BCom 2nd Year Entrepreneurship Sources Raising Funds Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Entrepreneurship Sources Raising Funds Study Material notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Entrepreneurship Sources Raising Funds Study Material notes in Hindi: Meaning of Raising Funds Need for Estimating Funds Requirements Meaning & Importance of Business Capital Need for Business Capital Types of Business Finance and Their Uses Sources of Business Finance Capital Sources of Raising Funds  ( Most Important Note For BCom 2nd Year Students )

Sources Raising Funds
Sources Raising Funds

BCom 3rd Year Corporate Accounting Underwriting Study Material Notes in Hindi

कोष प्राप्ति के स्रोत

(Sources of Raising Funds)

“वित्त सम्पूर्ण व्यावसायिक क्रिया को एक सूत्र में बाँधने वाला चमकीला धागा है। यह विपणन, उत्पादन, क्रय तथा कार्मिक प्रबन्ध सम्बन्धी क्रियाओं को प्रभावित अथवा परिसीमित करता है।”

Sources Raising Funds Study

शीर्षक

  • कोषों को जुटाने से आशय (Meaning of Raising Funds)
  • कोषों की आवश्यकता का अनुमान लगाना (Need for Estimating Funds Requirements)
  • व्यावसायिक पूँजी का अर्थ एवं महत्व (Meaning & I1mportance of Business Capital)
  • व्यावसायिक पूँजी की आवश्यकता (Need for Business Capital)
  • व्यावसायिक वित्त के प्रकार तथा उनके उपयोग (Types of Business Finance and their Uses)
  • व्यावसायिक वित्त अथवा पूँजी के साधन (Sources of Business Finance/Capital)
  • अथवा कोषों को प्राप्त करना (Sources of Raising Funds)

वित्त आधुनिक व्यावसायिक अर्थव्यवस्था का जीवन-रक्त (Life blood) है। यह समस्त व्यावसायिक क्रियाओं का मूल आधार है। कोई भी व्यवसाय बिना वित्त के न तो प्रारम्भ ही किया जा सकता है और न ही उसका विकास। व्यवसाय केसा भी हो उसकी सफलता किसी सीमा तक वित्त के प्रभावपूर्ण प्रबन्ध पर निर्भर करती है। आधुनिक युग में किसी भी उद्यम की स्थापना, संचालन एवं विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्त की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत व्यावसायिक स्वरूप के वित्त की व्यवस्था अथवा प्रबन्ध अपेक्षाकृत बड़े पैमाने के व्यवसायों में आसान होती है। जब हम व्यवसाय में वित्तीय प्रबन्ध की बात करते हैं तो उसका बोध बड़े व्यवसायों से ही होता है। वर्तमान में बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, निगम तथा वृहत् संस्थाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं और इसी के साथ इन संस्थाओं की वित्तीय व्यवस्था करना भी जटिल होता जा रहा है। डॉ. पी.सी. श्रीवास्तव (Dr. P.C. Shrivastava) के अनुसार, “वित्त उद्योग एवं वाणिज्य के लिए तेल, हड्डियों का सार, नाड़ियों का रक्त एवं व्यवसायों की आत्मा है।” वास्तव में, यदि देखा जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वित्त समस्त व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग की आत्मा है। हूगटी, पैटूक (Hugh T. Patrick) के शब्दों में, “देश में उपलब्ध वित्तीय पर्यावरण ही सजनात्मक साहसिक क्रियाओं को उत्प्रेरित करता है।” वर्तमान प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में हम बिना पर्याप्त वित्त के किसी नवीन उपक्रम की स्थापना की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

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कोषों को जुटाने से आशय

(Meaning of Raising Funds)

कोषों से आशय (Meaning of Funds)

कोषों से आशय उस धनराशि अथवा पूँजी से है जो कि किसी उदास की स्थापना तथा उसके संचालन काल है। पूँजी किसी उद्यम का जीवन-रक्त होती है। किसी भी डाक्रम में पैंजी का वही स्थान है जो कि मानव शरीर में रक्त का होता है। जिस प्रकार बिना पर्याप्त भोजन के मानव शरीर न तो जीवित रह सकता है और न कार्य कर सकता है, ठीक इसी प्रकार एक उद्यम चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, बिना पर्याप्त वित्त (कोषों) के न जीवित रह सकता है और न संचालित हो सकता है।

कोषों को जुटाने से आशय (Meaning of Raising Funds)

एक उद्यम के सन्दर्भ में कोषों के जटाने से आशय किसी उद्यम की स्थापना, संचालन एवं विकास के लिए पर्याप्त मात्रा म काष धनराशि (पूँजी एवं ऋण-पँजी) एकत्रित किये जाने से है। किसी नवीन उद्यम की स्थापना का निर्णय लेने के बाद उसके लिए आवश्यक कोषों अर्थात् वित्त की आवश्यकता रहती है। कितनी मात्रा में कोषों की आवश्यकता होगी तथा इसका ढाँचा केसा होगा, इसके बारे में निर्णय लेने एवं उन्हें जुटाने की क्रिया को ही कोषों का जुटाना कहते हैं।

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कोषों की आवश्यकता का अनुमान लगाना

(Need for Estimating Funds of Requirements)

एक उद्यम को अपनी वित्तीय योजना बनाते समय दीर्घकालीन कोष (Long term Funds) मध्यकालीन कोष (Medium term Funds) एवं अल्पकालीन कोष (Short term Funds) की आवश्यकता होती है। इसका अनुमान। लगाते समय अपनी कुल वित्तीय आवश्यकताओं तथा लाभोपार्जन क्षमता दोनों पर उचित ध्यान देना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में उसे अतिपूँजीकरण (Over capitalisation) तथा अव-पूँजीकरण (Under capitalisation), दोनों ही स्थितियों से बचना चाहिए। इसके लिए उद्यमी को सबसे पहले कोषों की आवश्यकताओं की व्यापक रूप में जाँच-पड़ताल करनी चाहिए। उद्यम में कोषों का अनुमान आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु लगाया जाना आवश्यक है

(1) स्थायी सम्पत्तियाँ (Fixed Assets) अर्थात् स्थायी पूँजी, जैसे-भूमि, भवन, प्लाण्ट एवं यन्त्र, फर्नीचर तथा फिटिंग आदि का क्रय।

(2) चालू सम्पत्तियाँ (Current Assets) अर्थात् कार्यशील पूँजी, जैसे—कच्चा माल एवं अन्य स्टॉक, उधार बिक्री, प्राप्य बिलों के लिए, दिन-प्रतिदिन के व्ययों (जैसे—वेतन तथा मजदूरी, किराया, स्टेशनरी आदि) का भुगतान करना।

(3) कम्पनी के प्रवर्तन सम्बन्धी व्यय (Promotion Expenses), जैसे—व्यावसायिक विचार की वाणिज्यिक सम्भावनाओं की खोज-बीन, कम्पनी की स्थापना में वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के व्यय आदि।

(4) कम्पनी संगठन (Company Organisation) की स्थापना के व्यय, जैसे—प्रबन्धकों तथा विशेषज्ञों आदि की सेवाएँ प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले व्यय।

(5) व्यवसाय को सुदृढ़ करने सम्बन्धी व्यय, जैसेग्राहकों को आकर्षित करने के लिए व्यापक विज्ञापन तथा विक्रय संवर्द्धन आदि।

(6) व्यावसायिक वित्त प्राप्त करने के लागत व्यय (Cost of Financing) जैसे—अभिगोपन, कमीशन तथा दलाली आदि।

(7) अवास्तविक सम्पत्तियाँ (Intangible Assets), जैसे—पेटेण्ट, ख्याति का क्रय इत्यादि।

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व्यावसायिक पूँजी का अर्थ तथा महत्त्व

(Meaning and Importance of Business Capital)

पूँजी उत्पत्ति का बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है। धन अथवा सम्पत्ति का वह भाग जो उत्पादन में सहायक होता है, पूँजी (Capital) कहलाता है। प्रो. मार्शल के अनुसार, “पूँजी में प्रकृति के निःशुल्क उपहारों को छोड़कर, वे सब प्रकार की सम्पत्तियाँ सम्मिलित हैं जिनसे आय प्राप्त होती है।” पूँजी में मशीनें, औजार, कच्चा माल, कारखाना, भवन आदि सम्मिलित होते हैं। विभिन्न व्यवसायो । में पूँजी का रूप भिन्न-भिन्न हो सकता है, परन्तु कोई सम्पत्ति पूँजी है अथवा नहीं इसकी एकमात्र कसौटी उसका उद्देश्य है। यदि वह सम्पत्ति धनोत्पत्ति के उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाती है तो वह पूँजी कहलाएगी अन्यथा पूँजी नहीं कहलाएगी। यह स्मरणीय है कि समस्त पूँजी तो सम्पत्ति है, परन्तु समस्त सम्पत्ति आवश्यक रूप में पूँजी नहीं होती, क्योंकि यह सारी की सारी उत्पादन कार्य में नहीं लगी होती है।

यद्यपि पूँजी उत्पत्ति का मूल साधन नहीं है, “इसे उत्पत्ति का उत्पन्न किया हुआ साधन भी (Produced means Production) कहते हैं।” परन्तु आधुनिक युग में यह बहुत महत्त्वपूर्ण साधन हो गया है। आज मशीन की सहायता से बड़े पैमाने पर उत्पादन युग में पूँजी का महत्त्व इसी से स्पष्ट हो जाता है कि आज के युग को पूँजी का युग कहते हैं। पर्याप्त या अनुकूल पूँजी के अभाव में किसी व्यवसाय में आधुनिक प्रतियोगिता के यग में सफलता केवल कल्पना मात्र है। आज पनी का महत्त्व। इतना अधिक बढ़ गया है कि इसके बिना उत्पादन कार्य अथवा व्यवसाय का संचालन करना कठिन ही नहीं असम्भव है। पूजी की सहायता से उत्पादन की मात्रा तथा श्रम की उत्पादन क्षमता बहत बढ़ जाती है। पँजी की सहायता से कच्चा माल, मशीन, औजार, साज-सामान, चालक शक्ति आदि प्राप्त होती है। उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों की मजदूरी का भुगतान तथा तैयार माल की बिक्री का प्रबन्ध भी पूँजी से ही सम्भव होता है। अतः स्पष्ट है कि किसी भी उत्पादन कार्य या व्यवसाय में आरम्भ से अन्त तक पूँजी की आवश्यकता रहती है।

अर्थशास्त्रियों की राय है कि ‘पूँजी’ में उन सब सम्पत्तियों को शामिल किया जाता है जो प्रकृति की निःशुल्क देन (Free gift of the nature) न होकर मानवीय ढंग से उत्पन्न हुई हों तथा जिनका प्रयोग अधिक सम्पत्ति के उत्पादन में हुआ हो।

(i) प्रो० फिशर (Fisher) के शब्दों में, “पूँजी वह सम्पत्ति है जो भूतकालिक श्रम से उत्पन्न हुई हो तथा जिसका उपयोग अधिक उत्पादन के साधन के रूप में होता हो।”(Capital is that property which is the product of past labour, but which is used as a means of further production. -prch. Fisher)

(ii) प्रो० एस० ई० थॉमस (Prof. S. E. Thomas) के शब्दों में, “भूमि को छोड़कर व्यक्ति तथा समाज की सम्पत्ति का वह भाग है जिसका प्रयोग अधिक मात्रा में धन पैदा करने के लिये किया जाता है, पूँजी कहलाता है।” (Capital is a part of that wealth of individuals or communities, other than land, which is used to assist in the production of further wealth.-Prof. S. E. Thomas)

निष्कर्ष…धन का वह भाग जो अतिरिक्त उत्पादन के लिये प्रयुक्त होता है, पूँजी कहलाता है। (Capital is that part of wealth, which is used for further production)

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व्यावसायिक पूँजी की आवश्यकता

(Need for Business Capital)

व्यावसायिक एवं औद्योगिक इकाइयों को दो प्रकार की पूँजी की आवश्यकता होती है—(i) दीर्घकालीन पूँजी (Longterm Capital), व (ii) अल्पकालीन पूँजी (Short-term Capital)। दीर्घकालीन पूँजी की आवश्यकता दीर्घकालीन सम्पत्ति जैसे-भूमि व भवन, मशीन तथा अन्य स्थायी सम्पत्तियों के लिए होती है तथा अल्पकालीन पूँजी की आवश्यकता दैनिक व्ययों की पूर्ति के लिए जैसे—कच्चा माल, अर्द्धनिर्मित तथा निर्मित माल खरीदने के लिए तथा व्ययों-भाड़ा, मजदूरी, किराया, वेतन आदि की पूर्ति के लिए होती है। इसको हम कार्यशील पूँजी (Working Capital) भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त संस्था को अपने विकास एवं विस्तार की योजनायें लागू करने के लिए मध्यकालीन पूँजी (Medium-term Capital) की आवश्यकता रहती है। अल्पकालीन पूँजी की आवश्यकता सामान्यतया एक वर्ष के लिए, मध्यकालीन पूँजी की आवश्यकता प्राय: एक से दस वर्ष के लिए तथा दीर्घकालीन पूँजी की आवश्यकता प्रायः दस से अधिक वर्षों के लिए रहती है।

व्यावसायिक वित्त के प्रकार तथा उनके उपयोग

(Types of Business Finance and their Uses)

व्यवसाय को सुचारु रूप से संचालित करने लिए वित्त (Finance) की आवश्यकता रहती है। बिना वित्त के व्यवसाय को सुचारु रूप से संचालित नहीं किया जा सकता। व्यवसाय को वित्त निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होता है

(1) व्यवसाय के स्वामी अथवा स्वामियों के द्वारा वित्त प्रदान करना. तथा 

(2) वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना।

प्रथम प्रकार की पूँजी को स्वामित्व पूँजी (Owned Capital) तथा द्वितीय प्रकार की पँजी को ऋण पूँजी (Loaned Capital) कहते हैं। उपर्युक्त के अतिरिक्त व्यवसाय में एक और पूजी होती है जिसे व्यवसाय स्वयं कमाता है और जिसे व्यवसाय में पुनः विनियोजित कर लिया जाता है, उसे संचित लाभ (Retained Profit) अथवा अर्जित लाभों का पुनर्विनियोजन (Ploughing Back of earned profit) कहते हैं।

प्रत्येक व्यवसाय को दीर्घकालीन, मध्यकाल तथा अल्पकाल के लिए पंजी की आवश्यकता होती है तथापि हमें समय के अनुसार वित्त के स्रोत एवं विधि को निश्चित करना होता है। समय के अनुसार वित्त को अग्रलिखित तीन प्रकार से बाँटा जा सकता है

(1) दीर्घकालीन वित्त (Long-term Finance),

(2) मध्यकालीन वित्त (Medium-term Finance), एवं

(3) अल्पकालीन वित्त (Short-term Finance)

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(1) दीर्घकालीन वित्त (Long-term Finance) दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता व्यवसाय को स्थायी सम्पत्ति जैसे—भूमि, मकान, संयन्त्र, मशीन आदि खरीदने के लिए होती है। कम्पनी को विस्तार की योजनाओं के लिए भी प्रायः दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है। दीर्घकालीन वित्त कम-से-कम सात वर्ष से अधिक के लिए लिया जाता है। व्यवसाय निम्नलिखित प्रकार से वित्त का प्रयोग दीर्घकालीन वित्त के रूप से करते हैं

(a) अंशों द्वारा प्राप्त वित्त, (b) ऋण-पत्रों द्वारा प्राप्त वित्त, (c) विशेष वित्तीय संस्थाओं की सहायता से प्राप्त वित्त, एवं (d) संचित लाभ को पुनः विनियोजित करना।

(2) मध्यकालीन वित्त (Mid-term Finance) मध्यकालीन वित्त की आवश्यकता व्यवसाय को चल पूँजी के लिए होती है। इस वित्त की आवश्यकता व्यवसाय को सम्पत्ति के मूल्य को वापस करने के लिए होती है। यह वित्त दो वर्षों से अधिक तथा सात वर्ष से कम समय के लिए लिया जाता है। व्यवसाय निम्नलिखित प्रकार के वित्त का प्रयोग मध्यकालीन वित्त के रूप में करता है

(a) शोध्य पूर्वाधिकार अंशों के द्वारा प्राप्त वित्त, (b) ऋण-पत्रों द्वारा प्राप्त वित्त जो एक वर्ष से अधिक तथा दस वर्ष से अधिक तथा दस वर्ष से कम समय के लिए निर्गमित किए गए ऋण-पत्रों से हो, (c) विशेष वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्राप्त सहायता, (d) सार्वजनिक जमा से प्राप्त वित्त, एवं (e) व्यापारिक बैंकों से प्राप्त ऋण।

(3) अल्पकालीन वित्त (Short-term Finance)-अल्पकालीन वित्त कम समय के लिए आवश्यक चल पूँजी की मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक है। वह वित्त जिसकी व्यवस्था एक वर्ष से कम समय के लिए की जाती है अल्पकालीन वित्त कहलाता है। निम्नलिखित प्रकार के वित्त का प्रयोग अल्पकालीन वित्त के रूप में किया जाता है।

(a) व्यापरिक बैंकों से प्राप्त ऋण जो एक वर्ष से कम समय के लिए दिया गया हो. (b) सार्वजनिक जमा से प्राप्त वित्त जो एक वर्ष से कम समय के लिए जमा किया गया हो, (c) ग्राहक से प्राप्त अग्रिम वित्त, एवं (d) प्राप्य विपत्रों से वित्त की व्यवस्था।

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कोषों की आवश्यकताओं के प्रकार

(Types or Kinds of Funds Requirements)

आपने पढ़ा किसी भी उद्यम की वित्तीय आवश्यकताओं को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया गया जाता है

कालीन बजी: (2) मध्यकालीन पूँजी; तथा (3) अल्पकालीन पूँजी। किन्तु आधुनिक वित्तशास्त्री अब व्यवसाय अथवा उद्योग की वित्तीय आवश्यकताओं को केवल दो भागों में विकत करने में

कोष प्राप्ति के स्रोत (1) दीर्घकालीन या स्थायी वित्त या पूँजी; एवं (II) कार्यशील एवं अल्पकालीन वित्त अथवा पूँजी। हम यहाँ पर इन दोनों का विस्तृत वर्णन करेंगे।

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(I) दीर्घकालीन या स्थायी वित्त अथवा पूँजी

(Long Term or Fixed Finance or Capital)

स्थायी पूँजी से आशय (Meaning of Fixed or Blocked Capital)

ऐसा धन जो स्थायी सम्पत्ति पर विनियोजन के लिए लिया जाता है, उसे स्थायी पूँजी (Fixed or Blocked Capital) कहा जाता है। यह पूँजी व्यापार एवं उद्योग में स्थायी रूप से रहती है और उसे इच्छानुसार वापस नहीं लिया जा सकता है। इस प्रकार की पूँजी का उपयोग स्थायी सम्पत्ति को क्रय करने के लिए किया जाता है। स्थायी सम्पत्ति में भूमि, भवन, यन्त्र पैटेण्ट एवं प्रारम्भिक व्ययों पर किये जाने वाले विनियोग सम्मिलित किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त व्यवसाय की स्थापना के बाद भविष्य में भी दीर्घकालीन वित्त अथवा स्थायी पूँजी की आवश्यकता अप्रचलित तथा घिसी-पिटी मशीनों को बदलने, विस्तार कार्यक्रमों के अन्तर्गत नयी मशीनों को खरीदने, भवन में वृद्धि करने, कच्चे माल एवं स्टोर के न्यूनतम स्टॉक की मात्रा बढ़ाने, आदि की व्यवस्था के लिए भी होती है। इन सम्पत्तियों में किया गया विनियोग बिल्कुल गैर-तरल प्रकृति का होता है। इन सम्पत्तियों में जो साधन एक बार लगा दिये जाते हैं, वे सदैव उसमें लगे रहते हैं। अत: इस प्रकार की पूँजी को स्थायी पूँजी के अतिरिक्त दीर्घकालीन पूँजी, अचल पूँजी अथवा ब्लाक केपीटल के रूप में भी पुकारा जाता है।

स्थायी सम्पत्तियाँ व्यवसाय के संचालन में प्रयुक्त अपेक्षाकृत स्थायी प्रकृति की सम्पत्तियाँ होती हैं जो कि विक्रय के लिये नहीं होती हैं।

फिने एवं मिलर स्थायी एवं पूँजी के लक्षण–(i) यह पूँजी दीर्घकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयोग की जाती है, एवं (i) इसे जब चाहें व्यापार से निकाल नहीं सकते।

स्थायी पूँजी की आवश्यकता-स्थायी पूँजी की आवश्यकता प्राय: निम्न कार्यों के लिये होती है: (i) स्थायी सम्पत्तियों को खरीदने के लिये; (ii) प्रारम्भिक व्यय, स्थापना व्यय, एकस्व, संस्था के विकास एवं विचार पर किया जाने वाला व्यय, एवं अमूर्त सम्पत्तियों पर किया जाने वाला व्यय भी स्थायी पूँजी का ही भाग होता है; (iii) स्थायी सम्पत्तियों के प्रतिस्थापन अथवा नवीनीकरण के व्यय: (iv) शौध एवं अनुसंधान की लागत को पूरा करने के लिये; (v) स्थायी कार्यशील पूँजी के लिये; एवं (vi) प्रवर्तन सम्बन्धी व्ययों को पूरा करने के लिये, स्थायी पूँजी की आवश्यकता रहती है।

स्थायी पूँजी के प्रकार (Types of Fixed Capital)

सम्पत्ति में विनियोजन के अनुसार स्थायी पूँजी दो प्रकार की होती है—

(1) वास्तविक स्थायी पूँजी-भूमि, भवन,यन्त्र आदि वास्तविक सम्पत्तियों (Tangible Assets) के क्रय हेतु विनियोजित की गयी पूँजी वास्तविक स्थायी पूँजी कही जाती है।

(2) अवास्तविक स्थायी पूँजी–ख्याति, पैटेण्ट, प्रारम्भिक व्यय, आदि जैसी अदृश्य सम्पत्तियों (Intanible Assets) पर की जाने वाली विनियोजित राशि अवास्तविक स्थायी पूँजी कही जाती है।

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स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने वाले तत्व

(Factors Determining the Volume of Fixed Capital)

स्थायी पूँजी की मात्रा को निम्नलिखित तत्त्व निर्धारित करते हैं

(1) व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business) स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने के लिए व्यवसाय को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

(अ) उत्पादन करने वाले व्यवसाय ऐसे व्यवसाय जो वस्तओं के उत्पादन कार्य में लगे हैं, वे केवल विपणन कार्य मलग व्यवसायियों की अपेक्षाकृत अधिक स्थायी पँजी की आवश्यकता अनुभव करते हैं। ऐसे व्यवसाय को पुन: दो भागों में उपविभाजित किया जा सकता है

(i) उपभोक्ता वस्तु का उत्पादन करने वाले व्यवसाय—इसमें औद्योगिक वस्तु के उत्पादन करने वाले व्यवसाय की अपेक्षाकृत कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

(ii) द्यिोगिक वस्तु का उत्पादन करने वाले व्यवसाय—इसमें सबसे अधिक स्थायी पूंजी की आवश्यकता होती है।

(ब) केवल विपणन कार्य में लगे व्यवसाय ऐसे व्यवसाय जो केवल विपणन या वितरण-कार्य करते हैं, वस्त का उत्पादन नहीं करते हैं, अपेक्षाकृत सबसे कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

(2) व्यवसाय का आकार (Size of Business) व्यवसाय का आकार एवं संगठन स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करता है। यदि व्यवसाय बड़े पैमाने पर उत्पादन एवं वितरण कार्य करता है तो इसमें स्थायी पूँजी की अधिक आवश्यकता होगी. किन्तु यदि व्यवसाय एकल व्यापार एवं साझेदारी संस्था के रूप में कार्यरत है तथा कम मात्रा में उत्पादन करता है तो कम स्थायी पूँजी से ही कार्य करना काफी होगा?

(3) प्रारम्भिक व्यय अधिक (More Preliminary Expenses)–यदि कम्पनी की स्थापना के समय किये जाने वाले प्रारम्भिक व्ययों, जैसे—वैधानिक व्ययों, पैटेण्ट, प्रवर्तकों का पारिश्रमिक आदि पर अधिक व्यय हो जाता है तो इससे अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता अनुभव होती है।

(4) जटिल उत्पादन प्रक्रिया (Complex Process of Production) यदि उत्पादन प्रक्रिया अधिक जटिल है। तथा उत्पादन कार्य आधुनिक स्वचालित यन्त्रों की सहायता से करना है तो निश्चित रूप से अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत, यदि उत्पादन प्रक्रिया सरल है तथा पुरानी मशीनों से कार्य लेना है तो कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी।

(5) सम्पत्तियों का अधिमूल्यन (Overvaluation of Assets) यदि कम्पनी के प्रवर्तक अपनी सम्पत्तियों को कम्पनी को हस्तान्तरण ऊँचे मूल्य पर करते हैं या अन्य व्यावसायिक संस्था का व्यापार ऊँचे मूल्य पर क्रय करते हैं तो स्थायी पूँजी की अधिक आवश्यकता होगी।

(6) प्रबन्धकों का दृष्टिकोण (Attitude of Management) यदि प्रबन्धक बाजार में वस्तु के प्रमुख उत्पादक के रूप में प्रवेश करना चाहते हैं तो उन्हें अधिक पूँजी की आवश्यकता होगी। $

स्थायी पूँजी को प्राप्त करने के साधन (Sources of Raising Fixed Capital)

स्थायी पूँजी को प्राप्त करने के लिये दीर्घकालीन साधनों की आवश्यकता होती है। जो इस प्रकार हैं

(i) स्वामित्व पूँजी (Ownership Capital),

(ii) ऋणगत पूँजी (Borrowed Capital),

(iii) सार्वजनिक जमा (Public Deposits),

(iv) लाभों का पुनर्विनियोजन (Ploughing back of profits),

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1 कार्यशील या अल्पकालीन वित्त अथवा पूँजी

(Working or Short-term Finance or Capital)

कार्यशील पूँजी का अर्थ एवं अवधारणा (Meaning and Concept of Working Capital)

कार्यशील पूँजी शब्द दो शब्दों, कार्यशील व पूँजी से मिलकर बना है। कार्यशील से आशय व्यापार के दिन-प्रतिदिन के संचालन में पूँजी का एक स्वरूप में संचारित होने से है। जब कि पूँजी शब्द से आशय वास्तविक सम्पत्तियों अथवा व्यावसायिक सम्पत्तियों के मौद्रिक मूल्य से है। इस तरह कार्यशील पूँजी से आशय व्यवसाय की कुल सम्पत्तियों के उस भाग से है, जो सामान्य। संचालन के एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में परिवर्तित होती रहती है। किन्तु कार्यशील पूंजी की इस व्याख्या से भी एक मत नहीं। है। कछ विद्वान चालू सम्पत्तियों के योग को ही कार्यशील पूँजी मानते हैं, जबकि कुछ अन्य चालू सम्पत्तियों के चाल दायित्वों । पर आधिक्य को कार्यशील पूंजी कहते हैं। विद्वानों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो इसे केवल चक्रशील पँजी कहना ही उपयक्त समझता है। अत: कार्यशील पूंजी का वास्तविक अर्थ समझने के लिये कार्यशील पूँजी की विभिन्न अवधारणाओं को समझना। आवश्यक है। कार्यशील पूँजी की अग्रलिखित दो अवधारणायें हैं—सकल अवधारणा एवं शुद्ध अवधारणा।

सकल अवधारणा के अनुसार संस्था की समस्त चालू सम्पत्तियों का योग ही कार्यशील पूँजी है। जबकि शुद्ध अवधारणा के अनुसार कार्यशील पूँजी का अभिप्राय चालू सम्पत्तियों एवं चालू दायित्वों के अन्तर से है। शुद्ध अवधारणा संस्था की तरल स्थिति को बताती है। ६ कार्यशील पूँजी की परिभाषायें (Definition of Working Capital)

“सामान्यतः कार्यशील पूँजी का आशय चालू दायित्वों के ऊपर चालू सम्पत्तियों के आधिक्य से होता है।”1-गर्टनबर्ग

सी.डब्ल्यू. गटनबर्ग गुणात्मक अवधारणा के समर्थक हैं। इस अवधारणा के अनुसार चालू सम्पत्तियों तथा चालू दायित्वों की समान राशि हो तो संस्था में कार्यशील पूँजी की अनुपस्थिति मानी जाती है। ” कार्यशील पूँजी से तात्पर्य चालू सम्पत्तियों के योग से है।”2

मीड, मैलेट तथा फील्ड “चालू सम्पत्तियों का योग ही व्यवसाय की कार्यशील पूँजी है।”3

जे. एस. मिल कार्यशील पूँजी की परिमाणात्मक अवधारणा पूँजी के परिमाण या मात्रा पर अधिक बल देती है तथा गुणात्मक पहलू पर कम।

एक अन्य अवधारणा के अनुसार-“यह मानते हुये कि चाल सम्पत्तियों के नकद में परिवर्तन करने पर कोई हानि या लाभ नहीं होगा। शुद्ध कार्यशील पूँजी सभी चालू दायित्वों के भुगतान के पश्चात् शेष रही चालू सम्पत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है।”

केनेडी तथा मैकमुलन ___ उपर्युक्त परिभाषाओं में चालू सम्पत्तियों के योग को सकल कार्यशील पूँजी तथा चालू सम्पत्तियों के चालू दायित्व पर आधिक्य को शुद्ध कार्यशील पूँजी माना गया है।

निष्कर्ष उपर्युक्त सभी अवधारणाओं पर आधारित कार्यशील पूँजी की परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वास्तव में कार्यशील पूंजी में अर्थ में मतभेद न होकर उसके परिणाम या मात्रा (Quantity) पर मतभेद है। गुणात्मक अवधारणा जहाँ कार्यशील पूँजी के अर्थ को संकुचित करती है, वहीं परिमाणात्मक अवधारणा इसे व्यापक बना देती है, जबकि अन्य अवधारणाओं पर आधारित परिभाषाओं ने इन्हें मिला-जुला एवं चक्रीय पूँजी के रूप में कार्यरत रूप दिया है। वास्तव में देखा जाय तो सभी परिभाषायें अपने-अपने स्थान पर उचित है। एकाकी अथवा साझेदारी संस्था के रूप में संगठित छोटे-छोटे व्यापार में परिमाणात्मक अवधारणा अधिक उचित प्रतीत होती हैं। किन्तु बड़े व्यावसायिक संगठनों, निगमों आदि में गुणात्मक अवधारणा उपयुक्त मानी जा सकती है। इसी प्रकार व्यावसायिक दृष्टिकोण से परिमाणात्मक अवधारणा तथा लेखांकन दृष्टिकोण से गुणात्मक अवधारणा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।

कार्यशील पूँजी की विशेषतायें (Features of Working Capital) __कार्यशील पूँजी की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं—(i) कार्यशील पूँजी अपना स्वरूप निरन्तर बदलती रहती है। (ii) कार्यशील पूँजी को आसानी से नकदी में बदला जा सकता है एवं नकदी को किसी अन्य सम्पत्ति में फिर से विनियोजित किया जा सकता है; (iii) कार्यशील पूँजी की आवश्यकता विशेष परिस्थितियों एवं समयों पर बदलती रहती है; एवं (iv) कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कभी स्थायी एवं कभी अस्थायी होती है, परन्तु कुछ मात्रा में इसी आवश्यकता सदैव रहती है।

कार्यशील पँजी का महत्त्व एवं उसकी आवश्यकता (Importance and Necessity of Working Capital)

केवल स्थायी सम्पत्ति के लिए पूँजी व्यवस्था कर लेने मात्र से ही व्यवसाय का संचालन नहीं किया जा सकता। व्यवसाय की सामान्य प्रगति के लिए स्थिर सम्पत्ति के लिये आवश्यक पूजी के साथ-साथ सम्पत्तियों (Current Assets) के लिए आवश्यक पूँजी की भी व्यवस्था करनी होती है। कच्चा माल खरीदने, निर्माण द्वारा उसे निर्मित माल में परिवर्तित करने, माल को बेचने के लिए उसकी विक्रय व्यवस्था करने,ग्राहकों को उधर माल देने के लिए भी पैंजी की आवश्यकता होती है। इस पूँजी की व्यवस्था । दीर्घकालीन और अल्पकालीन दोनों प्रकार के कोषों द्वारा की जाती है। कार्यशील पँजी निम्नलिखित आवश्यकताओं की पूर्ति करती है

(1) कच्चा माल खरीदने के लिए, अथवा माल की खरीद का वित्त-पोषण करने के लिए:

(2) कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तन करने तक की समस्त प्रक्रियाओं के वित्त-पोषण के लिए (जैसे-मजदूरी, वेतन, इंधन एवं अन्य दैनिक उत्पादन व्यय आदि);

(3) विक्रय व्यवस्था एवं माल के उधार विक्रय के वित्त-पोषण के लिए;

(4) कार्यालय के अन्य छोटे-मोटे व्ययों की पूर्ति के लिए; एवं

(5) एक कार्यरत संस्था (Going Concern) के रूप में कम्पनी को आत्मनिर्भरता की स्थिति तक पहुँचाने के लिए।

कार्यशील पूंजी के प्रकार (Types of Working Capital)

कार्यशील पूँजी को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

(अ) अवधारणाओं के आधार पर (On the basis of Concepts),

(ब) आवश्यकताओं के आधार पर (On the basis of Necessities)

(अ) अवधारणाओं के आधार पर कार्यशील पूँजी को अवधारणा के आधार पर निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

सकल कार्यशील पूंजी (Gross Working Capital) सकल कार्यशील पूँजी का आशय सभी चालू सम्पत्तियों के योग से होता है। चालू सम्पत्तियों में हाथ में नकद रोकड़, बैंक में रोकड़, देनदार, स्टॉक, प्राप्य

बिल, पूर्वदत्त व्यय, अग्रिम भुगतान, अल्पकालीन विनियोग आदि शामिल किये जा सकते हैं। (ii) शुद्ध कार्यशील पूँजी (Net Working Capital) शुद्ध कार्यशील पूँजी से आशय चालू सम्पत्तियों के चालू

दायित्व पर आधिक्य की राशि से है। सूत्र रूप में,

शुद्ध कार्यशील पूंजी = चालू सम्पत्ति – चालू दायित्व। (ब) आवश्यकताओं के आधार पर आवश्यकता के आधार पर कार्यशील पूँजी को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

(i) स्थायी अथवा नियमित कार्यशील पूंजी (Fixed or Regular Working Capital) स्थायी अथवा नियमित कार्यशील पूँजी से आशय ऐसी पूँजी से है जो व्यवसाय के सामान्य संचालन में चालू सम्पत्तियों में हर समय विनियोजित रहती हो; जैसे—कच्चे माल का न्यूनतम स्तर, निर्मित माल का न्यूनतम स्टॉक, न्यूनतम रोकड़ या बैंक शेष आदि।

(ii) परिवर्तनशील या मौसमी कार्यशील पूँजी (Variable or Seasonal Working Capital) स्थायी एवं नियमित कार्यशील पूँजी के अतिरिक्त व्यवसाय में समय-समय पर अधिक कच्चा माल खरीदने के लिए जिस अधिक धन की आवश्यकता होती है, उसे परिवर्तनशील या मौसमी कार्यशील पूंजी कहा जाता है, जैसे

चीनी उद्योग को विशेष अवधि में अधिक गन्ना क्रय करना होता है।

कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले घटक (Factors Determining the Working Capital Requirement)

किसी उद्योग या व्यवसाय में कार्यशील पूँजी की मात्रा कितनी हो अथवा चालू सम्पत्ति में कितने धन का विनियोजन आवश्यक है, इसका निर्धारण करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। अत: कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित घटकों पर विचार किया जा सकता है

(1) व्यवसाय की प्रकृति (Nature of Business) कार्यशील पूँजी की मात्रा का निर्धारण व्यवसाय की प्रकृति पर भी निर्भर करता है। यदि व्यवसाय एक औद्योगिक निर्माणी संस्था है तो इसमें कच्चे माल, मजदूरी आदि के लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी और यदि आधारभूत उद्योग (रेल, बिजली, खनिज तेल आदि) हैं तो कार्यशील पूंजी की कम आवश्यकता होती है। इसी प्रकार नियमित चलने वाले उद्योग एवं व्यवसाय में अनियमित चलने वाले उद्योग: जैसे चीनी उद्योग आदि को अपेक्षाकृत कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है क्योंकि निश्चित एवं नियमित माँग होने से नकद प्रवाह (Cash inflow) बना रहता है तथा स्कन्ध में अधिक धन विनियोग नहीं करना पड़ता है।

(2) व्यावसायिक इकाई का आकार (Size of Business Unit) व्यावसायिक इकाई के आकार पर भी कार्यशील जी की मात्रा निर्भर करती है। यदि व्यावसायिक इकाई का आकार काफी बड़ा है तो अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। इसका मुख्य कारण यह भी है कि अधिक स्थायी पूँजी के कुशलतम उपयोग के लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, छोटी इकाइयों में कम कार्यशील पूँजी ही उचित रहेगी।

(3) उत्पादन क्रिया (Production Process) यदि उत्पादन प्रक्रिया काफी जटिल एवं लम्बी है, जहाँ कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करने के लिए अधिक समय एवं अधिक उपरिव्यय लगता है, वहाँ निश्चित रूप से अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, यदि उत्पन्न प्रक्रिया सरल है तो कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

(4) मौसमी उत्पादन (Seasonal Production)-यदि मौसमी उत्पादन करने वाले उद्योग हैं जिनमें मुख्यतः बर्फ कारखाना, ऊनी वस्त्र, रेफ्रीजरेटर, पंखे आदि शामिल हैं, तो ऐसे उद्योग में एक विशेष समय पर अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी, जबकि शेष समय में कार्यशील पूँजी की मात्रा नगण्य होगी।

(5) रोकड़ की आवश्यकता (Requirement of Cash)-ऐसे व्यवसाय या उद्योग जहाँ मजदूरी, वेतन, भाड़ा, ढुलाई, कर, किराया, लेनदारों आदि को अधिक भुगतान करना पड़ता है तो अधिक रोकड़ की आवश्यकता होगी। अतः अधिक रोकड़ की मात्रा कार्यशील पूँजी की मात्रा में वृद्धि करेगी।

(6) क्रय-विक्रय की शर्ते (Terms and Conditions for Purchase and Sales)-माल की उधार खरीद एवं बिक्री कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित करती है। उधार क्रय की अवधि जितनी अधिक होगी उतनी कार्यशील पूँजी कम आवश्यक होगी। इसी प्रकार उधार बिक्री की अवधि जितनी अधिक होगी, कार्यशील पूँजी भी उतनी अधिक आवश्यक होगी।

(7) क्रय की मात्रा (Volume of Purchase) यदि कच्चा माल वर्ष भर के लिए इकट्ठा क्रय कर लिया जाये तो अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी और यदि कच्चा माल समय-समय पर विभिन्न किस्तों में क्रय किया जाये तो कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

(8) उत्पादन लागत में कच्चे माल का अनुपात (Ratio of Raw Material in Production Cost)-जिन उद्योगों की उत्पादन लागत में कच्चे माल की लागत सबसे अधिक होती है, उसे अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है क्योंकि कच्चे माल को उसी अनुपात में क्रय करना होता है और इसके लिए अधिक नकद धन की आवश्यकता पड़ती है।

(9) व्यवसाय के विकास की सामान्य दर (Normal Rate of Development of Business)—यदि व्यवस्था के विकास की दर काफी धीमी है तो इसमें प्रगति लाने हेतु अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। व्यवसाय के विकास में कार्यशील पूँजी की मात्रा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कार्यशील पूँजी की पूर्ति का एक तरीका यह भी है कि संस्था अपने लाभ का आहरण न करके उसके पुनर्विनियोग से व्यवसाय के विकास में सहायता कर सकती है। किन्तु यदि विकास की योजना काफी बड़ी है तो अतिरिक्त कार्यशील पूँजी का प्रबन्ध करना होगा।

(10) व्यावसायिक चक्र (Business Cycles) कार्यशील पूँजी की मात्रा को व्यावसायिक चक्र भी प्रभावित करते है। यदि व्यवसाय की दशा सामान्य है तो कम कार्यशील पूँजी से ही कार्य सफलतापूर्वक चल सकता है, किन्त तेजी काल (Prosperity) समृद्धि के समय अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता नहीं होती है। इसका मुख्य कारण तेजी के समय कच्चे माल की कीमत में वृद्धि, निर्मित माल की कीमत में वृद्धि की अपेक्षा अधिक होती है, जिससे उत्पादक को कच्चे माल को क्रय करने के लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है, साथ ही भविष्य में मूल्य वृद्धि के कारण कच्चे माल का स्टॉक करना भी आवश्यक हो जाता है, जो कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को और अधिक बढ़ा देता है।

मन्दी काल में व्यवसाय संकुचित हो जाता है तथा कार्यशील पूंजी का एक भाग निष्क्रिय हो जाता है, किन्तु सुधार अथवा तेजी आने पर पुनः कार्यशील पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है। इस प्रकार व्यावसायिक चक्र कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित करते रहते हैं।

(11) लाभांश नीति (Dividend Policy) यदि लाभ का एक बड़ा हिस्सा लाभांश के रूप में अंशधारियों में वितरित कर दिया जाता है तो कार्यशील पूंजी की अधिक आवश्यकता पड़ती है. किन्त यदि लाभ नकदी में कम मात्रा में वितरित किया जाता है अथवा सम्पूर्ण लाभ बोनस अंशों के रूप में दे दिया जाता है तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता पड़ती है।

Sources Raising Funds Study

कार्यशील पूँजी के साधन (Sources of Working Capital)

एक व्यावसायिक संस्था अपनी कार्यशील पूंजी की व्यवस्था को निम्नलिखित साधनों से करती है

(1) अंश,

(2) ऋण-पत्र,

(3) वित्तीय संस्थाओं से ऋण,

(4) लाभों का पुनर्विनियोजन,

(5) सार्वजनिक जमा,

(6) बैंकों से ऋण, एवं

(7) जनता से डिपोजिट।

स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में अन्तर

(Difference between Fixed and Working Capital)

अन्तर का आधार

(Basis of Difference)

 

स्थायी पूँजी(Fixed Capital)

 

 

कार्यशील पूँजी (Working Capital)
1. अर्थ (Meaning) स्थायी पूँजी की आवश्यकता स्थायी सम्पत्तियों जैसे—भूमि व भवन, मशीनरी एवं फर्नीचर आदि के लिये की जाती है।

 

कार्यशील पूँजी की आवश्यकता सामान्य कार्योंएवं दिन-प्रतिदिन के कार्यों के संचालन जैसे मजदूरी, वेतन, किराया व कर आदि के लिए रहती है

 

2. प्रकृति (Nature)

स्थायी पूँजी स्थिर प्रकृति की होती है इसमें परिवर्तन नहीं होता।

 

यह अस्थिर प्रकृति की होती है एवं इसमें परिवर्तन होता रहता है।
3. प्राप्ति के साधन (Sources) इसे दीर्घकालीन साधनों जैसे स्वामित्व पूँजी, ऋणगत पूँजी एवं सार्वजनिक जमा से प्राप्त किया जाता है।

 

इसे दीर्घकालीन, मध्यकालीन एवं अल्प

कालीन अल्पकालीन साधनों से जैसे—अंश, ऋणपत्र, बैंक सार्वजनिक जमा इत्यादि साधनों से प्राप्त किया जाता है।

 

Sources Raising Funds Study

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

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