BCom 1st Year Business Environment Collection Resources Indian Plans Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment India Economy Nature Structure Features Study Material Notes in hindi

भारतीय योजनाओं में संसाधन संग्रह

[COLLECTION OF RESOURCES IN INDIAN PLANS]

संसाधन संग्रह एवं योजना की वित्त व्यवस्था

योजना व्यय के लिए वित्तीय साधन जुटाने के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं

(1) वर्तमान राजस्व से शेष (Balance from current revenue);

(2) लोक उद्यमों का अधिशेष (Surpluses of public enterprises);

(3) उधार (Borrowings);

(4) अतिरिक्त संसाधनों का जुटाव (Additional resource mobilization);

(5) विदेशी सहायता (External assistance); एवं

(6) घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit financing)||

वर्तमान राजस्व से शेष (मद 1), लोक उद्यमों का अधिशेष (surpluses of public enterprises) तथा योजनकाल में नए उपायों द्वारा अतिरिक्त संसाधनों का जुटाव, तीनों को मिलाकर एक साथ “सार्वजनिक बचत” (Public Savings) कहा जाता है। ऐसी बचत की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें मुद्रास्फीति की न्यूनतम प्रवृत्ति पायी जाती है। इसलिए हमारे आयोजकों ने ऐसी आशा की थी कि यही योजना के लिए वित्त जुटाने में प्रमुख स्रोत रहेगा। अब यह देखा जाए कि वस्तुतः स्थिति कैसी रही। इसके लिए तालिका 1 की सहायता ली जाए।

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तालिका 44.1 से स्पष्ट है कि योजना व्यय का वित्त पोषण मुख्य रूप से घरेलू संसाधनों से ही हुआ ह। सबसे अधिक विदेशी सहायता (कल योजना व्यय का 28.23 प्रतिशत) तृतीय योजना में प्राप्त हुई। द्वितीय योजना में यह 22.48 प्रतिशत रही थी। प्रथम योजना तथा चौथी योजना से नौवीं योजना तक विदेशी सहायता 7.0 प्रतिशत से लेकर लगभग 13 प्रतिशत के बीच में रही। घरेलू संसाधनों में आन्तरिक उधार का हिस्सा सर्वाधिक रहा है। इसका न्यूनतम योगदान ततीय योजना में (24.62 प्रतिशत) रहा। सातवी, आठवीं, नौवीं तथा दसवीं योजनाओं में आन्तरिक उधार द्वारा 50 प्रतिशत से अधिक की वित्त व्यवस्था की गई। ग्यारहवीं योजना (2007-12) में इसका अनुमानित योगदान 39 प्रतिशत के लगभग रहा। अन्य योजनाओं में इस मद के द्वारा लगभग 31 प्रतिशत से 42.5 प्रतिशत का वित्त पोषण हुआ।

अतिरिक्त संसाधनों के जुटाव से तात्पर्य वैसे कोष से है जो सरकार तथा लोक उद्यम द्वारा उनके बजट के शेष के अतिरिक्त जुटाया जा सकता है। द्वितीय योजना से लेकर छठी योजना तक इस स्रोत का हिस्सा योजना व्यय का 22 से 34 प्रतिशत तक रहा। चालू राजस्व के शेष तथा अतिरिक्त संसाधनों के जुटाव द्वारा छठी योजना के सार्वजनिक क्षेत्र के व्यय के लिए इनका वास्तविक योगदान 31.5 प्रतिशत ही रहा। सातवीं योजना के अनुसार, इनके अंशदान में कमी के निम्न कारण थे :

(i) छटी योजना काल में मुद्रास्फीति का दबाव;

(ii) सामान्य सेवाओं की रख-रखाव लागत में वृद्धि तथा सरकारी कर्मचारियों को अतिरिक्त महंगाई भत्ता;

(iii) सरकार के राजस्व में वृद्धि दर का घटना ।

(iv) लागत वृद्धि द्वारा लोक उद्यमों के अतिरिक्त संसाधनों के जुटाव के प्रयास का निष्प्रभावी होना; तथा

(v) प्रतिरक्षा, ब्याज भुगतान तथा सब्सिडी जैसे कुछ वर्तमान व्यय के मदों में तेजी से वृद्धि।

इन्हीं कारणों से 1979-80 से ही केन्द्र के राजस्व बजट में घाटा होने लगा एवं यह लगातार बढ़ता रहा तथा राज्य के राजस्व बजट का अधिशेष कम होता गया। एक और बात ध्यान देने योग्य है। छठी योजना के दौरान भी केन्द्रीय लोक उद्यम पर्याप्त लाभ कमाने से असमर्थ रहे। सातवीं योजना के प्रथम वर्ष (1985-86) में स्थिति में कुछ सुधार हुआ तथा 1986-87 से लगातार सुधार हो रहा है। इस सम्बन्ध में राज्य उद्यमों की हालत बेहतर नहीं रही है। राज्यों के दो महत्वपूर्ण उद्यम-राज्य बिजली बोर्ड तथा राज्य सड़क परिवहन निगम लगातार नुकसान में चल रहे हैं। छठी योजना के मूल अनुमान के अनुसार उधार द्वारा 37.3 प्रतिशत योजना व्यय की वित्त व्यवस्था होनी थी, किन्तु इस मद द्वारा वस्तुतः 41.4 प्रतिशत वित्त जुटाया गया। उधार में जितनी वृद्धि होती है, व्याज के रूप में उसका भार उतना ही बढ़ता जाता है। इसलिए सातवीं योजना के मल अनमान में उधार पर निर्भरता थोड़ी कम (40.6 प्रतिशत) दिखायी गई है। किन्तु वास्तविकता यह है कि इस योजना में राजस्व बजट के बढ़ते घाटे तथा लोक उद्यमों के अधिशेष में कमी के कारण उधार की मात्रा मूल अनूमान 40.6 प्रतिशत से बढ़कर वास्तव में 55 प्रतिशत हो गया। घाटे की वित्त व्यवस्था की स्थिति भी बिगड गई—मूल अनुमान 7.8 प्रतिशत से बढ़कर वस्तुतः 17.0 प्रतिशत । यह देश की बिगडती हई राजकोषीय शनि का परिचायक है। आठवी योजना में यह स्थिति और बिगड़ गई। इस योजना के मल अनुमान में वर्तमान  राजस्व के शेष तथा अतिरिक्त संसाधनों के जुटाव द्वारा 35,005 करोड़ र जुटाना था अर्थात् समस्त ससाधनों का 8.5 प्रतिशत। किन्तु वास्तविकता यह रही कि इस मद में 57,123 अर्थात् 11.0 प्रतिशत का घाटा रहा। लोक उद्यमों के अधिशेष में भी कमी रही-34.0 प्रतिशत की जगह केवल 27.0 प्रतिशत। इन। कमियों को पूरा करने के लिए घरेलू उधार में वृद्धि हुई और यह 1992-97 के मध्य 75 प्रतिशत रहा। नौवीं। योजना (1997-2002) की अवधि में इस योजना के लिए संसाधनों को जुटाने में घरेलू उधार में सापेक्ष कमी हुई-आठवीं योजना (1992-97) के 68.0 प्रतिशत के स्थान पर नौवीं योजना में केवल 53.6 प्रतिशत। लोक उद्यमों के संसाधन का भी महत्व बढ़ा है-आठवीं योजना में 27.0 प्रतिशत से बढ़कर नौवीं योजना में 39.6 प्रतिशत । नौवीं योजना में घाटे की वित्त व्यवस्था तथा अतिरिक्त संसाधनों का जुटाव का योगदान शून्य रहा। दसवीं योजना के निवेश की वित्त व्यवस्था मुख्य रूप से दो स्रोतों पर निर्भर दिखती है—लोक उद्यमों का संसाधन (लगभग 38 प्रतिशत तथा लगभग करीब 60 प्रतिशत)। दोनों मिलकर 97% वित्त पोषण के स्रोत हैं। मात्र 3 प्रतिशत के लिए ही चालू राजस्व से शेष तथा विदेशी सहायता पर निर्भर करने का अनुमान है।

वस्तुतः दसवीं योजना में भी आठवीं एवं नौवीं योजनाओं की तरह चालू राजस्व से शेष ऋणात्मक रहा। उधार ही आज योजना की वित्त व्यवस्था में सर्वाधिक ऊंचे स्थान पर है। उधार के अन्तर्गत बाजार-गत उधार, लघु बचत, राज्य भविष्य निधि, वित्त संस्थाओं से आवधिक ऋण, आदि शामिल हैं। घरेलू ऋण में वृद्धि का प्रभाव ब्याज के भुगतान पर पड़ा। केन्द्र सरकार को 1971-76 के मध्य राष्ट्रीय आय का औसतन 1.6 प्रतिशत ब्याज के रूप में भुगतान करना पड़ा। 1980-85 में यह बढ़कर 2.5 प्रतिशत हो गया, 1985-90 में 3.38 प्रतिशत, 1991-97 की अवधि में 4.49 प्रतिशत, 2000-01 में 4.8 प्रतिशत तथा 2004-05 के बजट अनुमान में 4.2 प्रतिशत। अमरेश बागची का कहना है कि वर्तमान राजस्व चालू व्यय के लिए भी पर्याप्त नहीं होने के कारण, चालू व्यय के लिए भी उधार लेना पड़ रहा है। इस कारण हम “आन्तरिक उधार फन्दा” (Internal Debt Trap) जैसी स्थिति के निकट पहुंच गये हैं।

दीर्घकालीन राजकोषीय नीति में केन्द्रीय वित्त की ऐतिहासिक प्रवृत्ति का विश्लेषण किया गया। इस विश्लेषण में सर्वप्रथम ऐसा बताया गया कि विभिन्न योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र के व्यय में भारी वृद्धि हुई। केवल केन्द्रीय योजना व्यय 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय आय के लगभग 4 प्रतिशत से बढ़कर छठी योजना के अन्त में 8 प्रतिशत हो गया। इसकी वित्त व्यवस्था के लिए कर राजस्व में वृद्धि के साथ-साथ लोक उद्यमों के लाभ में वृद्धि करने की भरपूर कोशिश की गई। लोक उद्यमों के लाभ में जो वृद्धि 1987-88 तथा 1988-89 में हुई उसका प्रमुख कारण सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियां थीं। इन कम्पनियों के उत्पादन में छठी योजना में अत्यधिक वृद्धि हुई। सातवीं योजना की अवधि में भी यह स्थिति कायम रही। 1988-89 में केन्द्रीय लोक उद्यमों के 2,981 करोड़ ₹ के कुल लाभ में पेट्रोलियम क्षेत्र का योगदान 2,564 करोड़ र था। आर्थिक सर्वेक्षण 1993-94 के अनुसार 1981-82 तथा 1992-93 के मध्य लोक उद्यमों की लाभदायकता (Profitability) में कोई सुधार नहीं हुआ। इसकी माप सकल लाभ तथा नियुक्त पूंजी के अनुपात के रूप में होती है, किन्तु सकल लाभ (Gross Profit) 1990-91 में 11,102 करोड़ स्था तथा 1991-92 में 13,675 करोड र. किन्तु केन्द्रीय सरकार अपने गैर-योजना व्यय पर नियन्त्रण रखने में असमर्थ रही। फलतः यह व्यय जो 1983-84 में सकल राष्ट्रीय आय का 11.9 प्रतिशत था, 1991-92 में बढ़कर 16.3 प्रतिशत हो गया।

गैर-योजना व्यय में होने वाली तीव्र वृद्धि के कारण केन्द्रीय सरकार के राजस्व बजट में जो घाटा 1079-80 से शुरू हुआ वह बढ़ता ही चला जा रहा है। राज्य सरकारों के राजस्व बजट में भी 1987-88 से लगातार घाटा हो रहा है। छठी योजना काल में केन्द्रीय बजट का राजस्व घाटा राष्ट्रीय आय का 1.11 पतिशत था: सातवीं योजना में यह बढ़कर 2.58 प्रतिशत, 1990-91 में 3.5 प्रतिशत तथा भारतीय रिजर्व बैंक के वार्षिक प्रतिवेदन 1997-98 का कहना है कि इस वर्ष (1997-98) में बेचैन कर देने वाली एक

यह थी कि सकल घरेलू उत्पाद में राजस्व घाट का प्रतिशत बढ़कर 3.1 हो गया (1991-97 की अवधि औसत 296 प्रतिशत) जो 1980 के वर्षों के उत्तरार्द्ध में प्रचलित स्तर से अधिक था। वस्तुतः यह राजस्व घाटा और भी अधिक होता. यदि तेल कम्पनियों को जारी प्रतिभूतियों के सम्बन्ध में हए 12,984 करोड़ र क खर्च का प्रति समायोजन (Contra Adjustment) न किया जाता।

योजना की वित्त व्यवस्था के सन्दर्भ में सरकारी बजट की वर्तमान स्थिति का जो चित्र अमरेश बागची ने खींचा है वह उधत करने योग्य है :

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हमारी योजना अपर्याप्त सार्वजनिक बचत के दुष्चक्र में फंस गयी है। इससे अधिक, और अधिक उधार लेना पड़ रहा है। बजट घाटा बढ़ता जा रहा है तथा विनियोग के लिए शेष कम होता जा रहा है। आन्तरिक ऋण का भंवर, जिसमें सरकार फंसी दिखती है, उस समय और गम्भीर हो जाता है जब व्याज की वास्तविक दर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर से तेज हो जाती है। हमारी अब तक की राजकोषीय नीति एक बन्द गली में पहुंचती दीखती है। इससे उबार का रास्ता दिखाई नहीं पड़ता है।

1991-92 के केन्द्रीय बजट से सरकार ने कई उपाय किए ताकि केन्द्र सरकार का बजट घाटा कम किया जा सके। फलतः सकल राजकोषीय घाटा (gross fiscal deficit) जो 1990-91 में सकल राष्ट्रीय

आय का 8.33 प्रतिशत था, 1991-92 में घटकर 5.89 प्रतिशत तथा 1992-93 में 5.6 प्रतिशत हो गया। किन्तु इन दो वर्षों के बाद सरकार को इस घटती प्रवृत्ति को कायम रखने में सफलता नहीं मिली। 1993-94 में यह बढ़कर 7.43 प्रतिशत हो गया। 1994-95 से 1998-99 के मध्य यह 5 प्रतिशत से अधिक ही रहा। राजकोषीय घाटा से अधिक चिन्ता का विषय है राजस्व घाटा। 1980-81 में केन्द्रीय सरकार का राजस्व घाटा मात्र 1,715 करोड़ र था। 1990-91 में यह बढ़कर 18,562 करोड़ र हो गया, 2004-05 के संशोधित अनुमान में 85,165 करोड़ ₹ तथा 2005-06 के बजट में 95,312 करोड़ ₹। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में यह 1985-90 की अवधि में औसतन 2.58 प्रतिशत था, जबकि 1992-97/2001-02 की अवधि में औसतन 3.3 प्रतिशत । इसका यह अर्थ है कि 1991-92 में प्रारम्भ किये गये सुधारों का कोई विशेष प्रभाव राजस्व व्यय पर अंकुश लगाने में नहीं पड़ा है। बढ़ते राजस्व घाटे का अर्थ यह है कि (क) सरकार अपने चालू व्यय के ऊपर अनुशासन लगाने में असमर्थ रही है, (ख) आन्तरिक ऋण की वृद्धि गति में कोई कमी नहीं होगी, (ग) आन्तरिक ऋण पर ब्याज बढ़ता ही चला जाएगा तथा (घ) विकास व्यय के लिए कम वित्तीय साधन उपलब्ध होंगे।

राजकोषीय स्थिति को बिगड़ते देखकर भारत सरकार ने 2000 में एक समिति को गठित किया जिसका उद्देश्य राजकोषीय उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में एक अधिनियम को ड्राफ्ट करना था। इस दायित्व तथा बजट प्रबन्धन (FRBM) बिल दिसम्बर 2000 में प्रस्तुत किया। यह बिल 2003 में अधिनियम बन गया। इसे 6 जुलाई, 2004 से लागू किया गया। इस अधिनियम के अनुसार भारत सरकार को मार्च 2009 तक राजस्व घाटे को शून्य पर लाना था तथा मार्च 2008 तक राजकोषीय घाटा 3 प्रतिशत पर लाना था। यह लक्ष्य 2007-08 को ही पूरा कर लिया गया। इस वर्ष राजकोषीय घाटा GDP का 2.7 प्रतिशत हो गया, जबकि 2008-09 के बजट अनुमान में इसे 2.5 प्रतिशत पर ले आया गया। राज्यों के वित्त में भी इस तरह का सुधार हुआ।

केन्द्र तथा राज्यों के वित्त की सुधरती हालत के कारण ग्यारहवीं योजना (2007-12) में चाल राजस्व से शेष तथा लोक उद्यमों के संसाधन को इस योजना के व्यय के वित्त पोषण में विशेष ध्यान दिया गया। ऐसा अनुमान किया गया कि इस योजना के कुल व्यय 36,44,718 करोड़ का वित्त पोषण चाल राजस्व में शेष के द्वारा 28.5 प्रतिश तथा लोक उद्यमों के संसाधनों द्वारा लगभग 32.5 प्रतिशत से घटकर ग्यारहवीं योजना में 38.9 प्रतिशत हो गया। विदेशी सहायता की मात्रा शून्य रखी गई 2008 से वैश्विक वित्तीय और आर्थिक संकट ने भारत सरकार के बजट पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला तथा राजकोषीय घाटा 2008-09 के संशोधित अनुमान में बढ़कर 6.2 प्रतिशत हो गया तथा 2009-10 के बजट अनुमान इसे 6.8 प्रतिशत रखा गया। 2010-11 के वित्तीय वर्ष में कुछ सुधार देखा जा सकता है।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) का समग्र वित्त पोषण—बारहवीं योजना (2012-17) में चालू मूल्यों पर सार्वजनिक क्षेत्र का कुल परिव्यय 80,50,123 करोड़ र प्रस्तावित है। इस कुल परिव्यय में 43,33,739 करोड़ र केन्द्र सरकार द्वारा तथा 37,16,385 करोड़ र राज्यों द्वारा जुटाया जाएगा।

तालिका 2 : बारहवीं योजना की वित्त पोषण पद्धति

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स्रोत : बारहवीं योजना प्रपत्र : योजना आयोग

बारहवीं योजना के प्रस्तावित वित्तीय ढांचे में घरेलू संसाधनों का अंशदान शत-प्रतिशत है। इस योजना में विदेशी सहायता तथा घाटे की वित्त व्यवस्था से बचने का प्रयास किया गया है। इस योजना के परिव्यय में भी उधार एवं पूंजी प्राप्तियों का हिस्सा (45.96%) सबसे अधिक है। इस योजना में सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के संसाधन का हिस्सा 24.88% तथा चालू राजस्व से अतिरेक का हिस्सा 29.16% रहने की संभावना है।

बारहवीं योजना के सम्पूर्ण परिव्यय में केन्द्र का हिस्सा 53.8% तथा राज्यों का हिस्सा 46.2% रहने की संभावना है।

भारत की बारहवीं पंचवर्षीय योजना 31 मार्च, 2017 को पूरी होने के साथ ही देश में पंचवर्षीय योजनाओं की व्यवस्था समाप्त हो गई है। इसके स्थान पर नीति आयोग द्वारा 15 वर्षीय इण्डिया विजन प्रस्तुत किया गया है, जिसका उद्देश्य अगले 15 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार में तीन गुना तक वृद्धि करना है। इसकी वित्त व्यवस्था बजट के माध्यम से तथा विदेशी निवेश द्वारा की जाएगी।

प्रश्न

1 योजना के लिए संसाधन संग्रह की स्थिति का विवरण दें।

2. योजना व्यय की वित्त व्यवस्था के दो प्रमुख स्रोतों की विवेचना करें।

3. बारहवीं योजना के वित्त पोषण पर प्रकाश डालिए।

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