BCom 1st Year Regulatory Framework Contracts Indemnity Guarantee Study Material notes in Hindi

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BCom 1st Year Regulatory Framework Contracts Indemnity Guarantee Study Material Notes in Hindi

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Contracts Indemnity Guarantee
Contracts Indemnity Guarantee

Bcom 2nd Year Cost Accounting Integrated System study Material Notes In Hindi

हानि रक्षा तथा प्रत्याभूति अनुबन्ध

(Contracts of Indemnity and Guarantee)

हानिरक्षा (क्षतिपूर्ति) अनुबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Contracts of Indemnity)

सामान्य अर्थ में हानि रक्षा अनुबन्ध से तात्पर्य एक ऐसे अनुबन्ध से है जिसमें अनबन्ध का पक्षकार, दसरे पक्षकार को हानि होने की दशा में उसकी रक्षा करने का वचन देता है चाहे हानि किसी भी कारण से क्यों न उठानी पड़ी हो।

भारतीय अनबन्ध अधिनियम की धारा 124 के अनुसार, “हानि रक्षा अनुबन्ध से आशय एक ऐसे अनबन्ध से है जिसके अन्तर्गत एक पक्षकार, किसी दूसरे पक्षकार को किसी ऐसी हानि से बचाने का वचन देता है जो उसे (दूसरे पक्षकार को) स्वयं वचनदाता अथवा किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से पहुँचे।”

उदाहरणार्थ,- रजत, भरत से अनुबन्ध करता है कि वह भरत को ऐसी हानि से बचायेगा जो अमित द्वारा भरत पर मुकदमा करने के कारण होगी। यह अनुबन्ध हानि रक्षा का अनुबन्ध है। जो व्यक्ति हानि से बचाने के लिये वचन देता है, वह हानि रक्षक (Indemnifier) और जिस व्यक्ति को हानि की रक्षा का वचन दिया जाता है, ‘हानि रक्षाधारी'(Indemnity holder) कहलाता है।

उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार केवल वे ही अनुबन्ध क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध कहे जायेंगे जिनमें किसी ऐसी हानि की पूर्ति किये जाने का वचन हो जो हानिरक्षक अथवा किसी अन्य व्यक्ति के आचरण के कारण उत्पन्न होती है। वह अनुबन्ध जो किसी दुर्घटना के कारण हुई हानि की पूर्ति के लिये किया जाता है (जैसे अग्नि बीमा अनुबन्ध) क्षतिपूर्ति का अनुबन्ध नहीं कहलायेगा। लेकिन यह बात सही प्रतीत नहीं होती क्योंकि बीमा अनुबन्ध (जीवन बीमा को छोड़कर) मूलतः क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध कहे जाते हैं। अतएव, भारतीय न्यायालय इस परिभाषा को पूर्ण न मानते हुये इस सम्बन्ध में अंग्रेजी कानून का सहारा लेते हैं जिसके अनुसार क्षतिपूर्ति अनुबन्ध एक ऐसा अनुबन्ध है जिसके अन्तर्गत, “किसी निर्दोष व्यक्ति को एक ऐसे लेन-देन के कारण हुई हानि से बचाने का वचन दिया जाता है जो वचनदाता के अनुरोध पर किया गया हो।” क्षतिपूर्ति अनुबन्ध की यह एक व्यापक परिभाषा है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति के आचरण द्वारा हुई हानि ही नहीं वरन् किसी घटना के फलस्वरुप हुई हानि की पूर्ति के वचन को भी क्षतिपूर्ति अनुबन्ध माना जाता है। हानिरक्षा का अनुबन्ध स्पष्ट अथवा गर्भित दोनों प्रकार का हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य सामान्य अनुबन्धों की भाँति हानिरक्षा अनुबन्ध में भी एक वैध अनुबन्ध के सभी लक्षणों का होना आवश्यक है।

Regulatory Framework Contracts Indemnity

हानिरक्षा अनुबन्ध के लक्षण

(Elements of Indemnity Contracts)

हानिरक्षा अनुबन्ध एक विशिष्ट अनुबन्ध है, जिसके निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं :

1 वैध अनुबन्ध के लक्षण- हानिरक्षा अनुबन्ध में एक वैध अनुबन्ध के सभी लक्षण विद्यमान होते हैं जैसे-दो पक्षकार, प्रस्ताव एवं स्वीकृति, स्वतन्त्र सहमति, अनुबन्ध करने की क्षमता, वैध प्रतिफल एवं उद्देश्य आदि।

2. क्षतिपूर्ति का वचनइसमें एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को कुछ निर्धारित हानियों से बचाने का वचन देता है।

3. हानि वचनदाता या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से होनी चाहिए-वचनदाता को हानि रक्षाधारी को ऐसी किसी भी हानि की पूर्ति करनी पड़ती है जो वचनदाता के आचरण से अथवा किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से पहुँच सकती है।

4. क्षतिपूर्ति का दायित्व-ऐसे अनुबन्धों में क्षतिपूर्तिकर्ता का दायित्व तब उत्पन्न होता है जब क्षतिपूर्तिधारी को अनुबन्ध के अन्तर्गत कुछ हानि उत्पन्न हो जाए।

5. सद्भावना पर आधारित-क्षतिपूर्ति अनुबन्ध पूर्णत: सद्भावना पर आधारित होते हैं। अतः किसी भी पक्षकार को छल, कपट, धोखा या मिथ्या वर्णन का सहारा लेकर हानि रक्षा का अनुबन्ध नहीं करना चाहिए।

6. वास्तविक क्षतिपूर्ति-क्षतिपूर्ति अनुबन्ध के अन्तर्गत हानिरक्षाधारी उतनी ही राशि क्षतिपूर्ति के रुप में प्राप्त कर सकता है जितनी कि उसे वास्तव में हानि पहुँचती है न कि अनुबन्ध में वर्णित समस्त राशि।

7. अनुबन्ध लिखित, मौखिक या गर्भित हो सकता है-क्षतिपूर्ति अनुबन्ध लिखित, मौखिक या गर्भित किसी भी प्रकार का हो सकता है। गर्भित अनुबन्ध की जानकारी पक्षकारों के आचरण, या उनके आपसी सम्बन्धों के आधार पर या अनुबन्ध की परिस्थितियों से की जा सकती है।

Regulatory Framework Contracts Indemnity

हानिरक्षाधारी के अधिकार अथवा हानि रक्षक के दायित्व

(Rights of the Indemnity Holder or Liabilities of Indemnifier)

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत हानिरक्षाधारी को कुछ अधिकार प्रदान किये गये हैं जिन्हें वह हानि का वाद प्रस्तुत कर प्रवर्तित करा सकता है। हानि रक्षाधारी के ये अधिकार ही हानिरक्षक के कर्तव्य या दायित्व के रुप में होते हैं। ये निम्नलिखित प्रकार हैं

1 क्षति की पूर्ति (Claim for damages)-हानि रक्षाधारी वह समस्त क्षति की राशि प्राप्त करने का अधिकारी है जो उसे ऐसे विवाद के सम्बन्ध में चुकाने के लिये बाध्य होना पड़ सकता है जो क्षतिपूर्ति अनुबन्ध से सम्बन्धित है।

“2.व्ययों की प्राप्ति (Claim for Costs)- हानिरक्षाधारी को हानिरक्षक से ऐसे समस्त व्ययों को भी प्राप्त करने का अधिकार होता है जो उसे किसी ऐसे वाद को प्रस्तुत करने अथवा उस वाद का बचाव करने के लिए चुकाने पड़े हों जो क्षतिपूर्ति वचन से सम्बन्धित हैं, लेकिन हानिरक्षाधारी को यह अधिकार तब प्राप्त होगा जबकि हानिरक्षाधारी ने ऐसी हानि को रोकने के लिए बुद्धिमतापूर्ण कार्य किया हो तथा किया गया खर्च उचित प्रतीत होता हो ।

3. चुकाये गये धन की प्राप्ति (Claim for sum paid)-हानि रक्षाधारी को उन समस्त राशियों को भी प्राप्त करने का अधिकार होगा जो उसने किसी विवाद के समझौते की शर्तों के अन्तर्गत चुकाई हैं, जो क्षतिपूर्ति अनुबन्ध से सम्बन्धित हैं। लेकिन हानिरक्षाधारी को ऐसी धनराशि तब प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा जबकि हानिरक्षाधारी ने ऐसा समझौता हानिरक्षक के स्पष्ट निर्देशों के अनुसार नहीं किया हो। उसके अतिरिक्त यदि हानिरक्षाधारी ने ऐसे विवाद के समझौते के अन्तर्गत पर्याप्त दूरदर्शिता का प्रयोग नहीं किया है तो भी उसे ऐसी राशि प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा।

Regulatory Framework Contracts Indemnity

हानि रक्षक (क्षतिपूर्तिकर्ता) के अधिकार

(Rights of Indemnifier)

यद्यपि भारतीय अनुबन्ध अधिनियम में क्षतिपूर्तिकर्ता के अधिकारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है, लेकिन फिर भी उसके निम्नलिखित अधिकार होते हैं

1 हानिरक्षाधारी के अधिकारों की प्राप्ति जब क्षतिपूर्तिकर्ता क्षतिपूर्ति अनुबन्ध के अन्तर्गत हानि रक्षाधारी की क्षतिपूर्ति कर देता है तो उसे वें सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो हानि रक्षाधारी को क्षतिपूर्ति से पहले क्षतिपूर्तिकर्ता के विरुद्ध प्राप्त थे। इसे ही स्थान ग्रहण का सिद्धान्त (Doctrine of Subrogation) कहते हैं।

2.क्षतिपूर्ति राशि तक सीमित अधिकार– हानिरक्षक को तीसरे पक्षकारों के विरुद्ध उतनी ही राशि प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होगा जिस सीमा तक हानिरक्षक ने हानिरक्षाधारी की क्षतिपूर्ति की है।

3. क्षतिपूर्ति अनुबन्ध के बाहर की क्षति की दशा में- यदि हानिरक्षाधारी को क्षतिपूर्ति अनुबन्ध के क्षेत्र के बाहर के कारणों से क्षति पहुँचती है तो वह (हानिरक्षक) क्षतिपूर्ति के लिए मना करने का अधिकारी होगा।

4. हानिरक्षाधारी के नाम से वाद प्रस्तुत करने का अधिकार- क्षतिपूर्ति करने के बाद हानिरक्षक को हानिरक्षाधारी के नाम से तीसरे पक्षकार पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार मिल जाता है।

Regulatory Framework Contracts Indemnity

गारण्टी अथवा प्रत्याभूति का अनुबन्ध

(Contract of Guarantee)

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 126 के अनुसार, “प्रत्याभति अनुबन्ध से तात्पर्य एक ऐसे अनुबन्ध से हैं जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से किसी अन्य व्यक्ति की त्रुटि की दशा में उसक तास व्यक्ति के) वचन का निष्पादन करने या उत्तरदायित्व को परा करने का वचन देता है।”

इस प्रकार के अनुबन्ध में जो व्यक्ति गारण्टी देता है उसे प्रतिभू (Surety), जिसके सम्बन्ध में गारण्टी दी जाती है उसे मूल ऋणी (Principal Debtor) एवं जिसका गारण्टी दी जाती है उसे ऋणदाता। (Creditor) कहते हैं। अत: एक प्रत्याभूति के अनुबन्ध में तीन पक्षकार होते हैं-प्रतिम ऋण मूल ऋणी। प्रत्याभूति अनुबन्ध के अन्तर्गत दी जाने वाली गारण्टी लिखित अथवा मौखिक रुप में हो सकती है, परन्त अग्रेजी राजनियम के अन्तर्गत यह सदैव लिखित रुप में ही होनी चाहिये। ऐसी प्रत्यापन (गारण्टी) किसी पक्षकार के अच्छे आचरण के सम्बन्ध में, किसी ऋण के सम्बन्ध में अथवा कि पक्षकार द्वारा उधार माल खरीदने की दशा में दी जाती है। ।

उदाहरणार्थ, अतुल, विपुल से कहता है कि वह राहुल को एक माह के लिये 1.000₹ उधार है। और यह वचन देता है कि अगर राहुल समय पर ऋण का भुगतान नहीं करेगा तो वह स्वयं उसका भुगतान कर देगा। अतुल तथा विपुल के बीच यह एक गारण्टी का अनुबन्ध है। इसमें अतुल गारण्टीकर्ता (प्रतिभू) है, राहुल मूल ऋणी तथा विपुल ऋणदाता है।

प्रत्याभूति अनुबन्ध के उद्देश्य (Objects of the Contracts of Guarantee)- साधारणतया प्रत्याभूति अनुबन्ध निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किए जाते हैं

1 किसी नव-नियुक्त कर्मचारी के आचरण, सच्चाई एवं ईमानदारी के विषय में आश्वासन प्राप्ति हेत।

2. वाणिज्यिक प्रक्रिया से सम्बन्धित वचनों के निष्पादन के विषय में आश्वासन प्राप्ति हेतु।

3. पक्षकारों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के गलत कार्यों के परिणामस्वरुप होने वाली हानि से बचाव हेतु।

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प्रत्याभूति अनुबन्ध के लक्षण

(Elements of Guarantee Contracts)

प्रत्याभूति अनुबन्ध में एक वैध अनुबन्ध के सभी लक्षण तो होने ही चाहिये। इसके अलावा निम्नलिखित लक्षणों का होना भी आवश्यक है

1 तीन पक्षकारप्रत्याभूति अनुबन्ध में तीन पक्षकारों का होना आवश्यक है-मूलऋणी, ऋणदाता तथा प्रतिभू।

2. तीन अनुबन्धप्रत्याभूति अनुबन्ध में एक साथ तीन अनुबन्ध होते हैं-(i) ऋणदाता तथा मूलऋणी के बीच (ii) ऋणदाता तथा प्रतिभू के बीच तथा (iii) प्रतिभू व मूल ऋणी के बीच।

3. लिखित या मौखिक-प्रत्याभूति अनुबन्ध लिखित या मौखिक हो सकता है।

4. प्रतिभू का दायित्व गौण-प्रत्याभूति अनुबन्ध में प्रतिभूति देने वाले (प्रतिभू) का दायित्व गौण होता है तथा प्राथमिक दायित्व मूल ऋणी का ही होता है।

5. मूलऋणी की प्रार्थना पर गारण्टी-गारण्टी अनुबन्ध तभी वैध माना जाता है जबकि प्रतिभू ने मूल ऋणी की स्पष्ट अथवा गर्भित प्रार्थना पर गारण्टी दी हो। यदि प्रतिभ स्वत: किसी तीसरे व्यक्ति के वचन को पूरा करने या उसके दायित्व को चुकाने का अनुबन्ध करता है तो वह गारण्टी नहीं होगी।

6. ऋण या दायित्व का वैधानिक होना-गारण्टी अनुबन्ध में केवल ऋण एवं दायित्व का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ऐसा ऋण या दायित्व वैधानिक भी होना चाहिए। यदि ऋण वैधानिक नहीं है तो ऐसे ऋण के लिए दी गई प्रतिभूति का भी वैधानिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं होता है।

7. प्रतिफलप्रत्याभूति अनुबन्ध में यह आवश्यक नहीं कि प्रतिभू को भी प्रतिफल प्राप्त हो। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 127 के अनुसार “मूल ऋणी के लाभ के लिए किया गया कोई कार्य अथवा दिया गया कोई वचन प्रतिभू के लिए प्रत्याभूति देने का प्रतिफल है।” अत: स्पष्ट है कि प्रतिफल वचनदाता के लाभ के रुप में ही न होकर वचनग्रहीता की हानि के रुप में भी हो सकता है। ।

8. ऋणदाता द्वारा तथ्यों को प्रकट करना-वैध गारण्टी के लिए यह भी आवश्यक है कि ऋणदाता उन सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों को प्रकट कर दे जो वह मूल ऋणी के बारे में जानता है तथा जिनसे प्रतिभू के दायित्वों पर प्रभाव पड़ सकता है

9 .मूल ऋणी प्रतिभू के प्रति दायीइस अनुबन्ध में मल ऋणी भी प्रतिभ के प्रति दायी होता है।

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हानिरक्षा (क्षतिपूर्ति) तथा प्रत्याभूति अनुबन्ध में अन्तर

(Difference Between Contract of Indemnity and Guarantee)

प्रत्याभूति के भेद अथवा प्रकार

(Kinds or Types of Guarantee)

प्रत्याभूति मुख्यत: निम्नलिखित दो प्रकार की होती है

1 विद्यमान प्रत्याभूति (Retrospective Guarntee)-जब प्रत्याभूति किसी विद्यमान ऋण के सम्बन्ध में दी जाती है तो उसे विद्यमान प्रत्याभूति या वर्तमान प्रत्याभूति कहते है। उदाहरण के लिए ‘अ’ ‘ब’ से 3 महीने के लिए 2,000 ₹ का ऋण लेता है। निश्चित तिथि पर ‘ब’ ‘अ’ से ऋण वापस करने के लिए कहता है। ‘अ’ ऋण के भुगतान में असमर्थता प्रकट करता है तथा 20 दिन का और समय मांगता है, किन्तु ‘ब’ ‘अ’ से कहता है कि यदि ‘स’ तुम्हारी गारण्टी दे तो मैं 20 दिन का समय दे दूगां। ‘स’ ‘अ’ की गारण्टी दे देता है तो यह विद्यमान प्रत्याभूति कहलायेगी।

2. भावी प्रत्याभूति (Prospective Guarantee)-जब प्रत्याभूति किसी भावी ऋण के सम्बन्ध में होती है तो उसे भावी प्रत्याभूति कहते हैं। भावी प्रत्याभूति दो प्रकार की होती है

() विशिष्ट प्रत्याभूति (Specific Guarantee)- जब किसी विशेष ऋण या वचन के लिये गारण्टी दी जाती है तो उसे ‘विशिष्ट गारण्टी’ कहते हैं। इसमें गारण्टी देने वाले का अर्थात् प्रतिभू का। दायित्व केवल एक लेन-देन तक ही सीमित रहता है और जब वह लेन-देन परा हो जाता है तो गारण्टा। अनुबन्ध भी समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, अमित ने समित से 5 बोरी चीनी उधार खरादा जिसका मूल्य के भुगतान के लिये विजय ने गारण्टी दी। यह एक विशिष्ट गारण्टी है। अमित ने 15 दिन बाद मूल्य चुका दिया। अब गारण्टी अनुबन्ध समाप्त हुआ माना जायेगा। यदि इसके बाद सुमित पुन: बोरी चीनी उधार दे देता है तो इसके भुगतान के लिये विजय की कोई जिम्मेदारी नहीं होगा।

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चालू प्रत्याभूति की समाप्ति या खण्डन

(Revocation of Continuing Guarantee)

चालू प्रत्याभूति को निम्नलिखित दो प्रकार से समाप्त किया जा सकता है

(i) सूचना द्वारा (By Notice)-(धारा 130) प्रतिभू किसी भी समय लेनदार (ऋणदाता) को सूचना भेजकर भविष्य के (आगे के) व्यवहारों के लिये अपनी चालू प्रत्याभूति को समाप्त कर सकता है, लेकिन सूचना से पहले के लेन-देनों के लिये उसकी जिम्मेदारी बनी रहती है। उदाहरणार्थ, दिनेश द्वारा रमेश पर लिखे जाने वाले विभिन्न बिलों के भुगतान के सम्बन्ध में मोहन 10, 000 ₹ तक की गारण्टी देता है। दिनेश ने रमेश पर 2,000₹ का एक बिल लिखा जो रमेश ने स्वीकृत कर लिया। बाद में मोहन ने दिनेश को गारण्टी के खण्डन की सूचना भेज दी। ऐसी स्थिति में, सूचना के बाद लिखे जाने वाले बिलों के लिये मोहन किसी प्रकार से जिम्मेदार नहीं है। लेकिन, अगर रमेश देय तिथि पर 2,000 ₹ के पराने बिल का भुगतान नहीं करता तो मोहन इसके लिये पूर्णतया दायी होगा, क्योंकि यह बिल खण्डन की सूचना से पहले लिखा गया था।

(i) प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर (By Surety’s Death) (धारा-131) यदि कोई विपरीत अनबन्ध न हो तो प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर भावी लेन-देनों के सम्बन्ध में चाल गारण्टी समाप्त हो जाती है और प्रतिभू की सम्पत्ति अथवा उसके उत्तराधिकारी मृत्यु के पश्चात् के व्यवहारों के लिये उत्तरदायी नहीं होते हैं। इसके लिये ऋणदाता को प्रतिभू की मृत्यु की सूचना का होना आवश्यक नहीं है। हाँ, मृत्यु से पहले के लेन-देनों के सम्बन्ध में उनका दायित्व बना रहता है।

(ii) प्रतिभू की दायित्व मुक्ति की विधियों से- उपुर्यक्त दो परिस्थितियों के अलावा चाल गारण्टी उन सब दशाओं में भी समाप्त हो जाती है जिनमें प्रतिभू (गारण्टी देने वाला) दायित्व-मुक्त हो जाता है, जैसे मूल अनुबन्ध की शर्तों में परिवर्तन किये जाने पर, मूल ऋणी के मुक्त होने पर, मूल ऋणी एवं ऋणदाता के बीच कोई समझौता होने पर, ऋणदाता के किसी कार्य या भूल से प्रतिभू के अधिकारों में कमी आने पर, अथवा ऋणदाता द्वारा जमानत खो देने पर आदि।

अवैध प्रत्याभूति अनुबन्ध

(Invalid Guarantee Contract)

निम्नलिखित दशाओं में प्रत्याभूति अनुबन्ध अवैध माना जाता है

1 मिथ्यावर्णन द्वारा प्राप्त प्रत्याभूति (Guarantee obtained by Misrepresentation)यदि ऋणदाता द्वारा अथवा उसकी जानकारी और सहमति से अनुबन्ध के किसी महत्वपूर्ण तथ्य के सम्बन्ध में मिथ्यावर्णन द्वारा गारण्टी प्राप्त की गई है तो ऐसी प्रत्याभूति (गारण्टी) अवैध होती है। उदाहरणार्थ, ‘अ’, ‘ब’ को अपने लिये रुपये इकट्ठा करने के लिये क्लर्क के रुप में नौकर रखता है। ‘ब’ कुछ रुपये का हिसाब नहीं दे पाता। फलस्वरुप ‘अ’, ‘ब’ से ठीक-ठीक हिसाब देने के लिये प्रत्याभूति माँगता है। ‘स’, ‘ब’ द्वारा ठीक हिसाब देने के लिये प्रतिभू हो जाता है। ‘अ’, ‘स’ से ‘ब’ के पहले आचरण के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताता। बाद में ‘ब’ त्रुटि करता है। यह प्रत्याभूति अवैध और व्यर्थ है।

2. छुपाव द्वारा प्राप्त की गई प्रत्याभूति (Guarantee Obtained by Concealment)- यदि ऋणदाता अनुबन्ध से सम्बन्धित किसी महत्त्वपूर्ण तथ्य के विषय में (जिसकी गारण्टी देते समय उसे प्रतिभू को बता देना चाहिये था) मौन रहता है अथवा, उसे छुपा लेता है तो ऐसी दशा में प्राप्त प्रत्याभूति अमान्य और अवैध होगी। उदाहरणार्थ, मोहन द्वारा सोहन को दिये जाने वाले 500 टन लोहे के मूल्य के भुगतान के लिये अजय प्रत्याभूति देता है। मोहन एवं सोहन में एक गुप्त समझौता होता है कि सोहन बाजार भाव से 3 ₹ प्रति टन मूल्य अधिक देगा और प्राप्त राशि का उपभोग मोहन द्वारा एक पुराने ऋण के भुगतान में किया जायेगा। अजय को इस गुप्त समझौते की कोई जानकारी नहीं है, अतः वह उत्तरदायित्व से मुक्त माना जायेगा।

3. सहप्रतिभू के शामिल होने की शर्त पर दी गई प्रत्याभूति (Guarantee Given on the Condition of Joining Co-surety)- यदि प्रत्याभूति इस शर्त पर दी गई है कि प्रतिभू का तब तक कोई दायित्व नहीं होगा जब तक कि कोई दूसरा व्यक्ति सह-प्रतिभू न बन जाये, तो किसी दूसरे व्यक्ति के सह-प्रतिभू न बनने की दशा में प्रत्याभूति अनुबन्ध मान्य नहीं होगा अर्थात् दी गई प्रत्याभूति अवैध होगी। उदाहरणार्थ, प्रभाकर इस शर्त पर ‘ब’ द्वारा उधार रुपयों का भुगतान करने की प्रत्याभूति ‘स’ को देने के लिये तैयार है कि मधुकर भी सह-प्रतिभू बनने को तैयार हो। मधुकर अपनी सहमति नहीं देता। यहाँ पर प्रभाकर द्वारा दी गई प्रत्याभूति अवैध मानी जायेगी।

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प्रतिभू का दायित्व

(Liability of Surety)

प्रतिभू का दायित्व गौण होता है। उसका दायित्व उस समय उत्पन्न होता है जबकि मूल ऋणी अपने वचन के सम्बन्ध में त्रुटि करता है। यदि मूल ऋणी कोई त्रुटि नहीं करता अथवा अपने वचन का निष्पादन स्वयं कर देता है तो प्रतिभू दायी नहीं होता। किन्तु ज्यों ही मूल ऋणी भुगतान करने में त्रुटि करता है त्योंही प्रतिभू मूल ऋणी के रुप में ऋणदाता के प्रति दायी हो जाता है। प्रतिभू के दायित्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित दो बातें हैं

1 प्रतिभू का दायित्व सहविस्तृतभारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 128 के अनुसार, “जब तक कि अनुबन्ध में इसके विपरीत कोई अन्य व्यवस्था न हो. प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के दायित्व के साथ सह-विस्तृत होता है।” इस धारा का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है जैसा दायित्व मूलऋणी का होगा वैसा ही दायित्व मूलऋणी द्वारा गलती किये जाने पर, प्रतिभू का होगा अर्थात् प्रतिभू के दायित्व की मात्रा भी उतनी ही होगी जितनी की स्वयं मलऋणी की है। अत: प्रत्याभूति के अनुबन्धा के अन्तर्गत ऋणदाता, मल ऋणी से ऋण की राशि, मूलधन पर ब्याज, मुकद्दमे के व्यय आदि जो भी। हों, वैधानिक रुप से वसूल करने का अधिकार रखता है, वही सब प्रतिभू से भी प्राप्त करने का अधिकार है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रतिभू उस समस्त राशि व व्ययों को चुकाने के लिये बाध्य जोकि मूलऋणी को चुकाने पड़ते हैं।

उदाहरणार्थ ‘अ’ एक विनिमय पत्र ‘ब’ पर लिखता है। ‘ब’ इसे स्वीकार कर लेता है। ‘म को विनिमय पत्र में लिखी रकम के भुगतान के लिये प्रत्याभूति देता है। ‘ब’ इस बिल को तिरस्कार देता है। ऐसी दशा में ‘स’ न केवल विनिमय पत्र में लिखी रकम के लिये दायी होगा बल्कि उसका पर ब्याज तथा नवीनीकरण के खर्चों के लिये भी दायी होगा। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि अनुबन्ध करते समय प्रतिभू ने अपने दायित्व की कोई सीमा निर्धारित कर दी है तो ऐसी दशा में पति द्वारा निश्चित की गई रकम से अधिक रकम उससे वसूल नहीं की जा सकती है।

यदि प्रतिभू चाहे तो अपने दायित्व को सीमित कर सकता है, अत: यदि प्रतिभू ने गारण्टी अनबन में अपना दायित्व सीमित कर लिया है तो उसका दायित्व मूल ऋणों के साथ सह विस्तत नहीं होगा और। उसका दायित्व उसके द्वारा पूर्व निश्चित सीमा तक ही माना जायेगा।

2. प्रतिभू का दायित्व गौण एवं सम्भाव्य होता है (Surety’s Liability is Secondary and Contingent)-प्रतिभू के दायित्व के सम्बन्ध में यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि प्रतिभ का दायित्व गौण एवं सम्भाव्य होता है। प्राथमिक दायित्व तो मूल-ऋणी का ही होता है, प्रतिभू का नहीं। यदि मल-ऋणी अपने दायित्व को पूरा कर देता है तो प्रतिभू स्वतः ही दायित्व मुक्त हो जाता है लेकिन प्रतिभु का दायित्व तो तब उत्पन्न होता है, जब मूल-ऋणी अपने दायित्व को पूरा नहीं करता है। अत: प्राथमिक दायित्व तो सदैव मूल-ऋणी का ही होता है, प्रतिभू का दायित्व तो सदैव ही गौण एवं सम्भाव्य होता है।

यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि यदि मूल-ऋणी अपने दायित्व को पूरा करने या ऋण चुकाने या वचन की पालना करने से मना करता है तो ऋणदाता तुरन्त प्रतिभू से वचन या दायित्व को पूरा करने की माँग कर सकता है।

अत: इस सम्बन्ध में यह आवश्यक नहीं है कि ऋणदाता पहले मूल-ऋणी पर न्यायालय में वाद प्रस्तुत करे तथा निर्णय की प्रतीक्षा करे तथा उसके बाद ही वह प्रतिभू से वचन या दायित्व के निष्पादन या पूरा करने की माँग करे।

इस सम्बन्ध में बैंक ऑफ बिहार लि. बनाम दामोदर प्रसाद के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गारण्टी के अनबन्धों के सन्दर्भ में अति-महत्त्वपूर्ण बात स्पष्ट करते हुए यह कहा कि “प्रतिभू का दायित्व तत्काल या तुरन्त होता है। इसको तब तक के लिये स्थगित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि ऋणदाता के मूल-ऋणी के विरुद्ध सभी उपाय समाप्त नहीं हो जाते हैं। यदि प्रतिभू के दायित्व को ऋणदाता के मूल-ऋणी के विरुद्ध समाप्त होने तक स्थगित कर दिया जाये तो जिस उद्देश्य से गारण्टी दी गई है, वह विफल हो जायेगी।”

अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋणदाता की माँग पर प्रतिभू को अपने दायित्व की पालना तुरन्त या तत्काल करनी होगी।

3. मूलऋणी के विरुद्ध कार्यवाही करने पर दायित्व (Liability in case no action is taken against Principal Debtor)-धारा 137 के अन्तर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई ऋणदाता अपना धन वसूल करने के लिए मूल-ऋणी के विरुद्ध कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में भी प्रतिभू का दायित्व विद्यमान रहता है। इस प्रकार यदि ऋणदाता के पास मूल-ऋणी द्वारा जमानत पर रखी हुई किसी वस्तु या सम्पत्ति को नहीं बेचा गया हो या ऋणदाता ने मूल ऋणी पर वाद प्रस्तुत नहीं किया हो तो ऐसी स्थिति में भी प्रतिभू का गारण्टी अनुबन्ध के अन्तर्गत दायित्व विद्यमान रहेगा।

3. प्रतिभू के पास साधन होने पर दायित्व (Liability where surety has no means)-सामान्यत: जब भी कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिये ऋणदाता को गारण्टी देता है तो ऋणदाता स्वयं यह देखता है कि क्या प्रतिभू के पास मूल-ऋणी के त्रुटि करने पर दायित्व को पूरा करने के लिए साधन हैं या नहीं, और वह साधन होने पर ही प्रतिभू की गारण्टी पर ऋण या वस्तु देता है।

लेकिन इस सम्बन्ध में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि कानून किसी भी प्रतिभू को इस तर्क के आधार पर दायित्व मुक्त नहीं होने देता है कि प्रतिभू के पास दायित्व को पूरा करने के लिये कोई साधन ही नहीं। है। अत: यदि प्रतिभू के पास कोई साधन नहीं है तो ऐसी स्थिति में भी उसका दायित्व विद्यमान रहेगा।

5.मल अनुबन्ध के व्यर्थ अथवा व्यर्थनीय होने पर दायित्व (Liability in case Original Contract is Void and Voidable) यदि कोई मूल अनुबन्ध व्यर्थ अथवा व्यर्थनीय हो जाता है तो ऐसी दशा में भी प्रतिभू के दायित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और प्रतिभू का दायित्व ऐसा होने पर भी ज्यों का त्यों बना रहता है। इसका विधान की दृष्टि से यह कारण दिया गया है कि गारण्टी का अनबन्ध ऋणदाता तथा प्रतिभू के बीच एक मुख्य अनुबन्ध है, न कि समपाश्विक अनबन्ध। अत: यदि मल अनबन्ध व्यर्थ या व्यर्थनीय हो जाता है तो भी प्रतिभू के दायित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

उदाहरणयदि मूल-ऋणी अवयस्क हो तो ऐसी स्थिति में ऋणी तथा ऋणदाता के बीच किया गया अनुबन्ध व्यर्थ होगा लेकिन ऋणदाता ऐसी स्थिति में प्रतिभू से गारण्टी की राशि प्राप्त कर सकता है।

सहप्रतिभू का दायित्व (Liability of Co-sureties) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 132 के अनुसार जहाँ दो व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति से कोई विशेष दायित्व लेने का अनुबन्ध करें तथा आपस में यह भी अनुबन्ध करें कि उनमें से एक केवल दूसरे की त्रुटि की दशा में ही दोषी होगा अर्थात् उनमें से प्रत्येक केवल दूसरे के प्रतिभू के रूप में है और वह तीसरा व्यक्ति ऐसे अनुबन्ध का पक्षकार नहीं है तो पहले अनुबन्ध के अधीन तीसरे व्यक्ति के प्रति, ऐसे दोनों व्यक्तियों में से प्रत्येक का दायित्व, उस दूसरे अनुबन्ध की उपस्थिति से प्रभावित नहीं होगा, चाहे उस तीसरे व्यक्ति को उस अनुबन्ध (दूसरे) की जानकारी ही क्यों न हो अर्थात् संयुक्त रूप से ऋण लेने वाले दो पक्षकारों में से यदि एक वास्तव में दूसरे के लिये प्रतिभू है तो भी ऋणदाता के प्रति उसका दायित्व कम नहीं होता। यह अवश्य है कि वह प्रतिभू के अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।

उदाहरण और ब संयुक्त रूप से स के लिये एक प्रतिज्ञा पत्र लिखते हैं। अ ने वास्तव में इसे ‘ब’ के प्रतिभू के रूप में लिखा है और स इस बात को प्रतिज्ञा पत्र लिखे जाने के समय से ही जानता है। यह तथ्य कि अ ने स की जानकारी में यह प्रतिज्ञा-पत्र ब के प्रतिभू के रूप में लिखा हैं, स द्वारा अके विरुद्ध वाद प्रस्तुत करने पर, प्रतिरक्षा के लिये कोई आधार नहीं होगा।

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प्रतिभू के दायित्व की समाप्ति

(Discharge of Surety from his Liability)

निम्नलिखित दशाओं में प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है एवं उसके द्वारा दी गई गारण्टी का अन्त हो जाता है__

1 सूचना द्वारा खण्डन किये जाने पर (By Notice of Revocation)-चालू गारण्टी की दशा में प्रतिभू भावी व्यवहारों के सम्बन्ध में किसी भी समय ऋणदाता को गारण्टी के खण्डन की सूचना देकर अपने भावी दायित्व से मुक्त हो जाता है। परन्तु एक विशिष्ट गारण्टी (प्रत्याभूति) की दशा में यदि उत्तरदायित्व उत्पन्न हो गया है तो उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। यदि उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं हुआ हो तो विशिष्ट प्रत्याभूति की दशा में भी प्रतिभू ऋणदाता को खण्डन की सूचना देकर अपने दायित्व से मुक्त हो सकता है।

2. प्रतिभू की मृत्यु होने पर (By Death of Surety)-किसी विपरीत अनुबन्ध के अभाव में प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर मृत्यु के पश्चात् होने वाले लेन-देनों के लिये प्रतिभू का दायित्व समाप्त हो जाता है। मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले दायित्वों के लिये प्रतिभू की सम्पत्ति या उसके उत्तराधिकारी भी उत्तरदायी नहीं होते हैं। ऋणदाता को प्रतिभू की मृत्यु की सूचना दिया जाना भी आवश्यक नहीं है। मृत्यु से पूर्व हुये व्यवहारों के लिये प्रतिभू के उत्तराधिकारियों का दायित्व बना रहता है। (धारा 131)

3. अनुबन्ध की शर्तों में परिवर्तन होने पर (By Variance in the Terms of the Contract)- यदि प्रतिभू की सहमति के बिना ऋणदाता एवं मूल ऋणी द्वारा मूल अनुबन्ध की शर्तों में कोई परिवर्तन कर दिया जाता है, भले ही परिवर्तन प्रतिभू के लाभ के लिये क्यों न हो तो भी परिवर्तन के बाद उत्पन्न होने वाले दायित्वों के सम्बन्ध में प्रतिभू अपने उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है। परन्तु यदि परिवर्तन के लिये प्रतिभ ने अपनी सहमति दे दी है तो वह अपने उत्तरदायित्व से मक्त नहीं हो सक उदाहरणार्थ, अतुल, विपुल को 1 मार्च को 2,000 ₹ का ऋण देने का वचन देता है एवं ऋण वापसी की गारण्टी राहुल द्वारा दी जाती है। परन्तु अतुल यह ऋण विपुल को 1 जनवरी को ही दे देता है। चूंकि । ऋण प्रदान करने की तिथि में प्रतिभू की सहमति के बिना ही परिवर्तन कर लिया गया है, अत: राहुल अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायेगा।

4. मूल ऋणी को मुक्त कर देने पर (By Release or Discharge of Principal Debtor) – यदि मूल ऋणी एवं ऋणदाता आपस में कोई ऐसा अनुबन्ध कर लेते हैं अथवा ऋणदाता कोई एता का 128 या भूल करता है जिसके फलस्वरुप मूल ऋणी अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है तो ऐसी दशा में पनि भी अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा। परन्तु यदि ऋणदाता निश्चित समय (Period of Limitation) के अन्दर मूल ऋणी पर ऋण की वसूली के लिये वाद प्रस्तुत करने में भूल करता है तो इससे प्रतिभ अपने दायित्व से मुक्त नहीं होता है। यदि मूल ऋणी दिवालिया हो जाता है तो भी यह नियम लाग नहीं होगा उदाहरणार्थ, अजय द्वारा विजय को बेचे जाने वाले माल के भुगतान के लिये संजय गारण्टी देता है। बात में विजय की वित्तीय स्थिति खराब हो जाती है, अत: वह अजय सहित अपने सभी लेनदारों में विभिन्न अनुबन्धों के अधीन अपनी सम्पत्ति बाँटकर दायित्व मुक्त हो जाता है। अजय के साथ किये गये इस अनुबन्ध से विजय ऋणमुक्त हो गया, अत: संजय भी प्रतिभू के रुप में अपने दायित्व से मुक्त माना। जायेगा।

5.ऋणदाता तथा मूल ऋणी में समझौता होने पर (By Composition Between Creditor and Principal Debtor)- धारा 135 के अनुसार यदि ऋणदाता, मूल ऋणी के साथ बिना प्रतिभ की सहमति के कोई ऐसा अनुबन्ध कर लेता है जो मूल ऋणी के दायित्व को कम कर देता है अथवा ऋण की अवधि बढ़ा देता है या मूल ऋणी पर मुकदमा न चलाने का वचन देता है तो प्रतिभ अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा। इस नियम के निम्नलिखित तीन अपवाद हैं अर्थात निम्नांकित स्थितियों में प्रतिभू अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं होगा-(i) जब मूल ऋणी को अतिरिक्त समय देने का अनुबन्ध ऋणदाता ने मूल ऋणी के साथ न करके किसी तीसरे पक्षकार के साथ किया हो।

(ii) धारा 137 के अनुसार यदि ऋणदाता, मूल ऋणी पर कोई वाद प्रस्तुत न करे और न ही कोई दूसरा उपाय उसके विरुद्ध प्रयोग करे तो ऋणदाता का इस प्रकार रुका रहना प्रतिभू को अपने दायित्व से मुक्त नहीं करेगा जब तक कि इसके विपरीत कोई ठहराव न हो

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(iii) धारा 138 के अनुसार यदि किसी अनुबन्ध में कई सह-प्रतिभू हैं और ऋणदाता उनमें से किसी एक को दायित्व से मुक्त कर देता है तो ऐसी दशा में न तो शेष प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त होंगे और न ही ऋणदाता द्वारा मुक्ति प्राप्त प्रतिभू अन्य सह-प्रतिभूओं के प्रति अपने दायित्व से मुक्त होगा।

उदाहरण-(i) अजय, विजय का 500 ₹ से ऋणी है जिसके भुगतान की गारण्टी संजय द्वारा दी गई है एवं ऋण का भुगतान एक वर्ष बाद किया जाना है। अजय की प्रार्थना पर परन्तु संजय की सहमति के बिना विजय ऋण की अवधि को एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष कर देता है। ऐसी दशा में संजय अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा।

(ii) रजत, भरत का 500 ₹ से ऋणी है जिसके भुगतान की गारण्टी प्रशान्त द्वारा दी गई है। ऋण देय हो जाने पर भी भरत, रजत पर 1 वर्ष तक वाद प्रस्तुत नहीं करता है। यहाँ पर प्रशान्त अपने दायित्व से मुक्त नहीं होगा।

6. ऋणदाता के किसी कार्य अथवा भूल से प्रतिभू के अधिकार में कमी आने पर (By Creditor’s Act or omission Impairing Surety’s Remedy)- यदि ऋणदाता कोई ऐसा कार्य करता है जो प्रतिभू के अधिकारों के विरुद्ध है या कोई ऐसा कार्य करना भूल जाता है जिसे पूरा करना उसका उत्तरदायित्व था और जिसके कारण मूल ऋणी के विरुद्ध प्रतिभू के अधिकारों में कमी आ जाती है, तो ऐसी दशा में प्रतिभू अपने उत्तदायित्व से मुक्त हो जाता है।

उदाहरण-(1) रजत, भरत के लिये एक जहाज बनाने का अनुबन्ध करता है। यह तय हुआ कि जैसे-जैसे काम पूरा होता जायेगा, मूल्य का भुगतान किश्तों में होता रहेगा। रोहित ने रजत द्वारा जहाज बनाने की गारण्टी दी। भरत बिना रोहित की अनुमति के, जहाज पूरा होने से पहले ही दो अन्तिम किश्तों का भुगतान कर देता है। इससे रोहित का दायित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि काम पूरा होने से पहले अन्तिम किश्तों का भुगतान करना उसके हित के विपरीत है।

(ii) अजय, अरुण को अतुल की दुकान पर नौकर रखवाता है तथा उसकी ईमानदारी की गारण्टी देता है। अतुल भी यह वचन देता है कि वह हर महीने कम से कम एक बार अरुण के हिसाब की जाँच करेगा। अतुल, अरुण के हिसाब को बिल्कुल जाँच नहीं करता और अरुण कुछ धनराशि का गबन कर लेता है। अतुल, अजय को गबन के लिये उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता क्योंकि उसने अजय के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया।

7.ऋणदाता द्वारा प्रतिभूति खो देने पर (By Loss of Security)- यदि प्रतिभूति अनुबन्ध के अन्तर्गत ऋणदाता को कोई वस्तु या सम्पत्ति जमानत के रुप में प्रदान की गई है और ऋणदाता उसे खो देता है अथवा प्रतिभू की सहमति के बिना मूल ऋणी को वापिस कर देता है तो प्रतिभू अपने दायित्व से जाता है

उदाहरणार्थ, ‘, ‘ब’ को ‘स’ की गारण्टी पर 500 ₹ उधार देता है। ‘अ’ के पास ‘ब’ का 400₹ मल्य का फनीचर बन्धक रखा हुआ है। बाद में ‘अ’ बन्धक रखे हये फर्नीचर को ‘स’ की सहमति के बिना ‘ब’ को लौटा देता है। यहाँ पर फर्नीचर के मूल्य की राशि तक ‘स’ का दायित्व समाप्त हुआ माना जायेगा।

8. दायित्व का निष्पादन होने पर (By Performance)- मूल ऋणी द्वारा समय पर अपने वचन को पूरा करने पर अथवा मूल ऋणी की त्रुटि की दशा में प्रतिभू द्वारा वचन का निष्पादन किये जाने पर प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है।

9. प्रत्याभूति अनुबन्ध के अवैध हो जाने पर (By Invalidation of the Contract of Guarantee)- जब कोई गारण्टी कपट, मिथ्यावर्णन या महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर प्राप्त की गई हो तो गारण्टी अनुबन्ध अवैध होता है और ऐसी दशा में प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त समझा जाता है।

प्रतिभू के अधिकार

(Rights of the Surety)

प्रतिभू के अधिकारों को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है

1 मूल ऋणी के विरुद्ध अधिकार (Rights Against the Principal Debtor)- धारा 140 के अनुसार जब मूल ऋणी अपने वचन के निष्पादन अथवा ऋण के भुगतान में त्रुटि करता है तथा इस कारण से प्रतिभू को उसकी ओर से भुगतान करना पड़ता है या वचन का निष्पादन करना पड़ता है तो उसे वे सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो कि ऋणदाता को मूल ऋणी के विरुद्ध प्राप्त थे। प्रतिभू मूल ऋणी से वे सब रकमें प्राप्त करने का भी अधिकारी होता है जो उसने प्रत्याभूति के अधीन वैधानिक रुप से चुकायी हैं, परन्तु यदि वह किसी गलत रकम का भुगतान कर देता है तो उसके लिये मूल ऋणी उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

उदाहरणार्थ-(i) ‘अ’, ‘स’ द्वारा ‘ब’ से लिये गये कुछ ऋण के लिये प्रतिभ है। ‘ब’ ‘अ’ से इस धन की माँग करता है तथा मना करने पर उसके विरुद्ध वाद प्रस्तुत करता है जिसका कुछ उचित आधार होने के कारण ‘अ’ द्वारा प्रतिवाद किया जाता है। परन्तु ‘अ’ को वाद की लागत सहित ऋण की रकम का भुगतान करना पड़ता है। ‘अ’ ‘स’ से दोनों धनराशि प्राप्त कर सकता है।

इस वाद में यदि ‘अ’ के पास प्रतिवाद के लिये उचित आधार न होता तो वह वाद की लागत को ‘स’ से प्राप्त नहीं कर पाता।

(ii) ‘ ‘ब’ ‘द्वारा’ ‘स’ को दिये गये चावल पर 2,000 ₹ की सीमा तक प्रत्याभूति देता है। ‘ब’ ‘स’ को 2,000 ₹से कम मूल्य का चावल देता है किन्तु वह दिये गये चावल के बदले ‘अ’ से 2,000 ₹ का भुगतान प्राप्त कर लेता है। ‘अ’ ‘स’ से वास्तव में दिये गये चावल के मूल्य से अधिक धन वसूल नहीं कर सकता है।

2. ऋणदाता के विरुद्ध अधिकार (Rights Against the Creditor)-धारा 141 के अनुसार, जब प्रतिभू (गारण्टीकर्ता) ऋणदाता के प्रति अपने दायित्व को पूरा कर देता है तो वह ऋणदाता से ऐसी प्रत्येक वस्तु या सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकारी होता है जो गारण्टी का अनुबन्ध करते समय उस ऋण की जमानत के रुप में ऋणदाता के पास थी, भले ही प्रतिभू (गारण्टीकर्ता) को इसकी जानकारी हो या न हो। यदि ऋणदाता जमानत की वस्तु खो देता है अथवा, गारण्टीकर्ता की अनुमति के बिना उसे किसी दूसरे को दे देता है तो प्रतिभू उस वस्तु या सम्पत्ति के मूल्य की सीमा तक अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, अतुल संदीप की गारण्टी पर विशाल को 1,000 ₹ उधार दे देता है एवं प्रतिभूति के रुप में विशाल की घड़ी भी रख लेता है। विशाल द्वारा भुगतान न करने पर संदीप 1.000₹ अतुल को दे देता है। ऐसी दशा में संदीप को अधिकार है कि वह जमानत के रुप में विशाल द्वारा दी गई घड़ी को अतुल से प्राप्त कर ले।

3. सहप्रतिभूओं के विरुद्ध प्राप्त अधिकार (Rights Against Co-Sureties)- जब दा या दो से अधिक व्यक्ति एक ही ऋण अथवा दायित्व के प्रतिभू बने हये हों तो उन्हें सह-प्रतिभू कहते है। सह-प्रतिभूओं की निम्नलिखित दो प्रकार की स्थिति हो सकती है

(1) सहप्रतिभ समान रुप से अंशदान के लिये उत्तरदायी है-धारा 146 के अनुसार जहा दावा अधिक व्यक्ति, संयुक्त अथवा पृथक रुप से किसी एक ही ऋण अथवा कर्तव्य निष्पाद सह-प्रतिभू हैं तो वे किसी विपरीत अनुबन्ध के अभाव में उस ऋण अथवा उसके उस भा मूल ऋणों द्वारा चकाया नहीं गया है, आपस में बराबर रकम के लिये जिम्मेदार अपने सह-प्रतिभू से समान अंश प्राप्त करने का अधिकार होता है। यह महत्त्वहीन है कि अनबन्ध कर समय उसे दूसरे प्रतिभू के बारे में ज्ञान था या नहीं अथवा वे अपने को एक या विभिन्न अनबन्धों से अन्तर्गत बाध्य करते हैं। उदाहरणार्थ, ‘अ’, ‘ब’ तथा ‘स’, ‘द’ को ‘र’ द्वारा उधार दिये गये 3.000 लिये प्रतिभू हैं। ‘द’ भुगतान में त्रुटि करता है। ‘अ’, ‘ब’ तथा ‘स’ में से प्रत्येक बराबर की रकम । ₹ के लिये अलग-अलग उत्तरदायी हैं।

विभिन्न राशियों के लिये गारण्टी देने वाले सह-प्रतिभूओं का दायित्व-धारा 147 अनुसार जब सह-प्रतिभूओं ने भिन्न-भिन्न राशियों के भुगतान का दायित्व उठाने के लिये गारण्टी टीना तो वह अपनी-अपनी गारण्टी की सीमा तक बराबर-बराबर धनराशि चुकाने के लिये उत्तरदायी र अर्थात् प्रतिभू अपने सह-प्रतिभू से ऐसी धनराशि प्राप्त करने का अधिकारी है।।

उदाहरणार्थ, अरुण, अतुल व राहुल एक खजांची की क्रमश: 10,000₹, 20,000 ₹ व 30000 ₹तक की गारण्टी देते हैं। खजांची 30,000 ₹ का गबन करता है। इस दशा में तीनों को दस-दस हजार ₹ देने होंगे। लेकिन अगर वह 40,000₹ का गबन करता है तो अरुण 10,000 ₹, अतुल 15,000₹. व राहल 15.000₹ देगा। यदि गबन की रकम 55,000₹ हैं तो अरुण 10,000₹, अतुल 20,000₹व राहुल 25,000₹ के लिये दायी होगा।

संक्षेप में, यदि किसी सह-प्रतिभू को पूरे ऋण का भुगतान करना पड़ता है, तो वह दूसरे प्रतिभूओं से उनके हिस्से की रकम वसूल करने का अधिकारी होता है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 गारण्टी/प्रत्याभूति अनुबन्ध एवं क्षतिपूर्ति अनुबन्ध में क्या अन्तर है? चालू गारण्टी किसे कहते हैं? यह कब समाप्त हो जाती है?

What is the difference between Guarantee and Indemnity Contract? What is meant by Continuing Guarantee? When continuing guarantee is terminated?

2. हानिरक्षा अनुबन्ध से आप क्या समझते हैं? उसके आवश्यक लक्षणों को बताइये।

What do you understand by the contract of indemnity? Explain its elements.

3. प्रत्याभूति अनुबन्ध की परिभाषा देते हुए हानिरक्षा तथा गारण्टी अनुबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Define the Contract of Guarantee and distinguish between the Contract of Indemnity and Guarantee.

4. उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिये, जिनमें प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है।

Discuss the circumstances under which a surety is discharged from his Liabilities.

5. हानिरक्षा अनुबन्ध और गारण्टी अनुबन्ध में अन्तर बताइये। किन परिस्थितियों में प्रतिभू अपने दायित्व से मुक्त हो जाता हैं?

Distinguish between a contract of indemnity and guarantee. In which circumstances a surety is discharged from his liability?

6. विशिष्ट एवं चालू गारण्टी क्या है? इन दोनों में अन्तर बताइये। चालू गारण्टी किस प्रकार समाप्त की जा सकती है?

What is a Specific and Continuing Guarantee? Distinguish between the two. How is the continuing guarantee revoked?

7. निम्नलिखित को समझाइये :

Explain the followings:

(i) प्रतिभू के अधिकार

(Rights of Surety)

(ii) गारण्टी अनुबन्ध के लक्षण

(Characteristics of a Contract of Guarantee)

(iii) हानिरक्षा तथा गारण्टी अनुबन्ध में अन्तर

(Difference between Contract of Indemnity and Guarantee)

9. चाल गारण्टी क्या है तथा इसे सूचना द्वारा कैसे समाप्त किया जाता है? विस्तार से समझाइए।

What is a Continuing Guarantee and how it is revoked? Explain in detail.

10. प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के दायित्व के साथ सह-विस्तृत होता है।” स्पष्ट कीजिये।

The liability of a surety is co-extensive with that of the principal debtor.” Explain.

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

1 प्रत्याभूति अनुबन्ध क्या है?

What is Contract of Guarantee?

2. चालू प्रत्याभूति किसे कहते हैं?

What is Continuing Guarantee?

3. प्रतिभू अपने दायित्व से कब मुक्त हो जाता है?

When surety is discharged from his liability?

4. हानिरक्षा अनुबन्ध का अर्थ समझाइए।

Explain the meaning of contract of indemnity

5. हानिरक्षाधारी के अधिकार तथा दायित्वों को समझाइए।

Explain the rights and liabilities of indemnity holder.

6. ऋणदाता के विरुद्ध प्रतिभू के अधिकारों की व्याख्या कीजिए।

Explain the rights of a surety against the creditor.

7. “प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के साथ सह-विस्तृत होता है।” उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

“The liability of surety is co-extensive with that of principal debtor.” Explain with

8. प्रतिभू के सह-प्रतिभूओं के विरुद्ध क्या अधिकार हैं?

What are the rights of surety against co-sureties?

9. हानिरक्षा तथा गारण्टी के अनुबन्ध में अन्तर बताइए।

Differentiate between Indemnity and Guarantee.

10. किन दशाओं में गारण्टी अवैध हो जाती है?

Under what circumstances, the guarantee becomes invalid?

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(1) व्यावहारिक समस्याएँ

(Practical Problems)

PP1. A, 200₹ के एक दावे के सम्बन्ध में, B को, उसके विरुद्ध C द्वारा की जा सकने वाली वादी से पैदा होने वाले परिणामों से बचाने का वचन देता है। इस अनुबन्ध की प्रकृति क्या है ? A undertakes to hold B free from liability arising out of any proceedings which C sinst B in respect of a certain sum of 200. What is the nature of this contract?

“एक अनुबन्ध, जिसके द्वारा उसका एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से अथवा अन्य किसी व्यक्ति के आचरण से उत्पन्न होने वाली हानि से बचाने का वचन देता है, हानि-रक्षा का अनुबन्ध कहलाता है।”

PP2. B, जिसे बैंक में कैशियर नियुक्त किया जा रहा है, की ईमानदारी की प्रत्याभूति A देता है। B कुछ धन का गबन कर लेता है। क्या A उत्तरदायी है ?

A guarantees fidelity of B who is appointed cashier in a bank. B embezzles some money. Is A liable? .

उत्तरहाँ, A प्रतिभू के रुप में B के अच्छे आचरण हेतु उत्तरदायी है बशर्ते एक वैध प्रत्याभूति अनुबन्ध की शर्तों की पूर्ति होती हो।

PP3. B, C का ऋणी है, जिसकी प्रत्याभूति A ने दी है। ऋण के देय हो जाने के एक वर्ष बाद तक C, B के विरुद्ध वाद प्रस्तुत नहीं करता तथा इसी दौरान B दिवालिया हो जाता है। क्या A अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है ?

B owes C a debt guaranteed by A. C does not sue B for a year after the debt has become payable and the meantime B becomes insolvent. Is A discharged ?

उत्तरनहीं, A अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता है। केवल इस आधार पर कि C ने B के विरुद्ध वाद प्रस्तुत नहीं किया है, A मुक्त नहीं होता। स्पष्टीकरण हेतु धारा 137 का अध्ययन करें।

PP4.C, 1 मार्च को B को 5,000 ₹ देने का अनुबन्ध करता है। A पुनर्भुगतान की प्रत्याभूति देता है। C, 1 जनवरी को ही B को 5,000 ₹ दे देता है। क्या A उत्तरदायी है यदि B भुगतान न करे?

C contracts to lend B₹ 5000 on the 1st of March. A guarantees repayment. C pays ₹5000 on the 1st of January. Is A liable if B makes a default ?

उत्तरA उत्तरदायी नहीं है क्योंकि प्रतिभू की सहमति लिए बगैर ही अनुबन्ध की महत्त्वपूर्ण शर्त में परिवर्तन किया गया है। अत: धारा 133 के अधीन A अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है।

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