत्र करने, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग को विस्तारित करने तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में साख वितरित करने में पर्याप्त सफलता मिली है, लेकिन, साथ ही, सब्सिडी में वृद्धि तथा ऋण अदायगी में असफलता के कारण यह साख सह्य करने योग्य नहीं रह गई है और बैंकिंग क्षेत्र की सम्पत्ति में भारी कमी हुई है ।

सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार वस्तुतः सरकार के पारम्परिक क्षेत्र—लोक उपयोगिताओं (public utilities) तथा बुनियादी संरचना (infrastructure) से काफी अधिक हुआ। इसके दो बुरे परिणाम हुए।

  • निजी क्षेत्र की कार्यक्षमता में ह्रास, खासकर नौकरशाही के उत्पादन, निवेश तथा व्यापार परअत्यधिक नियन्त्रण के कारण।
  • लोक उद्यमों की अकुशलता (inefficiency) के कारण अर्थव्यवस्था में इनके योगदान में भारी गिरावट आई। अधिकांश लोक उद्यमों, विशेषकर गैर-विभागीय तथा गैर-वित्तीय उद्यमों, को घाटा होने लगा। इस कारण इन्हें सब्सिडी देनी पड़ी। 1970-71 में गैर-विभागीय तथा गैर-वित्तीय उद्यमों को 36 करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी गई जो GDP का 05 प्रतिशत था। 1975-76 तक GDP में सब्सिडी का हिस्सा 10.61 प्रतिशत हो गया। 1980-81 में यह 25.67 प्रतिशत पर पहुंच गया। उसके बाद से यह 18 तथा 22.5 प्रतिशत के मध्य रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र की इन कमजोरियों के बावजूद यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत एक विशाल औद्योगिक आधार के निर्माण में सक्षम हुआ है—एक ऐसा विशाल आधार जिसमें उत्पाद, स्थान निर्धारण तथा स्वामित्व में विविधता है, लेकिन इस प्रक्रिया में अनार्थिक तकनीक तथा उत्पादन के पैमाने की स्थापना हुई है जिनके कारण उत्पादन लागत ऊंची हो गई तथा क्वालिटी में ह्रास हुआ। अत्यधिक संरक्षण प्रदान करने की नीति के कारण घरेलू प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो गई। इसने भी लागत वृद्धि तथा क्वालिटी की ओर ध्यान न देने की प्रवृत्ति को बल प्रदान किया।

सार्वजनिक क्षेत्र का महत्व : विकास में योगदान

योजना काल में सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश में पर्याप्त वृद्धि हुई है। 1951 में 5 केन्द्रीय लोक उद्योगों का कुल निवेश मात्र 29 करोड़ ₹ था, लेकिन 31 मार्च, 2016 तक देश में कुल मिलाकर 320 केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम थे जिनमें 244 कार्य कर रहे थे। इन सभी उपक्रमों में 31 मार्च, 2016 तक कुल निवेश 11,71,844 करोड़ ₹ था। निवेश आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की संख्या तथा निवेश की मात्रा में वृद्धि इस बात का प्रमाण है कि इस क्षेत्र ने आर्थिक विकास की गति को तेज करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस योगदान की जानकारी अग्र तथ्यों से भी हो सकती है :

(1) केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का कल टर्न ओवर वर्ष 2015-16 में 18,54,667 करोड़ र था।

(ii) केन्द्रीय राजकोष में योगदान सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क, निगम कर, केन्द्रीय सरकार के ऋणों पर ब्याज, लाभांश तथा अन्य करों एवं शुल्क के रूप में इस क्षेत्र का योगदान वर्ष 2011-12 में 1,62,604 करोड़ र, 2012-13 में 1,63,207 करोड़ र, 2013-14 में 2,20,161 करोड़ स्तथा 2015-16 में 2,78,075 करोड़ ₹ था।

(iii) विदेशी मुद्रा आय और व्यय-सी.पी.एस.ई. द्वारा माल एवं सेवाओं के निर्यात द्वारा वर्ष 2015-16 में 77,216 करोड ₹ की प्राप्ति हुई। आयात और रॉयल्टी, जानकारी, परामर्श, व्याज और अन्य व्यय के अंतर्गत विदेशी मुद्रा व्यय 3,88,045 करोड़ ₹ रहा।

(iv) कर्मचारियों की संख्या मार्च 2016 में केन्द्रीय सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कर्मचारियों। की संख्या 12.34 लाख थी।

(v) वर्ष 2015-16 के दौरान लाभ अर्जित करने वाले सी.पी.एस.ई. (165) से कुल लाभ 1,44,523 करोड़ र रहा जबकि घाटे वाले सी.पी.एस.ई. (78) में कुल घाटा 28,756 करोड़ र रहा।

(vi) तेल तथा प्राकृतिक गैस कॉरपोरेशन लि., राष्ट्रीय तापीय ऊर्जा कॉरपोरेशन लि., कोल इंडिया लि., इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लि. तथा नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लि., वर्ष 2015-16 में। सर्वाधिक लाभ प्राप्त करने वाले उपक्रम थे। भारत संचार निगम लि., एयर इण्डिया लि., हिन्दुस्तान फोटो फिल्म मैन्युफैक्चरिंग कं. लि., हिन्दुस्तान केबल्स लि. तथा स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, वर्ष 2015-16 में पांच सर्वाधिक घाटे वाले उपक्रम थे।

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर ऐसा मानना ही पड़ता है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने औद्योगीकरण तथा आर्थिक विकास में अमूल्य योगदान दिया है, लेकिन 1990 के दशक से परिस्थिति में जो बदलाव आया है उस आलोक में औद्योगिक विकास की रणनीति में बदलाव लाना जरूरी हो गया। भारत ने भी निजीकरण, उदारीकरण तथा लोक उद्यमों का विनिवेश की प्रक्रिया को बल देना शरू किया। दसवीं योजना का कहना है। कि औद्योगिक विकास की रणनीति को इस प्रकार मोड़ा जा रहा है कि हमारा कम्पायमान (vibrant) निजी क्षेत्र अपनी उद्यमशीलता की पूर्ण सम्भावनाओं को विकसित कर सके तथा उत्पादन, रोजगार एवं आय के सृजन में अपना योगदान कर सके। (“The industrial development startegy is having re-oriented towards enabling our vibrant private sector to reach its full entrepreneurial potential, to contribute towards production, employment and income genration. Tenth Plan, Vol. II, p. 665) 1998-99 में सरकार ने यह निर्णय लिया कि लोक क्षेत्र के उपक्रमों में वह अपने शेयर को घटाकर 26 प्रतिशत पर ले आएगी। सरकार ने इन उपक्रमों को महत्वपूर्ण (Strategic) तथा महत्वहीन (non-stratagic) दो वर्गों में बांट दिया। यह निर्णय लिया गया कि महत्वपूर्ण लोक उद्यमों के बहुमत शेयर को सरकार अपने पास रखेगी। यह भी निर्णय लिया गया कि मजदूरों के हित की रक्षा की जाएगी। 2000-01 से इन निर्णयों के अनुसार सरकार ने काम करना शुरू कर दिया।

सार्वजनिक क्षेत्र के नवरत्न (Nine Gems of the Public Sector)

विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाले देश के 9 केन्द्रीय उपक्रमों को सरकार द्वारा जुलाई 1997 में नवरत्न के रूप में चिह्नित किया गया। वर्तमान समय में 17 उपक्रमों को ‘नवरत्न’ के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। इन नवरत्न उपक्रमों के नाम हैं :

(i) हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (HPCL), (ii) भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BPCL), (iii) ऑयल इंडिया लि., (OIL), (iv) महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL), (v) पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन (PFC), (vi) हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL), (vii) भारत इलेक्ट्रोनिक्स लिमिटेड (BEL), (viii) नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कम्पनी (NMDC), (ix) पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया लि. (PGCIL), (x) ग्रामीण विद्युतीकरण निगम लि. (REC), (xi) नेशनल ऐलुमिनियम कम्पनी (NALCO), (xii) शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (SCI), (xiii) राष्ट्रीय इस्पात निगम लि. (RINL), (xiv) नैवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन लि. (NLCL), (xv) कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लि. (CCILY (xvi) इंजीनियर्स इंडिया लि. (EIL) एवं (xvii) नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन लि. (NBCCL)| इसके अतिरिक्त सार्वजनिक क्षेत्र के 73 उपक्रमों को मिनी-रल का दर्जा प्रदान किया गया है।

क्या नवरत्न दर्जा?

नवरत्न दर्जा प्राप्त कम्पनियों को अधिक प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता मिलती है। यह कम्पनियां सरकार की अनुमति के बिना देश और विदेश में संयुक्त उद्यम स्थापित कर सकती हैं और उनमें अपनी नेटवर्थ के 15 प्रतिशत के बराबर निवेश कर सकती हैं इसके अतिरिक्त इन कम्पनियों के निदेशक बोर्ड को अधिग्रहण और विलय सम्बन्धी निर्णय लेने का अधिकार होता है। नवरत्न कम्पनियों में सरकार अपनी हिस्सेदारी का विनिवेश नहीं करती है। किसी कम्पनी को नवरत्न का दर्जा प्राप्त करने के लिए पहले उसे मिनी रत्न का दर्जा प्राप्त होना चाहिए।

महारत्न कम्पनियां

‘महारत्न’ का दर्जा सार्वजनिक क्षेत्र की उन कम्पनियों को दिया जाता है जिन्होंने पिछले तीन वर्ष में 30,000 करोड़ ₹ या इससे अधिक का वार्षिक कारोबार किया हो तथा इन कम्पनियों ने लगातार तीन वर्ष तक 5,000 करोड़ ₹ या इससे अधिक का शुद्ध लाभ कमाया हो। महारत्न दर्जे के लिए पात्र कम्पनियों की औसत नेटवर्थ 15,000 करोड़ र होनी चाहिए और उनका कारोबार वैश्विक स्तर का होना चाहिए।

7 महारत्न कम्पनियां

1 राष्ट्रीय ताप विद्युत् निगम (NTPC), 2. तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ONGC), 3. भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड (SAIL), 4. कोल इण्डिया लि. 5. भारत हैवी इलेक्ट्रीकल्स (BHEL), 6. इण्डियन ऑयल कॉरपोरेशन लि., 7. गैस अथॉरिटी ऑफ इण्डिया लि. (GAIL)

Public Sector & Private Sector

निजी क्षेत्र

(PRIVATE SECTOR)

जहां सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों का स्वामित्व और प्रबन्ध सरकार के हाथ में रहता है तथा लाभ उपार्जन प्रमुख उद्देश्य नहीं होता है, वहां निजी क्षेत्र के उद्योगों में स्वामित्व एवं प्रबन्ध निजी हाथों में रहता है तथा इनका संचालन लाभ प्राप्त करने के लिए होता है।

1956 की औद्योगिक नीति में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों की सीमाओं तथा भूमिका को स्पष्ट कर दिया गया। इसके अनुसार उद्योगों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया :

  • केवल सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रिजर्व उद्योग
  • वे स्थापित उद्योग जहां दोनों क्षेत्र एक साथ रह सकते हैं, लेकिन भावी विकास केवल सार्वजनिक क्षेत्र में होगा; तथा
  • केवल निजी क्षेत्र के लिए रिजर्व उद्योग।

मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारी तथा बुनियादी उद्योग एवं सामाजिक तथा आर्थिक आधारिक संरचना (infrastructure) को सार्वजनिक क्षेत्र में रखा गया तथा निजी क्षेत्र को उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों के विकास के लिए खुला छोड़ा गया।

इस विभाजन के बावजूद निजी क्षेत्र को अनेक प्रकार के नियन्त्रण तथा नियमन के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता था। औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम, 1951 (IDR Act, 1951) द्वारा इस क्षेत्र का नियन्त्रण एवं नियमन होता था। नए कारखानों को खोलने के लिए लाइसेन्स लेना जरूरी कर दिया गया। मौजूदा कारखानों में नई वस्तु के उत्पादन को शुरू करने, कारखाने का विस्तार करने, वर्तमान कारखानों को चालू रखने तथा वर्तमान इकाई के स्थान परिवर्तन, आदि के लिए भी लाइसेन्स लेना जरूरी था।

निजी एकाधिकार तथा आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए सरकार ने 1969 में एकाधिकार तथा प्रतिबन्धित व्यापार आचरण अधिनियम पारित किया। इन सभी नियमनों के कारण नौकरशाही का विकास हआ. साहसी के कार्यों पर अंकुश लगा तथा उद्योगों की स्थापना के लिए जोखिम उठाने की इच्छा कुण्ठित। हो गई।

निवेश के लिए पूंजी का थी। इसलिए हमारे Uservation) निवेश के लिए पूंजी का अभाव (Shortage of Capital) विकासशील देशों के लिए आम बात है। भारत के समक्ष भी यह समस्या थी। इसलिए हमारे यहां यह अवधारणा प्रबल हो गई कि पूंजी के अभाव तथा श्रम की बहलता वाले देश में पंजी का संरक्षण (Conservation) तथा रोजगार को अधिकतम करना आवश्यक है। इस रणनीति के कारण उत्पत्ति अधिकतम नहीं भी हो सकती है, इस बात को महत्वपूर्ण नहीं समझा गया। साथ ही. भारतीय उद्योगों को बाहरी प्रतियोगिता से बचाने के लिए संरक्षण (Protection) भी दिया गया।

उपर्युक्त वातावरण में निजी क्षेत्र को कार्य करना पड़ा। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र को औद्योगिक एवं आर्थिक विकास में गौण स्थान प्राप्त हुआ। उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग जो निजी क्षेत्र को आबंटित किए गए ऐसे उद्योग है जिन्हें अत्यधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है, क्योंकि इनकी बाजार मांग अनिश्चित ही नहीं होती बल्कि इसे अत्यधिक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। आधारभूत पूंजीगत वस्तुओं के उद्योगों की स्थापना के लिए बड़ी मात्रा में पंजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, उपभोक्ता वस्तओं के। उद्योगों की स्थापना में कम पूंजी लगती है तथा प्रतिफल भी जल्दी मिलने लगता है। अतः ऐसे उद्योग पूंजी की दुर्लभता की स्थिति में निजी क्षेत्र के लिए अत्यधिक उपयुक्त हैं।

निजी क्षेत्र वस्तुतः एक विशाल क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत बड़े पैमाने के उद्योग, मध्यम पैमाने के उद्योग, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, वितरणात्मक व्यापार, होटल, रेस्तरां, आदि आते हैं। देश की सबसे अधिक महत्वपूर्ण आर्थिक क्रिया, यथा कृषि का प्रायः सम्पूर्ण भाग निजी क्षेत्र में ही आता है। इस विशाल क्षेत्र को उन्मुक्त होकर कार्य करने नहीं दिया गया। जैसा कि ऊपर बताया गया है, इस क्षेत्र पर निम्न प्रतिबन्ध थे :

(1) लाइसेन्स लेना;

(2) कीमत तथा वितरण पर नियन्त्रण;

(3) विदेशी विनिमय के उपयोग पर प्रतिबन्ध;

(4) आयात नियन्त्रण तथा निर्यात नियमन

(5) एकाधिकार पर नियन्त्रण;

(6) व्यापार पर प्रतिबन्ध आदि।

Public Sector & Private Sector

इन प्रतिबन्धों के कारण निजी क्षेत्र का सन्तोषजनक विकास नहीं हुआ। फिर भी इस क्षेत्र की औद्योगिक संरचना में विविधता आई। कॉरपोरेट औद्योगिक क्षेत्र कार्य सक्षम (Efficient) रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में यह क्षेत्र अधिक कार्यकुशल रहा।

1960 के दशक से ही औद्योगिक लाइसेन्सिंग व्यवस्था की आलोचना होने लगी। इस व्यवस्था की जांच करने के लिए सरकार ने अनेक समितियों का गठन किया स्वामीनाथन समिति, 1964; महालनोबिस समिति, 1964; हजारी रिपोर्ट, 1967; दत्त समिति रिपोर्ट, 1969; प्रशासनिक सुधार समिति, 1969; आदि। अधिकांश समितियों ने संकेत किया कि लाइसेन्स प्रथा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं रही निवेश वांछनीय दिशाओं में नहीं हुआ है। फिर भी सरकार इस व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में असमर्थ रही।

औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली के बने रहने का एक कारण यह था कि सम्पूर्ण नियमन प्रणाली अत्यन्त जटिल हो गई थी तथा यह विदेशी विनिमय के आवण्टन से जुड़ी थी। दूसरा कारण यह था कि घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्राप्त था। सुरक्षित घरेलू बाजार को बनाए रखने में राजनीतिज्ञ, नौकरशाही, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (जो पूंजी तथा टेक्नोलॉजी प्रदान करती थीं) तथा घरेलू औद्योगिक घरानों का समान हित था।

लेकिन 1960 के दशक के मध्य से लेकर 1970 के प्रायः सम्पूर्ण दशक में भारतीय औद्योगिक उत्पादन मन्दीकाल से गुजर रहा था। इसलिए लाइसेन्स-नियन्त्रण प्रणाली के विषय में गम्भीर चिन्तन प्रारम्भ हुआ। 1980 के दशक के प्रारम्भ में इस बात पर प्रायः सभी सहमत हो गए कि औद्योगिक विकास की धीमी गति के । प्रमख कारण थे निम्न उत्पादकता, ऊंची, लागत, निम्न क्वालिटी का उत्पाद तथा परानी, अप्रचलित टेक्नोलोजा।। 1980 के दशक में गठित व्यापार नीति पर आबिद हुसैन समिति, भौतिक नियन्त्रण के स्थान पर राजकोषीय। नियन्त्रण की जांच करने के लिए गठित नरसिंहम समिति तथा सार्वजनिक क्षेत्र पर सेन गुप्ता समिति ने निम्न ।

  • व्यापार नीति को सरल बनाना:
  • भौतिक तथा परिमाणात्मक नियन्त्रण के स्थान पर राजकोषीय तथा अन्य समष्टि प्रबन्धात्मक नीति का उपयोग
  • लोक उद्यमों को व्यावसायिक तथा परिचालन सम्बन्धी निर्णय लेने में अधिक स्वतन्त्रता; तथा
  • उत्पादकता, कार्यक्षमता तथा आधुनिकीकरण की गति तेज करने के लिए उपाय करना।

इन सझावों के परिणामस्वरूप 1980 के दशक में नियमन को हटाने के सम्बन्ध में काफी महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, लेकिन आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण सिलसिला 1991 से ही शुरू हुआ तथा निजी क्षेत्र को प्रायः नियन्त्रण मुक्त कर दिया गया।

1996-97 में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों की सापेक्ष स्थिति की विवेचना से जानकारी मिलती है कि आर्थिक सुधारों को लागू करने के 5 वर्ष पश्चात् कुल कारखानों में 91.2 प्रतिशत कारखाने निजी क्षेत्र में थे तथा केवल 6.6 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र में। लेकिन रोजगार के दृष्टिकोण से सार्वजनिक क्षेत्र अधिक महत्व का था, क्योंकि केवल 6.6 कारखानों में कुल रोजगार का 23.5 प्रतिशत रोजगार उपलब्ध था, जबकि 91.2 प्रतिशत कारखानों में केवल 71 प्रतिशत रोजगार उपलब्ध था।

स्थिर पूंजी के ख्याल से सार्वजनिक क्षेत्र और भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि केवल 6.6 प्रतिशत कारखानों में लगभग 37 प्रतिशत पूंजी लगी थी, जबकि 91.2 प्रतिशत कारखानों में मात्र 55 प्रतिशत से थोड़ी अधिक । किन्तु सकल उत्पत्ति तथा मूल्य सम्वर्द्धन (Value Added) के मामलों में निजी क्षेत्र अधिक सफल रहा है, क्योंकि मात्र 55.4 प्रतिशत की स्थिर पूंजी का कुल उत्पत्ति में योगदान लगभग 70 प्रतिशत था तथा कुल मूल्य संवर्द्धन में 66 प्रतिशत था। इन आंकड़ों से सार्वजनिक क्षेत्र की अकुशलता चित्रित होती है।

Public Sector & Private Sector

निजीकरण की वर्तमान स्थिति : विनिवेश की प्रगति

1990 के दशक में निजीकरण के पक्ष में सहमति में वृद्धि हुई। लोकक्षेत्र की सभी कम्पनियों की कुल सम्पत्ति (total assets) का मूल्य लगभग 22,00,000 करोड़ ₹ था। इसका यह अर्थ है कि इनके कार्यकलापों की कार्यक्षमता में थोड़े से सुधार से भी GDP की वृद्धि दर पर काफी प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए, आर्थिक सर्वेक्षण 2002-03 के अनुसार, कार्यक्षमता (Efficiency) तथा उत्पादकता (Productivity) के घटक के रूप में निजीकरण की नीति काफी महत्वपूर्ण है।

निजीकरण की प्रक्रिया का 1991-92 में कुछ लोक उद्यमों के छोटे भाग की बिक्री के साथ प्रारम्भ हुआ। 1999-2000 से निजीकरण की नीति का लक्ष्य अल्प भाग (minority) की बिक्री से हटकर स्ट्राटोजिक बिक्री (Strategic Sale) हो गया। 1991-92 में लोक उद्यमों के निर्निवेश की वास्तविक मात्रा लक्ष्य से अधिक रही। बाद के दो वर्षों में ऐसा नहीं हो सका लक्ष्य अधिक, वास्तविक मात्रा कम। 1994-95 में एक बार फिर लक्ष्य से अधिक वास्तविक प्राप्ति रही। 1995-98 के तीन वर्षों में वास्तविक प्राप्ति प्रतिवर्ष लक्ष्य से काफी कम रही। 1998-99 में एक बार फिर वास्तविक प्राप्ति लक्ष्य से अधिक रही है। 1999-2001 में लक्ष्य को 5000 करोड़ र से बढ़ाकर 10,000 करोड़ र प्रतिवर्ष कर दिया गया। इस लक्ष्य को बढ़ाकर 2001-02 तथा 2002-03 में 12,000 करोड़ र तथा 2003-04 में 14,500 करोड़ र कर दिया गया। लेकिन पहले चारों वर्षों में वास्तविक प्राप्ति लक्ष्य से काफी कम रही। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2003-04 में सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश से कुल प्राप्ति 15,547 करोड़ ₹ थी जो लक्ष्य से अधिक रही। 2004-05 में विनिवेश का लक्ष्य 4,000 करोड़ ₹ रखा गया, लेकिन दिसम्बर, 2004 तक केवल 2765 करोड़ ₹ का विनिवेश हो सका था। इसी तरह वर्ष 2005-06 में 1,570 करोड़ र, 2007-08 में 4,181 करोड़ र, 2009-10 में 2,353 करोड़ ₹, 2010-11 में 22,144 करोड़ र तथा 2011-12 में 13,894 करोड़ र सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से प्राप्त हुए। वर्ष 2013-14 में विनिवेश से कुल 18,296 करोड़ र प्राप्त हुए। वर्ष 2014-15 में विनिवेश से कुल 26,353 करोड़ र, वर्ष 2015-16 में 12,700 करोड़ र तथा 2016-17 में कुल 17,630 करोड़ र विनिवेश से प्राप्त हुए।

Public Sector & Private Sector

निजीकरण की समस्याएं

निजीकरण के सम्बन्ध में अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि निजी हाथों में प्रबन्ध को सौंपने के परिणामस्वरूप कर्मचारियों के हित की अनदेखी होती है। सरकार का कहना है कि विनिवेश करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि निजीकरण के बाद कम से कम एक वर्ष तक कर्मचारियों की छंटनी नहीं होगी। इसके बाद छंटनी सिर्फ स्वैच्छिक अवकाश स्कीम (Voluntary Retirement Scheme-VRS) के अन्तर्गत ही होगी।

निजीकरण के रोजगार पर पड़ने वाले प्रतिकल प्रभाव के विषय में काफी बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है। स्तविकता कुछ और है। Public Sector Enterprises Survey 2000-01 के अनुसार 1991-92 तथा 2000-01 के मध्य लोक उद्यमों में रोजगार की संख्या 2179 मिलियन से घटकर 1742 मिलियन हो गई। अर्थात् 20 प्रतिशत की कमी हई। 31 मार्च, 2001 तक 3.69 लाख कर्मचारियों ने VRS के लिए अपनी इच्छा जाहिर की। इसकी तुलना में निर्निवेश के पश्चात् कर्मचारियों की छंटनी नगण्य रही है। ।

वर्तमान निजीकरण नीति की घोषणा सरकार ने 9 दिसम्बर, 2002 को संसद के दोनों सदनों में की। विनिवेश का उद्देश्य राष्ट्रीय संसाधनों का आदर्श (optimal) उपयोग है। इस नीति के उद्देश्य निम्नलिखित

(1) लोक उद्यमों का आधुनिकीकरण एवं सुधार;

(2) नई परिसम्पत्तियों का सृजन;

(3) रोजगार का सृजन

(4) निजीकरण के पश्चात् परिसम्पत्तियां (assets) वहीं रहें, जहां वे थीं। यह भी देखना है कि विनिवेश के कारण निजी एकाधिकार का सृजन न हो।

(5) लोक ऋण का भुगतान जिससे लोक ऋण का भार कम होगा।

(6) Disinvestment Proceeds Fund का निर्माण

(7) विनिवेश के लिए दिशा निर्देश निर्धारित करना

(8) Asset Management Company के गठन की सम्भावनाओं पर एक पेपर तैयार करना।

निजीकरण का प्रमुख उद्देश्य निजी हाथों में प्रबन्धकीय नियन्त्रण का हस्तान्तरण है। इससे इन कम्पनियों में निजी पूंजी तथा प्रबन्ध के तौर-तरीकों का उपयोग करके इनकी कार्यक्षमता में वृद्धि लाना है। अनुभव बता रहे हैं कि, निर्निवेश के पश्चात् लोक उद्यमों की कार्यक्षमता में सुधार हुआ है।

इस महत्वपूर्ण तथ्य को याद रखना होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र की सभी कम्पनियों की कुल परिसम्पत्ति (assets) लगभग 22 लाख करोड़ ₹ की है। इसके परिचालन में यदि थोड़ा भी सुधार हो जाए, तो राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर पर काफी प्रभाव पड़ेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि कार्यकुशलता (efficiency) तथा उत्पादकता (Productivity) में सुधार की नीति का एक महत्वपूर्ण भाग निजीकरण की नीति है, लेकिन केन्द्र सरकार में जो सत्ता परिवर्तन हुआ है, उससे लगता है कि निजीकरण की नीति को आगे बढ़ाना कठिन होगा।

निजीकरण के सम्बन्ध में वर्तमान नीतिसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) की सरकार ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम के अंतर्गत यह निश्चय किया कि सभी प्रकार के निजीकरण पर प्रत्येक मामले में पारदर्शी और परामर्शी आधार पर विचार किया जाएगा। सरकार एक ऐसे मजबूत और कारगर सरकारी क्षेत्र के प्रति वचनबद्ध है जिसके सामाजिक उद्देश्य उसकी वाणिज्यिक कार्य प्रणाली द्वारा पूरे किए जाएं। यू.पी.ए. प्रतिस्पर्धी माहौल में कार्य कर रही सफल और लाभ कमाने वाली कम्पनियों को पूर्ण प्रबन्धकीय और वाणिज्यिक स्वायत्तता प्रदान करने के प्रति वचन बद्ध है सामान्य तौर पर लाभ कमाने वाली कम्पनियों का निजीकरण नहीं किया। जाएगा। यू.पी.ए. सरकारी क्षेत्र में मौजूद ‘नवरत्न’ कम्पनियों को रखे रहेगा और ये कम्पनियां पूंजी बाजार से संसाधन जुटाती रहेंगी। हालांकि सरकारी क्षेत्र की रुग्ण कम्पनियों का आधुनिकीकरण तथा पुनर्संरचना करने। और उन्हें पुनर्जीवित करने के सभी प्रयास किए जाएंगे, लेकिन लम्बे समय से घाटा उठाने वाली कम्पनियों को उनके सभी कामगारों को उनको वैध देय राशि तथा क्षतिपूर्ति दिए जाने के बाद या तो बेच दिया जाएगा। या बंद कर दिया जाएगा। जिन कंपनियों में पुनः सुधार की संभावना होगी. उनमें सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए यू.पी.ए. निजी उद्योग को दाखिल करेगा।

सार्वजनिक तथा निजी निवेश के सम्बन्ध में ग्यारहवीं योजना का दृष्टिकोण

तीव्र गति से आर्थिक वृद्धि के लिए निवेश की ऊंची दर जरूरी है। ग्यारहवीं योजना काल में प्रवेश करने के समय निवेश की दर GDP के प्रतिशत के रूप में बढ़ रही थी। आठवीं योजना में निवेश की औसत वार्षिक दर 24.4 प्रतिशत थी। नौवीं योजना में भी निवेश की यह दर बनी रही। दसवीं योजना काल में निवेश की औसत वार्षिक बढ़कर 32.1 प्रतिशत हो गई। इस योजना के अन्तिम वर्ष (2006-07) में निवेश की दर नाम निवेश की औसत 0हो गई। इस योजना यह दर बनी रही। बढ़कर 35.9 प्रतिशत हो गई थी। ग्यारहवीं योजना के अनुसार 9 प्रतिशत की दर पर आर्थिक वृद्धि की। वार्षिक दर के लिए इस स्तर का निवेश सामान्यतया पर्याप्त माना जायेगा। लेकिन भारत में, चूंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर निवेश की मात्रा कम रही है, इसलिए ग्यारहवीं योजना में निवेश की औसत वार्षिक दर को 37 प्रतिशत करने का लक्ष्य स्वीकार किया गया तथा योजना के अन्तिम वर्ष (2011-12) में इसे बढ़ाकर 38 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया।

कुल निवेश की संरचना में पिछले कुछ वर्षों में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखा जा सकता है। कुल निवेश यद्यपि आठवी तथा नौवीं योजनाओं में लगभग समान ही रहा GDP के प्रतिशत के रूप में, रचनात्मक परिवर्तन निजी निवेश की ओर झुक गया। तालिका 13.1 में देखा जा सकता है कि आठवीं योजना में निजी निवेश GDP का 15.9 प्रतिशत से बढ़कर नौवीं योजना में 17.3 प्रतिशत हो गया। फलतः इसी अवधि में सार्वजनिक निवेश GDP के 8.5 प्रतिशत से घटकर 7.0 प्रतिशत हो गया। इसलिए कुल निवेश में सार्वजनिक निवेश का हिस्सा 34.7 प्रतिशत से घटकर 29.0 प्रतिशत पर आ गया। यह प्रवृत्ति दसवीं योजना में भी देखी गयी। GDP के प्रतिशत के रूप में निजी निवेश 25.1 हो गया (नौवीं योजना में 17.3 प्रतिशत की तुलना में) जबकि सार्वजनिक निवेश 7.1 प्रतिशत रहा। कुल निवेश में सार्वजनिक निवेश का हिस्सा नौवीं योजना के 29 प्रतिशत से घटकर 22.0 प्रतिशत हो गया दसवीं योजना में।

तालिका 13.1: कुल, सार्वजनिक तथा निजी निवेश आठवीं योजना से

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समग्र निवेश में निजी निवेश के हिस्से में वृद्धि का प्रमुख कारण था 1990 के दशक से प्रारम्भ किये गये आर्थिक सुधारों की क्रिया। इन सुधारों के कारण निजी निवेश पर लगे प्रतिबन्धों को कम कर दिया गया, जिससे ऐसे निवेश के लिए अनुकूल पर्यावरण का सृजन हो सका। निजी क्षेत्र की प्रतिक्रिया भी सकारात्मक रही। ग्यारहवीं योजना का कहना है कि यह स्वागत योग्य प्रवृत्ति है। ग्यारहवीं योजना में इसे प्रोत्साहन प्रदान किया जायेगा। किन्तु, GDP के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक निवेश में गिरावट चिन्ता का विषय है। इसकी वजह से कृषि तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में आठवीं तथा नौवीं योजनाओं में पर्याप्त सार्वजनिक निवेश नहीं हो सका। दसवीं योजना में सार्वजनिक निवेश में GDP के प्रतिशत के रूप में वृद्धि स्वागत योग्य है और ग्यारहवीं योजना में इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए।

2004-05 से निजी तथा सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों समग्र निवेश में वृद्धि हुई। सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश जो 2004-05 में 7.4 प्रतिशत था, 2008-09 में बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो गया। निजी क्षेत्र में निवेश का दर 2004-05 में 23.8 प्रतिशत से बढ़कर 2007-08 में 27.6 प्रतिशत हो गई, किन्तु, 2008-09 में यह घटकर 24.6 प्रतिशत पर आ गई। वैश्विक आर्थिक मन्दी के कारण यह ह्रास हुआ।

वर्ष 2009-10, 2010-11 तथा 2011-12 में कुल निवेश में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा क्रमशः 25.2%, 22.8% तथा 22.6% हो गया।

इस तरह ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कुल सार्वजनिक निवेश में सार्वजनिक क्षेत्र का अंश 21.9% रहा।

बारहवीं योजना (2012-17) में देश का कुल औद्योगिक निवेश GDP का 34.8% या उसमें सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा 7.8% रहा।

निजी क्षेत्र में कृषि, अति लघु, लघु एवं मध्यम उद्योग तथा बड़ा कॉरपोरेट क्षेत्र शामिल हैं। समग्र निवेश में इस क्षेत्र का हिस्सा लगभग 77 प्रतिशत है। रोजगार तथा उत्पत्ति में इसका हिस्सा और भी ज्यादा है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 भारत के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के महत्व की विवेचना करें।

2. भारत के आर्थिक विकास में निजी क्षेत्र की क्या भूमिका रही है? इस क्षेत्र को किन-किन सीमाओं के अन्तर्गतकार्य करना पड़ा है?

3. सार्वजनिक एवं निजी निवेश की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालें।

4. 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों का निजी निवेश पर क्या प्रभाव पड़ा?

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 निर्निवेश से आप क्या समझते हैं?

2. निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र में अन्तर करें।

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