BCom 1st Year World Trade Problems Developing Countries Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year World Trade Problems Developing Countries Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year World Trade Problems Developing Countries Study Material Notes in Hindi : Favourable impact of world trade on the economic development of the underdeveloped countries World trade and the problems of Development  Countries  Unfavourable Impact of World trade on the Economic Development of THe Underveloped countries  Trends in world trade Examination Questions Long Answer Quesions Short Answer Questions :

World Trade Problems Developing
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BCom 1st Year International Trading Environment Study Material Notes in Hindi

विश्व व्यापार एवं विकासशील देशों की समस्याएं

[WORLD TRADE AND PROBLEMS OF DEVELOPING COUNTRIES]

विश्व व्यापार एवं आर्थिक विकास के सम्बन्ध को लेकर अर्थशास्त्री एक मत नहीं हैं। प्रतिष्ठित एवं नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री विश्व व्यापार को आर्थिक विकास का इन्जन (Engine of Growth) मानते हैं। प्रतिष्ठित एवं नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि किसी देश के विकास में विदेशी व्यापार महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। हैबरलर एवं केयरनक्रास जैसे अर्थशास्त्रियों ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए विचार व्यक्त किया है कि विश्व व्यापार केवल उत्पादन को कुशलतम बनाने का ही उपाय नहीं वरन् विकास का इन्जन भी है। किसी भी देश के व्यापार की मात्रा एवं संरचना, व्यापार की शर्ते और अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान ये तीनों मिलकर उसके विकास को प्रभावित करते हैं। प्रतिष्ठित विचारकों का विश्वास था कि इन तीनों का आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

किन्तु अर्थशास्त्रियों का दूसरा वर्ग राउल प्रेबिश, मिण्ट, गुन्नार मिर्डल, सिंगर जैसे अर्थशास्त्री विश्व व्यापार को आर्थिक विकास का अवरोधक घटक मानते हैं। इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि विश्व व्यापार का इन देशों के आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव होता है। फ्रेडरिक लिस्ट ने भी प्रतिष्ठित विचारधारा की कटु आलोचना की है और विकास के विशिष्ट स्तर के बाद ही विश्व व्यापार का समर्थन किया है। इस विचारधारा के अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के निष्कर्षों के आधार पर विकास की समस्याओं का विवेचन नहीं किया जा सकता। उनका तो यहां तक कहना है कि विश्व व्यापार से धनी और निर्धन राष्ट्रों के बीच असमानता की खाई बढ़ती है अतः इनका तर्क है कि निर्धन देशों को विश्व व्यापार का परित्याग कर देश में औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रो. मिर्डल ने यह मत व्यक्त किया है कि विश्व व्यापार ने अल्प-विकसित देशों के आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के बजाय उनमें दोहरी अर्थव्यवस्था (Dualility) उत्पन्न की है। अल्पविकसित देशों में दोहरी अर्थव्यवस्था उत्पन्न होने के दो प्रमुख कारण है—प्रथम, इन देशों की संरचना एवं परिस्थिति के कारण इन देशों में विकास प्रक्रिया का प्रतिधावन प्रभाव (Back wash Effect) उसके प्रसरण प्रभाव (Spread Effect) से अधिक शक्तिशाली होता है जिससे क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय असमानताएं बढ़ती हैं दूसरे, इन देशों में भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

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विश्व व्यापार का अर्द्धविकसित देशों के आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव

(FAVOURABLE IMPACT OF WORLD TRADE ON THE ECONOMIC DEVELOPMENT OF THE UNDERDEVELOPED COUNTRIES)

अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में विश्व व्यापार ने सहायता पहुंचाई है, इसके समर्थन में निम्न तर्क दिये जाते हैं :

(1) वास्तविक आय और पूंजी निर्माण में वृद्धि विश्व व्यापार के अन्तर्गत एक देश उन्हीं वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है जिसमें उसे तुलनात्मक लाभ होता है जिसके फलस्वरूप उसकी वास्तविक आय में वृद्धि होती है। विश्व व्यापार का प्रभाव यह होता है कि देश में जो उत्पत्ति के साधन तथा उत्पादन तकनीक पहले से निश्चित रहती है उनमें परिवर्तन होकर साधनों का वितरण अनुकूलतम हो जाता है अर्थात् उत्पादन अधिक कुशलतापूर्वक होने लगता है। वास्तविक आय में होने वाली वृद्धि पूंजी निर्माण में सहायक होती है तथा पूंजी निर्माण आर्थिक विकास को गतिशील बना सकता है।

(2) निर्यात क्षेत्र से होने वाला विकास किसी भी देश में उत्पत्ति के समस्त क्षेत्रों में एकसमान विकास नहीं होता वरन् कुछ क्षेत्र महत्वपूर्ण होते हैं जिनसे पहले विकास होता है तथा ये क्षेत्र अन्य उद्योगों को गति प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से गति प्रदान करने में निर्यात क्षेत्र की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जो निम्न तीन तत्वों से स्पष्ट है:

(i) विस्तृत बाजार विदेशों में मांग-वृद्धि के कारण देश की विभिन्न वस्तुओं का बाजार विस्तृत होता है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने स्पष्ट किया था कि जो देश विदेशों में अपना माल बेचने में सफल होता है वह द्रुत गति से विकास कर सकता है। इससे बड़े पैमाने की बचतें प्राप्त होती हैं तथा विभिन्न उद्योगों पर इसका विकासात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रो. मिल के अनुसार, “विदेशी व्यापार बाजार के आकार का विस्तार करके अर्थव्यवस्था पर प्रावैगिक प्रभाव डालता है। विदेशी व्यापार से बड़े पैमाने पर श्रम-विभाजन तथा मशीनों का प्रयोग सम्भव होता है जिससे देश की उत्पादन करने की क्षमता बढ़ जाती है।”

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(ii) निर्यात उद्योगों का विकास देश के भीतर बिना सामाजिक पूंजी का विनियोग किये, निर्यातों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि विदेशी व्यापार एवं निर्यात नहीं किया जाता तो देश के भीतर ही बाजार को विकसित करने के लिए पर्याप्त परिवहन एवं वितरण की व्यवस्था आवश्यक है जिसमें काफी मात्रा में विनियोग आवश्यक होता है, किन्तु यदि देश अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश कर लेता है तो उक्त कठिनाई का सामना किये बिना ही देश वस्तुओं का निर्यात कर लाभ उठा सकता है।

(iii) मांग में वृद्धिनिर्यातों के कारण अन्य क्षेत्रों में प्रभावपूर्ण मांग का जन्म होता है जिससे विभिन्न वस्तुओं की मांग बढ़ती है। लुईस (Lewis) का मत है कि उत्पत्ति के साधनों के लिए घरेलू और निर्यात उद्योगों में प्रतियोगिता होती है जिससे देश के अन्य उद्योग भी नव-प्रवर्तन (Innovation) अपनाते हैं। इससे उत्पादन में वृद्धि होती है।

(3) आयातों से देश का आर्थिक विकास–अर्द्ध-विकसित देशों को उद्योगों की स्थापना एवं तकनीकी विकास के लिए जिन साधनों की आवश्यकता होती है, वे पर्याप्त मात्रा में इन देशों में उपलब्ध नहीं होते अतः विदेशों से इन्हें आयात किया जाता है। इन आयातों को हम निम्न तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं:

(i) विकाससम्बन्धित आयात-पिछड़े देशों में आय में वृद्धि करने के लिए उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना आवश्यक है ताकि ये देश कम-से-कम अपने उत्पादन सम्भावना वक्र पर पहुंच सकें। वर्तमान स्थिति यह है कि बहुत-से पिछड़े देश अपने उत्पादन सम्भावना वक्र के भीतर ही उत्पादन करते हैं। इसे हम रेखाचित्र 1 से स्पष्ट कर सकते हैं।

निम्न रेखाचित्र 1 में एक देश का उत्पादन सम्भावना वक्र MN है तथा यदि वह दो वस्तुओं और Y का उत्पादन कर रहा है तो MN वक्र बताता है कि वह इस वक्र के किसी बिन्दु (G) पर उत्पादन कर सकता है, किन्तु वास्तव में वह उत्पादन सम्भावना वक्र के भीतर P बिन्दु पर ही उत्पादन करता रहता है अर्थात देश के समस्त साधनों का पूर्ण प्रयोग नहीं करता।

इसका मुख्य कारण उत्पादन तकनीक का पिछड़ापन है। यदि विदेशों से मशीनों एवं अन्य उपकरणों का आयात किया जाता है तो उत्पादन क्षमता में विस्तार होता है तथा देश न केवल उत्पादन सम्भावना वक्र पर पहुंच सकता है वरन् उसमें परिवर्तन कर उसे दायीं ओर विवर्तित भी कर सकता है। जो आयात देश में उत्पादन क्षमता का विस्तार कर, आर्थिक विकास की गति को बढ़ाते हैं उन्हें विकास सम्बन्धी आयात कहते हैं।

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(ii) निर्वाह अथवा अनुरक्षण आयात–जब अर्द्ध-विकसित देशों में एक निश्चित उत्पादन क्षमता की स्थापना होती है तो उसका पूर्ण प्रयोग करने के लिए निरन्तर कच्चे माल एवं मध्यवती वस्तुओं की आवश्यकता होती है जो सदैव अर्द्ध-विकसित देशों में उपलब्ध नहीं हो पाती। अतः इनका विदेशों से आयात किया जाता स आयातों को, जो देश की उत्पादन क्षमता का पूर्ण प्रयोग करने के लिए किये जाते हैं, निवांह-आयात कहत हा पिछडे हए देशों में उत्पादन बढाने के लिए ऐसे आयातों का बहुत महत्व है।

(iii) अस्फीतिकारी आयातजब अर्द्ध-विकसित देशों में मुद्रा-प्रसार के कारण स्फीतिक दशाएं फैल जाता ह तो दीर्घकाल में इनका आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में देश में वस्तुओं का अभाव हो जाता है एवं अर्थव्यवस्था असन्तलित हो जाती है। इसे दूर करने के लिए विदेशों से वस्तुओं का जायात किया जाता है जिससे अर्थव्यवस्था में स्थिरता आती है और आर्थिक विकास सम्भव होता है। अतः ऐसे आयात को अस्फीतिकारी आयात कहते हैं।

(4) विदेशी तकनीक की जानकारी से विकास जे. एस. मिल के अनुसार, विदेशी व्यापार से निर्धन देशों का लाभ होता है क्योंकि इसके द्वारा उनकी जानकारी विदेशी तकनीक और कलाओं से होती है। इसके कारण आतारक्त पूजी से अधिक दर पर लाभ उठाने लगते हैं तथा इस दृष्टि से विदेशी पूंजी का आयात बढ़ाते हैं जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। विदेशी कलाओं की जानकारी अर्द्ध-विकसित देशों के व्यक्तियों में नवीन विचारों को जाग्रत करके एवं उनकी परम्परागत आदतों को बदलकर उनमें नवीन इच्छाओं, बड़ी आकांक्षाओं तथा दूरदर्शिता को जन्म देती है।

(5) भुगतान सन्तुलन का आर्थिक विकास पर प्रभाव-भुगतान सन्तुलन की स्थिति आर्थिक विकास और विश्व व्यापार के सम्बन्ध को अच्छी तरह व्यक्त करती है। पिछडे हए देश प्रारम्भिक स्थिति में नियाता का तुलना में आयात अधिक करते हैं तथा उनका विनियोग. बचत की तुलना में अधिक होता है। बचत और विनियोग में जो अन्तर होता है, उसकी पूर्ति विदेशी पूंजी से की जाती है। अर्द्ध विकसित देश विदेशों से दीर्घकालीन पूंजी उधार लेते हैं एवं उनका विनियोग बचत से अधिक होता है। विकसित देशों की स्थिति इसके विपरीत होती है। उनकी घरेलू बचत विनियोग से अधिक होती है जिससे वे पिछड़े हुए देशों को ऋण देते है।

(6) समग्र आर्थिक विकासएच. मिण्ट के अनुसार, विदेशी व्यापार गतिशील उत्पादकता के सिद्धान्त पर आधारित है जो श्रम-विभाजन की सम्भावनाओं को बढ़ाता है। इससे मशीनों के प्रयोग को प्रोत्साहन मिलता है और नव-प्रवर्तन का प्रयोग सम्भव होकर गतिशील होता है। इससे श्रम की उत्पादकता बढ़ती है और व्यापार करने वाले समस्त देशों को अधिकतम लाभ मिलता है। इससे स्पष्ट है कि आर्थिक विकास में विश्व व्यापार का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

(7) पूंजी संचय एवं बचत क्षमता में वृद्धिप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने विदेशी व्यापार के प्रभाव को स्पष्ट किया है जो देश के साधनों पर पड़ता है। उन्होंने बताया कि विदेशी व्यापार के फलस्वरूप साधनों का कुशलतम ढंग से प्रयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप वास्तविक आय में वृद्धि के साथ बचत करने की क्षमता भी बढ़ती है। विदेशों से व्यापार करने से बाजार का विस्तार होता है और विनियोग प्रोत्साहित होते हैं। हिक्स के अनुसार, “विदेशी व्यापार करने के लिए, किसी देश को बड़े पैमाने पर उत्पादन करना पड़ता है जिससे उसे पूंजीगहन उन्नत तकनीक से उत्पादन करने से लाभ होने लगता है।” ।

(8) व्यापार की शर्तों का आर्थिक विकास पर प्रभाव इसका विस्तृत विवेचन ‘व्यापार की शर्ते’ नामक अध्याय में हो चका है अतः यहां विस्तार से चर्चा करना आवश्यक नहीं है। यह कहना पर्याप्त है कि अनकल व्यापार की शर्तों के फलस्वरूप औद्योगिक और गैर-औद्योगिक देशों, दोनों को लाभ हुआ है। अर्द्ध-विकसित देशों ने विकसित देशों को आवश्यक कच्चे माल की पूर्ति की है जिससे वहां औद्योगीकरण बढ़ा है और इसके बदले औद्योगिक देशों ने अर्द्ध-विकसित देशों को उपभोग और पूंजीगत वस्तुएं प्रदान की हैं। विकसित देशों की पूंजी एवं तकनीक ने अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में बड़ी सहायता की है। इस प्रकार आयातों और बढती हई उत्पादन सम्भावनाओं ने प्राथमिक उत्पादन करने वाले देशों में विस्तत और गहन आर्थिक विकास को प्रोत्साहन दिया है।

(9) गतिशील लाभ हैबरलर के अनुसार, विश्व व्यापार से अर्द्ध-विकसित देशों को निम्न चार गतिशील लाभ प्राप्त होते हैं:

(i) मशीन, पूंजी, कच्चे माल, अर्द्ध-निर्मित वस्तुएं तथा अन्य भौतिक साधनों की उपलब्धिः

(i) देश में अन्तर्राष्ट्रीय विनियोग से पूंजी की प्राप्ति;

(iii) तकनीक एवं नव-प्रवर्तन के लाभ:

(iv) विदेशी प्रतियोगिता से कुशल एवं अधिक उत्पादन।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विश्व व्यापार ने विशेष रूप से अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में काफी सहायता पहुंचायी है। विश्व व्यापार ने अनेक ऐसे देशों के विकास को आगे बढ़ाने का कार्य किया। है जो कि आज संसार के सबसे अधिक समृद्ध देश समझे जाते हैं। जैसे—ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा, आस्ट्रेलिया एवं स्विट्जरलैण्ड, इत्यादि।

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विश्व व्यापार का अर्द्धविकसित देशों के आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव

(UNFAVOURABLE IMPACT OF WORLD TRADE ON THE ECONOMIC

DEVELOPMENT OF THE UNDERDEVELOPED COUNTRIES)

अनेक आधुनिक अर्थशास्त्रियों राउल प्रेबिश, सिंगर, मिर्डल, मिण्ट, आदि ने विश्व व्यापार को अल्पविकसित देशों के आर्थिक विकास में अवरोधक माना है और प्रतिष्ठित एवं नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचारों की आलोचना करते हुए उनके निष्कर्षों को निरर्थक माना है।

विश्व व्यापार को आर्थिक विकास में अवरोधक मानने वाला अर्थशास्त्रियों का वर्ग अपने पक्ष में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत करता है :

(1) निर्यात क्षेत्र के अतिरिक्त शेष अर्थव्यवस्था की अवहेलना इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि विश्व व्यापार के फलस्वरूप अर्द्ध विकसित देशों के निर्यातों में तो वृद्धि हुई है परन्तु इससे केवल निर्यात क्षेत्र विकसित हुए हैं। शेष अर्थव्यवस्था को विकसित करने में इसने कोई योगदान नहीं दिया है जिसका परिणाम यह हुआ कि आज भी अर्द्धविकसित देश, असन्तुलित विकास के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। मिर्डल का कहना है किपिछड़े देशों का उच्च विदेशी व्यापार का अनुपात इस बात का प्रमाण नहीं है कि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन का लाभ उठाया है वरन् इस बात का सबूत है कि वे अर्द्ध-विकसित एवं निर्धन हैं।” निर्यात क्षेत्र में जिस उत्पादन तकनीक का प्रयोग किया गया उसका शेष अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं हुआ।

(2) कीमतों में समानता नहीं दूसरी आलोचना इस निष्कर्ष के विरुद्ध है कि विश्व व्यापार करने वाले देशों में उत्पत्ति के साधनों की कीमतें बराबर हो जाती हैं। आलोचक कहते हैं कि विश्व व्यापार ने साधनों की कीमतों में समानता स्थापित नहीं की वरन् इससे ऐसी संचयी प्रवृत्ति का जन्म हुआ है जिससे साधन अनुपातों में समानता और उनकी कीमतों में समानता से सन्तुलन का बिन्दु दूर हटता गया है। अन्तर्राष्ट्रीय समानता की बात तो दूर, इससे देश के विभिन्न क्षेत्रों में भी साधनों और उनकी कीमतों में समानता स्थापित नहीं हो सकी है। वास्तविकता तो यह है कि विश्व व्यापार से आय के अन्तर्राष्ट्रीय वितरण में असमानता ही आयी है।

(3) दोहरी अर्थव्यवस्थाओं का निर्माणआलोचकों का मत है कि विश्व व्यापार करने के बाद बहुत पिछड़े देशों में दोहरी अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण हुआ है। जहां निर्यातक क्षेत्र “विकास का द्वीप” (Island of Development) बना है वहां शेष अर्थव्यवस्था प्रायः पिछड़ी हुई रही है अर्थात् निर्यात क्षेत्र के चारों ओर निर्वाह अर्थव्यवस्था (Subsistence Economy) का निर्माण हुआ है। निर्यात के उन्नत क्षेत्र में उत्पादन की विधियां पूंजीगहन होती हैं और उत्पादन गुणक निश्चित रहता है जबकि पिछड़े हुए क्षेत्र में उत्पादन तो श्रम गहन होता है एवं उत्पत्ति के साधन के बराबर अनुपातों में प्रयुक्त नहीं किये जाते। विदेशी पूंजी केवल निर्यात करने के लिए ही देश के प्राकृतिक साधनों के दोहन के लिए प्रयुक्त की जाती है जिसमें देश के लोगों को पर्याप्त रोजगार नहीं मिलता तथा लोगों को पिछड़े क्षेत्रों में ही रोजगार ढूंढना पड़ता है।

(4) व्यापार की शर्तों का दीर्घकाल में प्रतिकूल रहना यह कहा जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों ने कछ मी असन्तलनकारी दशाएं पैदा की है कि जिससे निर्धन देशों की व्यापार की शर्ते काफी समय तक प्रतिकल रहने के कारण उनकी आय धनी देशों को जाती रही है। यदि औद्योगिक देश एवं प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन करने वाले अर्द्ध-विकसित देशों के बीच व्यापार होता है तो वस्तु व्यापार की शर्ते सदैव औद्योगिक देशों के पक्ष में हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि कच्चे माल और साधनों के बाजार में धनी देशों का एकाधिकार होता है एवं तकनीकी प्रगति के सहयोग के कारण उत्पत्ति के साधनों की आय बढ़ जाती है, जबकि प्राथमिक उत्पादन करने वाले देशों में यदि उत्पादकता बढ़ती है तो वहां कीमतें घट जाती हैं।

जहां तक व्यापार की शर्तों में चक्रीय गतिविधियों (Cyclical movements) का प्रश्न है, इनका प्रभाव अर्द्ध-विकसित देशों के लिए प्रतिकूल एवं बाधक रहा है।

(5) प्रदर्शनप्रभाव (Demonstration Effect) के कारण भी निर्धन देशों के विकास में बाधा उपस्थित होती है। अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन प्रभाव का अर्थ यह है कि अद्ध्  विकसित देशों की उपभोग की प्रवृत्ति को अपनाते हैं जिससे विदेशी आयाता में वद्धिा होता है अर्थात् पूंजी का बहिर्गमन होता है और निर्धन देशों में पंजी का संचय कम हो जाता है। इसका कारण कि प्रदर्शन प्रभाव के कारण अर्द्ध-विकसित देश के लोगों में विदेशी उपभोग एवं विलासिता की वस्तुओं सा जाग्रत होती है अतः विदेशी वस्तओं के आयात में वद्धि होती है और विदेशी दायित्व बढ़ते हैं जिनका आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(6) विकसित देशों से बढ़ती हुई प्रतियोगिता का विकास पर प्रतिकूल प्रभाव जब अर्द्ध-विकसित देश विश्व व्यापार में प्रवेश करते हैं तो इनके सामने कई समस्याएं आती हैं जिनमें विदेशी प्रतियोगिता महत्वपूर्ण है। यदि ये देश अपना निर्यात बढ़ाना चाहते हैं तो इन्हें विदेशी माल से प्रतियोगिता करनी पड़ती है, चूंकि विदेशी वस्तुएं उच्च तकनीक के कारण गणों में उत्तम होती हैं तथा उनकी कीमतें भी कम होती है अतः अर्द्ध-विकसित देश उनके सामने ठहर नहीं पाते और अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों पर उनका अधिकार नहीं हो पाता। यह समस्या इसलिए और भी विकट हो गयी कि आजकल विकसित देश भी प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने लगे हैं और यदि कभी ये निर्धन देश प्रतियोगिता करने में समर्थ भी हो जाते हैं तो इन्हें आवश्यक उपकरणों एवं मशीनों का निर्यात बन्द कर दिया जाता है। जैसे कछ समय पूर्व अमरीका ने भारत का यूरेनियम का निर्यात बन्द करने की धमकी दी थी।

निष्कर्ष विश्व व्यापार और आर्थिक विकास से सम्बन्धित दो विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में विश्व व्यापार का विकास हुआ है। विदेशी विनियोग, प्रवसन (Migration) और जनसंख्या वृद्धि का वास्तविक प्रभाव यह हुआ कि विभिन्न देशों में संसाधन अनुपात की विषमता कम हुई तथा तकनीकी कुशलता और ज्ञान का प्रकाश हुआ। विश्व व्यापार ने औद्योगीकरण, परिवहन-संचार साधनों, आदि का विस्तार करके आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में विश्व व्यापार ने निःसन्देह सकारात्मक भूमिका निभाई है। विश्व व्यापार ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्टीकरण, औद्योगिक विविधीकरण, आदि को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्थाओं को गतिशील बनाया है।

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विश्व व्यापार एवं विकासशील देशों की समस्याएं

(WORLD TRADE AND THE PROBLEMS OF DEVELOPING COUNTRIES)

विकासशील देशों में विदेशी व्यापार इन देशों की आन्तरिक आधारभूत समस्याओं के कारण असफल । होता है। सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से विदेशी व्यापार को आर्थिक विकास में अवरोधक नहीं कहा जा सकता। विकासशील देशों की अपनी कुछ मौलिक समस्याएं हैं जिनका निवारण किया जाना आवश्यक

(1) ऋण का बढ़ता हुआ भारअर्द्धविकसित देशों की विदेशी व्यापार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन पर विकसित देशों द्वारा प्रदत्त ऋण एवं ब्याज अदायगी का भारी बोझ है जो अधिकांश रूप से प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन का परिणाम है। इस ऋण के फलस्वरूप विकासशील देशों के प्रारम्भिक निवेश पर भारी आर्थिक दबाव पड़ता है तथा उन्हें अपनी विकास परियोजना में भारी मात्रा में कटौती करनी पड़ती है। इसके फलस्वरूप विकासशील देशों की उत्पादन क्षमता घटती है और वे अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतियोगिता नहीं कर पाते।

(2) बाजारों का छोटा होनाअर्द्धविकसित देशों की विदेशी व्यापार की दूसरी समस्या यह है कि इनके बाजार काफी छोटे हैं जो बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले उद्योगों के विकास के लिए मांग बना पाने में असमर्थ हैं। यदि आर्थिक विकास त्वरित गति से नहीं किया जाता तथा बाजार की अपूर्णताओं को समाप्त नहीं किया जाता तो इन बाजारों के छोटे ही रहने की सम्भावना है। यह बात बहुत स्पष्ट है कि बाजार की अपूर्णता, श्रम-विभाजन एवं उत्पादन को सीमित कर देती है।

(3) उद्यमी वर्ग का अभाव विदेशी व्यापार के प्रोत्साहन एवं निर्यात वृद्धि के लिए यह आवश्यक है। कि देश में पर्याप्त मात्रा में उत्पादन हो। यह उसी समय सम्भव है जब देश में उद्यमी प्रतिभा विद्यमान हो। ताकि वे पर्याप्त पूंजी का निवेश कर निर्यात बढ़ाने के लिए, उत्पादन में वृद्धि कर सके। किन्तु अद्ध विकसित देशों में विकास के लिए वांछित पूंजी निवेश करने वाले निजी पूंजीपतियों का पर्याप्त रूप से विकसित वर्ग। नहीं है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि जहां एक ओर निजी विनियोग को प्रोत्साहन दिया जाय, वहीं। दूसरी ओर सरकार को भी पूंजी निवेश करना चाहिए।

(4) निर्यात सम्बर्द्धन सम्बन्धी समस्याएं किसी भी देश के आर्थिक विकास में निर्यातों की वृद्धि का महत्वपूर्ण स्थान होता है अतः अर्द्ध-विकसित देशों के लिए भी यह आवश्यक है कि निर्यातों में वृद्धि की जाय किन्तु वे निर्यातों को वांछनीय दिशा में नहीं बढ़ा पाते और निर्यातों से जो आय होती है उसे पूर्ण रूप से पूंजी निर्माण के लिए प्रयुक्त नहीं किया जाता। इसका कारण यह है कि निर्यातों से प्राप्त आय का अधिकांश भाग आयातों, विदेशी ऋण एवं व्याज के भुगतान में खप जाता है। इन देशों के निर्यात-सम्बर्द्धन में कई प्रकार की समस्याएं आती हैं जो इस प्रकार हैं :

(i) निर्यात की तुलना में आयातों में अधिक वृद्धि-जब अर्द्ध-विकसित देशों की आय बढ़ती है तो पूंजीगत वस्तुओं एवं उपभोग की वस्तुओं की मांग बढ़ने से उनका आयात किया जाता है और आयातों की वृद्धि, आय की वृद्धि से अधिक हो जाती है जबकि विकसित देशों में आयातों की वृद्धि, आय वृद्धि से कम होती है क्योंकि इन देशों में केवल खाद्यान्न एवं कच्चे माल का ही आयात किया जाता है। इस प्रकार आयातों की तीव्र गति से वृद्धि, निर्यातों को निरर्थक बना देती है।

(ii) चक्रीय परिवर्तनों का प्रभावअर्द्ध विकसित देश कुछ गिनी-चुनी वस्तुओं का ही निर्यात करते हैं। तथा वह भी कुछ विशिष्ट देशों को ही, अर्थात् इनके व्यापार में विविधता नहीं होती तथा इनका अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भी सीमित होता है। ये राष्ट्र अपने निर्यातों के लिए कुछ देशों पर ही निर्भर हो जाते हैं और जब ये विकसित देश, अर्द्ध विकसित देशों के माल का आयात अपने देशों में या तो पूर्ण रूप से रोक देते हैं अथवा प्रतिबन्धित कर देते हैं, तो इसका प्रतिकूल प्रभाव अर्द्ध-विकसित देशों के निर्यातों और फलस्वरूप उनकी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। विकसित देशों की मांग में परिवर्तन का मुख्य कारण चक्रीय परिवर्तन अथवा उच्चावचन है अर्थात् जब इन देशों में मन्दी की स्थिति आती है तो चूंकि, अर्द्ध-विकसित देश इन पर निर्भर रहते हैं, वह मन्दी की स्थिति, अर्द्ध-विकसित देशों में भी प्रवेश करा दी जाती है और इन देशों को मन्दी की सारी बुराइयों जैसे—बेरोजगारी, क्रयशक्ति की कमी, मांग का अभाव, इत्यादि का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार अर्द्ध-विकसित देश अपने आपको चक्रीय परिवर्तनों के प्रतिकूल प्रभावों से नहीं बचा पाते।

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(iii) विकसित देशों द्वारा वस्तुओं का उत्पादन अर्द्ध-विकसित देशों द्वारा इसलिए भी निर्यात सम्वर्द्धन में बाधा आयी है कि पहले ये जिन प्राथमिक वस्तुओं का निर्यात, विकसित देशों को करते थे. अब इसमें से अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन स्वयं विकसित देश करने लगे हैं और उन्होंने प्राथमिक वस्तुओं के नये विकल्पों। अथवा स्थानापन्न वस्तुओं की खोज कर ली है। औद्योगिक देशों की संरक्षणात्मक नीतियों के फलस्वरूप विकासशील देशों के निर्यातों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बहुत-से विकसित राष्ट्र आज उपभोक्ता वस्तुओं के स्थान पर रसायन और कच्चे माल के उत्पादन को महत्व दे रहे हैं, दूसरी ओर अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों में। भी औद्योगीकरण के कारण, निर्मित वस्तुओं का उत्पादन बढ़ रहा है जिसमें अधिकांश प्राथमिक उत्पादन की खपत हो रही है अतः अब इन वस्तुओं का निर्यात भी नहीं बढ़ पा रहा है।

(iv) प्रतियोगी शक्ति की कमी यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आज, अर्द्ध विकसित देश केवल प्राथमिक वस्तओं का ही उत्पादन नहीं करते वरन् उपभोग और पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन भी कर रहे हैं किन्त इन वस्तओं के निर्यात में उन्हें विकसित देशों से भारी प्रतियोगिता करनी पड़ रही है, क्योंकि उन्नत तकनीक के कारण विकसित देशों का माल टिकाऊ और सस्ता होता है जिससे ये पिछड़े देश विश्व-बाजार के क्षेत्र से बाहर रहते हैं एवं निर्यातों को नहीं बढ़ा पाते।।

(5) आयात सम्बन्धी समस्याएं अर्द्ध-विकसित देशों को केवल निर्यातों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। वरन वे आयातों के लिए भी विकसित देशों पर निर्भर रहते हैं। पिछड़े हुए देश मुख्य रूप से विनिर्मित वस्तओं (Manufactured Goods), सूती वस्त्र, मशीनों, हल्की उपभोग की वस्तुओं और खाद्यान्न का आयात चूंकि अर्द्ध-विकसित देशों में जनसंख्या की तीव्र गति से वृद्धि होती है अतः खाद्यान्न की मांग बढ़ती है जिससे इसका आयात करना आवश्यक हो जाता है। भारत के उदाहरण से स्पष्ट है कि अभी तक हमें निरन्तर विदेशों से खाद्यान्न का आयात करना पड़ता है। अद्धर्द विकसित देशों में जब औद्योगीकरण प्रारम्भ होता है तो मशीनों और उच्च-तकनीक की भी आवश्यकता होती है जिसका विकसित देशों से आयात किया जाता है, किन्तु प्रमुख समस्या यह हाता ह कि.५७ दश अनुकूल शर्तों पर इन्हें आयात नहीं कर पाते। चूंकि यह देश प्रारम्भिक अवस्था में पर्याप्त मात्रा नामत माल आर उपभोग वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर पाते अतः इन वस्तुओं के आयात पर भी इन्हें निर्भर रहना पड़ता है। पिछड़े देशों की आयात प्रवत्ति तो ऊंची रहती ही है साथ ही आन्तरिक प्रदर्शन प्रभाव के कारण दीर्घकाल में औसत आयात प्रवृत्ति में भी वृद्धि होती है।

बढ़ते आयातों का भुगतान करने के लिए, निर्यातों की वृद्धि करना आवश्यक है अन्यथा भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जाता है।

(6) विदेशी पूंजी पर अत्यधिक निर्भरता अर्द्ध-विकसित देशों की विदेशी व्यापार की एक समस्या यह भी है कि वह अपने नियति क्षेत्र के विस्तार के लिए विदेशी पंजी पर निर्भर रहते है जिसका परिणाम हाता। है प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग। यह विनियोग, घरेलू मांग की अवहेलना कर, प्राथमिक उत्पादन पर केन्द्रित होता है जिसका मुख्य उद्देश्य निर्यातों में वृद्धि करना होता है क्योंकि विदेशी निवेशकर्ताओं का मुख्य उद्देश्य विदेशी मुद्रा कमाना होता है। निर्यातों से होने वाली आय की तुलना में विदेशी पूंजी के प्रभाव से अधिक उच्चावचन होते हैं तथा यह देखने में आया है कि विदेशी पंजी में कमी के साथ निर्यातों में भी कमी आयी है। विदेशी पूंजी में उच्चावचन के साथ घरेलू अर्थ-व्यवस्था में भी अस्थिरता आती है।

(7) विकसित राष्ट्रों की शोषण प्रवृत्ति विकसित राष्ट्रों द्वारा शोषण की प्रवृत्ति ने भी, अर्द्ध विकसित देशों के व्यापार को भारी धक्का पहुंचाया है। विकसित राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संगठनों के माध्यम से अर्द्ध-विकसित देशों पर अनुचित प्रभाव डालकर उनकी नियोजन उद्देश्य एवं प्रक्रिया को प्रभावित करते है।

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(8) व्यापार की शर्तों का प्रभाव जब औद्योगिक रूप से विकसित एवं प्राथमिक उत्पादन करने वाले अर्द्ध-विकसित देशों के बीच व्यापार होता है तो व्यापार शर्ते हमेशा औद्योगिक राष्ट्रों के पक्ष में हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि प्राथमिक वस्तुओं के मूल्यों में काफी अस्थिरता होती है, जबकि औद्योगिक वस्तुओं में तुलनात्मक रूप से अस्थिरता होती है। दूसरी बात यह है कि प्राथमिक उत्पादन की मांग एक निश्चित सीमा तक ही होती है जबकि निर्मित वस्तुओं की मांग सदैव बनी रहती है। तीसरी बात यह है कि प्राथमिक उत्पादन को, अर्द्ध-विकसित देश, सस्ती कीमतों पर भी बेच देते हैं क्योंकि टिकाऊ न होने के कारण इनका संग्रह नहीं किया जा सकता जबकि विकसित देश निर्मित वस्तुओं का संग्रह कर सकते हैं और उसके लिए वांछित मूल्य प्राप्त कर सकते हैं। जिस कच्चे माल का निर्यात अविकसित देश कर रहे हैं, उसका मूल्य उनको विकसित देशों द्वारा निर्यात किये जा रहे तैयार माल की तुलना में बहुत कम मिल पा रहा है। वास्तव में, कच्चा माल और उस माल से तैयार किये गये सामान के मूल्यों में कोई नाम मात्र का भी अनुपात नहीं रहता अतः अनुकूल व्यापार की शर्तों के कारण विकसित देश विदेशी व्यापार से अधिक लाभ उठाते हैं जबकि प्रतिकूल व्यापार शर्तों के कारण, अर्द्ध-विकसित देशों को घाटा पड़ता है।

(9) विकसित देशों द्वारा संरक्षणवादी नीतिविकासशील देशों के विदेशी व्यापार में बहुत बडा धक्का इसलिए भी लगता है कि विकसित देशों ने विकासशील देशों के आयातों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिये जाते हैं। विकसित देशों की इन संरक्षणात्मक नीतियों का विरोध करने के लिए विकासशील देशों के पास न तो आर्थिक क्षमता है और न राजनीतिक शक्ति।

अर्द्ध-विकसित देशों की विदेशी व्यापार सम्बन्धी समस्याओं को देखते हुए, तेजी से एक नयी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिसमें समृद्ध राष्ट्र विकासशील देशों को ऋणों में छट दग, अधिक आयात करेंगे तथा निर्यात की कीमतों में कमी करेंगे, एवं कच्चे माल का उचित दाम देंगे तथा आवश्यक वस्तुओं के भण्डारण की ऐसी व्यवस्था करेंगे कि उनकी कीमतों में अनावश्यक उतार-चढाव नहीं। हागा। किन्त विकसित और अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के स्पष्ट मतभेद उभरकर सामने आ गये हैं तथा यह बात साफ हो गयी है कि विश्व में एक नयी अर्थ-व्यवस्था के निर्माण के इच्छुक देशों को काफी संघर्ष करना पडेगा क्योंकि सरलता से वे अपने आपको विदेशी व्यापार एवं अन्य प्रकार के शोषण से मुक्त नहीं कर सकते।

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विश्व व्यापार की प्रवृत्तियां

(TRENDS IN WORLD TRADE)

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् से लेकर 2015 तक की अवधि में विश्व व्यापार की प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विवरण अध्याय 7 के प्रारम्भ में दिया गया है। यह देखा गया कि 1950 से 1980 की अवधि में विश्व व्यापार, जो द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के कारण ध्वस्त हो गया था, फिर से जीवन्त हुआ, विशेषकर औद्योगिक देशों के मध्य। 1980 के दशक से वैश्वीकरण तथा उदारवाद की जो लहर चली उसने व्यापार को अधिक खुला कर दिया। यह लहर पहले विकसित देशों में आई और फिर विकासशील देशों में।।

1930 के दशक की भयानक आर्थिक मन्दी के पश्चात् 2007 से प्रारम्भ वैश्विक वित्तीय मन्दी और वैश्विक आर्थिक मन्दी का व्यापक प्रभाव विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़ा, विकसित तथा विकासशील दोनों प्रकार के देशों पर। इससे विश्व व्यापार भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। 2010-11 से विश्व व्यापार की स्थिति में सुधार देखा जा सकता है।

विश्व व्यापार जिन दो प्रमुख तत्वों से प्रभावित होता है, उनमें से एक है विकास की रणनीति–आयात प्रतिस्थापन या निर्यात प्रोत्साहन। आयात प्रतिस्थापन रणनीति विश्व व्यापार की वृद्धि के लिए हानिकारक है. जबकि निर्यात प्रोत्साहन की रणनीति सहायक होती है। दूसरा तत्व यह है कि विश्व उत्पाद की वृद्धि दर में तेजी आने का प्रभाव विश्व व्यापार पर सकारात्मक होता है। नीचे दिए गए आंकड़ें उपर्युक्त तथ्य को सही प्रभावित करते हैं:

वार्षिक प्रतिशत वृद्धि दर

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उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि विश्व उत्पत्ति की वार्षिक वृद्धि दर में जिस अवधि में वृद्धि हुई, उस अवधि में विश्व व्यापार की वार्षिक वृद्धि दर में भी तेजी आई, जैसे—1953-63 की अवधि तथा 1963-73 की अवधि। 1973-83 की अवधि में विश्व उत्पत्ति की वार्षिक दर में गिरावट आने के कारण इस अवधि में विश्व व्यापार की वृद्धि दर भी घट गई। अगले वर्षों में भी यह सह-सम्बन्ध देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, 2004 में विश्व उत्पत्ति में 5.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी वर्ष विश्व व्यापार में 10.3 प्रतिशत की प्रभावशाली वृद्धि हुई। 2008 की विश्वव्यापी मन्दी का काफी प्रभाव विश्व व्यापार पर पड़ा। 2009 में विश्व उत्पत्ति में 2.2 प्रतिशत का ह्रास हुआ इस कारण विश्व व्यापार में इसी वर्ष 14.4 प्रतिशत का ह्रास हुआ।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2013 में 3.0%, 2014 में 3.6% तथा 2015 में 3.9% की वृद्धि दर्ज की गई। इन्हीं अवधियों में विश्व व्यापार में क्रमशः 3.0%, 4.3% तथा 5.3% की वृद्धि हुई।

विश्व निर्यातों तथा विकासशील देशों के निर्यातों में सादृश्यता देखी जा सकती है। जब विश्व निर्यात बढ़ता है, विकासशील देशों का निर्यात भी बढ़ता है। इस सह-सम्बन्ध को नीचे दिए गए आंकड़ों से स्पष्ट किया जा सकता है। 1990 के दशक के द्वितीय अर्द्ध से विश्व निर्यात की औसत वार्षिक वृद्धि दर 5.5 प्रतिशत थी। यह दर 2000-05 की अवधि में बढ़कर 10.4 प्रतिशत हो गई। 2006 में यह दर 16.0 प्रतिशत पर आ गई। इस वृद्धि का मूल कारण था अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि | 2007 में जो वैश्विक वित्तीय संकट शुरू हुआ, वह 2008 में विश्व स्तर पर आर्थिक मन्दी के रूप में बदल गया। 2009 में विश्व उत्पत्ति में जो ह्रास हुआ, उसके फलस्वरूप विश्व व्यापार में काफी कमी हई। किन्त, विभिन्न देशों के निर्यात में समान रूप से हास नहीं हुआ, बल्कि भिन्न-भिन्न मात्रा में विश्व निर्यात में 2009 में 22.8 प्रतिशत के हास की तुलना में विकासशील देशो में 24.5 प्रतिशत, विकसित देशों में 17 प्रतिशत चीन के निर्यात में 15.9 प्रतिशत, भारत के निर्यात में 15.4 प्रतिशत का ह्रास हुआ।

वर्ष 2012 में विश्व व्यापार के परिमाण की वृद्धि दर 2.8% थी। इस वर्ष यह वृद्धि दर उन्नत अर्थ व्यवस्थाओं में 1.4% तथा उदीयमान और विकासशील अर्थ व्यवस्थाओं में 5.0% रही। इस दौरान जी व्यापार परिमाण की वद्धि दर 7.7% तथा भारत के व्यापार परिमाण की वृद्धि दर 7.7% रही। इसके बाद के वर्षों में विश्व व्यापार परिमाण में 5.3% क्रमशः वृद्धि होती गई। वर्ष 2014 में विश्व के 5.3% हो गई। इस वर्ष यह वृद्धि दर उन्नत अर्थ व्यवस्थाओं में 2.3% रही, जबकि उभरती और विकासशाल अर्थव्यवस्थाओं में यह वृद्धि दर 5.3% रही। इस वर्ष के दौरान चीन के विदेशी व्यापार के परिमाण दर 7.3% तथा भारत के विदेशी व्यापार के परिमाण की वृद्धि दर 6.4% रही। विश्व निर्यात में भारत के निर्यात का हिस्सा 2000 तथा 2001 में 0.7 प्रतिशत रहा था। 2006 में यह बढ़कर 1.0 प्रतिशत तथा बाद के दो वर्षों में अर्थात 2007 तथा 2008 में यह हिस्सा 1.1 प्रतिशत हो गया। मादा क बावजूद 2009 में भारत के निर्यात का हिस्सा विश्व निर्यात में बढ़कर 1.2 प्रतिशत हा गया। इस वाद्ध का कारण यह था कि भारत के निर्यात में 2009 में विश्व निर्यात में हास (-22.8 प्रतिशत) का तुलना में कम ह्रास (-15.4 प्रतिशत)। अक्टूबर 2008 से सितम्बर 2009 के बारह मास की अवधि में भारत के निर्यात में लगातार ह्रास (ऋणात्मक वृद्धि) होता रहा। अक्टूबर 2009 से भारतीय निर्यात में वृद्धि शुरू हुई। नवम्बर 2009 से जून 2010 तक निर्यात की औसत मासिक वृद्धि दर 32.9 प्रतिशत रही। इसा समय घरेलू आर्थिक कियाओं में वृद्धि तथा तेल की कीमत के ऊपर चढ़ने के कारण भारतीय आयात में आसत मासिक श्राद्ध दर काफी तगड़ी रही-47.9 प्रतिशत दिसम्बर 2009 से जून 2010 की अवधिमा

वर्ष 2011 में विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा 1.7%, वर्ष 2012 में 1.6% तथा वर्ष 2013 में पुनः 1.7% रहा। भारत के निर्यातों में वित्तीय संकट के पूर्व के पांच वर्षों (2003-2007) में 30.1% की जबरदस्त वृद्धि हुई थी जिसके बाद वित्तीय संकट के बाद के पांच वर्षों (2009-2013) में 16.0% की मंद वृद्धि हुई।

विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा 2015 में 1.6% तथा 2016 में पुनः 1.7% हो गया।

इसी तरह सम्पूर्ण विश्व के वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात में भारत का अंश वर्ष 2011 में 1.9%, 2012 में 1.9%, 2013, 2014 तथा 2015 में 2.0% रहा।

विश्व निर्यात में भारतीय निर्यात की तुलना में चीन की स्थिति काफी अधिक मजबूत है। 1993 में विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा मात्र 0.6 प्रतिशत था। 2000 में यह बढ़कर 0.7 प्रतिशत हुआ, 2008 में 1.1 प्रतिशत, 2012 में 1.6% तथा 2016 में 1.7% हो गया। किन्तु, चीन का हिस्सा 2000 में 3.9 प्रतिशत से बढ़कर 2008 में 8.9 प्रतिशत, 2012 में 11.3% तथा 2013 में 11.8% हो गया। हांगकांग, मलेशिया, सिंगापुर तथा कोरिया जैसे छोटे-छोटे देशों के निर्यात का भी हिस्सा विश्व निर्यात में भारत से काफी अधिक है। भारत की तुलना में अन्य उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों (चीन सहित) ने विकास की निर्यातोन्मुखी रणनीति को पहले ही अपनाया। भारत ने इसमें काफी देर की।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 विकासशील देशों की विदेशी व्यापार सम्बन्धी समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डालिए।

[संकेत—पहले तो संक्षेप में यह समझाइए कि विश्व व्यापार का किसी अर्थ व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है। फिर यह बताइए कि विकासशील देशों को कुछ विशेष कारणों से विश्व व्यापार के फलस्वरूप कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का उल्लेख कीजिए जैसे प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन, निर्यात संवर्धन की समस्याएं, व्यापार की शर्तों का प्रभाव, आदि।

2. किसी अर्द्ध-विकसित देश के आर्थिक विकास पर, विश्व व्यापार का क्या प्रभाव पड़ता है? पूर्ण रूप से समझाइए।

[संकेतइस प्रश्न के उत्तर में दो पक्षों को प्रस्तुत कीजिए। पहला पक्ष प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का है जिनके अनुसार विश्व व्यापार का विकासशील देशों के आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। दूसरे पक्ष में उन बिन्दुओं को स्पष्ट कीजिए जिनके अनुसार व्यापार से विकासशील देशों के आर्थिक विकास में बाधा पहुंची है।

3. क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि विश्व व्यापार ने अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में बाधा उपस्थित की है? तकपूर्ण ढंग से समझाइए।

[संकेत—यह स्पष्ट कीजिए कि यद्यपि विश्व व्यापार से अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में बाधा तो उपस्थित हुई है किन्तु इसमें विकसित देशों की नीति के साथ, विकासशील देशों की कुछ सीमाएं भी उत्तरदायी है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 विश्व व्यापार एवं विकासशील देशों की समस्याएं संक्षेप में समझाइए।

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chetansati

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