BCom 1st Year Regulatory Framework Discharge Contract Study Material notes in Hindi

BCom 1st Year Regulatory Framework Discharge Contract Study Material notes in Hindi

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Discharge Contract Study Material
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BCom 2nd Year Cost Accounting Integrated System study Material Notes In Hindi

अनुबन्धों की समाप्ति

(Discharge of Contracts)

एक अनुबन्ध की उत्पत्ति होते ही अनुबन्ध के दोनों पक्षकारों के बीच कुछ दायित्व उत्पन्न हो जाते हैं। जब उन दायित्वों की समाप्ति हो जाती है तो अनुबन्ध भी समाप्त हो जाता है। अत: पक्षकारों के उत्तर दायित्व से मुक्त होने को ही अनबन्ध की समाप्ति कहते हैं। पक्षकारों की उत्तरदायित्व से मक्ति या अनुबन्ध की समाप्ति निम्नलिखित प्रकार से हो सकती है:

(1) निष्पादन द्वारा (By Performance) (धाराएँ, 37-61)

(II) पारस्परिक सहमति द्वारा (By Mutual Agreement) (धाराएँ, 62-63)

(III) निष्पादन की असम्भवता द्वारा (By Impossibility) (धारा 56)

(IV) किसी विधान के कार्यशील होने पर (By Operation of Law) (धारा 37 का प्रभाव)

(V) निर्धारित अवधि के बीत जाने पर (By Lapse of Time)

(VI) अनुबन्ध के खण्डन द्वारा (By Breach of Contract) (धारा 39 का प्रभाव)

Regulatory Framework Discharge Contract

(i) निष्पादन द्वारा अनबन्ध की समाप्ति

(Discharge by Performance)

जब अनुबन्ध के पक्षकारों द्वारा अपने-अपने वचनों का निष्पादन कर दिया जाता है तो अनुबन्ध समाप्त हो जाता है। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के अनुसार निष्पादन के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रमुख बातें सम्मिलित हैं:

(1) अनुबन्ध के पक्षकारों का उत्तरदायित्व

(2) निष्पादन का प्रस्ताव

(3) अनुबन्ध का निष्पादन किसके द्वारा किया जाए

(4) निष्पादन के लिए समय तथा स्थान

(5) पारस्परिक वचनों का निष्पादन

(6) भुगतानों का नियोजन इनका विस्तृत विवेचन निम्नलिखित प्रकार है

Regulatory Framework Discharge Contract

(1) अनुबन्ध के पक्षकारों का दायित्व (Obligation of Parties to contract) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 37 के अनुसार “अनुबन्ध से सम्बन्धित पक्षकारों को अपने-अपने वचनों का निष्पादन करना चाहिए अथवा निष्पादन करने के लिए प्रस्ताव करना चाहिए, जब तक कि उस प्रकार के निष्पादन से राजनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत अथवा अन्य किसी राजनियम के प्रभाव से छुटकारा न मिल गया हो।” यदि अनुबन्ध से कोई विपरीत अभिप्राय प्रकट न होता हो, तो किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर उसके वचन का निष्पादन उसके प्रतिनिधियों पर बाध्य होता है। किन्तु यदि ऐसे निष्पादन में व्यक्तिगत कुशलता की आवश्यकता है तो मृतक पक्षकार के प्रतिनिधियों को निष्पादन के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए (अ) राम, मोहन को 100 बोरी चीनी 1600₹ प्रति बोरी की दर से बेचने का अनुबन्ध करता है। यहाँ पर राम को चीनी देने तथा मोहन को उसका मूल्य भुगतान करने का प्रस्ताव करना चाहिए।

() राम, मोहन को 100 बोरी चीनी 1600₹ प्रति बोरी की दर से बेचने का अनुबन्ध करता है। विक्रय अनुबन्ध के उपरान्त किन्तु वास्तविक सुपुर्दगी से पूर्व चीनी व्यवसाय का राष्टीयकरण कर दिया गया और निजी व्यवसाय अवैध घोषित कर दिया गया। इस स्थिति में राम तथा मोहन अपने-अपने वचना । के निष्पादन के उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायेगें।

() सोहन (चित्रकार) राम को उसका चित्र 1000 ₹ में बनाकर देने का अनुबन्ध करता है।। सपर्दगी की तिथि से पूर्व ही सोहन की मृत्यु हो जाती है। राम सोहन के उत्तराधिकारियों को वचन के निष्पादन के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

2. निष्पादन का प्रस्ताव (Offer or Tendor of Performance)-अनुबन्ध के निष्पादन के लिए या तो प्रत्यक्ष निष्पादन किया जा सकता है अथवा निष्पादन का प्रस्ताव किया जा सकता है। प्रत्यक्ष निष्पादन किया जाएगा अथवा निष्पादन का प्रस्ताव किया जायेगा यह अनुबन्ध की प्रकति पर निर्भर करेगा धारा 38 के अनुसार जहाँ प्रस्तावक ने वचन को पूरा करने का प्रस्ताव किया है लेकिन वचन पता उसे स्वीकार नहीं करता तो ऐसी दशा में प्रस्तावक वचन को पूरा करने के लिए उत्तरदायी नहीं है। और वह अनुबन्ध के अधीन अपने अधिकारों को भी नहीं खोता है।

Regulatory Framework Discharge Contract

निष्पादन के प्रस्ताव की शर्ते अथवा लक्षण

(Characteristics of Proposal for Performance)

निष्पादन के प्रस्ताव में निम्नलिखित शर्ते पूरी होनी चाहिएँ

(i) प्रस्ताव शर्त रहित होना चाहिए (Proposal must be unconditional)- निम्मान का नाव शर्त रहित होना चाहिए अर्थात उसमें कोई शर्त नहीं लगी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि प्रस्ताव धन देने के लिए है तो चैक द्वारा धन प्रस्तुत करना वैध प्रस्ताव नहीं है क्योंकि यह सरकारी प्रचलित मद्रा नहीं है किन्तु यदि वचनग्रहीता उसे स्वीकार कर लेता है तो वह पुन: उसका विरोध नहीं कर सकता।

(ii) प्रस्ताव उचित समय एवं स्थान पर होना चाहिए (Proposal must be made at proper time and place)-प्रस्ताव ऐसी परिस्थितियों के अधीन किया जाना चाहिए कि उस व्यक्ति को जिसके प्रति प्रस्ताव किया गया है, यह निश्चित करने का यथोचित अवसर मिल जाय कि प्रस्तावक अपने वचन का परा भाग, जिसको करने के लिए वह अपने वचन द्वारा बाध्य है, उसी स्थान पर उसी समय परा करने के योग्य तथा इच्छुक है। उदाहरणार्थ-अ, ब को अपनी गाय 10,000 ₹ में बेचने का अनुबन्ध करता है। अरात्रि के 12 बजे ब के पास जाकर गाय की सपर्दगी देने का प्रस्ताव करता है। ब स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है, क्योंकि यह प्रस्ताव उचित समय पर नहीं किया गया है।

(iii) वचनग्रहीता को वस्तु को जाँचने का उचित अवसर मिलना चाहिए (The promisee must have opportunity to see the goods)- यदि प्रस्ताव वस्तु की सुपुर्दगी के सम्बन्ध में है तो वचनग्रहीता को यह देखने का यथोचित अवसर मिलना चाहिए कि प्रस्तुत की गई वस्तु वही है जिसको सुपुर्द करने का वचन वचनदाता ने दिया था।

(iv) धन के भुगतान के लिए प्रस्ताव-यदि प्रस्ताव धन के भुगतान के लिए है तो यह ऋणी अथवा उसके प्रतिनिधि की ओर से ऋणदाता अथवा उसके प्रतिनिधि के लिए होना चाहिए तथा अनुबन्ध की शर्तों के अनुसार उचित समय, उचित स्थान पर उचित ढंग से, पूर्ण राशि के लिए तथा प्रचलित सरकारी मुद्रा में होना चाहिए।

(v) संयुक्त वचनग्रहीताओं में से किसी एक को प्रस्ताव (Proposal to one of several joint promisees)- सुंयक्त वचनग्रहीताओं में से किसी एक को किए गए प्रस्ताव का वही वैधानिक परिणाम होता है जो उन सबको किये गए प्रस्ताव का होता है।

3. अनुबन्ध का निष्पादन किसके द्वारा किया जाये (By Whom Contract must be performed)-धारा 40 में यह स्पष्ट किया गया है कि अनुबन्ध का निष्पादन किसके द्वारा किया जाना चाहिए। पक्षकारों को अपने-अपने वचनों का निष्पादन स्वयं करना चाहिए अथवा उनकी ओर से अन्य कोई भी निष्पादन कर सकता है ? इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित नियम हैं

(i) वचनदाता द्वारा निष्पादन– यदि अनुबन्ध वचनदाता की व्यक्तिगत योग्यता एंव निपुणता पर आधारित है तो उसका निष्पादन केवल वचनदाता द्वारा ही किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए अ जो कि एक चित्रकार है ब को एक चित्र बनाकर देने का वचन देता है। यहाँ पर वचन का निष्पादन अ द्वारा ही किया जाना चाहिए।

(ii) प्रतिनिधि द्वारा निष्पादन- ऐसे अनुबन्ध जिनमें व्यक्तिगत योग्यता एवं निपुणता की आवश्यकता नहीं है तो उनका निष्पादन वचनदाता द्वारा या उनके प्रतिनिधि द्वारा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अ, ब को एक निश्चित तिथि को 10,000 ₹ देने का वचन देता है यहाँ वचन का निष्पादन अ द्वारा या उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है।

Regulatory Framework Discharge Contract

(iii) तृतीय पक्षकार द्वारा निष्यादन- यदि वचनग्रहीता किसी तृतीय पक्षकार से वचन का निष्पादन स्वीकार कर लेता है तो बाद में वह वचनदाता को वचन का निष्पादन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

(iv) वैधानिक उत्तराधिकारी द्वारा निष्पादन-यदि अनुबन्ध के निष्पादन से पूर्व ही वचनदाता की मृत्यु हो जाती है तो अनुबन्ध के निष्पादन के लिये यदि व्यक्तिगत योग्यता या चातर्यता की आवश्यकता नहीं है तो उसके वैधानिक उत्तराधिकारी अनुबन्ध के निष्पादन के लिये बाध्य होंगे संयुक्त वचनदाताओं की दशा में -जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर कोई वचन देते ह ता उन सभी वचन देने वाले व्यक्तियों को संयुक्त वचनदाता कहते हैं। इस प्रकार दिये गये संयुक्त। वचन के निष्पादन के सम्बन्ध में उनका दायित्व निम्नलिखित प्रकार होगा

(v) संयुक्त उत्तरदायित्वों का निपटारा Devolution of Joint Liabilities)- जब दो या दास अधिक व्यक्तियों ने कोई संयक्त वचन दिया है तो जब तक कि अनुबन्ध से कोई विपरीत आशय प्रकट न हो तब तक अपने जीवन काल में उन सबको मिलकर अपने वचन को पूरा करना होगा और उनमें से किसी की मृत्यु के पश्चात उसके प्रतिनिधि को शेष जीवित वचनदाताओं के साथ मिलकर वचन को पूरा करना होगा और यदि सभी मूल वचनदाताओं की मृत्यु हो जाए तो उन सबके प्रतिनिधियों को संयुक्त रुप से वचन का निष्पादन करना होगा। उदाहरणार्थ अ, ब तथा स तीनों व्यक्ति मिलकर द को 30,000 ₹ चुकाने का वचन देते हैं यहाँ पर तीनों को मिलकर अपने वचन का निष्पादन करना चाहिए। ‘अ’ की मृत्यु पर ‘अ’ के प्रतिनिधि एवं ‘ब’ व ‘स’ को और ‘अ’ ‘ब’ ‘स’ तीनों की मृत्यु हो जाने पर तीनों के प्रतिनिधियों को वचन का निष्पादन करना चाहिए।

() संयुक्त वचनदाताओं में से किसी को भी वचन पूरा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है (Any one of Joint Promisors may be compelled to perform)- जब दो या दो अधिक व्यक्ति कोई संयुक्त वचन देते हैं तो स्पष्ट विपरीत अनुबन्ध के अभाव में वचनग्रहीता संयुक्त वचनदाताओं में से किसी एक या अधिक को सम्पूर्ण वचन के निष्पादन के लिए बाध्य कर सकता है। उदाहरण के लिए ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ संयुक्त रुप से ‘द’ को 30,000 ₹ देने का वचन देते हैं। द, ‘अ’ अथवा ‘ब’ या ‘स’ किसी को भी 30,000 ₹ देने के लिए बाध्य कर सकता है।

() प्रत्येक वचनदाता संयुक्त वचनदाताओं को अंशदान के लिए बाध्य कर सकता है (Each Promisor may Compel for Contribution)- विपरीत अनुबन्ध के अभाव में दो या दो से अधिक वचनदाताओं में से प्रत्येक को यह अधिकार होता है कि वह दूसरे वचनदाता को वचनों के निष्पादन में अपने साथ बराबर-बराबर अंशदान देने के लिए बाध्य कर सकता है। यदि संयुक्त वचनदाताओं में से कोई भी वचनदाता अपने भाग को चुकाने में असमर्थ रहता है तो शेष संयुक्त वचनदाताओं को ऐसी त्रुटि से होने वाली हानि को बराबर-बराबर भागों में सहन करना होगा। उदाहरण के लिए अ, ब, स तीनों व्यक्ति मिलकर संयुक्त रुप से ‘द’ से 3,000₹ उधार लेते है। द उनमें से सिर्फ ‘अ’ को सम्पूर्ण भुगतान के लिए बाध्य करता है तो द ‘अ’ ‘ब’ व ‘स’ से एक-एक हजार ₹ प्राप्त करने का अधिकारी है। यदि ‘ब’ दिवालिया हो जाता है और उससे कुछ वसूल नहीं हो सकता तो ‘अ’ ‘स’ से 1,500 ₹ पाने का अधिकारी होगा।

() किसी एक सुयंक्त वचनदाता की मुक्ति का प्रभाव (Effect of release of one Joint Promisor)-भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 44 के अनुसार यदि संयुक्त वचनदाताओं में से किसी एक वचनदाता को मुक्त कर दिया जाता है तो शेष वचनदाता भारमुक्त नहीं हो जाते हैं और न ही भारमुक्त किया गया वचनदाता अपने अन्य वचनदाताओं के प्रति अपने दायित्व से मुक्त होता है।

Regulatory Framework Discharge Contract

संयुक्त वचनग्रहीताओं के अधिकार

(Rights of Joint Promisee)

धारा 45 के अनुसार जब किसी व्यक्ति द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्तियों को संयक्त रुप से वचन दिया गया हो तो विपरीत अनुबन्ध के अभाव में उनके संयुक्त जीवन काल में उन सभी को निष्पादन की माँग करने का अधिकार रहता है। उनमें से किसी की भी मृत्यु के उपरान्त निष्पादन कराने का अधिकार उसके प्रतिनिधि तथा शेष जीवित वचनग्रहीताओं को रहता है, सभी मूल तचनग्रहीताओं की मृत्यु के पश्चात् उन सब के प्रतिनिधियों को संयुक्त रुप से अधिकार रहता है।

4.निष्पादन के लिए समय तथा स्थान (Time and Place of Performance)-निष्पादन के लिए समय तथा स्थान के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि यदि अनबन्ध के निष्पादन के लिए समय।

और स्थान का उल्लेख हो तो पक्षकारों को उसी स्थान और समय पर उसे निष्पादित करना चाहिए, परन्तु इस सम्बन्ध में उल्लेख न होने पर अनुबन्ध के निष्पादन के लिए निम्नलिखित नियम लागू होंगे

(i) जब वचनदाता को अपना वचन वचनग्रहीता के आवेदन के बिना परा करना है तथा। निष्पादन का समय निश्चित नहीं है-धारा 46 के अनुसार जहाँ अनुबन्ध के अनुसार किसी वचनदाता को वचनग्रहीता के आवेदन के बिना, अपने वचन का निष्पादन करता है और निष्पादन के लिये कोई समय निश्चित नहीं किया गया है तो वचन का निष्पादन यथोचित समय के अन्दर किया जाना चाहिए। यथोचित समय क्या है? वह एक तथ्य सम्बन्धी प्रश्न है जो प्रत्येक वाद की परिस्थितियों, प्रचलित व्यापारिक रीति-रिवाज तथा उन तथ्यों पर जिनका ध्यान पक्षकारों का अनुबन्ध करते समय था, निर्भर होता है।

उदाहरण एक पुस्तक विक्रेता ने ‘वाणिज्य-सन्नियम’ नामक पुस्तक की 20 प्रतिया भेजने का आदेश पुस्तक प्रकाशक को जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में दिया जिसमें उसके भेजने की कोई अवधि

यहाँ 8-10 दिन का समय यथोचित समय होगा। यदि आदेश मई, जून में भेजा गया होता तो एक माह का समय भी उचित माना जा सकता है।

(ii) जब वचनदाता को अपना वचन वचनग्रहीता के आवेदन के बिना पूरा करना है तथा निष्पादन का समय निश्चित है- धारा 47 के अनुसार जहाँ वचन के निष्पादन का दिन निश्चित है और वचनदाता को अपने वचन का निष्पादन वचनग्रहीता के बिना आदेश के करना है तो वचनदाता का यह कर्तव्य है कि बचन का निष्पादन उस निश्चित तिथि को सामान्य व्यापारिक समय में किसी भी समय उस स्थान पर करे जहाँ वचन का निष्पादन होना चाहिए।

उदाहरण ‘अ’ कुछ माल | जनवरी को ‘ब’ के गोदाम पर सुपुर्द करने का अनुबन्ध करता है। निश्चित तिथि पर किन्तु सामान्य व्यापारिक समय के पश्चात् अ माल को ब के गोदाम पर ले जाता है। गोदाम बन्द हो जाता है। यहाँ यह माना जायेगा कि ‘अ’ ने अपने वचन का निष्पादन नहीं किया।

(iii) जब वचन के निष्पादन का दिन निश्चित है तथा वचनदाता को अपना वचन वचनग्रहीता के आवेदन पर पूरा करना है-धारा 48 के अनुसार जहाँ वचन के निष्पादन का दिन निश्चित है तथा वचनदाता को अपना वचन वचनग्रहीता के आवदेन पर निष्पादित करना है तो वचनग्रहीता का यह कर्त्तव्य है कि यथोचित स्थान तथा समय पर निष्पादन के लिये आवेदन करे। यथोचित समय तथा स्थान क्या है, यह प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर होता है।

(iv) जब वचन का निष्पादन वचनग्रहीता के आवेदन के बिना ही किया जाना है तथा निष्पादन के लिए कोई स्थान निश्चित नहीं हैं-धारा 49 के अनुसार जहाँ वचन का निष्पादन वचनग्रहीता के आवेदन के बिना ही किया जाना है तथा उसके निष्पादन के लिए कोई स्थान निश्चित नहीं किया गया है तो वचनदाता का यह कर्तव्य है कि वचनग्रहीता से कोई यथोचित स्थान निश्चित करने के लिए आवेदन करे तथा उस निश्चित स्थान पर वचन का निष्पादन करे।

उदाहरण-राम ने श्याम को 1,000 टन कपास एक निश्चित तिथि को सुपुर्द करने का अनुबन्ध किया किन्तु स्थान निश्चित नहीं किया। इस स्थिति में राम द्वारा श्याम को निष्पादन का स्थान निश्चित करने के लिये आवेदन करना चाहिये तथा इस प्रकार निश्चित किए गए यथोचित स्थान पर माल की सुपुर्दगी करनी चाहिए।

(v) वचनग्रहीता की स्वीकृति अथवा आदेश के अनुसार वचन का निष्पादन-धारा 50 के अनुसार उपरोक्त के अतिरिक्त वचन का निष्पादन किसी भी ऐसी रीति से अथवा किसी भी ऐसे समय पर किया जा सकता है जिसके लिए वचनग्रहीता स्वीकृति अथवा आदेश दे। उदाहरण के लिए ‘अ’ 1,000 ₹ से ‘ब’ का ऋणी है। ‘ब’ ‘अ’ से कहता है कि ‘अ’ उसे 1,000 ₹ का नोट डाक द्वारा भेज दे। जिस समय ‘अ’ पत्र पर ठीक पता लिखकर एवं नोट रखकर पत्र को डाक में डाल देता है उसी समय ऋण का भुगतान हुआ मान लिया जायेगा।

5. पारस्परिक वचनों का निष्यादन (Performance of Reciprocal Promises)-धारा 2(1) के अनुसार “वचन जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल अथवा अंशिक प्रतिफल होते हैं पारस्परिक वचन कहलाते हैं।”अनुबन्ध एक पक्षीय अथवा द्विपक्षीय हो सकते हैं। एक पक्षीय अनुबन्ध में एक पक्षकार अपने वचन का निष्पादन कर चुका होता है तथा दूसरे पक्षकार को अपने वचन का निष्पादन करना शेष होता है। ऐसी दशा में यह आसानी से निश्चित किया जा सकता है कि दूसरा पक्षकार अपने वचन का निष्पादन कब करे। द्विपक्षीय अनुबन्धों में दोनों पक्षकारों को अपने वचनों का निष्पादन करना शेष होता है। ऐसी स्थिति में यह निश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है कि वह अपने वचनों का निष्पादन किस क्रम में करें। इस दृष्टिकोण से वचनों को निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया गया है

(i) अनुबन्ध जिनमें पारस्परिक वचनों का निष्पादन एक साथ होना है (Mutual and Concurrent Promises)- ऐसे अनुबन्ध में पक्षकारों को अपने-अपने वचनों का निष्पादन एक साथ करना होता है। ऐसे अनुबन्धों में किसी भी वचनदाता को अपना वचन उस समय तक परा करने की आवश्यकता नहीं है जब तक वचनग्रहीता अपने पारस्परिक वचन को पूरा करने के लिए तत्पर एवं इच्छुक न हो।

उदाहरण और ब के बीच यह अनुबन्ध होता है कि निश्चित तिथि पर अ, ब को शक्कर। प्रदान करेगा तथा ब, अ को 250 ₹ प्रति बोरी की दर से मूल्य भुगतान करेगा। जब तक ‘ब’ मूल्य। भुगतान करने के लिए तत्पर एवं इच्छुक न हो तब तक अ को शक्कर सुपुर्द करने की आवश्यकता नहीं। है। इसी प्रकार से जब तक ‘अ’ शक्कर सुपुर्द करने के लिये तत्पर एवं इच्छुक न हो तब तक ‘ब’ को। मूल्य-भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है।

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(ii) शर्त वाले एवं एक दूसरे पर निर्भर होने वाले पारस्परिक वचन (Conditional and Dependent Promises)- कुछ अनुबन्ध ऐसे होते हैं जिसमें शर्त वाले अथवा एक दूसरे पर निर्भर होने वाले पारस्परिक वचन होते हैं। ऐसे अनुबन्धों में एक वचन का निष्पादन हो जाने पर दूसरे वचन का। निष्पादन किया जाता है। ऐसे वचनों के सम्बन्ध में निम्नांकित तीन नियम हैं:

() ऐसे अनुबन्ध में जिसमें वह क्रम जिसमें पारस्परिक वचन निष्पादित किये जाने हैं, अनुबन्ध द्वारा स्पष्ट रुप से नियत हैं, तो वह उस क्रम से निष्पादित किये जायेंगे और यदि क्रम अनुबन्ध द्वारा स्पष्ट रुप से नियत नहीं है तो वे उस क्रम से निष्पादित किये जायेंगे जो व्यवहार के स्वभाव के अनुसार आवश्यक है।

उदाहरण-(i) अ, ब से अनुबन्ध करता है कि वह (अ) उसका (ब) एक चित्र एक निश्चित मूल्य पर बनाएगा। अ को अपना वचन ब द्वारा मूल्य भुगतान करने के वचन से पहले निष्पादित करना होगा।

(ii) एवं के बीच यह अनुबन्ध होता है कि अ अपना समस्त उत्पादन ब को एक निश्चित मूल्य पर सौंप देगा। ब यह वचन देता है कि वह सुपुर्द किए गये माल की रकम के भुगतान की जमानत देगा। जमानत मिलने से पूर्व अ द्वारा ब को माल सुपुर्द किया जाना आवश्यक नहीं है।

() ऐसे अनुबन्धों में, यदि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को अपने वचन का निष्पादन करने से रोकता है तो इस प्रकार रोके गये पक्षकार की इच्छा पर अनुबन्ध व्यर्थनीय हो जाता है तथा अनुबन्ध का निष्पादन न होने के फलस्वरुप उसे जो क्षति पहुँची है उसकी पूर्ति वह दूसरे पक्षकार से कराने का अधिकारी है।

उदाहरण-अ, ब से अनुबन्ध करता है कि वह ‘अ’, एक चित्र एक निश्चित मूल्य पर बनाकर उसे देगा। अ इस कार्य को करने के लिए तत्पर एवं इच्छुक है किन्तु ब उसे ऐसा करने से रोकता है। यह अनुबन्ध अ की इच्छा पर व्यर्थनीय है और यदि ‘ब’ अनुबन्ध को निरस्त करता है तो ‘अ’, ‘ब’ से क्षति की पूर्ति कराने का अधिकारी है।

() ऐसे अनुबन्ध में यदि वचन को पहले निष्पादित करने के लिये उत्तरदायी पक्षकार अपने वचन का निष्पादन करने में असफल रहता है, तो ऐसा वचनदाता पारस्परिक वचन के निष्पादन की माँग नहीं कर सकता तथा वह दूसरे पक्षकार को ऐसी क्षति की पूर्ति करेगा जो उसे (दूसरे पक्षकार को) अनुबन्ध का निष्पादन न होने की स्थिति में उठानी पड़े।

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उदाहरण-अ, ब को 100 क्विन्टल सरसों का तेल 1.050 ₹ प्रति क्विन्टल की दर से सुपर्द करने का अनुबन्ध करता है। सुपुर्द किए गए तेल का मूल्य एक माह उपरान्त भुगतान किया जायगा। अ अपने वचन का निष्पादन नहीं करता तो ब भुगतान का वचन पूरा करने के लिए बाध्य नहीं है। ‘ब’ माल को सुपुर्द न किए जाने के कारण हुई क्षति की पूर्ति ‘अ’ से करा सकता है।

(iii) अनुबन्ध जिनमें पारस्परिक वचन स्वतन्त्र होते हैं (Mutual and Independent Promises)- ऐसे अनुबन्धों में प्रत्येक पक्षकार को अपने-अपने वचन को स्वतन्त्र रुप से निष्पादित करना चाहिए। कोई भी पक्षकार यह नहीं कह सकता कि उसने अपने वचन का निष्पादन इसलिये नहीं किया कि दूसरे ने अपने वचन का निष्पादन नहीं किया। प्रत्येक को अपने-अपने वचनों का निष्पादन दुसरे की प्रतिक्षा किए बिना ही कर देना चाहिए। यदि दूसरा पक्षकार अपने वचन का निष्पादन नहीं करता तो क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी होगा।

उदाहरण- एक वस्तु विक्रय अनुबन्ध के अन्तर्गत यह निश्चित हो जाता है कि अ, ब को मूल्य 10 अप्रैल को देगा तथा ब, अ को माल की सुपुर्दगी 25 मई को करेगा। इस अनुबन्ध में अ द्वारा मूल्य भगतान किया जाना ब द्वारा माल की सुपुर्दगी किए जाने से स्वतन्त्र है। यदि अ 10 अप्रैल को मूल्य का भगतान नहीं करता तो भी ब 25 मई को माल की सुपुर्दगी देने के लिये बाध्य है।

(iv) जहाँ समय अनुबन्ध का सार तत्व हो (Where Time is essence of the Contract)धारा 55 के अनुसार (अ) यदि अनुबन्ध का एक पक्षकार किसी बात को एक निश्चित समय पर अथवा व्यावसायिक नियामक ढाँचा उससे पूर्व पूरा करने का वचन दे किन्तु ऐसा करने में असफल रहे तो अनुबन्ध अथवा उसका उतना भाग जो निष्पादित नहीं किया गया हो, वचनग्रहीता की इच्छा पर व्यर्थनीय हो जाता है।

() किन्तु यदि पक्षकारों का अभिप्राय यह नहीं था अर्थात् समय अनुबन्ध का सारतत्व नहीं था। तो निश्चित समय पर अथवा उससे पूर्व ऐसी बात के न होने से अनबन्ध व्यर्थनीय नहीं हो जाता, किन्तु ऐसी असफलता के कारण यदि वचनग्रहीता को कोई क्षतिपर्ति होती हैं तो वह वचनदाता से क्षतिपूर्ति कराने का अधिकारी है।

() वचनदाता द्वारा निश्चित समय पर वचन का निष्पादन नहीं होता तो अनुबन्ध व्यर्थनीय हो जाता है, किन्तु यदि वचनग्रहीता निश्चित समय के अतिरिक्त अन्य किसी दूसरे समय पर वचन का निष्पादन स्वीकार कर लेता है तो वचनग्रहीता निश्चित समय पर वचन के निष्पादित न होने के कारण किसी हानि की क्षतिपूर्ति की मांग नहीं कर सकता जब तक कि वह ऐसी स्वीकृति के समय क्षतिपूर्ति कराने के अभिप्राय की सूचना वचनदाता को नहीं दे देता।

(v) निष्पादन की असम्भवता (Impossibility of performance)-धारा 56 के अनुसार असम्भव कार्य को करने का ठहराव स्वत: व्यर्थ होता है। ऐसे कार्य का अनुबन्ध जो अनुबन्ध के पश्चात् असम्भव हो जाए अथवा ऐसी घटना के घटने के कारण अवैधानिक हो जाए जिसे वचनदाता नहीं रोक सकता था, असम्भवता या अवैधनिकता होने पर व्यर्थ हो जाता है।

(vi) वैधानिक तथा अवैधानिक कार्य करने के सम्बन्ध में पारस्परिक वचन (Reciprocal Promises to do things legal and also other things illegal)-धारा 57 के अनुसार जब पक्षकार पहले तो कुछ वैध कार्य करने के लिए तथा बाद में निश्चित परिस्थितियों में कुछ अवैध कार्य करने के लिए पारस्परिक वचन देते हैं तो पहले वचनों का भाग अनुबन्ध होता है परन्तु दूसरे वचनों का भाग व्यर्थ ठहराव होता है।

उदाहरण- अ और ब आपस में वह ठहराव करते हैं कि ‘अ’ अपना भवन 50,000 ₹ में ब को बेचेगा किन्तु ‘ब’ उसे जुआघर के रुप में प्रयोग करेगा तो उसके लिए उसे 1 लाख ₹ देना होगा। यहाँ ठहराव का प्रथम भाग वैधानिक है और दूसरा भाग अवैध होने के कारण व्यर्थ है।

(vii) वैकल्पिक वचन (Alternative Promises)-धारा 58 के अनुसार जब किसी वैकल्पिक वचन की एक शाखा वैधानिक हो तथा दूसरी शाखा अवैधानिक हो तो वैधानिक शाखा को प्रवर्तित कराया जा सकता है।

उदाहरण और ब के बीच यह ठहराव होता है कि अ, ब को 20,000 ₹ देगा जिसके बदले ब या तो चावल या चुराई गई अफीम देगा। चावल का अनुबन्ध वैध है परन्तु चुराई गई अफीम का अनुबन्ध व्यर्थ है।

6. भुगतानों का नियोजन (Appropriation of Payments)-जब किसी व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति का केवल एक ही ऋण अदा करना है तो कोई एक भुगतान करने पर नियोजन की समस्या उत्पन्न नहीं होती परन्तु जब ऋणी को ऋणदाता के कई ऋण देने हैं तो ऐसी स्थिति में जब वह एक भुगतान करता है जो कि सभी ऋणों के भुगतान के लिए पर्याप्त नहीं होता तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है। कि भुगतान को किस ऋण के भुगतान के रुप में स्वीकार किया जाये। ऐसी दशा में भुगतान के नियोजन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित नियम हैं

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(i) ऋणी के निर्देशानुसार नियोजनधारा 59 के अनुसार जब किसी ऋणी को किसी ऋणदाता के एक से अधिक ऋण देने हैं और ऋणी स्पष्ट सूचना के साथ किसी विशेष ऋण का भुगतान करता है। तो ऋणदाता द्वारा भुगतान स्वीकार किये जाने पर उसे उस विशेष ऋण के लिए ही धन का नियोजन करना चाहिए। यदि ऋणी द्वारा कोई स्पष्ट सूचना नहीं दी गयी है किन्तु परिस्थितियों से ऐसा स्पष्ट होता है। कि भुगतान किसी विशेष ऋण के सम्बन्ध में है तो ऋणदाता को उसी विशेष ऋण के सम्बन्ध में उसका नियोजन करना चाहिए। उदाहरण के लिए ‘अ’ ‘ब’ का कईं ऋणों के लिए ऋणी है, उनमें से एक 1,000₹ का ऋण प्रतिज्ञा पत्र द्वारा लिया गया है जिसका भुगतान 1 फरवरी 2015 को होना है। ‘अ’ द्वारा ‘ब’ को कोई अन्य 1,000 ₹ का ऋण नही दिया गया है। 1 फरवरी 2015 को ‘अ’ ‘ब’ को 1000 ₹ भेजता है। मामले की परिस्थितियों के अनुसार उस भुगतान का नियोजन प्रतिज्ञा-पत्र पर लिये गये ऋण के भुगतान के लिए किया जायेगा।

(ii) ऋणी द्वारा निर्देश दिये जाने पर भुगतान का नियोजन-धारा 60 के अनुसार जहाँ ऋणी ने न तो कोई निर्देश दिया है और न ही ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिससे कोई अनुमान लगाया जा सके कि

स्वाति प्रकाशन भगतान किस ऋण के लिए है तो ऐसी स्थिति में ऋणदाता भुगतान को अपनी इच्छानुसार किसी भी ऐसे वैधानिक ऋण के भुगतान के लिए नियोजित कर सकता है जो वास्तव में ऋणी द्वारा उसे चकाया जाना। है. चाहे उसका प्राप्त करना प्रचलित लिमिटेशन अधिनियम के अनुसार अवधि वर्जित है अथवा नहीं।

(iii) जहाँ कोई भी पक्षकार भुगतान का नियोजन नहीं करता-धारा 61 के अनुसार जब कोई भी। पक्षकार (ऋणी या ऋणदाता) भुगतान का नियोजन नहीं करता तो भुगतान का प्रयोग ऋणों के भुगतान में। समय के क्रम के अनुसार किया जायेगा चाहे वह प्रचलित अधिनियम के अनुसार अवधि वर्जित हो अथवा नहीं। यदि ऋण समकालीन हैं अर्थात एक ही तिथि पर भुगतान किये जाने हैं तो भुगतान का प्रयोग प्रत्येक ऋण के अनुपातिक भुगतान के रुप में किया जायेगा। इस सम्बन्ध में ‘मिल्स बनाम फॉक्स’, (Mills Vs Fowkes, 1839) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है। इसके अनुसार ‘अ’ ‘ब’ के प्रति 100 पौण्ड तथा 150 पौण्ड के दो ऋणों का देनदार था, इनमें से प्रथम 100 पौण्ड का ऋण अवधि वर्जित था। ‘अ’ ने ‘ब’ को 15 पौण्ड का भुगतान किया, किन्तु यह निर्देश नहीं दिया कि वह किस ऋण के नियोजन के लिए काम में लाया जाये। ‘ब’ ने ‘अ’ पर दोनों ऋणों के लिए 250 पौण्ड का वाद प्रस्तुत किया। ‘अ’ ने अपने बचाव में तर्क दिया कि 100 पौण्ड का ऋण अवधि वर्जित है अतएव भुगतान का प्रयोग 150 पौण्ड के ऋण को कम करने में किया जाय। इस सम्बन्ध में न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘अ’ ने यह निर्देश नहीं दिया। था कि 15 पौण्ड के भुगतान को 150 पौण्ड वाले ऋण के सम्बन्ध में माना जाये, अत: ऋणदाता 15 पौण्ड के भुगतान का नियोजन 100 पौण्ड वाले अवधि वर्जित ऋण के लिए कर सकता था। इसलिए ऋणदाता 150 पोण्ड प्राप्त करने का अधिकारी है।

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(II) पारस्परिक सहमति द्वारा अनुबन्ध की समाप्ति

(Discharge by Mutual Consent or Agreement)

जिस प्रकार अनुबन्ध की उत्पत्ति पक्षकारों की परस्पर सहमति से होती है उसी प्रकार अनुबन्ध की समाप्ति भी पक्षकारों की पारस्परिक सहमति अथवा ठहराव द्वारा हो सकती है। अधिनियम की धारा 62 के अनुसार “यदि अनुबन्ध के पक्षकार मूल अनुबन्ध के स्थान पर किसी नये अनुबन्ध को रखना चाहें अथवा उसे रद्द करना चाहें अथवा उसे बदलना चाहें तो मूल अनुबन्ध को पूरा करने की आवश्यकता नहीं रहती।” अनुबन्ध के सभी पक्षकारों की सहमति से मूल अनुबन्ध को निम्नलिखित प्रकार से समाप्त किया जा सकता है

(1) नवकरण द्वारा (By Novation)–’नवकरणका साधारण आशय पुराने अनुबन्ध के स्थान पर नए अनुबन्ध का प्रतिस्थापन करना है। हाउस ऑफ लार्डस् के अनुसार पुराने अनुबन्ध को समाप्त करने के प्रतिफल में उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा नए पक्षकारों के मध्य पुराने अनुबन्ध के स्थान पर नवीन अनुबन्ध की स्थापना करने को नवकरण कहते हैं। सर फैड्रिक पोलाक के अनुसार ‘मूल अनुबन्ध का खण्डन कर देने के पश्चात् यदि उसके स्थान पर नया अनुबन्ध करते हैं तो इसे नवकरण कहते हैं।’

वस्तुत: नवकरण पुराने अनुबन्ध के बदले में उस नए अनुबन्ध को कहते हैं जिसमें मल अनबन्ध का एक पक्षकार अपने सारे उत्तरदायित्वों से मुक्ति पा लेता है और उसके बदले कोई नया पक्षकार उस उत्तरदायित्व को स्वीकार कर लेता है।

उदाहरणस्वरुप (i) ‘‘ ‘का 500₹ का ऋणी है ‘ब’ और स के बीच यह ठहराव होता है कि ‘ब’ अ के बदले ‘स’ को अपना ऋणी स्वीकार करेगा। इस ठहराव के अनुसार ‘अ’ और ‘ब’ के बीच पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और ‘स’ और ‘ब’ के बीच नए ऋण का अनुबन्ध प्रारम्भ हो जाता है।

(ii) राम, श्याम का 5,000 ₹ से ऋणी है जिसके लिये राम ने एक प्रतिज्ञापत्र लिखकर श्याम को। दिया है। प्रतिज्ञापत्र की अवधि समाप्त हो जाने पर राम तथा श्याम यह स्वीकार करते हैं कि श्याम। 3,000 ₹ नकद तथा 2,000₹ का नया प्रतिज्ञापत्र स्वीकार कर लेगा। राम ने न तो 3.000₹ दिये और न । नया प्रतिज्ञा पत्र ही दिया। श्याम ने 5,000₹ के लिए राम पर वाद प्रस्तत किया। राम ने ‘नवकरण’ का। तर्क दिया। निर्णय में बताया गया कि मूल अनुबन्ध के खण्डित हो जाने के उपरान्त नवकरण नहीं हो सकता।

(iii) , का 5,000 ₹से ऋणी है जिसके लिए अ ने ब को एक देय विनिमय विपत्र (Bills | Pavable) दे रखा है। अ ने देय विपत्र के स्थान पर एक बन्धक-पत्र दिया जिसका पंजीयन कराया जाना। अनिवार्य है किन्तु पंजीयन नहीं कराया गया। यह नवकरण नहीं हैं क्योंकि नवीन अनुबन्ध विधि द्वारा मान्य अनुबन्ध नहीं है।

(i) मिलर के वाद में, एक बीमा कम्पनी ने, मिलर द्वारा, एक निश्चित वार्षिक प्रीमियम देने का बदले, यह स्वीकार किया कि मिलर की मृत्यु के उपरान्त कम्पनी मिलर के परिवार को 200 पौण्ड का व्यावसायिक नियामक ढाँचा वार्षिकी देगी। अनुबन्ध के उपरान्त ‘युरोपियन एसोसिएशन’ ने बीमा कम्पनी के व्यापार को क्रय कर लिया। ठहराव में वह निश्चित हुआ था कि यरोपियन एसोसिएसन बीमा कम्पनी के सभी अनुबन्धों के लिए उत्तरदायी होगी। मिलर भी इस ठहराव को मानकर प्रीमियम देता गया। यहाँ मिलर और बीमा कम्पनी के बीच अनुबन्ध की समाप्ति होकर यूरोपियन एसोसिएशन तथा मिलर के बीच नवीन अनुबन्ध का आरम्भ हुआ।

(2) अधिकार त्याग द्वारा (By Recession or Waiver)-धारा 63 के अनुसार प्रत्येक वचनग्रहीता को यह अधिकार प्राप्त है कि वह वचनदाता द्वारा दिए गए वचन का (i) निष्पादन पूर्णरुप से त्याग दें अथवा (ii) निष्पादन आंशिक रुप से छोड़ दे, अथवा (iii) निष्पादन का समय बढ़ा दे, (iv) अथवा इसके स्थान पर जो भी उचित समझे, स्वीकार कर ले। ऐसी मुक्ति तथा छुटकारा त्याग माना जायेगा तथा मूल अनुबन्ध को पूरा करने का दायित्व समाप्त हो जाएगा।

उदाहरण-(i) अ, ब को एक चित्र बनाने का वचन देता है। बाद में ब, अ को ऐसा करने से रोक देता है। अब ‘अ’ वचन को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं है। (ii) अ, ब का 7,000 ₹ से ऋणी है। अ, ब को 5,000 ₹ देता है और ब उन्हें पूर्ण भुगतान के रुप में स्वीकार करता है। यहाँ अनुबन्ध पूरा हुआ माना जाएगा।

(3) परिवर्तन द्वारा (By Alteration)- परिवर्तन के अन्तर्गत पुराने अनुबन्ध को पूर्णत: नहीं बदला जाता अपितु परिवर्तित शर्तों के साथ नया अनुबन्ध प्रतिस्थापित किया जाता है। शर्तों में परिवर्तन अनुबन्ध के समय, स्थान अथवा राशि के संम्बन्ध में हो सकता है परन्तु पक्षकारों में नहीं अर्थात् मूल अनबन्ध के पक्षकार तो वहीं रहते हैं परन्तु अनुबन्ध की शर्ते बदल जाती हैं।

उदाहरण, को 2 एकड़ जमीन एक माह बाद 500 ₹ प्रति एकड़ की दर से बेचने का वचन देता है। बाद में अ और ब इस प्रकार का परिवर्तन कर लेते हैं कि अ 5 एकड़ जमीन चार माह के बाद 550 ₹ प्रति एकड़ की दर से देगा। बाद वाला परिवर्तित अनुबन्ध पूर्व के अनुबन्ध को समाप्त कर देता है।

(4) आश्वासन एवं सन्तुष्टि द्वारा (By Accord and Satisfaction)-आश्वासन एवं सन्तुष्टि में एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को नया प्रतिफल देता है और दूसरा पक्षकार इस नए प्रतिफल के बदले में अपने मूल अनुबन्ध को छोड़ देता है। इस प्रकार से जब अनुबन्ध का एक पक्षकार, मुक्ति पाने के उद्देश्य से, अनुबन्ध के उत्तरदायित्व से भिन्न कोई अन्य कार्य करने के लिए सहमत हो जाये और जब वह इस कार्य को पूरा कर दे तथा दूसरे पक्षकार द्वारा मुक्त कर दिया जाये तो ऐसी स्थिति में अनुबन्ध आश्वासन एवं सन्तुष्टि द्वारा समाप्त समझा जाता है। आश्वासन एवं सन्तुष्टि के अन्तर्गत प्रायः ऐसे ठहराव आते हैं. जिनके अन्तर्गत (अ) ऋणदाताओं को निश्चित समय पर अथवा उसके पूर्व आंशिक भुगतान कर दिया जाता है तथा वे उसे पूर्ण प्रतिफल के रुप में स्वीकार कर लेते हैं अथवा (ब) जब किसी अनुबन्ध के अन्तर्गत देय राशि के सम्बन्ध में कोई विवाद होने पर पारस्परिक समझौते द्वारा निश्चित की गई राशि का भुगतान किया जाय अथवा (स) ऋणी के दिवालिया होने की स्थिति में समझौते के अनुसार कम राशि दी जाए।

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(III) निष्पादन की असम्भवता द्वारा अनुबन्ध की समाप्ति

(Discharge by Impossibility of Performance)

धारा 56 के अनुसार असम्भव कार्य को करने के ठहराव व्यर्थ होते हैं। राजनियम उसको कोई मान्यता नहीं देता जो असम्भव है (Lex non cogitad impossibillium) तथा जो असम्भव है वह कोई उत्तरदायित्व उत्पन्न नहीं करता (Impossibillium nulla obligatioest) ऐसे अनुबन्धों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

() आरम्भ से ही असम्भव कार्य को करने के अनुबन्ध- किसी भी ऐसे कार्य को सम्पन्न करने का ठहराव जो आरम्भ से ही असम्भव है, व्यर्थ होता है।

उदाहरण– (i) ‘‘ 500 ₹ के बदले जादू से एक खजाना खोजने का ‘ब’ से ठहराव करता है।

(ii) ‘अ’ एक निश्चित प्रतिफल के बदले पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का ‘ब’ से ठहराव करता है। असम्भवता के कारण यह ठहराव व्यर्थ है।

() उत्तरवर्ती असम्भवता-उत्तरवर्ती असम्भवता ऐसे कार्य को करने का ठहराव है जो अनबन्ध के समय सम्भव था किन्तु अनुबन्ध के उपरान्त असम्भव हो जाता है अथवा किसी ऐसी घटना के घटित होने के परिणामस्वरुप, जिसको प्रस्तावक घटित होने से रोक नहीं सकता, अवैधानिक हो जाता है तो ठहराव व्यर्थ हो जाता है। ऐसी असम्भवता को विवशता का सिद्धान्त (Doctrine of Frustration)| अथवा उत्तरवर्ती असम्भवता (Supervening Impossibility) कहत हा

उत्तरवर्ती अथवा आकस्मिक असम्भवता का सिद्धान्त  

(Doctrine of Supervening. Impossibility)

यह सिद्धान्त निम्नलिखित स्थितियों में प्रभावशील होता है :

1 राजनियम में परिवर्तन द्वारा (By Change in Law)-दो पक्षकारों के मध्य आनुबन्धिकमा सम्बन्ध स्थापित हो जाने के पश्चात परन्त निष्पादन से पूर्व यदि सरकार द्वारा किसी अधिनियम में परिवर्तन करके वह कार्य जिसके सम्बन्ध में अनबन्ध किया गया था, निषेध अथवा अवैधानिक घोषित कर दिया जाये तो पक्षकार अपने-अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते हैं और किसी को भी एक दूसरे के भी प्रति कोई अधिकार प्राप्त न होगा। पक्षकार यद्यपि अपने वचन का पालन करने के लिए तैयार एवं इच्छक। हैं परन्तु राजनियम की व्यवस्थाओं में परिवर्तन के कारण विवश हैं। अत: इस प्रकार किसी राजनियम द्वारा अथवा उसकी व्यवस्थाओं में परिवर्तन द्वारा अनुबन्ध का उद्देश्य अथवा प्रतिफल अवैध हो जाता है। इस सम्बन्ध में Kussele Vs. Timber Operators and Contractors 1927 का मामला उल्लेखनीय यो है। इस मामले के अन्तर्गत ‘अ’ने ‘ब’ को एक विशेष जंगल की लकड़ी काटकर सप्लाई करने का वचन दिया परन्तु वास्तविक निष्पादन से पहले ही सरकार द्वारा उस जंगल से लकड़ी काटना वर्जित कर दिये जाने के कारण ‘अ’ अब उस जंगल विशेष से लकड़ी काटकर सप्लाई करने में असमर्थ है, अत: अनुबन्ध इस आधार पर व्यर्थ है।

इसी प्रकार मुस्लिम कानून (Muslim Law) के अन्तर्गत एक व्यक्ति एक समय में चार पलियाँ रख सकता है अत: यदि वह व्यक्ति एक पत्नी के रहते हुये किसी दूसरी स्त्री से विवाह का अनुबन्ध पा करता है, परन्तु विवाह होने के पूर्व ही सरकार द्वार Special Marriage Act पास करके एक पत्नी के रहते, न दूसरा विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है तो पक्षकारों के मध्य किया गया अनुबन्ध व्यर्थ होगा।

2. अनुबन्ध की विषय वस्तु के नष्ट होने पर (By destruction of the subject-matter of Contract)- अनुबन्ध निर्माण के उपरान्त, पक्षकारों के किसी दोष के बिना अनुबन्ध की विषय वस्त. जो अनुबन्ध निष्पादन के लिये अति आवश्यक है, नष्ट हो जाये तो अनुबन्ध व्यर्थ हो जाता है और पक्षकार निष्पादन से मुक्त हो जाते हैं। इस विषय में Taylor Vs Caldwell 1862 के मामले में । न्यायाधीश ब्लैकबन ने अपना निर्णय देते हुये कहा, “ऐसे अनुबन्ध जिनका निष्पादन किसी विशिष्ट व्यक्ति या वस्तु के निरन्तर अस्तित्व पर निर्भर होता है, उनमें यह गर्भित शर्त मानी जाती है कि सम्बन्धित व्यक्ति या वस्तु के नष्ट हो जाने की स्थिति में दोनों पक्षकार दायित्व से मुक्त हो जायेंगे।”

उदाहरण6) अमित ने अपना थियेटर एक सप्ताह के लिये राहुल को देने का वचन दिया। राहुल । द्वारा थिएटर में अपना एक नाटक “तीन सुकरात’ प्रस्तुत किया जाना था, निश्चित दिन आने से पूर्व ही – अचानक अमित के थियेटर में आग लग जाती है और थिएटर पूर्णरुपेण नष्ट हो जाता है जिससे अमित । अपना वचन निष्पादन करने में असमर्थ हो जाता है। अत: यह अनुबन्ध व्यर्थ होगा। (ii) V.L. Narasu Vs. P.S.V. lyer, I.L.R. 1953 Madras 831 के एक मामले के अनुसार अ ने एक निश्चित दिन: अपना एक चलचित्र ब के थिएटर में प्रस्तुत करने का निश्चिय किया और ब के थिएटर को किराये पर लेने का अनुबन्ध किया। ब का थिएटर असुरक्षित व दोषपूर्ण होने के कारण नगर निगम अधिकारियों द्वारा उसको चलचित्र प्रदर्शन के नियत दिन से पूर्व गिरवा दिया गया, ब को थियेटर के असुरक्षित अथवा दोषपूर्ण होने की कोई जानकारी नहीं थी। न्यायालय ने आकस्मिक असम्भवता के कारण अनुबन्ध व्यर्थ कर दिया।

3. व्यक्तिगत असमर्थता एवं मृत्यु (Personal Incapacity or Death)- वचनदाता का व्यक्तिगत योग्यता, कुशलता, अथवा सेवा पर निर्भर होने वाले अनुबन्ध, उसकी मृत्यु या अन्य प्रकार स असमर्थ होने पर समाप्त हो जाते हैं।

उदाहरण-(i) कमल, दिनेश के थिएटर में प्रति सप्ताह निश्चित प्रतिफल के बदले एक माह तक गाने का अनुबन्ध करता है। कई अवसरों पर कमल गला खराब होने की स्थिति में गाना गाने म असा रहता है, अत: इन अवसरों पर गाना गाने का अनुबन्ध समाप्त हो जाता है। (i) X ने Y का एक । 100 ₹ अग्रिम पाने पर बनाने का वचन दिया, परन्तु निष्पादन से पूर्व ही स्कूटर दुर्घटना में उसका मूल हो गई। अत: अनुबन्ध व्यर्थ है।

4.घटना के घटित होने पर (Non-happening of an event)- यदि अनुबन्ध का निमा किसी घटना के घटित होने पर निर्भर है तो ऐसी घटना के घटित न होने अथवा घटित होने में असम्भ होने पर अनबन्ध व्यर्थ होगा। उदाहरण के लिये Krell Vs. Henry (1903) 2.L.K.B.740 के मामले के अनसार अ ने एक निश्चित दिन होने वाले किसी समारोह को देखने के लिये ब के कमरे को किराये। पर लेने का अनुबन्ध किया, परन्तु समारोह के मुख्य पात्र की अचानक बीमारी के कारण निश्चित दिन समारोह न हो सका। अत: अनुबन्ध की मुख्य घटना घटित न होने के कारण अनुबन्ध व्यर्थ होगा।।

5.मूल अवस्था में परिवर्तन (Change or discontinuance of a state of things essential for the performance)-यदि अनुबन्ध किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों के निरन्तर बने रहने के आधार पर निर्भर है तो उन परिस्थितियों में परिवर्तन होने या उनके न बने रहने पर अनुबन्ध समाप्त हो जाता है। ।

उदाहरण (i) अ ने ब के साथ विवाह का वचन दिया परन्तु विवाह के निश्चित समय से पूर्व ही अ या ब के पागल होने की दशा में अनुबन्ध व्यर्थ होगा (i) अ. भारत से कुछ सामान ब को पाकिस्तान में सपर्द करने का ठहराव करता है, परन्तु निष्पादन से पूर्व ही दोनों देशों में युद्ध छिड़ जाता है। युद्ध की घोषणा के बाद से ही अनुबन्ध व्यर्थ है।

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आकस्मिक असम्भवता सिद्धान्त का लागू होना या आकस्मिक असम्भवता सिद्धान्त की सीमाएँ

(Non-applicability of Doctrine of Supervening Impossibility)

यद्यपि निष्पादन की असम्भवता पर अनुबन्ध समाप्त हुआ माना जाता है लेकिन निम्नलिखित – परिस्थितियों में निष्पादन की असम्भवता के आधार पर कोई व्यक्ति निष्पादन से मुक्त नहीं हो सकता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है :

1 निष्पादन की कठिनाई (Difficulty in Performance of Promise)-ठहराव के अन्तर्गत -दिये गये वचन का निष्पादन करना, यदि पक्षकारों द्वारा कठिन हो जाता है, तो निष्पादन की इस कठिनाई को ‘अनुबन्ध व्यर्थ’ करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है, अत: असम्भवता का सहारा नहीं लिया जा सकता। इस आधार पर निष्पादन के दायित्व से तभी बचा जा सकता है जबकि घटनाक्रम के परिणामस्वरुप्, ठहराव के समय जो स्थिति पक्षकारों द्वारा अपेक्षित थी, उसमें परिवर्तन से, भौतिक या वैधानिक रुप से, वचनदाता द्वारा अनुबन्ध का निष्पादन असम्भव हो जाये।

उदाहरण अ ने समुद्री मार्ग से कुछ समान मद्रास से पंजिम (गोवा) दिसम्बर माह में भेजने का वचन दिया, परन्तु नवम्बर माह में युद्ध छिड़ जाने के परिणामस्वरुप, जहाजी भाड़े की दरों में काफी वृद्धि हो गई, जिसके परिणामस्वरुप अ दिसम्बर माह में अपने वचन का निष्पादन करने में असमर्थ है! यहाँ | ‘अ’ केवल जहाजी भाड़े में वृद्धि के आधार पर निष्पादन के दायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता, अत: उसे दूसरे पक्षकार की क्षतिपूर्ति करनी होगी।

2. व्यापारिक असम्भवता (Commercial Impossibility)-केवल इस आधार पर कि अनुबन्ध का निष्पादन किसी पक्षकार के लिये अलाभकारी होगा, उसको वचन के निष्पादन से मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती।

3. आंशिक असम्भवता (Partial Impossibility)- यदि ठहराव एक से अधिक उद्देश्यों के लिये किया गया है तो उनमें से किसी एक उद्देश्य की पूर्ति न होने के आधार पर, अनुबन्ध समाप्त नही किया जा सकता।

उदाहरण अ ने राजा के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में होने वाले सामुद्रिक विहार व जहाजी बेड़े के चारों ओर चक्कर लगाने के लिये ब की नाव किराये पर लेने का ठहराव किया। अचानक राजा की बीमारी के कारण सामुद्रिक विहार का कार्यक्रम समाप्त कर दिया गया, परन्तु जहाजी बेड़ा यथानुसार एकत्रित किया गया। अत: उद्देश्य के आंशिक रुप (प्रथम उद्देश्य) से असम्भव होने को अनुबन्ध व्यर्थ करने का आधार नहीं बनाया जा सकता।

4. हड़ताल, तालाबन्दी एवं नागरिक शांति के भंग से सम्बन्धित असम्भावता (Impossibility due to strikes, lock-outs and civil disturbances)- यदि इसके विपरीत स्पष्ट रुप से कोई अनुबन्ध न कर लिया गया हो, तो अनुबन्ध का कोई भी पक्षकार हड़ताल, तालाबंदी अथवा नागरिक अशांति के आधार पर वचन के निष्पादन से मुक्त नहीं किया जा सकता, अत: इनको अनुबन्ध की समाप्ति का बहाना नहीं बनाया जा सकता है।

दाहरण– अ ने ब को कुछ वस्तु विक्रय करने का ठहराव किया जो भारत के बाहर से प्राप्त की जानी थी, परन्तु नागरिक अशांति, उपद्रव व हड़तालों के कारण वस्तुएं उपलब्ध न हो सकी। अतः अ, व को वस्तुओं की सुपुर्दगी न दे सका। निष्पादन की असम्भवता के कारण अनुबन्ध व्यर्थ नहीं माना। जा सकता और अ को ब की क्षतिपूर्ति करनी होगी।

5. तृतीय पक्षकार के आचरण से सम्बन्धित असम्भवता (Impossibility arising due to the conduct of third partyl_राजनियम का यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि यदि एक व्यक्ति अनुबन्ध क अन्तर्गत किसी ततीय पक्षकार के, ऐच्छिक कार्य का दायित्व स्वीकार करता है तो उसे वह

सम्बन्धित पक्षकार (ततीय पक्षकार) से परा करा सकने के योग्य होने का आश्वासन देने की क्षमता। मा रखना चाहिये। अत: ऐसा अनबन्ध जो किसी तृतीय पक्षकार के आचरण पर निर्भर है, इस कारण व्यथ नहा हो जायेगा कि तृतीय पक्षकार द्वारा अपेक्षित आचरण नही किया गया। ऐसी दशा में वचनदाता. वचनग्रहीता के प्रति क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य होगा।

उदाहरण, ब को स द्वारा निर्मित वस्तुएँ बेचने का अनुबन्ध करता है, परन्तु ‘स’ वह वस्तुएँ। निर्मित करके नहीं दे पाता। अ, ब के प्रति क्षतिपूर्ति के लिये दायी है।

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उत्तरवर्ती या आकस्मिक असम्भवता के परिणाम

(Effect of Supervening Impossibility)

(i) धारा 56 के अनुसार आकस्मिक असम्भवता के कारण निष्पादन असम्भव हो जाने पर अनुबन्ध व्यर्थ हो जाता है और पक्षकार अपने वचनों से मुक्त हो जाते हैं।

(ii) धारा 56 के ही अनुसार, यदि वचनदाता को यह जानकारी थी या यथोचित परिश्रम से वह यह जान सकता था कि अनुबन्धित कार्य का करना असम्भव या अवैधानिक था, परन्तु वचनग्रहीता को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी तो वचनदाता वचनग्रहीता की क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य है। उदाहरण के लिये अ, ब से विवाह करने का अनुबन्ध करता है। अ पहले से ही शादीशुदा है और सम्बन्धित राजनियम के अनुसार वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता। ब इस तथ्य से परिचित नहीं है कि अका विवाह पहले ही हो चुका है। अ, ब की क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य है।

(iii) धारा 65 के अनुसार यदि किसी पक्षकार ने दूसरे पक्षकार से अनुबन्ध के अन्तर्गत कोई लाभ प्राप्त कर लिया है तो वह उस लाभ को दूसरे पक्षकार को वापिस करने या क्षतिपूर्ति करने के लिए बाध्य है। उदाहरण के लिए, राम, महेश के यहाँ 5,000₹ के प्रतिफल में गाना गाने का अनुबन्ध करता है जिसका भुगतान अग्रिम कर दिया गया है। राम अपनी बीमारी के कारण गाना गाने में असमर्थ है, उसे महेश को अग्रिम में प्राप्त राशि वापस करनी होगी।

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(IV) किसी विधान ( राजनियम) के क्रियाशील होने पर अनुबन्ध की समाप्ति

(By Operation of Law)

कुछ परिस्थितियों में राजनियम के प्रभाव द्वारा भी अनबन्ध समाप्त हो जाता है। धारा 37 के अनुसार “यदि इस अधिनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत अथवा किसी अन्य विधि के प्रभाव से अनुबन्ध का निष्पादन त्याग या मुक्त कर दिया गया है तो पक्षकारों को निष्पादन करने की आवश्यकता नहीं रहती।” उदाहरण के लिए

(i) अनुबन्ध अधिनियम के अनुसार ऐसे अनुबन्ध जो पक्षकारों की व्यक्तिगत कुशलता पर आधारित होते हैं, किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर समाप्त हो जाते हैं। ।

(ii) दिवालिया कानून के अन्तर्गत जब कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया जाता है तो वह दिवालिया घोषित होने के पूर्व के सभी वचनों व अनबन्धों से मुक्त हो जाता है।

(iii) किसी दस्तावेज की विषय-वस्तु में अनाधिकृत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर देने पर अनुबन्ध समाप्त हो जाता है।

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(V) निर्धारित अवधि बीत जाने पर अनुबन्ध की समाप्ति

(By Lapse of Time)

लिमिटेशन एक्ट के अनुसार प्रत्येक अनुबन्ध ऐसे अधिनियम द्वारा निर्धारित अवधि में ही लागू कराए जा सकते हैं। यदि अनुबन्ध को प्रवर्तित कराने का अधिकारी पक्षकार इस निर्धारित समय-सीमा न न्यायालय की शरण नहीं लेता है तो वह अपने अधिकारों को खो देता है। दूसरे शब्दों में, ऐसी समय। सीमा समाप्त हो जाने पर अनुबन्ध स्वयं समाप्त हुआ माना जाता है और पक्षकार अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं। भारत में साधारण अनुबन्ध के लिए लिमिटेशन की अवधि 3 वर्ष है। ऋणदाता को त्रुटि वर्ष के अन्दर ऋणी पर वाद प्रस्तुत कर देना चाहिए अन्यथा वह अपना अधिकार खो देगा और । दायित्व से मुक्त हो जाएगा।

5. तृतीय पक्षकार के आचरण से सम्बन्धित असम्भवता (Impossibility arising due to the conduct of third partyl_राजनियम का यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि यदि एक व्यक्ति अनुबन्ध क अन्तर्गत किसी ततीय पक्षकार के, ऐच्छिक कार्य का दायित्व स्वीकार करता है तो उसे वह

सम्बन्धित पक्षकार (ततीय पक्षकार) से परा करा सकने के योग्य होने का आश्वासन देने की क्षमता। मा रखना चाहिये। अत: ऐसा अनबन्ध जो किसी तृतीय पक्षकार के आचरण पर निर्भर है, इस कारण व्यथ नहा हो जायेगा कि तृतीय पक्षकार द्वारा अपेक्षित आचरण नही किया गया। ऐसी दशा में वचनदाता. वचनग्रहीता के प्रति क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य होगा।

उदाहरण, ब को स द्वारा निर्मित वस्तुएँ बेचने का अनुबन्ध करता है, परन्तु ‘स’ वह वस्तुएँ। निर्मित करके नहीं दे पाता। अ, ब के प्रति क्षतिपूर्ति के लिये दायी है।

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उत्तरवर्ती या आकस्मिक असम्भवता के परिणाम

(Effect of Supervening Impossibility)

(i) धारा 56 के अनुसार आकस्मिक असम्भवता के कारण निष्पादन असम्भव हो जाने पर अनुबन्ध व्यर्थ हो जाता है और पक्षकार अपने वचनों से मुक्त हो जाते हैं।

(ii) धारा 56 के ही अनुसार, यदि वचनदाता को यह जानकारी थी या यथोचित परिश्रम से वह यह जान सकता था कि अनुबन्धित कार्य का करना असम्भव या अवैधानिक था, परन्तु वचनग्रहीता को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी तो वचनदाता वचनग्रहीता की क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य है। उदाहरण के लिये अ, ब से विवाह करने का अनुबन्ध करता है। अ पहले से ही शादीशुदा है और सम्बन्धित राजनियम के अनुसार वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता। ब इस तथ्य से परिचित नहीं है कि अका विवाह पहले ही हो चुका है। अ, ब की क्षतिपूर्ति के लिये बाध्य है। (iii) धारा 65 के अनुसार यदि किसी पक्षकार ने दूसरे पक्षकार से अनुबन्ध के अन्तर्गत कोई लाभ प्राप्त कर लिया है तो वह उस लाभ को दूसरे पक्षकार को वापिस करने या क्षतिपूर्ति करने के लिए बाध्य है। उदाहरण के लिए, राम, महेश के यहाँ 5,000₹ के प्रतिफल में गाना गाने का अनुबन्ध करता है जिसका भुगतान अग्रिम कर दिया गया है। राम अपनी बीमारी के कारण गाना गाने में असमर्थ है, उसे महेश को अग्रिम में प्राप्त राशि वापस करनी होगी।

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(IV) किसी विधान ( राजनियम) के क्रियाशील होने पर अनुबन्ध की समाप्ति

(By Operation of Law)

कुछ परिस्थितियों में राजनियम के प्रभाव द्वारा भी अनबन्ध समाप्त हो जाता है। धारा 37 के अनुसार “यदि इस अधिनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत अथवा किसी अन्य विधि के प्रभाव से अनुबन्ध का निष्पादन त्याग या मुक्त कर दिया गया है तो पक्षकारों को निष्पादन करने की आवश्यकता नहीं रहती।” उदाहरण के लिए

(i) अनुबन्ध अधिनियम के अनुसार ऐसे अनुबन्ध जो पक्षकारों की व्यक्तिगत कुशलता पर आधारित होते हैं, किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर समाप्त हो जाते हैं।

(ii) दिवालिया कानून के अन्तर्गत जब कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया जाता है तो वह दिवालिया घोषित होने के पूर्व के सभी वचनों व अनबन्धों से मुक्त हो जाता है।

(iii) किसी दस्तावेज की विषय-वस्तु में अनाधिकृत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर देने पर अनुबन्ध समाप्त हो जाता है।

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(V) निर्धारित अवधि बीत जाने पर अनुबन्ध की समाप्ति

(By Lapse of Time)

लिमिटेशन एक्ट के अनुसार प्रत्येक अनुबन्ध ऐसे अधिनियम द्वारा निर्धारित अवधि में ही लागू कराए जा सकते हैं। यदि अनुबन्ध को प्रवर्तित कराने का अधिकारी पक्षकार इस निर्धारित समय-सीमा न न्यायालय की शरण नहीं लेता है तो वह अपने अधिकारों को खो देता है। दूसरे शब्दों में, ऐसी समय। सीमा समाप्त हो जाने पर अनुबन्ध स्वयं समाप्त हुआ माना जाता है और पक्षकार अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं। भारत में साधारण अनुबन्ध के लिए लिमिटेशन की अवधि 3 वर्ष है। ऋणदाता को त्रुटि वर्ष के अन्दर ऋणी पर वाद प्रस्तुत कर देना चाहिए अन्यथा वह अपना अधिकार खो देगा और । दायित्व से मुक्त हो जाएगा।

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(VI) खण्डन द्वारा अनुबन्ध की समाप्ति

(By Breach of Contract)

धारा 39 के अनुसार यदि प्रस्तावक ने वचन के निष्पादन का प्रस्ताव किया है और वचनग्रहीता उसे स्वीकार नहीं करता तो प्रस्तावक उसके खण्डन के लिए उत्तरदायी नहीं है और न ही वह अनुबन्ध के अन्तर्गत अपने किसी अधिकार को खोता है। लेकिन यदि एक पक्षकार ने अनुबन्ध के निष्पादन से कार कर दिया है अथवा उसके आचरण से स्पष्ट होता है कि वह अपना वचन पूरा नहीं करना चाहता को अनबन्ध भंग हुआ माना जाता है। अनुबन्ध दो प्रकार से भंग हो सकता है:

1 वास्तविक खण्डन (Actual Breach) यदि अनुबन्ध के निष्पादन के लिए निर्धारित समय पर कोई पक्षकार अनुबन्ध के अधीन अपने दायित्वों को निष्पादित करने में असफल रहता है अथवा निष्पादित करने से इन्कार कर देता है तो वह वास्तविक खण्डन कहलाता है।

2.प्रत्याशित अथवा रचनात्मक खण्डन (Anticipatory or constructive Breach)- यदि अनबन्ध का कोई पक्षकार निष्पादन के लिए निश्चित समय से पूर्व ही अपने शब्दों अथवा व्यवहार द्वारा अनबन्ध को निष्पादित न करने का अपना अभिप्राय प्रकट करता है अथवा निष्पादन करने के लिए अपने आपको असमर्थ बना लेता है तो इसे प्रत्याशित अथवा रचनात्मक खण्डन कहते हैं।

उदाहरण अ, ब को अपना मकान 15 मार्च को 5,000₹ में बेचने का ठहराव करता है। निश्चित तिथि पर अ, ब को मकान बेचने से इन्कार कर देता है तो यह अनुबन्ध का वास्तविक खण्डन होगा। इसके विपरीत यदि अ अपना मकान न बेचने का अभिप्राय 15 मार्च से पूर्व ही ब को प्रकट कर देता है तो यह अनुबन्ध का प्रत्याशित अथवा रचनात्मक खण्डन होगा। ।

रचनात्मक खण्डन के अन्य उदाहरण– (i) , ब के लिए एक निश्चित धन के बदले में एक मकान दो वर्ष के अन्दर बनाने का अनुबन्ध करता है। डेढ़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी अ ने मकान को बनाने का कार्य प्रारम्भ नहीं किया। इसके अतिरिक्त अ ने ब के प्रतिनिधि से कई बार यह भी कहा कि वह मकान बनाने का कार्य उस समय तक आरम्भ नहीं करेगा जब तक कि ब उसे अनुबन्ध में तय की गई धनराशि से अधिक देने के लिए सहमत न हो जाए। ऐसी दशा में ‘ब’ को दो वर्ष तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, वह उसी समय अ पर अनुबन्ध खण्डन का दावा कर सकता है। यहाँ अ अनुबन्ध को निष्पादित न करने का अभिप्राय प्रकट करता है।

(ii) , के साथ शादी करने का ठहराव करता है। शादी की निश्चित तिथि से पहले ही वह स के साथ शादी कर लेता है। यहाँ पर ‘अ’ निष्पादन के लिए अपने आप को असमर्थ बना लेता है।

खण्डन का प्रभाव (Effect of Breach)-धारा 39 के अनुसार, जब अनुबन्ध का कोई पक्षकार अपने वचन का पूर्णतया निष्पादन करने से इन्कार कर देता है अथवा उसके पूर्णतया निष्पादित करने के लिए अपने आपको असमर्थ बना लेता है तो वचनग्रहीता अनुबन्ध का अन्त कर सकता है। परन्तु यदि वचनग्रहीता, अपने शब्दों या आचरण द्वारा, अनुबन्ध के जारी रहने के लिए अपनी सहमति प्रकट कर देता है तो वचनदाता बाद में भी अपने वचन का पूर्ण निष्पादन कर सकता है।

उदाहरण– (i) एक गायिका एक थियेटर के प्रबन्धक ब के साथ उसके थियेटर में अगले दो माह तक प्रति सप्ताह दो रात गाने का अनुबन्ध करती है और ब प्रत्येक रात के गायन के लिए 200₹ देने का वचन देता है। छठवीं रात अ अपनी इच्छानुसार थियेटर से अनुपस्थित रहती है तो ऐसी दशा में ब अनुबन्ध का अन्त कर देने के लिए स्वतन्त्र है।

(ii) उपर्युक्त उदाहरण में छठवीं रात को अनुपस्थित रहने के बाद अ फिर ब की सहमति से सातवीं रात को गाती है। यहाँ ब ने अनुबन्ध को चालू रखने की मौन सहमति प्रकट कर दी है और अब वह अनुबन्ध का अन्त नहीं कर सकता परन्तु छठी रात को अ के न गाने के कारण हुई हानि के लिए क्षतिपूर्ति का अधिकारी है।

यह उल्लेखनीय है कि एक पक्षकार द्वारा अनुबन्ध का खण्डन करने पर दूसरे पक्षकार को केवल अनुबन्ध को समाप्त करने का अधिकार ही नहीं मिल जाता बल्कि उसे साथ ही अन्य उपचारों का अधिकार भी मिल जाता है, जिनका विस्तृत वर्णन पृथक अध्याय में किया गया है।

अनुबन्ध के प्रत्याशित खण्डन की दशा में उपचार

यदि कोई पक्षकार निष्पादन के निश्चित समय से पूर्व ही अनुबन्ध को निष्पादित न करने का अपना अभिप्राय प्रकट कर देता है तो निर्दोष पक्षकार

(ii) निश्चित तिथि तक प्रतीक्षा करके निश्चित तिथि को अनुबन्ध भंग हुआ मान सकता है। ऐसी दशा में अनुबन्ध दोनों पक्षों के लाभ के लिए चाल होगा और वचनदाता बीच की किन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाकर निष्पादन की तिथि को चाहे तो अपने वचन को पूर्ण कर सकता है। प्रत्याशित अनुबन्ध भंग की स्थिति में भी पीड़ित पक्षकार को वे समस्त अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो वास्तविक खण्डन की स्थिति में प्राप्त होते हैं।

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व्यर्थ एवं व्यर्थनीय अनुबन्धों में प्रत्यास्थापन (Restitution)

(i) जब वह पक्षकार, जिसकी इच्छा पर अनुबन्ध व्यर्थनीय है उसे निरस्त कर देता है तो दसरे पक्षकार को अनुबन्ध के अन्तर्गत अपने दायित्वों का निष्पादन करने की आवश्यकता नहीं रहती। व्यर्थनीय अनुबन्ध को निरस्त करने वाले पक्षकार ने यदि दूसरे पक्षकार से अनुबन्ध के अन्तर्गत कोई लाभ प्राप्त कर लिया है, तो वह उस लाभ को उस पक्षकार को लौटाने के लिये बाध्य है, जिससे उसने ऐसा लाभ प्राप्त किया था।

(धारा 64) (ii) जब यह स्पष्ट हो जाता है कि ठहराव व्यर्थ है अथवा कोई अनुबन्ध व्यर्थ हो जाता है, तो जिस व्यक्ति ने उस ठहराव अथवा अनुबन्ध के अधीन कोई लाभ प्राप्त किया है वह उसे दूसरे व्यक्ति को, जिससे कि वह लाभ प्राप्त हुआ है, लौटाने अथवा क्षतिपूर्ति करने के लिये बाध्य है। (धारा 65)

उदाहरण– (i) अ, ब को अपनी पुत्री स से विवाह करने के वचन के प्रतिफल में 1.000₹ देता है। वचन के समय स की मृत्यु हो चुकी थी। यह ठहराव व्यर्थ है किन्तु ब को अ का 1,000 ₹ लौटाना पड़ेगा।

(ii) , को एक मई से पूर्व 250 क्विटल चावल देने का अनुबन्ध करता है। अ उक्त तिथि से पूर्व केवल 130 क्विटल चावल देता है और तत्पश्चात् कुछ नहीं। ब एक मई के बाद तक 130 क्विटल चावल अपने पास रखे रहता है। ऐसी दशा में वह ‘अ’ को उसका मूल्य देने के लिए बाध्य है।

(iii) ‘किसी सम्मेलन में ‘ब’ के लिए 2,000 ₹ में गाने का अनुबन्ध करता है। यह धनराशि अ को पहले ही पेशगी के रुप में दी जा चुकी है। ‘अ’ बीमारी के कारण गाने में असमर्थ रहता है। ऐसी स्थिति में वह क्षतिपूर्ति करने के लिए तो बाध्य नहीं है, परन्तु उसे पेशगी के रुप में प्राप्त 2,000 ₹ब को लौटाने होंगे।

(iv) किसी व्यर्थनीय अनुबन्ध की समाप्ति का संवहन अथवा उसका खण्डन उसी प्रकार एवं उन्हीं नियमों के अधीन किया जायेगा, जो प्रस्ताव के संवहन अथवा खण्डन के सम्बन्ध में लागू होते हैं। (धारा 66)

(v) यदि कोई वचनग्रहीता, वचनदाता को उसके वचन के निष्पादन के लिए यथोचित सुविधाएँ देने में उपेक्षा करता है अथवा इन्कार करता है तो वचनदाता ऐसी उपेक्षा अथवा इन्कारी के कारण निष्पादन करने के सम्बन्ध में मुक्त हो जाता है।

उदाहरण, ब के मकान की मरम्मत का वचन देता है। ब, अ को मरम्मत के स्थानों को बताने की उपेक्षा या इन्कार करता है। यहाँ ‘अ’ अपने निष्पादन के दायित्व से मुक्त हो जाएगा।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 अनुबन्ध के निष्पादन की परिभाषा दीजिए। अनुबन्धों के निष्पादन से सम्बन्धित नियमों की विवेचना कीजिए।

Define the performance of a contract. Discuss the rules relating to performance of contracts.

2. अनुबन्ध का निष्पादन कितने तरीके से किया जा सकता है? स्पष्ट कीजिये। भुगतानों के नियोजन के सम्बन्ध में नियमों का विवेचन कीजिये। उपयुक्त उदाहरण दीजिए।

In how many ways can a contract be performed? Explain. Discuss the rules regarding appropriation of payments. Give suitable examples.

3. विवशता का सिद्धान्त (Doctrine of Frustration) क्या है? भारतीय अनबन्ध अधिनियम की अन्तर्गत इस सिद्धान्त के लागू होने से सम्बन्धित नियमों का वर्णन कीजिए।

What is doctrine of frustration? Explain the rules relating to this doctrine in Indian Contract Act.

4. अनुबन्ध के निष्पादन के समय और स्थान के सम्बन्ध में वैधानिक नियम क्या हैं?

What are the rules of law relating to the time and place of the performance of the contract?

5. किसी अनुबन्ध में संयुक्त वचनदाताओं के अधिकारों एवं दायित्वों सम्बन्धी वैधानिक नियमों की व्याख्या कीजिए।

Discuss the laws relating to rights and liabilities of Joint Promisors in a Contract.

6. पारस्परिक वचनों से आप क्या समझते हैं? भारतीय अनुबन्ध अधिनियम में पारस्परिक वचनों के निष्पादन सम्बन्धी जो प्रावधान हैं, उनका वर्णन कीजिये।

What do you understand by reciprocal promises? State the provisions of the Indian  Contract Act which deals with the performance of reciprocal promises.

7. निष्पादन की असम्भवता क्या है? आकस्मिक असम्भवता के अनुबन्ध पर प्रभाव को समझाइए।

What is impossibility of performance? Explain the effect of sudden impossibility on performance of contract.

8. अनुबन्ध का निष्पादन किसके द्वारा किया जाना चाहिए? क्या वचनग्रहीता, वचनदाता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से निष्पादन स्वीकार करने के लिये बाध्य होता है?

State by whom contract should be performed? Is the promisee bound to accept performance from persons other than the promisor?

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

1 अनुबन्ध के निष्पादन से क्या आशय है?

What is meant by the performance of the contract?

2. पारस्परिक वचन से क्या आशय है?

What is meant by Reciprocal Promise?

3. नवीनीकरण क्या है?

What is Novation?

4. निष्पादन का प्रस्ताव शर्तरहित होना चाहिए। समझाइए।

The proposal for performance should be unconditional. Explain.

5. विनिर्दिष्ट समय में अनुबन्ध का निष्पादन न करने के क्या प्रभाव होते हैं?

What is the effect of non-performance of the contract in the specified time?

6. निष्पादन की असम्भवता द्वारा अनुबन्ध की समाप्ति से क्या आशय है?

What is meant by the discharge of contract by the impossibility of performance?

7. आकस्मिक असम्भवता का सिद्धान्त किन परिस्थितियों में क्रियाशील होता है?

Under which situations doctrine of Supervening Impossibility apply?

8. प्रत्याशित अथवा रचनात्मक खण्डन से क्या आशय है?

What is meant by Anticipatory or Constructive Breach?

9. भुगतानों के नियोजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write a short note on appropriation of payments.

10. वचन के निष्पादन के समय और स्थान पर टिप्पणी लिखिए।

Write a note on the time and place of performance of a contract.

11. नैराश्य का सिद्धान्त क्या है?

What is the doctrine of frustration?

12. नैराश्य के सिद्धान्त के अपवाद बताइए।

State exceptions of doctrine of frustration.

13. छुटकारा द्वारा अनुबन्ध की समाप्ति कब होती हैं?

When does discharge of contract by remission take place?

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व्यावहारिक समस्याएँ

(Practical Problems)

PP1. X,Y और 2 संयुक्त रुप से W को 8,000 ₹ देने का वचन देते हैं। Z कुछ भी देने की स्थिति में नहीं है तथा Y को सम्पूर्ण राशि का भुगतान करने के लिए बाध्य किया जाता है। Y कितनी राशि सफलतापूर्वक X से वसूलने का अधिकारी है ?

X,Y and Z, are under a joint promise to pay 8,000 to W.Z is unable to pay anything and Y is compelled to pay the entire amount. What amount can Y successfully recover fromx?

उत्तरभारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 43 के प्रावधानों के अनुसार यदि एक वचनदाता, सम्पूर्ण ऋण का भुगतान करता है अथवा संयुक्त वचनदाताओं के दायित्व का निर्वाह करता है तो उसे यह अधिकार होगा कि वह अन्य संयुक्त वचनदाताओं से बराबर के अंशदान की माँग करे या अपनी तरफ से उसने अन्य संयुक्त वचनदाताओं के जिस दायित्व को पूरा किया है, उस दायित्व की वसूली की | माँग करे, बशर्ते इसके विपरीत कोई अनुबन्ध न किया गया हो। चूँकि Z कुछ भी देने की स्थिति में नहीं है. अत: Y को यह अधिकार है कि वह X से 4,000₹ वसूल करे।।

PP2. A, B और C संयुक्त रुप से D को 2.000₹ के भुगतान का वचन देते हैं। क्या A या B | या C में से किसी को भी D धन के भुगतान हेतु बाध्य कर सकता है ? | A, B and Cjointly promise to pay D₹2,000. Can D compel A or B or C to pay him₹2,000?

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उत्तरभारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 43 के अनुसार जब दो या अधिक व्यक्ति मिलकर  संयुक्त वचन देते हैं तो विपरीत अनुबन्ध के अभाव में संयुक्त वचनदाताओं में से किसी एक या एक से अधिक को सम्पूर्ण वचन के निष्पादन हेतु वचनग्रहीता द्वारा बाध्य किया जा सकता है।

PP3. A, B से कहता है कि यदि तुम मेरी बेटी D से विवाह करोगे तो मैं तुम्हें प्रतिफलस्वरुप 20,000 ₹ दूंगा। B इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है और A से 20,000 ₹ प्राप्त कर लेता है। विवाह से पूर्व ही D की मुत्यु हो जाती है। क्या A, धन वापसी के लिए B पर वाद प्रस्तुत कर सकता है।

A pays 20,000 to B in consideration of B’s promise to marry D, A’s daughter. D dies and the marriage does not take place. Can A claim refund of money ?

उत्तरयहाँ पर “विवशता का सिद्धान्त’ लागू होता है। विवशता का अर्थ है-जब परिस्थतियाँ पक्षकारों के नियन्त्रण के बाहर होने के कारण अनुबन्ध का निष्पादन असम्भव हो जाए। D की मृत्यु हो जाने के कारण, B और D का विवाह असम्भव हो गया है। अत: अनुबन्ध व्यर्थ हो गया है क्योंकि अब यह कार्य असम्भव है तथा अनुबन्ध के पक्षकार अपने-अपने आनुबन्धिक दायित्वों से मुक्त हो गये हैं तथा B को A से प्राप्त किये गये 20,000 ₹ उसे लौटाने पड़ेंगे।

PP4. x. Y को अपना सभागृह (Hall) 1 अगस्त, 2016 को सार्वजनिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु किराये पर देने के लिए सहमत हो जाता है। 20 जुलाई, 2016 को सभागृह आग लग जाने से नष्ट हो जाता है। X और Y के अधिकारों का वर्णन कीजिए।

x, agreed to let his hall to Y for some public entertainment on 1st August, 2016. On 20th July, 2016 the hall was destroyed by fire. Discuss the rights of X and Y.

उत्तरविषय-वस्तु के नष्ट हो जाने के कारण अनुबन्ध की समाप्ति हो गई है। X सभागृह को किराये पर देने के दायित्व से भारमुक्त हो गया है।

इस सम्बन्ध में Taylor vs. Caldwell का विवाद उल्लेखनीय है।

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chetansati

Admin

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