BCom 2nd Year Taxation Meaning Canons Classification Study Material notes In Hindi

//

BCom 2nd Year Taxation Meaning Canons Classification Study Material notes In Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Taxation Meaning Canons Classification Study Material notes In Hindi: Meaning and Definition of Tax Characteristics Features of a Tax Objectives of Taxation Canons of Taxation Direct and Indirect Tax Definition of Direct and Indirect Taxes Merits of Direct Taxes Demerits of Direct Taxes Comparison Between Direct and Indirect Taxes Relationship Between Direct and Indirect Taxes Proportional Progressive Regressive  Taxes Single tax Vs Multiple Tax System Characteristics of Good Tax System Important Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions:

Taxation Meaning Canons Classification
Taxation Meaning Canons Classification

BCom 2nd Year Economic Effects Public Expenditure Study Material Notes in Hindi

करारोपण : अर्थ, सिद्धान्त एवं वर्गीकरण

Taxation: Meaning, Canons, and Classification

“प्रगतिशील कराधान में कर योग्य आय में वृद्धि के साथ ही उच्च कर दर के रूप में आय की सीमान्त वृद्धि के लिए प्रभावी कर की दर में वृद्धि होती है। इसका अर्थ है कि दर दायित्व में आय वृद्धि के अनुपात से अधिक वृद्धि। उसके विपरीत व्यक्तिगत आय में कमी होने पर करों की प्रभावी दर में आय में कमी के। अनुपात में अधिक कमी।          -टेलर

Taxation Meaning Canons Classification

कर का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Tax)

आर्थिक नियोजन के वर्तमान युग में राज्य के कार्यों में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है, अतः। सार्वजनिक व्यय की राशि भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। इस बढ़ते हुए व्यय की पूर्ति के लिए सरकारें अपनी आय भी बढ़ाने लगी हैं। इसके लिए नये-नये साधन जुटाये जा रहे हैं तथा पुराने साधनों के दंग व ढाँचे में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं।

आधुनिक युग में कर सार्वजनिक आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। “करमुद्रा के रूप में एक अनिवार्य अंशदान है जो नागरिकों के सामान्य हित और कल्याण के लिए व्यय करने के उद्देश्य से सरकार नागरिकों से वसूल करती है।

कर की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

(i) प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार,कर सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा वसूल किया जाने वाला वह अनिवार्य भुगतान है जो सार्वजनिक हित के लिए व्यय को पूरा करने के लिए लिया जाता है।“1

(ii) प्रो० सैलिगमैन के अनुसार, “कर जनता द्वारा सरकार को दिया जाने वाला एक अनिवार्य अंशदान है जो सामान्य जनता के हित पर व्यय करने हेतु लगाया जाता है और किसी को विशेष लाभ प्रदान नहीं किए जाते।।

(iii) प्रो० टॉजिग के अनुसार,कर तथा भुगतानों के बीच मुख्य अन्तर यह है कि करदाता और सार्वजनिक अधिकारी के बीच में कोई प्रत्यक्ष जैसे को तैसाका सम्बन्ध नहीं होता।“3

(iv) डाल्टन के अनुसार, “कर सार्वजनिक सत्ता द्वारा लगाया गया एक अनिवार्य अंशदान है, चाहे उसके बदले में करदाता को उतनी सेवाएं प्रदान की जाएँ अथवा नहीं और इसे किसी कानूनी सजा के रूप में नहीं लगाया जाता है।

(v) डी० मार्को के अनुसार,कर नागरिकों की आय का वह भाग होता है जो सरकार सामान्य जनोपयोगी सेवाओं को चलाने के लिए अनिवार्य रूप से प्राप्त करती है।

Taxation Meaning Canons Classification

कर की प्रमुख विशेषताएँ (Characteristic Features of a Tax)

कर की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) कर एक अनिवार्य भुगतान हैकर एक अनिवार्य भुगतान है, चाहे इससे भुगतान करने वाले व्यक्ति को कोई लाभ प्राप्त हो या न हो। कोई भी नागरिक कर देने से इन्कार नहीं कर सकता और न ही कर की चोरी कर सकता है। कर की चोरी दण्डनीय अपराध है और ऐसा करने पर नागरिकों को दण्ड दिया जाता है।

(2) कर के बदले विशेष लाभ प्राप्त नहीं होता-कर का सरकारी व्यय से प्राप्त लाभ से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता। करदाता सरकार से कर के अनुपात में कोई लाभ प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

(3) करआय का सामान्य हित में उपयोग होता है-राज्य को कर के रूप में जो आय प्राप्त होती है, वह किसी एक वर्ग विशेष पर व्यय न की जाकर सार्वजनिक हित में व्यय की जाती है, किन्तु इसमें यह आवश्यक नहीं है कि जिस व्यक्ति या जिस वर्ग से आय प्राप्त की जाए उस व्यक्ति या उस वर्ग पर उसे व्यय कर दिया जाए। व्यय करते समय सरकार द्वारा निजी-हित की अपेक्षा सार्वजनिक-हित का ध्यान रखा जाता है।

करारोपण के उद्देश्य (Objectives of Taxation)

Taxation Meaning Canons Classification

प्राचीन काल में कर केवल सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति करने के उद्देश्य से ही लगाये जाते थे परन्तु आजकल करारोपण का प्रमुख उद्देश्य आय प्राप्त करना ही नहीं वरन् अर्थव्यवस्था में समानता लाने तथा धन के वितरण को न्यायपूर्ण बनाने के उद्देश्य से भी कर लगाये जाते हैं। करारोपण के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं

(1) आय प्राप्त करनावर्तमान समय में करारोपण के अनेक उद्देश्य हैं, परन्तु करारोपण का मुख्य उद्देश्य आय प्राप्त करना ही है। कर अन्य स्रोतों की अपेक्षा काफी लोचपूर्ण होते हैं। जितनी आसानी से सरकार करों से आय प्राप्त कर लेती है, उतनी आसानी से अन्य स्रोतों से आय प्राप्त नहीं की जा सकती है।

(2) नियमन नियन्त्रण करनावर्तमान समय में करारोपण का प्रयोग आर्थिक स्थायित्व लाने व मादक पदार्थों के उपभोग को रोकने के लिये किया जाता है। जब देश में नशीली वस्तुओं का उपभोग व उत्पादन बढ़ने लगता है तब इन वस्तुओं पर ऊँची दर से कर लगा कर इनके उपभोग व उत्पादन में कमी की जाती है। आय की असमानता को दूर करने के लिये भी ऊँची आय वाले व्यक्तियों पर ऊँची दर से कर लगाये जाते हैं। यदि देश में आयात बढ़ें और निर्यात घटें तो भी करों की सहायता से विदेशी व्यापार को अपने पक्ष में कर लिया जाता है।

(3) आय के वितरण की असमानताओं को कम करना-न्यायोचित वितरण-व्यवस्था का अभिप्राय आय की असमानता को दूर करना है। युद्धकाल में उद्योगपतियों व व्यापारियों को मनमाना लाभ मिलने लगता है। इस प्रकार का लाभ आर्थिक असमानता को बढ़ा देता है। इसलिये ऐसी स्थिति में ऊँचे कर लगाकर आय में समानता लायी जा सकती है।

(4) राष्ट्रीय आय में वृद्धि करनाकरों से उत्पादन व राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि हो सकती है। उदाहरण के लिये, कर लगाने से पूर्व व्यक्ति जितना उत्पादन व आय प्राप्त कर रहा था, करों के लगने के बाद भी वह उतना ही उत्पादन व आय अपने पास रखना चाहता है, ताकि उसका आर्थिक स्तर पूर्ववत् बना रहे। परन्तु यह तभी सम्भव होगा, जब व्यक्तियों की कार्य करने व बचत करने की इच्छा तीव्र होती है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि के सन्दर्भ में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि करों से सरकार आय प्राप्त करती है

और इस आय को आर्थिक विकास के कार्यक्रमों में व्यय करके राष्ट्रीय आय बढ़ायी जा सकती है। विकासशील देशों में, जहाँ आर्थिक नियोजन को आर्थिक विकास का प्रमुख यन्त्र मान लिया गया है. वहीं आर्थिक विकास के लिये करों का महत्त्व कई गुना अधिक बढ़ गया है।

(5) मुद्राप्रसार पर नियन्त्रणमुद्राप्रसार में मुद्रा का चलन-वेग बढ़ जाता है। लोगों की क्रय-शक्ति तो बढ़ती है परन्तु मुद्रा की क्रय-शक्ति घटती है। समाज का एक वर्ग लाभ कमाता है तो दूसरा वर्ग हानि सहन करता है। इस प्रकार की दुर्व्यवस्था की रोकथाम कुछ हद तक करों के द्वारा की जा सकती है  मुद्रा के अतिरिक्त चलन-वेग को प्रगतिशील कर-प्रणाली द्वारा रोका जा सकता है। ऐसी दशा में प्रत्यक्ष कर-प्रणाली उपयुक्त होती है।

Taxation Meaning Canons Classification

करारोपण के सिद्धान्त

(Canons of Taxation)

करारोपण के सिद्धान्तों से हमारा आशय उन विशेषताओं से है जो एक अच्छे कर में निहित होनी चाहिए, ये एक अच्छे कर के गण हैं। इनका सम्बन्ध कर लगाने की नीति एवं संकलन से है। ये ही करी दरों तथा राशियों का निर्देशन करते हैं।

एडम स्मिथ प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘Wealth of Nations’ में करारोपण के चार सिद्धान्तों (परिनियमों) का प्रतिपादन किया। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

(1) समानता का सिद्धान्त (Canon of Equity)-अपने इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए एडम । स्मिथ ने कहा है, “प्रत्येक राज्य की जनता को सरकार के कार्य संचालन हेतु अपनी योग्यतानुसार अंशदान करता चाहिए, अर्थात् उस आय के अनुपात में जिसका उपभोग वे राज्य के संरक्षण में करते हैं।”

वाकर का विचार है कि एडम स्मिथ का समानता से अभिप्राय आनुपातिक कर प्रणाली से था. किन्तु सैलिगमैन के अनुसार एडम स्मिथ का समानता से अभिप्राय प्रगतिशील कर-प्रणाली (Progressive Taxation System) से था। फिण्डले शिराज के अनुसार, “वित्तीय इतिहास में भिन्न-भिन्न समयों पर समता का अर्थ बदलता रहा है।” परन्तु अब इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि ‘कर देने की योग्यता का अर्थ प्रगतिशील-कर से है।’ एडम स्मिथ ने बाद में स्वयं स्वीकार किया है, “यह अत्यधिक उचित है कि धनिकों को सार्वजनिक व्यय के हेत केवल अपनी आयों के अनपात में ही अंशदान नहीं करना चाहिए, वरन् उस अनुपात से कुछ अधिक करना चाहिए।”

(2) निश्चितता का सिद्धान्त (Canon of Certainty)-इस सिद्धान्त के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति को जो कर देना है वह निश्चित होना चाहिए-मनमाना नहीं। भुगतान का समय, भुगतान की विधि, भुगतान की राशि करदाता को तथा अन्य प्रत्येक व्यक्ति को स्पष्ट होनी चाहिए।”3 आगे स्मिथ के अनुसार, “कर के मामले में किसी व्यक्ति को जो रकम अदा करनी है उसकी निश्चितता इतने महत्त्व की बात है कि समस्त देशों के अनुभव के आधार पर मेरा विचार है कि काफी मात्रा की असमानता भी इतनी भयानक नहीं है जितनी कि बहुत थोड़ी मात्रा में अनिश्चितता।”

कर की निश्चितता करदाता और राज्य दोनों के लिए ही लाभप्रद होती है। इससे करदाता को यह ज्ञान होता है कि उसे कब और कितनी राशि कर के रूप में देनी है। अतः वह अपना व्यय उसी के अनुसार समायोजित कर सकता है। राज्य को यह पता होता है उसे कब और कितनी आय प्राप्त होगी। अतः राज्य अपने बजट का अनुमान निश्चिततापूर्वक कर सकता है।

(3) सुविधा का सिद्धान्त (Canon of Convenience)-एडम स्मिथ के अनुसार, “प्रत्येक कर। ऐसे समय पर तथा इस प्रकार लगाया जाना चाहिए कि उसका भुगतान करना करदाता के लिए अधिक से अधिक सुविधाजनक हो।“4 दूसरे शब्दों में, कर के भुगतान का समय तथा कर के भुगतान की विधि। करदाताओं की सुविधा के अनुसार होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, किसान से लगान की वसूली फसल। काटने के समय, आयकर की वसूली वेतन मिलने के समय अथवा बिक्री कर की वसूली वस्तुओं का। बिक्री के समय की जानी चाहिए।

(4) मितव्ययिता का सिद्धान्त (Canon of Economy)-इस सिद्धान्त के अनुसार कर प्रणाली मितव्ययितापूर्ण होनी चाहिए अर्थात् कर वसूल करने में कम से कम व्यय होना चाहिए। एडम स्मिथ के अनुसार, “प्रत्येक कर इस प्रकार लगाया जाना चाहिए कि लोगों की जेब से सरकारी खजाने में जानी वाली रकम के अतिरिक्त कम से कम राशि निकाली जाए।” प्रो० जे० के० मेहता के अनुसार, “करारोपण एक प्रकार से उत्पादन कार्य है। अतएव उत्पादन कार्य में यथासम्भव मितव्ययिता बरती जानी चाहिए।”2 डॉ० डाल्टन के अनुसार, “सर्वोत्तम कर प्रणाली वह है जिसके अन्तर्गत कर वसूल करने की लागत संग्रहीत आय के अनुपात में न्यूनतम हो।”

Taxation Meaning Canons Classification

इस दृष्टि से कर लगाते व संग्रह करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

(i) कर संग्रह करने की प्रशासनिक लागत कम से कम आए।

(ii) करारोपण का उद्योग व व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

(iii) कर इतने भारी न हों कि कर वंचन को प्रोत्साहन मिले।

(iv) कर-पद्धति सरल होनी चाहिए।

एडम स्मिथ के करारोपण सिद्धान्तों की समीक्षा-एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त सिद्धान्तों के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रथम सिद्धान्त ‘समानता के सिद्धान्त’ को छोड़कर अन्य सभी सिद्धान्त कर-नीति का कोई निश्चित आधार प्रदान नहीं करते। फिण्डले शिराज के अनुसार, “प्रथम सिद्धान्त को छोड़कर अन्य सभी सिद्धान्त व्यावहारिक सिद्धान्त मात्र हैं और वे कर-नीति का आधार निश्चित नहीं कर सकते हैं। वास्तव में, वे सिद्धान्त नहीं है वरन् कर अधिकारियों के प्रशासन-सम्बन्धी निर्देश हैं।” स्मिथ के सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए, श्रीमती उर्सला हिक्स कहती हैं, “अपने सार्वजनिक आय के अध्याय में एडम स्मिथ ने करारोपण के चार सिद्धान्त बताए जिनको वह प्रसिद्धि मिली जिसके वे योग्य नहीं थे, क्योंकि उनमें उस समय के विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र ही था।”

एडम स्मिथ के सिद्धान्तों में उपरोक्त दोष होते हुए भी अर्थशास्त्रियों ने इन सिद्धान्तों को पर्याप्त महत्त्वपूर्ण माना है। फिण्डले शिराज ने इन सिद्धान्तों की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति सिद्धान्तों को इतने स्पष्ट तथा सादे नियमों के रूप में संक्षेप में वर्णन करने में सफल नहीं हुआ जितना कि एडम स्मिथउसके पश्चात् आने वाले व्यक्तियों ने इन सिद्धान्तों में कोई ठोस सुधार नहीं किया तथा न ही वे इन सिद्धान्तों को वित्त विज्ञान में मिले उनके स्थान से हटा सके……. आज भी एडम स्मिथ के सिद्धान्त सार्वजनिक वित्त के अध्ययन के आवश्यक अंग समझे जाते हैं।“5 प्रो० बी० आर० मिश्रा के अनुसार, “योग्यता का नियम करारोपण का एक सिद्धान्त है, अन्य तीन करों से सम्बन्धित प्रशासकीय नियम है।”

Taxation Meaning Canons Classification

करारोपण के अन्य सिद्धान्त-एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त चार सिद्धान्तों के अतिरिक्त कुछ अन्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया गया है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

(5) उत्पादकता का सिद्धान्त (Canon of Productivity)-इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बेस्टेबेल ने किया। उनके अनुसार कराधान को उत्पादक होना चाहिए। कर की उत्पादकता दो प्रकार से प्राप्त की जा सकती है-प्रथम, कर ऐसा होना चाहिए कि जो सरकार को संचालन के लिए यथेष्ठ मात्रा में धन दे सके तथा दूसरे, कर ऐसा होना चाहिए जो उत्पादन को हतोत्साहित न करे।

(6) लोच का सिद्धान्त (Canon of Elasticity)-कर-प्रणाली के लोचदार होने से आशय यह है। कि करों से प्राप्त होने वाली आय को आवश्यकतानुसार घटाया बढ़ाया या सके। सरकार को अकाल । बाद, युद्ध या अन्य किसी संकट का सामना करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता हो सकती है।। यदि कर-प्रणाली लोचदार है तो कर दरों में थोड़ा हेर-फेर करके पर्याप्त धनराशि इकट्ठा की जा सकती। है। आय कर एक लोचपूर्ण कर है, जबकि वस्तु कर, सम्पत्ति कर तथा मालगुजारी में लोच नहीं है।

(7) विविधता का सिद्धान्त (Canon of Diversity)-कर प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें हर प्रकार के कर हों, ताकि देश का प्रत्येक नागरिक योगदान कर सके। इस दृष्टि से प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों। का ठीक ढ़ंग से विभाजन होना चाहिए और उचित वस्तुओं पर कर लगाया जाना चाहिए। वस्तुतः कराधान के भार को सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर विस्तृत रूप से फैला दिया जाना चाहिए, परन्तु यह बात ध्यान में । रखनी चाहिए कि ऐसा करने से उत्पादकता तथा मितव्ययिता के प्रयासों को ठेस न पहुँचे। प्रो० आर्थर यंग के अनुसार, यदि मुझसे एक अच्छी करपद्धति की व्याख्या करने को कहा जाए तो मै कहँगा कि अच्छी कर पद्धत वह है जो लोगों की अपरिमित संख्या पर बहुत हल्का दबाव डाले और भारी दबाव किसी पर भी नहीं।

(8) सरलता का सिद्धान्त (Canon of Simplicity)-कर ऐसा होना चाहिए कि करदाता उसे आसानी से समझ सके। दूसरे शब्दों में, कर की प्रकृति, उसका उद्देश्य, भुगतान का समय, कर-निर्धारण का तरीका और आधार आदि सभी ऐसे होने चाहिएँ कि प्रत्येक करदाता उसको आसानी से समझ सके तथा पालन कर सके।

(9) उपयुक्तता का सिद्धान्त (Canon of Expediency)-कर लगाने की सम्भावना तथा समयोचितता पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाना चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि करदाता पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। केवल वही कर लगाए जाने चाहिएँ जो उचित तथा वांछनीय हों। लोकतन्त्रीय देशों में यह सिद्धान्त बड़ा महत्त्वपूर्ण है।

(10) समन्वय का सिद्धान्त (Canon of Co-ordination)-कर-प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि करदाता को एक ही वस्तु पर अनेक स्थानों पर तथा अनेक बार कर न चुकाना पड़े। इसके लिए देश के विभिन्न राज्यों, पंचायतों अथवा नगरपालिकाओं की कर-नीतियों में समन्वय स्थापित किया जाए और कर-वसूली अन्तिम उपभोक्ता-स्तर पर की जाए।

Taxation Meaning Canons Classification

प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष/परोक्ष कर

(Direct and Indirect Tax)

करों को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो वर्गों में बाँटा जाता है। सामान्य रूप से जब कर की देयता (Impact) तथा कर बाहाता (Incidence) एक ही व्यक्ति पर रहती है तो उसे प्रत्यक्ष कर‘ (Direct Tax) कहा जाता है। इसके विपरीत जब कर देयता (Impact) तथा बाह्यता (Incidence) भिन्न-भिन्न व्यक्तियों पर होती है तो उसे ‘अप्रत्यक्ष कर’ (Indirect Tax) कहा जाता है। प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों का यह वर्गीकरण एक सामान्य वर्गीकरण है।

प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष (परोक्ष) करों की परिभाषाएँ

(Definitions of Direct and Indirect Taxes)

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

(i) प्रो० जे० एस० मिल के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर वह हैं जो उसी व्यक्ति से माँगा जाता है जिससे यह आशा तथा इच्छा की जाती है कि वह उसे अपने पास से देगा और परोक्ष कर वह हैं जो किसी व्यक्ति से इस इच्छा अथवा आशा से माँगा जाता है कि वह किसी दूसरे से इस कमी को पूरा कर लेगा।

(ii) प्रो० बेस्टेबिल के अनुसार,प्रत्यक्ष कर वे कर होते हैं जो स्थायी तथा बारबार उत्पन्न होने वाले अवसरों पर लगाए जाते हैं जबकि परोक्ष कर वे कर हैं जो कभीकभी उत्पन्न होने वाले अवसरों पर लगाए जाते हैं।“1

(iii) प्रो० डी० मार्को के अनुसार,यदि किसी व्यक्ति की आय सीधे ही कर से मालूम की जाती है तो उसे प्रत्यक्ष कर कहना चाहिए। आय का इस प्रकार सीधे हिसाब लगाना सद नहीं होता फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों की आय अंशतः अथवा पूर्णतः कर देने से वंचित रह सकती है। इन बची हुई आयों पर परोक्ष रूप से कर उस समय लगता है जब वह उसे खर्च करता है।“2 |

(iv) डॉ० डाल्टन के अनुसार,प्रत्यक्ष कर उसी व्यक्ति द्वारा देय होता है जिस पर वह वैधानिक रूप से लगाया जाता है। परोक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है, किन्तु भुगतान पूर्णतः अथवा अंशतः किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है। यह उसके अनुबन्ध या सौदे की शर्तों में कुछ परिवर्तन के द्वारा सम्भव होता है।

(v) प्रो० ए० आर० प्रेस्ट के अनुसार,वे कर जो प्राप्त होने वाली आय पर आधारित होते हैं, प्रत्यक्ष कर होते हैं और जिन्हें व्यय पर लगाया जाता है, वे अप्रत्यक्ष कर होते हैं। इस प्रकार आयकर, लाभकर तथा पूँजी लाभकर प्रत्यक्ष कर हैं तथा सीमाशुल्क, उत्पादन शुल्क और स्टाम्प शुल्क अप्रत्यक्ष कर हैं।

Taxation Meaning Canons Classification

प्रत्यक्ष करों के गुण

(Merits of Direct Taxes)

प्रत्यक्ष करों के निम्नलिखित गुण हैं

(1) मितव्ययिता (Economy)-प्रत्यक्ष करों में मितव्ययिता का गुण पाया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के करों को एकत्रित करने में शासन को बहुत कम व्यय करना पड़ता है। प्रत्यक्ष करों का भुगतान करदाता के द्वारा सीधे प्रशासन को किया जाता है, इसलिए वसूली सस्ती पड़ती है।

(2) निश्चितता (Certainty)-यह कर अधिक निश्चित होते हैं, क्योंकि इन करों के सम्बन्ध में करदाता को निश्चित रूप से पता होता है कि उसे कितना कर किस समय चुकाना है। इसी प्रकार सरकार को भी यह ज्ञान रहता है कि उसे कर के रूप में कितनी रकम मिलनी है।

(3) समानता (Equality)-प्रत्यक्ष करों में समानता का गुण भी पाया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के कर प्रगतिशील होते हैं। इन करों का भार उच्च आय वाले धनी व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है। इसके विपरीत निम्न आय वाले लोगों पर बहुत कम भार पड़ता है। इस प्रकार से यह कर समाज में कर के त्याग में समानता लाने में सहयोग देते हैं।

(4) लोच (Elasticity)-प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील होते हैं। इसलिए आवश्यकतानुसार करों की दरें घटाई बढ़ाई जा सकती हैं। लोगों की आय में वृद्धि के साथ-साथ इन करों से प्राप्त होने वाली आय में वृद्धि होती जाती है। सरकार अपनी आय में वृद्धि करने के लिए प्रत्यक्ष करों की दरों में आसानी से वृद्धि कर सकती है।

(5) न्यायपूर्ण (Just)- इस प्रकार के कर समाज में आय के न्यायपूर्ण वितरण में अधिक सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त करों का भार विभिन्न लोगों पर न्यायपूर्ण और समान रूप से डाला जाता है, क्योंकि ये कर करदान योग्यता (Ability to Pay) के सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। इन करों में प्रगतिशीलता का गुण होने के कारण लोगों पर कर का भार योग्यता के अनुसार बाँटा जा सकता है।

(6) आय तथा धन के वितरण की असमानता को कम करने में सहायक (Reduction in Inequalities)-प्रत्यक्ष कर समाज में आर्थिक असमानताओं को कम कर सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार के कर प्रगतिशील होते हैं। इसलिए उच्च आय वालों से अधिक ऊँची दर से कर वसूल किया जा सकता है। तथा निर्धन वर्ग को छूट दी जा सकती है। धनी वर्ग से प्राप्त आय का सरकार निर्धन वर्ग के हित में व्यय करके आर्थिक विषमताओं को कम कर सकती है।

(7) सामाजिक जागृति (Civic Consciousness)-प्रत्येक नागरिक को कर चुकाने में त्याग करना पड़ता है और यह इसी रूप में महसूस होता है। अतः वह इस ओर अधिक जागरूक होता है कि वह राष्ट्रीय निर्माण में सक्रिय सहयोग दे रहा है। इसके अतिरिक्त इस बात में वह काफी रुचि लेता है कि सरकार ने उनसे जो कर लिया है उसका व्यय किस प्रकार कर रही है।

Taxation Meaning Canons Classification

प्रत्यक्ष करों के दोष

(Demerits of Direct Taxes)

प्रत्यक्ष करों के मुख्य दोष निम्नांकित हैं

1 असुविधाजनक (Inconvenient)-प्रत्यक्ष करों को चुकाने में बड़ी असुविधा रहती है, क्योंकि इन करों को चुकाने का ऐसा समय हो सकता है जो करदाता के लिए असुविधाजनक हो। इसके अतिरिक्त प्रत्येक करदाता (Tax Payer) को अपनी आय पर कर चुकाने के लिए अपनी कुल आय सम्बन्धी खाता एवं विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली आय का ब्यौरा देना पड़ता है जो कठिन होता है।

2. विरोध (Opposition)-इस प्रकार के करों को दूसरे अन्य व्यक्ति पर टाला नहीं जा सकता। इसलिए इन करों को चुकाने में कष्ट होता है। करों की थोड़ी-सी वृद्धि हो जाने के कारण करदाता को तुरन्त महसूस हो जाता है, इसलिये विरोध होना स्वाभाविक होता है।

3. करों को छिपाए जाने की सम्भावना (Possibility of Evasion of Taxes)-प्रत्यक्ष करों का भुगतान तभी सम्भव हो सकता है, जबकि करदाता ईमानदार हो अन्यथा करों को अनैतिक तरीकों से छिपाए जाने का प्रयत्न किया जाता है। करदाता झूठे हिसाब देकर इन करों को बचाने का प्रयत्न करते हैं जिससे सरकार को निर्धारित आय प्राप्त नहीं होती।

4. अन्याय की सम्भावना (Possibility of Injustice)-व्यवहार में इन करों को ठीक-ठीक निश्चित करना सम्भव नहीं होता। करों की दरें प्रायः मनमाने ढंग से निश्चित की जाती हैं जिनका कोई न्यायपूर्ण आधार नहीं होता। इसके अतिरिक्त सभी वर्गों की आय का अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता, इसलिए सभी वर्गों पर कर का भार समान नहीं पड़ता।

5. निम्न आय वर्ग को छूट (Exemption to Low Income Group)-सामान्यतया प्रत्यक्ष करों में निम्न आय वर्ग को छूट दी जाती है, क्योंकि ये कर करदान योग्यता (Ability to Pay) के सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। यह उचित नहीं है।

6. उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव (Adverse Effect on Productive Capacity)-प्रत्यक्ष कर बचत एवं विनियोग को हतोत्साहित करते हैं। अतः इनका बचत, निवेश एवं उत्पादन पर प्रतिकल। प्रभाव पड़ता है।

7. व्यय साध्य (Expensive)-कर एकत्र करने में कुशल, योग्य एवं विस्तृत प्रशासन तन्त्र की। आवश्यकता होती है जिस पर बड़ी मात्रा में व्यय करना पड़ता है।

8. सीमित क्षेत्र (Limited Scope)-प्रत्यक्ष कर केवल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध लोगों पर ही लगाए जाते हैं। समाज में ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत कम होती है, अतः इनका क्षेत्र सीमित होता है।

Taxation Meaning Canons Classification

अप्रत्यक्ष करों के गुण

(Merits of Indirect Taxes)

प्रत्यक्ष करों की भाँति अप्रत्यक्ष करों के निम्न गुण हैं

1 सुविधाजनक (Convenient)-अप्रत्यक्ष कर चुकाना सुविधाजनक होता है। प्रथम, ये कर अप्रत्यक्ष रूप से करदाता पर पड़ते हैं। द्वितीय, कर की राशि इतनी छोटी होती है कि किसी भी व्यक्ति को कोई परेशानी महसूस नहीं होती और वह आसानी से चुका सकता है। इसके अतिरिक्त सरकार को भी ऐसे कर एकत्रित करने में सुविधा रहती है, क्योंकि कर की राशि सीधे उत्पादक या निर्यातक से एकत्रित कर ली जाती है।

2. लोचपूर्ण (Elastic)-इन करों में लोच का गुण भी पाया जाता है। सरकार आवश्यकता पड़ने पर अपनी आय में विभिन्न वस्तुओं पर कर की दर में वृद्धि या नयी वस्तुओं पर कर लगाकर वृद्धि कर सकती है।

3. करों को छिपाया नहीं जा सकता (No Evasion of Taxes)-इस प्रकार के करों को छिपाना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसे कर वस्तुओं की कीमतों के साथ जुड़े होते हैं, यद्यपि उत्पादक झूठे हिसाब रखकर करों को छिपा सकते हैं।

4. विस्तृत क्षेत्र (Wide Coverage)-इन करों को प्राप्त करने के लिए विस्तृत क्षेत्र होता है, क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र में वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता है कि वह सरकार को कर के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करे, ताकि उसका राष्ट्र निर्माण में सक्रिय सहयोग हो सके।

5. सामाजिक कल्याण (Social Welfare)-अप्रत्यक्ष कर सामाजिक कल्याण में वृद्धि करने में भी सहयोग दे सकते हैं। समाज में उपयोग किए जाने वाले बुरे मादक द्रव्य एवं पेय पदार्थ; जैसे-अफीम, शराब तथा अन्य हानिकर पदार्थ आदि पर अधिक मात्रा में कर लगाकर लोगों की माँग में कमी की जा सकती है। इसी तरह आरामदेह वस्तुओं (Luxurious Goods) पर भी कर की मात्रा में वृद्धि करके उनका उपभोग कम किया जा सकता है।

6. मितव्ययी (Economical)-इन करों को एकत्र करने में सरकार को कोई विशेष व्यय नहीं करना पड़ता। अतः ये कर मितव्ययी होते हैं।

Taxation Meaning Canons Classification

अप्रत्यक्ष करों के दोष

(Demerits of Indirect Taxes)

1 असमानता (Inequality)-परोक्ष कर समानता तथा न्यायशीलता के विरुद्ध होते हैं। ये कर करदान क्षमता (Taxable Capacity) के सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं, क्योंकि इन्हें प्रायः उपभोग की वस्तुओं पर लगाया जाता है जिससे इन करों का अधिकांश भार निर्धन वर्ग पर पड़ता है। धन की सीमान्त उपयोगिता की दृष्टि से भी निर्धन वर्ग को ही अधिक त्याग करना पड़ता है जो समानता, न्यायशीलता तथा करदान क्षमता के सिद्धान्त के सर्वथा प्रतिकूल है।

2. अनिश्चितता (Uncertainty)-“परोक्ष कर मूलतः अनिश्चित प्रकृति के होते हैं।” यह कथन लोचदार माँग वाली वस्तुओं के सन्दर्भ में अधिक सत्य है, क्योंकि मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों का माँग पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। उपभोग के अनिश्चित होने पर इन करों से प्राप्त आय भी अनिश्चित हो जाती हैंं

3. अमितव्ययी (Uneconomical)-ये कर अमितव्ययी होते हैं, क्योंकि छोटी-छोटी मात्रा में अधिक करदाताओं से ये कर वसूल किए जाते हैं जिससे सरकार को विशेष वास्तविक लाभ नहीं हो पाता।

4. मन्दी के समय में कम आय (Lesser Income During Depression)-मन्दी काल में क्रय शक्ति के घट जाने से इन करों से प्राप्त आय भी कम हो जाती है।

5. कर चोरी की सम्भावना (Tax Evasion)-परोक्ष करारोपण में भी चोरबाजारी (Black Marketing) तथा गलत बहीखातों के द्वारा करों की चोरी की जाती है।

6. महँगाई का कारण (Inflation)-परोक्ष कर मूल्य वृद्धि में सक्रिय योग देते हैं। सामान्यतः व्यापारी कर के नाम पर अधिक राशि वसल करने का प्रयास किया करते हैं। इसके अतिरिक्त सरकार तथा अन्तिम उपभोक्ता के मध्य अनेक मध्यस्थ होते हैं, जिससे वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाता है।

8. नागरिक तथा सामाजिक चेतना जागृत करने में असमर्थ (Incapable to Raise Civic and Social Consciousness)-परोक्ष कर प्रत्यक्ष करों की भाँति सामाजिक चेतना जागृत नहीं कर पाते; करदाता को कर भार का ज्ञान ही नहीं होता।

9. बेकारी तथा आर्थिक अनिश्चितता के जनक (Father of Unemployment and Economic Instability)-परोक्ष करों के द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग में कमी आ जाती है जिसका अन्ततः उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे अर्थव्यवस्था में बेकारी तथा आर्थिक अनिश्चितता उत्पन्न होने लगती है।

Taxation Meaning Canons Classification

प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष/परोक्ष करों की तुलना

Comparison between Direct and Indirect Taxes)

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों के मध्य प्रधानतः तीन दृष्टिकोण से तुलना की जा सकती है, यथा

1 साधनों का आबंटन पक्ष (Allocation of Resources)-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार साधनों के समान वितरण की दृष्टि से प्रत्यक्ष कर, परोक्ष करों की तुलना में अधिक अच्छे होते हैं। इसका कारण यह है कि परोक्ष करों द्वारा एकत्रित एक निश्चित राशि का समाज पर भार प्रत्यक्ष करों द्वारा एकत्रित उस राशि की तुलना में, कम पड़ता है।

2. वितरण पक्ष (Distributive Aspect)-वितरण पक्ष की दृष्टि से भी परोक्ष करों की तुलना में प्रत्यक्ष कर अधिक अच्छे माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष क प्रगतिशील होते हैं और इनका भार समाज के धनी वर्ग पर पड़ता है, जबकि परोक्ष कर प्रतिगामी होते हैं और इनका भार समाज के निर्धन वर्ग पर पड़ता है। फलस्वरूप प्रत्यक्ष कर आय व धन के वितरण की विषमताओं को कम करने में सहायक होते हैं।

3. प्रशासकीय पक्ष (Administrative Aspect)-प्रशासकीय दृष्टि से परोक्ष कर प्रत्यक्ष कर की तुलना में अधिक अच्छे माने जाते हैं, क्योंकि (1) प्रत्यक्ष कर असुविधाजनक एवं अमितव्ययी होते हैं, (ii) इनका भुगतान करने में करदाता को कष्ट होता है, (iii) कर वंचना की सम्भावना अधिक होती है।

Taxation Meaning Canons Classification

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष/परोक्ष करों में सम्बन्ध

(Relationship between Direct and Indirect Taxes)

किसी भी देश की कर प्रणाली में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही प्रकार के करों के बीच एक उचित सन्तुलन होना चाहिए। डी० मार्को ने इन दोनों करों के सम्बन्ध के बारे में दो महत्त्वपूर्ण बातें बताई हैं

1 दोनों कर एक दूसरे के पूरक हैं

(अ) परोक्ष कर प्रत्यक्ष करों के पूरक हैं, क्योंकि

(i) प्रत्यक्ष करों का भार समाज के केवल उन्हीं व्यक्तियों पर पड़ता है जिनकी आय का अनुमान लगाया जा सकता है। इस कारण समाज का एक बड़ा वर्ग कर भार से अछूता रह जाता है। कर भार की यह असमानता परोक्ष करों द्वारा दूर की जा सकती है।

व्यक्ति की आय में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन उपभोग की मात्रा में परिवर्तन लाता है। परोक्ष कर इस परिवर्तनशील आय के प्रभाव क्षेत्र को अपनी सीमा में ले आते हैं।

() प्रत्यक्ष कर परोक्ष करों के पूरक हैं, क्योंकि(i) स्व-उपभोग वस्तुओं पर भी प्रत्यक्ष कर लगाए जा सकते हैं।

(ii) कुछ वस्तुएँ व सेवाएँ ऐसी हैं जिन पर केवल प्रत्यक्ष कर ही लगाए जा सकते हैं।

(iii) प्रत्यक्ष कर परोक्ष करों के अपवंचन की क्षतिपूर्ति करते हैं।

2. अप्रत्यक्ष कर, प्रत्यक्ष करों के घर्षणात्मक प्रभावों को कम करते हैं

कर आय का अनुमान लगाने और एकत्रित करने में जो घर्षणात्मक शक्तियाँ पैदा होती है परोक्ष करारोपण : अर्थ, सिद्धान्त एवं वर्गीकरण कर उन्हें कम करते हैं। प्रत्यक्ष कर, कर-विवर्तन एवं कर-वंचना को प्रोत्साहित करते हैं जिनकी क्षतिपूर्ति परोक्ष करों द्वारा की जा सकती है। _

संक्षेप में, डी मार्को का यह कथन बिल्कुल सत्य है-“प्रत्यक्ष तथा परोक्ष कर एक दूसरे के पूरक हैं और परस्पर एक दूसरे के दोषों को दूर करते हैं।”

Taxation Meaning Canons Classification

(1) आनुपातिक, प्रगतिशील, प्रतिगामी एवं अधोगामी कर

(Proportional, Progressive, Regressive and Degressive Taxes)

आनुपातिक कर (Proportional Tax)-आनुपातिक कर वह कर होता है जो आय के अनुपात में लगाया जाता है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपने आय का एक निश्चित अनुपात कर के रूप में चुकाना पड़ता है। यह निर्धन तथा धनिक दोनों वर्गों के लिए समान होता है। आनुपातिक कर में सब आयों पर एक निश्चित दर से कर वसूल किया जाता है। आय के घटने या बढ़ने पर कर की दर में कोई परिवर्तन नहीं होता। आनुपातिक कर प्रणाली को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

कर आधार कर दर कर राशि
1,000 10% 100
2,000 10% 200
3,000 10% 300

 

Taxation Meaning Canons Classification

नहीं होती, वस्तुतः चुकाई जाने वाली कर राशि में अवश्य वृद्धि हो जाती है।

प्रगतिशील कर (Progressive Tax)-प्रगतिशील कर प्रणाली में आय वृद्धि के साथ-साथ कर की दर में भी वृद्धि होती चली जाती है, अर्थात् कर की दर आय वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती चली जाती है। इस कर प्रणाली में करों से समाज में धनिक वर्गों पर निर्धन वर्गों की अपेक्षा अधिक भार पड़ता है जो तर्क संगत है। प्रगतिशील कर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

कर आधार कर दर कर राशि
1,000 10% 1,000
2,000 15% 2,000
3,000 20% 3000

 

उपरोक्त उदाहरण एवं रेखाचित्र से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होती जाती है, कर दर में भी वृद्धि होती जाती है और कर की राशि भी बढ़ती चली जाती है।

प्रतिगामी कर (Regressive Tax)-प्रतिगामी कर-प्रणाली प्रगतिशील कर-प्रणाली से बिल्कुल विपरीत होती है। प्रतिगामी कर वह कर होते हैं जिनकी दर आय की वृद्धि के साथ-साथ घटती चली जाती है। इस प्रकार के करों का भार धनी वर्ग की अपेक्षा निर्धन वर्ग पर अधिक पड़ता है जो समाज में न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसी वस्तुओं पर कर लगाया जाता है जिसे धनी वर्ग की अपेक्षा निर्धन वर्ग उपयोग में लाते हैं तो इस प्रकार का कर प्रतिगामी कर होगा। भारत में नमक कर प्रतिगामी था, क्योंकि निर्धन वर्ग इसका ज्यादा उपयोग करते हैं। प्रतिगामी कर को निम्नांकित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

कर आधार कर दर कर राशि
1,000 10% 100
2,000 8% 160
3,000 5% 150

 

Taxation Meaning Canons Classification

उपर्युक्त उदाहरण एवं चित्र से स्पष्ट हो जाता है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होती चली जाती है वैसे-वैसे कर की दर गिरती चली जाती है। इस प्रकार के कर न्यायपूर्ण नहीं होते।

अधोगामी कर (Degressive Tax)-अधोगामी कर आनुपातिक कर एवं प्रगतिशील कर का मिश्रण होता है। ये कर प्रगतिशील होते हैं और आय वृद्धि के साथ बहुत मन्द गति से बढ़ते हैं। इस कर-प्रणाली में धनी वर्ग पर अपेक्षाकृत कम भार पड़ता है। जितना त्याग उन्हें करना चाहिए वे उतना नहीं करते। अधोगामी कर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

कर आधार कर दर कर राशि
1,000 8% 80,
2,000 9% 180
3,000 10% 300
4,000 11% 440
5,000 11% 550

Taxation Meaning Canons Classification

उपर्युक्त उदाहरण एवं चित्र से स्पष्ट हो जाता है कि आय में वृद्धि के साथ कर की दर में मन्द गति से वृद्धि होती है। कभी-कभी कर की दर आय में वृद्धि होने पर भी स्थिर रहती है।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि अधोगामी कर आनुपातिक कर और प्रगतिशील कर का मिश्रण है। ऐसे करों में कम आय वाले व्यक्तियों को उच्च आय वाले व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक त्याग करना पड़ता है। अतः यह कर भी समाजवादी एवं न्यायशीलता के सिद्धान्तों की अवहेलना करता है।

(2) व्यक्तिगत तथा अव्यक्तिगत कर

(Personal and Impersonal Tax)

() व्यक्तिगत कर-सरकार द्वारा कुछ ऐसे कर भी लगाए जाते हैं जिनका भुगतान निजी व्यक्तियों को ही करना पड़ता है। इसमें नागरिकों की आर्थिक स्थिति पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता सभी व्यक्तियों को एक निश्चित दर पर कर अदा करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, तीर्थ स्थानों, . तीय स्थलों, मन्दिरों व अजायब घरों में प्रवेश शुल्क व्यक्तिगत कर हैं।

() अव्यक्तिगत कर-यह कर वस्तु के उत्पादन, वितरण एवं विक्रय पर लगाया जाता है। रण के लिए-शराब के उत्पादन एवं विक्रय पर कर अव्यक्तिगत कर है। इन करों के फलस्वरूप वस्तु मल्य में वृद्धि हो जाती है। ये कर उन व्यक्तियों को चुकाने होते हैं जो इन वस्तुओं का उपयोग करते हैं।

(3) विशिष्ट कर तथा मूल्यानुसार कर

(Specific and Advalorem Tax)

() विशिष्ट करयह कर वस्तु की मात्रा या भार के अनुसार लगाया जाता है। यह कर वस्तु की पति इकाई पर लगाया जाता है। साबुन की प्रति टिक्की बिक्री पर 10 पैसे कर अथवा चीनी पर 20 पैसे प्रति किलोग्राम की दर से लगाया गया कर विशिष्ट कर कहलाता है।

(ब) मूल्यानुसार कर-यह कर वस्तु के मूल्य के अनुसार लगाया जाता है। जैसे-साबुन के मूल्य पर प्रति रुपया पाँच पैसे कर। इस कर का भार प्रायः करदाता को ही सहन करना पड़ता है। कभी-कभी सरकार एकाधिकार पर नियन्त्रण लगाने के लिए भी मूल्यानुसार कर का सहारा लेती है।

(4) एकल कर तथा बहुकर प्रणाली

(Single Tax Vs. Multiple Tax System)

एकल कर प्रणाली में सरकार अपनी सम्पूर्ण आय प्राप्त करने के लिए एक ही कर लगाती है। इसके विपरीत बहुकर प्रणाली के अन्तर्गत सरकार लोगों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाती है। पुराने अर्थशास्त्री एकल कर प्रणाली को ही उचित मानते थे। उनके अनुसार शुद्ध उपज भूमि से ही प्राप्त होती है, इसलिए सरकार भूमि पर लगान के रूप में कर लगाकर ही आय प्राप्त करे, किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार उत्पादन केवल भूमि से ही प्राप्त नहीं होता, अपितु अन्य साधन; जैसे-पूँजी, श्रम, संगठन, साहस आदि भी संयुक्त रूप से उत्पादन करते हैं। इसलिए सभी पर कर लगाना चाहिए। इसके साथ-साथ एक कर से सरकार को इतनी पर्याप्त आय नहीं हो सकती कि वह अपने सभी कार्यों को पूर्ण करने के लिए व्यय पूरा कर सके। इसके अतिरिक्त एक कर से करदाता को भी काफी भार सहन करना पड़ेगा।

वर्तमान काल में समाजवादी अर्थशास्त्रियों ने एकल कर प्रणाली के दोषों को दूर करने के लिए कर आय के आधार पर लगाए जाने का सुझाव दिया है। उनके अनुसार यदि लोगों की आय पर कर लगाया गया तो ऐसी स्थिति में लोगों में जन-जागृति होगी जिसके फलस्वरूप लोगों में राष्ट्रीय चेतना आएगी। प्रत्येक व्यक्ति यह महसूस करेगा कि वह राष्ट्रीय निर्माण में अपना सक्रिय सहयोग दे रहा है। इस प्रकार के कर को प्रगतिशील बनाकर तथा इसमें समस्त आय को सम्मिलित करके कर के भार को विभिन्न लोगों पर उचित ढ़ंग से बाँटा जा सकता है।

आनुपातिक कर बनाम प्रगतिशील कर

(Proportional Tax Vs. Progressive Tax)

कर प्रणाली वह अच्छी होती है जो समाज में सभी व्यक्तियों पर समान भार डाले तथा योग्यता के आधार (Ability to Pay) पर कर लगाया जाए जिससे उत्पादन का अधिक न्यायपूर्ण वितरण किया जा सके। इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों ने प्रतिगामी कर (Regressive tax) तथा अधोगामी करों (Degressive Taxes) को बिल्कुल छोड़ दिया है। अब केवल आनुपातिक एवं प्रगतिशील कर ही रह जाते है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने इन करों के पक्ष-विपक्ष में निम्नांकित तर्क दिए हैं

आनुपातिक करों के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Proportional Taxes)-आनुपातिक करों के पक्ष में निम्नांकित तर्क दिए जाते हैं

(1) परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार ये करदाता की सापेक्षिक आय पर कोई प्रभाव नहीं डालते जिससे करदाता को कर चुकाने में परेशानी महसूस नहीं होती।

(2) इन करों में सरलता का गुण पाया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति आसानी से अनुमान लगा। सकता है कि उसे कितना कर चुकाना है।

(3) इस कर प्रणाली में ‘समानता’ एवं ‘न्याय’ का सिद्धान्त भी शामिल है, क्योंकि करदाता पर आय वृद्धि के अनुपात में कर का भार बढ़ता चला जाता है।

(4) आनुपातिक कर व्यक्ति की कार्य करने की इच्छा एवं बचत पर बुरा प्रभाव नहीं डालते, जबकि । प्रगतिशील कर लोगों की बचत करने की क्षमता को कम कर देते हैं।

आनुपातिक कर के पक्ष में तर्क देते हुए एडम स्मिथ ने ठीक ही कहा है, “प्रत्येक राज्य के नागरिकों को, सरकारी व्यय को पूरा करने के लिए, जहाँ तक सम्भव हो सके अपनी सापेक्षिक योग्यता के अनुसार कर देना चाहिए, अर्थात् उस आमदनी के अनुपात में जो वे सरकार के संरक्षण में रहकर प्राप्त करते हैं।

आनुपातिक करों के विपक्ष में तर्क

(Arguments Against the Proportional Taxes)-

आनुपातिक करों के विपक्ष में निम्नांकित तर्क दिए जाते हैं

(1) आनुपातिक करों में समान त्याग निहित नहीं होता तथा समाज में सभी वर्गों पर समान भार नहीं पड़ता। इसमें निर्धन वर्गों पर करों का भार अधिक पड़ता है और धनिक वर्ग पर कम। इस प्रकार का कर समाज में आर्थिक असमानता को कम नहीं कर सकता। अतः आनुपातिक कर को न्याय संगत नहीं कहा जा सकता।

(2) इन करों के अन्तर्गत निम्न तथा उच्च आय वर्गों पर एक ही दर से कर लगाया जाता है। इसलिए राज्य धनी वर्ग से उतना कर वसूल नहीं कर सकता जितना वे दे सकते हैं।

(3) इसमें लोच के गुण का अभाव होता है, इसलिए सरकार अधिक आय की आवश्यकता होने पर भी करों में वृद्धि नहीं कर पाती।

प्रगतिशील करों के पक्ष में तर्क

(Arguments in Favour of Progressive Taxes)-

वर्तमान काल में प्रगतिशील कर प्रणाली सबसे अच्छी व्यवस्था मानी जाती है। प्रगतिशील कर इस सिद्धान्त पर आधारित होते हैं कि करदाता अपनी योग्यता (Ability to Pay) के अनुसार कर की अदायगी करे जो न्यायसंगत माना जाता है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों के द्वारा प्रगतिशील कर के पक्ष में निम्न तर्क दिए गए

(1) प्रगतिशील कर करदाता के कर देने की योग्यता (Ability to Pay the tax) के आधार पर लगाए जाते हैं। हम यह जानते हैं कि आय वृद्धि के साथ मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता में कमी होती चली जाती है इसलिए धनी वर्ग पर अधिक कर लगाया जाना चाहिए तथा निर्धन वर्ग पर कम। अतः इस प्रकार के कर अधिक न्यायपूर्ण होते हैं।

(2) प्रगतिशील कर प्रणाली लोचपूर्ण (Elastic) होती है। सरकार को जब आवश्यकता पड़ती है तो वह दरों में थोड़ी वृद्धि करके काफी धन जुटा सकती है। समाज में लोगों की आय में वृद्धि होने पर करों में वृद्धि स्वयं होने लगती है, जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

(3) इस कर प्रणाली में मितव्ययिता का गुण भी पाया जाता है। करों की दरों में वृद्धि करने से करों को एकत्रित करने के लिए किसी व्यय को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती।

(4) ये कर समाज में पाए जाने वाली आर्थिक विषमताओं को कम करते हैं तथा समाज में आर्थिक समानता (Economic Equality) लाने में सहयोग देते हैं। प्रगतिशील कर (Progressive Tax) आय और उत्पादन की विषमताओं को घटाने का महत्त्वपूर्ण साधन है।

(5) प्रगतिशील कर मुद्रास्फीति (Money Inflation) को कम करने में भी सहायक हैं। कर उपभोग माँग एवं साधनों में कमी कर देते हैं जिससे उत्पादन और विनियोग में वृद्धि होती है और वस्तुओं की पर्ति में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति पर नियन्त्रण लगाया जा सकता है तथा देश में।

विकास एवं आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability) को स्थापित किया जा सकता है।

प्रगतिशील करों के विपक्ष में तर्क (Arguments against Progressive Taxes)-प्रगतिशील कर। के विपक्ष में जो तर्क दिए जाते हैं वे निम्नलिखित हैं

(1) ये कर बिल्कुल मनमानी (Arbitrary) ढंग से लगाए जाते हैं। कोई कर कितना प्रगतिशील होना चाहिए, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता।

(2) प्रगतिशील कर प्रणाली बचत को हतोत्साहित करती है जिसके फलस्वरूप पूँजी निर्माण में भी होने लगती है और देश की अर्थव्यवस्था विशेषकर उद्योग एवं व्यापार को हानि पहुँचती है।

(3) यह कर प्रणाली इस सिद्धान्त पर आधारित होती है कि धनी व्यक्तियों के लिए मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility of Money) निर्धन व्यक्तियों की अपेक्षा कम होती है, लेकिन शक्ति को सन्तुष्ट करना एक मनोवैज्ञानिक विचार होता है जिसे एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के साथ जलना करना तर्क संगत नहीं होगा। इसके अतिरिक्त मुद्रा के सीमान्त तुष्टिगुण को व्यवहार में मापा नहीं जा सकता।

(4) प्रगतिशील कर समाजवाद के अनुकूल होते हैं इसलिए पूँजीपति इसका विरोध करते हैं।

(5) इस प्रकार के करों में कर वंचन (Tax evasion) को प्रोत्साहन मिलता है। उच्च आय वाले लोग कर से बचने के लिए अनैतिक विधियों का प्रयोग करने लगते हैं, इससे सरकार को निर्धारित आय से कम आय ही प्राप्त होती है।

एक अच्छी कर प्रणाली के लक्षण अथवा विशेषताएँ

(Characteristics of A Good Tax System)

सैद्धान्तिक रूप से तो यह कहा जा सकता है कि एक अच्छी कर प्रणाली वही है जिसमें करारोपण के समस्त सिद्धान्तों का समन्वय हो। प्रो० एडम स्मिथ ने कर प्रणाली के चार गुणों का विवेचन किया-समानता, निश्चितता, सुविधा एवं मितव्ययिता। बाद में आने वाले अर्थशास्त्रियों ने उक्त सिद्धान्तो में अन्य गुणों-लोच, विविधता एवं उत्पादकता का भी समावेश किया। आधुनिक अर्थशास्त्री करारोपण में प्रगतिशीलता के सिद्धान्त को आवश्यक गुण मानते हैं अर्थात् तुलनात्मक रूप से करों का धनी व्यक्तियों पर अधिक भार पड़ना चाहिये। इसी के साथ वर्तमान में एक कर प्रणाली के स्थान पर बहुकर प्रणाली को अच्छा माना जाता है एवं यह तर्क दिया जाता है कि अप्रत्यक्ष करों की तुलना में प्रत्यक्ष कर श्रेष्ठ हैं – क्योंकि इनमें प्रगतिशीलता के सिद्धान्त का अनुसरण किया जा सकता है। किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो कर प्रणाली में समस्त सिद्धान्तों का समन्वय कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। फिर भी एक अच्छी कर प्रणाली को अधिक-से-अधिक करारोपण के सिद्धान्तों का पालन करना चाहिये। यह भी आवश्यक है कि कर प्रणाली का उत्पादन और वितरण पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। प्रो० डाल्टन (Dalton) के अनुसार, “आर्थिक दृष्टि से करारोपण की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिसके सर्वश्रेष्ठ अथवा सबसे कम बुरे आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं।”

श्रीमती उर्सला हिक्स ने एक अच्छी कर प्रणाली में निम्नलिखित तीन गुणों का समावेश किया है

(i) करों के माध्यम से जो धन एकत्र किया जाता है, उसका प्रयोग सार्वजनिक सेवाओं के लिये किया जाना चाहिये।

(ii) करों, को, लोगों की करदेय क्षमता (Taxable Capacity) के अनुसार लगाया जाना चाहिये।

(iii) निष्पक्ष रूप से कर लगाये जाने चाहिये। इसका अर्थ यह है कि जिन लोगों की आर्थिक स्थिति समान है, कर लगाते समय उनमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिये।

उपर्युक्त बातों को दृष्टि में रखते हुए एक अच्छी कर प्रणाली में निम्न गुण होने चाहिए

(1) न्यायपूर्णकर प्रणाली न्यायपूर्ण होनी चाहिये अर्थात् करों का भार निर्धन व्यक्तियों पर कम और धनी व्यक्तियों पर अधिक पड़ना चाहिये। इसे दृष्टि में रखते हुए कर प्रणाली प्रगतिशील (Progressive) होनी चाहिये जिससे करों के भार का वितरण न्यायोचित हो। प्रगतिशील कर प्रणाली के माध्यम से ही देश में आय एवं सम्पत्ति की विषमता को दर किया जा सकता है। एक अच्छी कर प्रणाली का यह गण काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान में भुगतान करने की योग्यता करारोपण का सर्वस्वीकृत सिद्धान्त समझा जाता है।

(2) करारोपण के सिद्धान्तों के अनुरूप-एक अच्छी कर-प्रणाली उसे कहा जायेगा जिसका निर्धारण करारोपण के सिद्धान्तों के अनुरूप होता है। अतः अच्छी कर-प्रणाली के लिये निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है:

(i) कर-पद्धति में समानता, निश्चितता, सरलता व मितव्ययिता होनी चाहिये।

(ii) कर-पद्धति लोचदार तथा व्यावहारिक होनी चाहिये। ।

(iii) कर-पद्धति का आधार विस्तृत होना चाहिये।

(iv) कर-प्रणाली.को उत्पादक होना चाहिये। इससे वर्तमान की अपेक्षा भविष्य में अधिक आय। मिलेगी। करों से उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा रोजगार आदि पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा तो ऐसी होनी चाहिये जिसका अनुकूल प्रभाव बचत करने व पूँजी के निर्माण पर पड़े।

(vi) कर-प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से सरल व संगम हो। करदाताओं को हिसाब-किताब रखने में किसी प्रकार की परेशानी न उठानी पड़े और भ्रष्टाचार भी कम हो।

(vii) करों के भार का वितरण उचित हो तथा प्रत्येक कर का आर्थिक ढाँचे में एक निश्चित और उचित स्थान हो।

(3) आर्थिक विकास के अनुरूप-कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि सरकार को करों को मात्र आय का स्रोत नहीं समझना चाहिये वरन इनका प्रयोग आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक अस्त्र (tool) के रूप में किया जाना चाहिये। प्रो० लर्नर (Lerner) का तो यहाँ तक मत है कि करों का एकमात्र आधार यह होना चाहिये कि वे आर्थिक क्रियाओं को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। करों का उपभोग एवं विनियोग पर प्रभाव पड़ता है जो व्यापारिक क्रियाओं एवं रोजगार को प्रभावित करते हैं। मुद्रा-प्रसार की स्थिति में चालू कर की दरों में वृद्धि करके एवं नये करों को लगाकर मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित किया जा सकता है। मन्दी की स्थिति में करों में कमी की जानी चाहिये जिससे लोगों के पास क्रय-शक्ति बची रहे एवं धीरे-धीरे माँग वृद्धि कर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सके। प्रो० केन्स ने आर्थिक विकास और स्थिरता के लिये राजकोषीय नीति का समर्थन किया है जिससे रोजगार में वृद्धि हो, उत्पादन बढ़े और व्यावसायिक मन्दी को दूर किया जा सके।

(4) परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुरूप-कर-पद्धति तब अच्छी कही जायेगी जब वह अपने आपको परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सके। इसका अभिप्राय यह है कि कर-प्रणाली में लोचता का गुण होना चाहिये, अर्थात् संकट के समय करों की दरों में वृद्धि की जा सके और नये प्रकार के करों को लगाया जाये।

(5) बहुकर प्रणालीअर्थशास्त्रियों का विचार है कि कर प्रणाली का आधार विस्तृत होना चाहिये और उसे एक कर प्रणाली (Single Tax System) पर आधारित न होकर बहकर प्रणाली (Multiple Tax System) पर निर्भर होना चाहिये। यद्यपि प्रकृतिवादियों ने केवल भूमि पर कर लगाकर ‘एकल कर’ का समर्थन किया और पक्ष में यह तर्क दिया कि यह सरल एवं मितव्ययी है किन्तु एक कर के द्वारा न तो पर्याप्त आय प्राप्त की जा सकती है और न ही यह लोचपूर्ण है। साथ ही एक कर के वंचन की सम्भावना अधिक रहती है। यही कारण है कि आजकल एक कर प्रणाली के स्थान पर बहुकर प्रणाली का समर्थन किया जाता है।

(6) प्रत्यक्ष परोक्ष करों में उचित समन्वयएक अच्छी कर-प्रणाली उसे कहा जायेगा जिसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष करों का मिश्रण हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह कर-व्यवस्था अच्छी नहीं कही जायेगी। प्रायः दोनों करों को साथ-साथ लगाने से आय प्राप्ति के साथ-साथ कर भार भी समान होगा। प्रत्यक्ष करों का भार धनिकों पर तथा अप्रत्यक्ष करों का भार निर्धनों पर अधिक होता है। यदि उत्तरोत्तर प्रत्यक्ष करों को ही बढ़ाते रहें तो धनिकों की आर्थिक स्थिति खराब हो जायेगी। इसके विपरीत, यदि लगातार अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि की जाये तो निर्धनों की दशा खराब हो जायेगी। इसलिये इन दोनों ही करों को साथ-साथ लगाना चाहिये।

(7) त्याग की समानताएक अच्छी करप्रणाली वह होगी जो “आर्थिक स्तर को गिरने नहीं देती है” अर्थात् अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में त्याग करने की सामर्थ्य बनी रहे। सरकार को अनेक प्रकार के कार्य करने होते हैं जिसमें खर्च की आवश्यकता होती है। इस खर्च की पूर्ति में जनता का सम्यक सहयोग वांछनीय होता है। उसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार सरकार को कुछ न कुछ देना होता है। अतः ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि धनी व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक और निर्धन कम कर दें। कर-प्रणाली की यह विशेषता अवश्य ही सामाजिक कल्याण में वृद्धिकारक होती है।

(8) अधिकतम सामाजिक लाभडाल्टन ने करारोपण की सर्वोत्तम प्रणाली की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “करारोपण की सर्वोत्तम प्रणाली वही है जिससे अधिकतम लाभ मिले अथवा बुरा आर्थिक प्रभाव कम से कम पड़े।” करदाता से जब कर लिया जाता है तब उसे त्याग करना पड़ता है, पर सरकार द्वारा जो राशि खर्च की जा रही है उस राशि से मिलने वाला सन्तोष व्यक्ति या समाज को अधिक मिलता है तो इससे अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त होगा।

(9) करदाताओं की सुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिये-कर प्रणाली ऐसी हो कि उससे करदाताओं को जरा भी असुविधा न हो। करों की वसूली ऐसे समय की जाय जब उसका भुगतान करना करदाताओं के लिये सुविधाजनक हो। प्रो० एडम स्मिथ ने भी करारोपण में सुविधा के सिद्धान्त को आवश्यक बताया है।

(10) समान वितरण पर आधारितएक अच्छी कर प्रणाली वह है जिससे समाज में आय एवं सम्पत्ति की विषमताओं को दूर किया जा सके। साधनों को कम उत्पादक एवं कम उपयोगी कार्यों से अधिक उत्पादक हाथों की ओर प्रवाहित कर सके। तात्पर्य यह है कि प्रणाली समानता पर आधारित होनी चाहिये।

उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त कर प्रणाली की श्रेष्ठता एक बात पर निर्भर करती है कि कर के सिद्धान्तों का पालन किस सीमा तक किया जाता है प्रो० हाल्टन ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि श्रेष्ठ कर प्रणाली के आर्थिक आधार सर्वोत्तम होने चाहिये। प्रो० काल्डोर (Kaldor) के अनुसार कर प्रणाली में तीन बातों का ध्यान देना जरूरी है-न्यायशीलता, आर्थिक प्रभाव और प्रशासनिक कुशलता। “आज इस बात पर भी जोर दिया जा रहा है कि कर प्रणाली का उद्देश्य अधिकतम सामाजिक कल्याण होना चाहिये।”

विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में करप्रणाली

(Tax System in Developing Economy)

एक विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश में कर-प्रणाली को प्रभावी बनाकर आर्थिक विकास किया जा सकता है। अतः कर-प्रणाली ऐसी होनी चाहिये जिससे बचत करने, काम करने व निवेश करने की योग्यता तथा इच्छा पर अच्छा प्रभाव पड़े।

प्रो० राजा चैल्लया (Prof. Raja Chelliah) के अनुसार, “एक विकासशील देश में एक अच्छी कर-प्रणाली का कार्य यह होना चाहिये कि वह उस आर्थिक अतिरेक को गतिशील करे जो अर्थव्यवस्था में अभी हाल में उत्पन्न हुआ हो। आर्थिक अतिरेक उस अन्तर को कहते हैं जो वास्तविक चालू उत्पादन तथा वास्तविक चालू उपभोग के बीच पाया जाता है। भारत जैसे देश में आर्थिक अतिरेक का एक बड़ा भाग कृषि-क्षेत्र में उत्पन्न होता है। वह किसानों, व्यापारियों तथा अन्य लोगों द्वारा अपने पास रख लिया जाता है और ये लोग इस अतिरेक को उत्पादक विनियोजन में लगाने के अभ्यस्त नहीं होते। आर्थिक विकास की दृष्टि से कर-नीति का कार्य यह है कि वह इस अतिरेक को गतिशील करे, उसे उत्पादक स्रोतों की ओर मोड़े तथा उसके आकार में निरन्तर वृद्धि करे।” पूँजी-निर्माण की गति को तीव्र करने तथा आर्थिक अतिरेक को गतिशील करने की सबसे प्रभावशाल रीति यह है कि साधनों को निजी उपयोग से हटाकर सरकारी निवेश की ओर लगा दिया जाये।

आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। यदि इस वद्धि को उपभोगजन्य पदार्थों (Consumer’s goods) पर ही व्यय कर दिया गया तो इस क्रिया से आर्थिक बचत (Economic surplus) नहीं होगी और निवेश नहीं बढ़ेंगे। इसलिये ऐसी स्थिति में करारोपण ऐसा होना चाहिये जिससे आय के बढ़ने के अनुपात में उपभोग में कमी आये, इसलिये परोक्ष करारोपण की नीति लागू की जानी चाहिये, ताकि वस्तुओं का मूल्य बढ़े और लोग सम्पूर्ण आय को उपभोग में खर्च न करके बचतों को बढ़ायें। परोक्ष पर लगाते समय इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि करों का निर्धारण योग्यता के अनुसार होना चाहिये। यदि कराधान कर देने की योग्यता से अधिक हो गया तो इससे व्यक्तियों की बचत करने व काम करने की इच्छा व योग्यता पर बुरा प्रभाव पड़गा। _एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये यह भी आवश्यक है कि करारोपण से विकास के लिये अतिरिक्त साधनों को जुटाया जा सके और कर-भार का वितरण भी समान रहे। विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में मुख्य लक्ष्य तेजी से आर्थिक विकास करना होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये सरकार अप्रत्यक्ष कर-प्रणाली लागू करेगी, ताकि निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी वस्तुओं को उपभोग करते समय अपना अंशदान कर सके।

विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये एक अच्छी कर प्रणाली उसे कहा जायेगा जो मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करे। यहाँ अनेक प्रकार के विकास कार्यक्रमों को एक साथ शुरु किया जाता है। निवेश बढने । हा अनेकानेक योजनाओं पर प्रतिवर्ष लगातार रुपया व्यय होता रहता है। परन्तु इस प्रकार की पंजीगत योजनाओं से एकाएक उत्पादन नहीं बढ़ता है, जबकि लोगों के द्वारा माँग बढ़ायी जाती है। ऐसी स्थिति में मुद्रा-प्रसार हो जाता है। कराधान द्वारा मद्रा-प्रसार को रोका जा सकता है। भारत के ‘कराधान जॉन आयोग’ ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं।

विकासशील अर्थव्यवस्था में एक अच्छी कर-पद्धति का उद्देश्य यह भी होना चाहिये कि वह आय का न्यायोचित वितरण कर सके। वर्तमान समय में यह बात स्वीकार कर ली गयी है कि आर्थिक असमानता के कारण आर्थिक कल्याण में कमी होती है। कराधान जिस प्रकार पूँजी निर्माण की दरों को। ऊँचा उठा कर उत्पादन में वृद्धि करा सकता है, उसी प्रकार वह आय का अधिक श्रेष्ठ वितरण करके। आर्थिक कल्याण में वृद्धि कर सकता है। कराधान जाँच आयोग का कहना है कि, “आय, धन तथा। अवसरों में बड़ी मात्रा में समानता लाना आर्थिक विकास तथा सामाजिक उन्नति का अभिन्न अंग होना। चाहिये। यह माँग कि कराधान के साधन को सामाजिक न्याय से अधिक विकास तथा सामाजिक न्याय से अधिक मात्रा में आय का पुनर्वितरण करने वाले उपाय के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये, असमंजस में नहीं छोड़ी जा सकती।”

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि कर-प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिये जो सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर सके। कोई भी व्यक्ति यह न सोचे कि उससे अधिक कर लिया जा रहा है, जबकि वैसी ही स्थिति वाले किसी दूसरे व्यक्ति से कम वसूल किया जा रहा है। साथ ही, वह यह भी न समझे कि जितना उसे प्राप्त हो रहा है उससे अधिक वसूल कर लिया जाता है। करदाताओं को यह विश्वास भी दिलाना होगा कि उनसे जो राशि वसूल की जा रही है उस राशि का विनियोग कुशलता से किया जा रहा है। व्यय में किसी प्रकार की अकुशलता व भ्रष्टाचार नहीं हो रहा है। इस प्रकार एक अच्छी कर-पद्धति की कसौटी यह है कि उसमें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिये कि वह सरकार के राजकोषीय आधार में ऐसा विश्वास उत्पन्न कर सके जो जनता के नैतिक स्तर को बनाये रखे तथा उत्पादकीय प्रयत्नों व आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन दे।”

अन्त में, हम कह सकते हैं कि विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में कर-प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं :

(1) योग्यतानुसार अंशदान, (2) निर्धनता के दुष्चक्र को तोड़ना, (3) पूँजी निर्माण, (4) देश में समृद्धि, (5) उत्पादक निवेश, (6) आर्थिक साधनों में गतिशीलता, तथा (7) राजकीय निवेश।

मूल्य वर्धित कर (वैट)

(Value Added Tax in India)

दीर्घकाल से प्रचलित कर संरचना में संशोधन के लिए भारत सरकार निरन्तर प्रयास करती रही है। अनेक प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों एवं विशेषज्ञ समितियों ने वैट (VAT) पर विचार विमर्श किया है। इस कर के हमारे देश के लिए कुछ आकर्षण हैं, क्योंकि यहाँ वस्त-कर का ढाँचा जटिल किस्म ला है। अतः। एफ०आई०सी०सी०आई० ने एक अध्ययन वर्ग की नियक्ति की, जिसने उत्पादन शुल्कों, बिक्री कर, चुंगी। आदि के स्थान पर वैट (VAT) लागू करने का दृढ समर्थन किया, क्योंकि परोक्ष करों की समस्त। दुर्बलताओं के संशोधन के लिए प्रत्येक व्यक्तिगत कर की कमजोरियों का पार पाना पर्याप्त नहीं है। अतः। इस सम्बन्ध में एल० के० झा कमेटी ने सुझाव दिया कि एक ओर तो उत्पादन शुल्क कम करने चाहिए तथा दूसरी ओर बिक्री कर लगाने सम्बन्धी प्रान्तीय सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाए जान। चाहिएँ। इसके अतिरिक्त, समिति का विचार था कि यह परिवर्तन केवल सुधारों की प्रक्रिया को आरम्भ । करेंगे। यदि हम सम्बन्धित तत्त्व मूल्यों में से अवहेलना योग्य अंशों और विकृतियों का निष्कासन करना चाहते हैं तो यह तभी सम्भव होगा यदि परोक्ष करारोपण की प्रणाली में दीर्घकालीन परिवर्तन किए जाए।

विशेष आयक्त एवं व्यापारिक करों के कमिश्नर मिस्टर एस०ए० सब्रह्ममणयम ने 23 दिसम्बर सन 1984 को हिन्दुस्तान चैम्बर ऑफ कामर्स द्वारा आयोजित एक कार्यकारी प्रशिक्षण कार्यक्रम में कर-व्यवसायकों को सम्बोधित करते हुए भारत में वैट को लागू करने की इस आधार पर सिफारिश का कि वैट अपने आदर्श रूप में सभी वस्तुओं पर केवल एक ही दर से लगेगा। उन्होनें कहा कि वैट VAT) कर के कुछ बोझ को निर्माता के स्थान से हटा कर व्यापार के स्थान पर ले जाएगा।

कर समिति की सिफारिशों के अनुसार वैट VAT को सीमित संख्या के निर्माण उद्योगों में अपनाया गया तथा वहाँ इसे मैनवेट (MAN-VAT) कहा गया। भारत में यह माडवैट (MODVAT) के नाम से लागू किया गया।

वैट का अर्थ (Meaning of VAT)

मूल्य वर्धित कर (VAT), एक ऐसी कर प्रणाली है जिसके अनुसार कर (Tax) केवल उत्पादन प्रक्रिया में की गई मूल्य वृद्धि पर ही लगाया जाता है। यह मूल्य वृद्धि उत्पादक व विक्रेता द्वारा की जाती हैं ।

श्री एल० के० झा समिति के अनुसार, “मूल्य वर्धित कर व्यापक रूप से समस्त वस्तुओं एवं सेवाओं पर एक कर है जिसमें निर्यात वस्तुओं एवं शासकीय सेवाओं को पृथक् कर दिया जाता है। यह कर प्रत्येक स्तर पर व्यवसाय की मूल्य वृद्धि पर जोड़ा जाता है अतः इसे मूल्य वर्धित कर कहते हैं।सूत्र रूप में इसे अग्र प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

वर्धित मूल्य = वस्तु का कुल मूल्यक्रय की गयी कच्ची सामग्री एवं अन्य सामग्री का मूल्य

उपर्युक्त में जो कर वर्धित मूल्य में लगाया जाता है, उसे ही मूल्य वर्धित कर कहते हैं। उदाहरण-बाजार में जो डबल रोटी बिकती है, वह गेहूँ के मैदे से तैयार की जाती है-इसके बनने की तीन अवस्थाएँ हैं-गेहूँ, गेहूँ से मैदा तैयार करना और फिर इसे गूंथकर एवं सेककर डबल रोटी तैयार करना। अगर पहले गेहूँ पर कर लगेगा, उसके बाद मैदे पर और फिर डबल रोटी पर तो तीन बार कर के ऊपर कर लगेगा और डबल रोटी के दाम बहुत बढ़ जाएँगे। मूल्य वर्धित कर प्रणाली के अन्तर्गत मैदे पर इसकी कुल कीमत पर कर न लगाकर केवल उस भाग पर कर लगता है जिससे मैदे की कीमत में वृद्धि हुई है। मान लो गेहूँ 10 रुपए किलो है और मैदा 18 रुपए किलो तो पहले मैदे पर 18 रुपए पर कर लगता था पर वैट (VAT) के लागू होने के बाद केवल 8 रुपए पर कर लगने लगेगा।

Taxation Meaning Canons Classification

संशोधित मूल्य वर्धित कर का अर्थ

(Meaning of Modified Value Added Tax-MODVAT)

MODVAT का अभिप्राय है-Modified Value Added Tax अर्थात् संशोधित मूल्य वर्धित कर। MODVAT पूर्व में प्रचलित VAT (मूल्य वर्धित कर VAT) का ही संशोधित रूप है। भारत में मूल्य वर्धित कर उत्पादन शुल्क के स्थान पर लगाया गया है, जबकि अन्य देशों में इसे विक्रय कर के स्थान पर लगाया जाता है।

सबसे पहले भारत में भूतलिंगम समिति ने उत्पादन शुल्क के नाम से मूल्य वर्धित कर VAT का समर्थन किया। सन् 1978 में श्री एल० के० झा समिति ने जिसे परोक्ष करों के अध्ययन हेतु नियुक्त किया गया था, कुछ वस्तुओं पर मूल्य वर्धित कर (VAT) लगाने का सुझाव दिया जिन्हें निर्मित वस्तुओं (Manufactured Goods) पर लगाया जाना था जिसे MANVAT (Manufacturing Value Added Tax) का नाम दिया, किन्तु बाद में इसे संशोधित कर MODVAT कर दिया गया।

MODVAT के अनुसार आगतों (Inputs) एवं मध्यवर्ती वस्तुओं पर कर समाप्त करके कर को केवल निर्मित (अन्तिम) वस्तुओं (Final Goods) पर लगाया जाता है जिससे करारोपण की दोहरी सम्भावना समाप्त हो जाती है।

Taxation Meaning Canons Classification

मूल्य वर्धित कर एवं बिक्रीकर

(VAT and Sales Tax)

वैट को, बिक्री कर के विकल्प के रूप में अपनाया गया है। बिक्री कर वस्तु के कुल मूल्य पर केवल एक ही बार लगाया जाता है, जबकि मूल्य वर्धित कर उत्पादन की प्रत्येक अवस्था में केवल बढ़े हुए मूल्य पर लगाया जाता है। इनमें यह अन्तर है कि जहाँ मूल्य वर्धित कर, केवल बढ़े हुए मूल्य पर लगाया जाता ह, वहाँ बिक्री कर केवल एक ही बार कल विक्रय मूल्य पर लगाया जाता है।

वैट को बिक्री कर के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किए जाने के निम्न कारण हैं

(i) बिक्री कर में अनेक जटिलताएँ हैं।

(ii) बिक्री कर के कारण, विभिन्न राज्यों में वस्तुओं के क्रय-विक्रय में अनेक प्रकार की बाधाएँ आती हैं।

(iii) चूँकि विक्रय कर केवल एक ही बिन्दु पर लगाया जाता है, इसमें कर चोरी की अधिक सम्भावना रहती है।

Taxation Meaning Canons Classification

मूल्य वर्धित कर एवं उत्पादन कर

(VAT and Excise Duty)

उत्पादन शुल्क, सरकार द्वारा किसी फर्म द्वारा कि

ए गए उत्पादन पर लगाया जाता है। यदि किसी वस्तु या इकाई का उत्पादन विभिन्न फर्मों द्वारा किया जाता है अर्थात् एक फर्म, दूसरी फर्म द्वारा निर्मित कच्चे माल का प्रयोग करती है तो प्रत्येक फर्म को उत्पादन शुल्क का भुगतान करना होता है अतः अन्त में। निर्मित वस्तु (final goods) के ऊपर कर का भार बहुत बढ़ जाता है। इसके विपरीत, मूल्य वर्धित कर के अनुसार प्रत्येक फर्म पर केवल वर्धित मूल्य पर ही कर लगाया जाता है।

भारत के मुख्य अर्थशास्त्रियों ने भारत में उत्पादन कर के स्थान पर मूल्य वर्धित कर लगाने का समर्थन किया। इसका कारण यह है कि उत्पादन कर में अनेक जटिलताएँ हैं, जो इस प्रकार हैं_

 (i) कुछ वस्तुओं पर उत्पादन कर विशिष्ट कर की तरह तथा कुछ वस्तुओं पर मूल्यानुसार (ad-valorem) लगाया जाता है, इससे प्रणाली में जटिलता आती है।

(ii) चूँकि उत्पादन के विभिन्न चरणों पर उत्पादन कर लगाया जाता है, इसके प्रशासन के लिए बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की आवश्यकता होती है।

(iii) प्रशासकीय कठिनाई के कारण छोटे उद्योगों को उत्पादन कर में शामिल नहीं किया जा सकता जिससे सरकार को हानि होती है।

उदाहरण द्वारा मूल्य वर्धित कर का स्पष्टीकरण

मान लीजिए एक फर्म ‘क’ ने अपने 20,000 रुपए का निर्मित माल थोक व्यापारी ‘ख’ को बेचा। ‘ख’ थोक व्यापारी इस माल को फुटकर व्यापारियों को 21,000 रुपए में बेचता है तो मूल्य वर्धित कर की गणना इस प्रकार होगी

(i) थोक व्यापारी द्वारा माल का क्रय मूल्य                                                              ₹20,000

(ii) थोक व्यापारी ‘ख’ द्वारा वसूल किया गया मूल्य                                                    ₹21,000

(iii) यदि कर की दर 10 प्रतिशत है तो थोक विक्रय मूल्य पर देय कर की राशि  ₹2,100 21,000 पर 10 प्रतिशत

(iv) पहली फर्म ‘क’ द्वारा भुगतान किया गया कर                                                     ₹ 2,000

(v) व्यापारी ‘ख’ द्वारा भुगतान किया जाने वाला कर (मूल्य वर्धित कर)               ₹ 100

Taxation Meaning Canons Classification

वैटके लाभ/गुण

(Merits of VAT)

1 उत्पादन के विभिन्न रूपों के प्रति तटस्थ-मूल्य वर्धित कर, विक्रय कर से इस अर्थ में भिन्न है कि यदि विक्रय कर लगाया जाता है तो विभिन्न उत्पादन क्रियाओं के अनुसार कर भार अलग-अलग होता है, जिसके फलस्वरूप कर का भार बढ़ जाता है, किन्तु मूल्य वर्धित कर सभी स्थितियों में समान रहता

2. कर वंचन में कमीमूल्य वर्धित कर में चोरी का भय कम रहता है, क्योंकि प्रत्येक फर्म को केवल मूल्य वृद्धि पर ही कर देना पड़ता है जो विक्रय कर की तुलना में काफी कम होता है।

3. निर्यात प्रोत्साहनमूल्य वर्धित कर को उत्पादन लागत से सरलता से पृथक् किया जा सकता है तथा कर भार को पृथक करके निर्यात व्यापार को प्रोत्साहित किया जा सकता है। यदि हम अन्य करों से तु ना करें तो पाते हैं कि मूल्य वर्धित कर निर्यात व्यापार बढ़ाने में अधिक सहायक है।

4. मूल्य नियन्त्रण में सहायक-विक्रय कर के फलस्वरूप कर की तुलना में मूल्यों में अधिक वृद्धि होती है, किन्तु मूल्य वर्धित कर का भार सभी उत्पादन की क्रियाओं में समान होने से मूल्य में अधिक वृद्धि नहीं होती।

5. व्यावहारिकअन्य करों की तुलना में मूल्य वर्धित कर अधिक व्यावहारिक है।। 6. फर्म की उत्पादन क्षमता में वृद्धि-मूल्य वर्धित कर लाभ के आधार पर न लगाया जाकर

उत्पादन की मात्रा के अनुसार लगाया जाता है। लाभ हो या हानि, फर्म को कर देना ही पड़ता है अतः प्रत्येक फर्म यह प्रयास करती है कि न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करे।

भारत में वैट की समस्याएँ (Problems of VAT in India)-भारत में वैट के कार्यान्वयन में आने वाली प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1 संवैधानिक समस्याएँ (Constitutional Problems)-भारत में वैट के प्रारम्भ से ही अनेक राजनैतिक एवं संवैधानिक समस्याएँ खड़ी होती रही हैं। जैसे-क्या वैट राष्ट्रीय स्तर पर लगाया जाए या प्रान्तीय स्तर पर? इससे एक विस्फोटक राजनैतिक समस्या उत्पन्न होती है जो प्रान्तीय स्वायत्तता से सम्बन्धित है।

2. प्रशासनिक समस्याएँ (Administrative Problems)-(i) व्यवहार किए जाने वाले करदाताओं की संख्या ज्यों ही हम वित्त व्यवहारों की श्रृंखला में नीचे उतरते हैं, बहुत लम्बी हो जाती है। (ii) छोटे व्यापारी केवल पुराने ढंग से हिसाब-किताब रखते हैं।

3. राजस्व सम्बन्धी विचार (Revenue Considerations)-वैट से प्राप्त आय परोक्ष करों की वर्तमान प्रणाली से प्राप्त आय से बहुत का है। इस प्रकार यह कर सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था करने के लिए विवश करता है।

4. विकासशील देशों का अनुभव (Experience of Developing Countries)-संसार के बहुत से विकासशील देशों का अनुभव भारत में वैट के प्रारम्भ का समर्थन नहीं करता, क्योंकि इससे सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय एवं प्रशासनिक बोझ पड़ता है।

5. लागू करने में कठिनाइयाँ (Difficulties in Application)-मूल्य वर्धित कर को लागू करने के लिए एक सक्षम एवं कार्यकुशल प्रशासन तन्त्र की आवश्यकता होती है जो उत्पादन की विभिन्न प्रणाली में होने वाली मूल्य वृद्धि का सही लेखा-जोखा रख सके, परन्तु इस प्रकार के कुशल कर्मचारी न होने से इसे लागू करने में कठिनाई होती है।

6. करदाताओं के सहयोग के बिना लागू करना असम्भव (Co-operation from the Taxpayers Necessary)-यह कर प्रणाली उसी समय लागू की जा सकती है जब सरकार को करदाताओं का पूरा सहयोग मिले। इसके लिए फर्मों को उत्पादन व मूल्य की सही गणना करना जरुरी है। फर्मों को इसका हिसाब भी रखना पड़ता है कि उत्पादन में जिन अन्य फर्मों से सामग्री क्रय की गई है, उन्होंने कितने कर का भुगतान किया है।

7.गणना सम्बन्धी कठिनाइयाँ (Calculation Difficulties)-इस कर की गणना करना सरल नहीं है, क्योंकि इसमें काफी जटिलता रहती है।

Taxation Meaning Canons Classification

संशोधित वैट अथवा मॉडवैट

(Modified Value Added Tax or Modvat)

सन् 1986 में संशोधित वैट को माडवैट (MODVAT) के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह संशोधित मूल्य वर्धित कर (Modified Value Added Tax or MODVAT) के रूप में जाना जाता है। इस स्कीम की घोषणा सन 1986 में उस समय के वित्त मन्त्री ने अपने परोक्ष कर सम्बन्धी बजट भाषण में की। इस योजना की घोषणा उत्पादन शुल्क में प्रतिकूल प्रभाव को रोकने के लिए की गई जिसके अनुसार एक वस्तु के निर्माण पर कर लगता है तथा जब इसे अन्तिम उत्पाद के निर्माण के लिए आगत के रूप में प्रयोग किया जाता है तो उत्पादन शुल्क अन्तिम उत्पाद के मूल्य पर लगता है जिसमें आगत पर दिया गया शुल्क भी सम्मिलित होता है। अतः शुल्क पर शुल्क लगाया जाता है। संशोधित वैट योजना निर्माता को अन्तिम उत्पाद पर दिए जाने वाले योग्य शल्क के विरुद्ध आगत पर पहले से दिए गए कर का लाभ उपल करवाता है। उदाहरण के रूप में जब टायरों का निर्माण होता है तो उन पर मान लो 2,000 रुपए तक क उत्पादन शुल्क लगता है और अन्तिम उत्पाद मोटर साइकिल पर भी 20,000 रुपये के आसपास उत्पादन शुल्क लगता है। निर्माता को टायर पर दिए गए उत्पादन शुल्क (2,000 रुपयों) का लाभ मिलता है तथा उसे केवल 18,000 रुपए उत्पादन शुल्क (20,000 – 2,000 = 18,000) के रूप में देने होंगे। इसी प्रकार निर्माता (मोटर साइकिल का) अन्य आगतों; जैसे-गीयर बॉक्स, बैटरी, बिजली के पुर्जे आदि पर दिए गए। शुल्कों का लाभ प्राप्त करने का अधिकारी होगा। जिसके परिणामस्वरूप अन्तिम उत्पाद पर दिए जाने वाले शुल्क में कटौती हो जाती है तथा कर-आधिक्य का प्रभाव समाप्त हो जाता है। इस प्रणाली को संशोधित वैट अथवा माडवैट कहते हैं।

यह देखने के लिए कि कर के ऊपर कर न लगे, सरकार ने “प्रफ्रोमा क्रेडिट योजना” (Proforma Credit Plan) बनाई है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक फर्म, उत्पादन में जब किसी ऐसी वस्तु का प्रयोग करती है जिस पर यह कर दिया जा चुका है, तो वह सरकार को यह प्रफोर्मा पेश करती है और उस पर कर लगाते समय कर नहीं लगता। इस योजना के अन्तर्गत लाभ केवल उन उद्योगों को मिलता है जहाँ इनपुट और अन्तिम उत्पादन दोनों ही उत्पादन करों की सची में एक ही श्रेणी में आते हैं।

भारत में सन् 1986-87 के बजट में 1-3-86 से संशोधित वैट (MODVAT) आरम्भ किया गया। इस योजना के अन्तर्गत रन थागनों गर लाभ की आज्ञा दी गई जिनका प्रयोग या तो उत्पादन शुल्क लगाने वाले तैयार उत्पादों अथवा माध्यमिक उत्पादों के लिए होता है। कछ समय से माडवैट की परिधि में अन्य वस्तुएँ तथा क्षेत्र लाए गए हैं।

सन 1986 में माडवैट के आरम्भण को परोक्ष करों के सुधार की दिशा में एक मुख्य कदम माना गया था। माडवैट स्कीम निर्माता को घटकों एवं कच्चे माल पर दिए गए उत्पादन शुल्कों की तुरन्त तथा सम्पूर्ण वापसी सुनिश्चित करती है।

Taxation Meaning Canons Classification

केन्द्रीय मूल्य वर्धित कर (सैनवैट)

(Central Value Added Tax (CENVAT)

भारत सरकार ने सन 2000-01 के बजट में, केन्द्र में, मात्र एक दर के सैनवैट की व्यवस्था की है। इस प्रणाली से दीर्घकालीन स्थायित्व उपलब्ध हो सकता है, उद्योगों के लिए अनिश्चितताएँ समाप्त हो सकती हैं तथा वर्गीकरण के झगड़ों का विलोपन हो सकता है। यह प्रान्तों को उनसे मान्यता प्राप्त कार्यक्रमों को लागू करने में सहायता करेगा जिससे वह 1-4-2001 तक अपने बिक्री कर को VAT में परिवर्तित कर सकेंगे। सन् 1999-2000 के बजट ने मौलिक उत्पादन शुल्क के तीन यथा मूल्य दर प्रस्तुत किए हैं जो 8 प्रतिशत, 16 प्रतिशत एवं 24 प्रतिशत हैं। वर्ष 2000-01 के बजट में सुझाव दिया गया है कि तीन यथा-मूल्य दरों को सैनवैट के मात्र एक दर 16 प्रतिशत में परिवर्तित कर दिया जाए। इसलिए 8 प्रतिशत उत्पादन शुल्क का दर समाप्त किया जा रहा है। यद्यपि कुछ वस्तुएँ जो चिकित्सा से सम्बन्धित हैं तथा अन्य प्रयोग वाली वस्तुएँ; जैसे-छूरी-काँटा और चाकू, घर का सामान, शीशे का सामान, बिजली का सामान, बिजली के बल्ब (20 रुपयों तक), घड़ियाँ एवं हाथ घड़ियाँ (500 रुपए प्रति वस्तु) आदि को उत्पादन शुल्क से छूट है।

16 प्रतिशत सैनवैट के अलावा बजट ने विशेष उत्पादन शुल्कों की तीन दरों का सुझाव दिया है जो 8 प्रतिशत, 16 प्रतिशत और 24 प्रतिशत सैनवैट दर के प्रतिकूल, विशेष उत्पादन शुल्क प्रायः माडवैट से मुक्त होगी। इसका अर्थ है कि उपयोगकर्ता इन शुल्कों पर माडवैट का लाभ नहीं प्राप्त कर सकेंगे।

उन वस्तुओं के सम्बन्ध में जो कि कच्चे माल अथवा मध्यस्थ प्रकृति की हैं उसके लिए 16 प्रतिशत माडवैट दर अनुकूल है। अन्य वस्तुएँ जिन पर इस समय 29 प्रतिशत शुल्क है पर यही दर चालू रहेगा जिसमें 16 प्रतिशत सैनवैट और 8 प्रतिशत विशेष शुल्क होगा। वह वस्तुएँ जिन पर इस समय 24 प्रतिशत शुल्क लिया जा रहा है पर इतना ही बोझ बना रहेगा जिसमें 16 प्रतिशत सैनवैट और 8 प्रतिशत विशेष उत्पादन शुल्क होगा। पुनः वह वस्तुएँ जिन पर 30 प्रतिशत शुल्क था पर कुल शुल्क 32 प्रतिशत होगा जिसमें 16 प्रतिशत सैनवैट तथा 16 प्रतिशत उत्पादन शुल्क शामिल होगा। पुनः जिन वस्तुओं पर 40 प्रतिशत शुल्क था, में अब 16 प्रतिशत सैनवैट और 24 प्रतिशत विशेष शुल्क सम्मिलित होगा। वर्ष 2001-2002 का बजट विशेष उत्पादन शुल्क की इन तीन दरों को कम कर के 16 प्रतिशत की केवल एक दर पर सुझाव देता है।

Taxation Meaning Canons Classification

माडवैट के उद्देश्य (Objectives of MODVAT)

माडवैट योजना के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

(i) उत्पादन शुल्क को विभिन्न स्थितियों पर ब्याज के भुगतानों से बचाना।

(ii) देश में अनुसरित निर्यात विधियों को सुधारने में सहायता करना।

(iii) उत्पाद की आरम्भिक स्थिति से लेकर अन्तिम स्थिति तक शुल्कों के बार-बार भुगतान को रोकना।

माडवैट की आवश्यकताएँ (Pre-requisites of MODVAT)

1 कर दर आवश्यक रूप में ऊँची होनी चाहिए।

2. फर्मों के रिकार्ड भली प्रकार से रखे गए हों।।

3. कर एकत्रीकरण के दंगों का विस्तृत प्रचार किया जाए। जिन कर्मचारियों को यह काम सौंपा जाना है उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाए तथा उन्हें माडवैट की स्कीम के अनुसार काम करने का ज्ञान हो।

Taxation Meaning Canons Classification

माडवैट के लाभ  (Advantages of MODVATY

माडवैट के मुख्य लाभ निगलिाखत हैं

1 माडवैट योजना निर्माताओं को आसानी से रियायतें प्राप्त करने में सहायता कर सकती है।

2. इस योजना से दीर्घकाल में कर-वंचना को रोकने की आशा की जा सकती है। इसके परिणामस्वरूप काले धन की उत्पत्ति पर रोक लगती है।

3. माडवैट योजना ने आगतों पर करों के बाहुल्यता के प्रभाव (Cascading effect) को कम करने में सहायता की है।

4. तुरन्त लाभ प्रणाली द्वारा माडवैट अन्तिम उत्पाद की लागत को कम करेगी।

5. माडवैट योजना निर्यातों को प्रोत्साहित करेगी, क्योंकि निर्यात वस्तुओं के निर्माताओं को उत्पादन के लिए आवश्यक आगतों पर दिया गया अन्तिम शुल्क वापिस मिल जाता है।

6. माडवैट योजना स्वनिर्भरता एवं कर प्रणाली के आधुनिकीकरण की प्राप्ति में सहायक है।

Taxation Meaning Canons Classification

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. कर की परिभाषा दीजिये तथा इसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये। कराधान के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं ?

Define tax and point out its main characteristics. What are the main objectives of taxation ?

प्रश्न 2. करारोपण के विचार तथा इसके विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिये। Explain the concept and the different principles of taxation. (Garhwal, 2007)

प्रश्न 3. एडम स्मिथ के करारोपण के सिद्धान्तों को समझाइये। अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा इनमें और कौन से सिद्धान्त जोड़े गये हैं ?

Explain Adam Smith’s canons of taxation. What other canons have been added in them by other economists ?

प्रश्न 4. प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों को परिभाषित कीजिये तथा इनके गुण-दोषों का उल्लेख कीजिये।

Define Direct and Indirect tax and discuss their relative merits and demerits.

प्रश्न 5. “प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर दोनों ही एक अच्छी कर प्रणाली के लिये आवश्यक हैं।” समझाइये।

“Both direct and indirect taxes are essential for an adequate taxation system.” Discuss.

प्रश्न 6. “ प्रत्यक्ष करों का भुगतान अमीर करते हैं और परोक्ष करों का निर्धन।” यह वक्तव्य कहाँ तक सही है ?

Direct taxes are borne by rich while indirect taxes are borne by the poor.” How far is this true?

प्रश्न 7. आनुपातिक तथा प्रगतिशील करों के गुण एवं दोष बताइये। Discuss the merits and demerits of proportionate taxes and progressive taxes.

प्रश्न 8. “प्रगतिशील करारोपण के पक्ष में क्या तर्क दिये जाते हैं ? आप इस तथ्य से कहाँ तक सहमत हैं कि राज्य प्रगतिशील करों का मूल्य विभेद करते हुए एक एकाधिकारी की भाँति कार्य करता

“What are the arguments advanced in favor of a system of progressive taxation? Can you justify that progressive taxation is a discriminating monopoly price charged by the state for general public services ?’

प्रश्न 9. एक अच्छी कर प्रणाली के प्रमुख लक्षण क्या हैं ? एक विकासशील अर्थव्यवस्था में कर। प्रणाली का स्वरूप कैसा होना चाहिये?

What are the main characteristics of a good taxation system? What type of tax system is suggested for a developing country?

प्रश्न 10. वैट को परिभाषित कीजिये। वैट के कार्यान्वयन में आने वाली प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?

Define VAT. What are the main problems of its application?

Taxation Meaning Canons Classification

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. एडम स्मिथ द्वारा दिये गये करारोपण के किन्हीं दो सिद्धान्तों को समझाइये।

Explain any two canons of taxation given by Adam Smith.

प्रश्न 2. प्रत्यक्ष करों के प्रमुख गुण क्या हैं ?

What are the merits of direct taxes ?

प्रश्न 3. प्रत्यक्ष करों के प्रमुख दोष बताइये।

Explain the demerits of direct taxes.

प्रश्न 4. प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों की तुलना कीजिये।

Compare the direct and indirect taxes.

प्रश्न 5. प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में सम्बन्ध बताइये।

Explain relationship between direct and indirect taxes.

प्रश्न 6. प्रतिगामी कर प्रणाली क्या है?

What is regressive tax system?

प्रश्न 7. आनुपातिक कर प्रणाली से क्या आशय है ?

What is meant by proportionate tax system?

प्रश्न 8. प्रगतिशील कर प्रणाली से क्या आशय है?

What is meant by progressive tax system?

प्रश्न 9. वैट का अर्थ स्पष्ट कीजिये।

Explain the meaning of VAT.

प्रश्न 10. वैट एवं बिक्रीकर में अन्तर बताइये। .

Distinguish between VAT and Sales Tax.

प्रश्न 11. एक उदाहरण द्वारा मूल्य वर्धित कर (VAT) को स्पष्ट कीजिये।

Explain VAT by an illustration.

प्रश्न 12. माडवैट के प्रमुख लाभ बताइये।

Describe the advantages of MODVAT.

Taxation Meaning Canons Classification

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 2nd Year Public Revenue Sources Classification Study Material notes In Hindi

Next Story

BCom 2nd year Incidence Taxation shifting Tax Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 2nd year Public Finance