BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi

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(स) ऐतिहासिक लागत का वतमान क्रय शक्ति (Purchasing Power of Historical Cost)-चाल लागत विधि में। सम्बन्धित सम्पत्तियों के मूल्य सूचनाका आधार पर सम्पत्ति की मूल लागत में समायोजन किये जाते हैं किन्तु ऐसे सूचनांकों का मिलना कठिने है । इस कठिनाई को दूर करने के लिये ऐतिहासिक लागत की वर्तमान क्रय शक्ति का प्रयोग किया जाता है । इस विधि से सम्पत्ति की मूल या ऐतिहासिक लागत में समायोजन मुद्रा की वर्तमान क्रय शक्ति के आधार पर किया जाता है। मुद्रा की वर्तमान क्रय शक्ति सामान्य मूल्य सूचनांकों से ज्ञात की जाती है जोकि प्रत्येक दशिा में सरलता से उपलब्ध रहते हैं। इस प्रकार इस पद्धति में पहले सम्पत्ति में विनियोजित धन (अर्थात् सम्पत्ति की मूल लागत) की वर्तमान क्रय शक्ति ज्ञात की जाती है। यह सम्बन्धित वर्ष के मूल्य सूचनांक के आधार पर ज्ञात की जाती है। इसके पश्चात् सम्पत्ति के इस समायोजित मूल्य पर ह्रास की गणना की जाती है। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि ‘अ’ ने 2014 में एक मशीन ₹ 10,000 में क्रय की। यदि 2014 को आधार वर्ष मानते ‘हए 2018 का मूल्य सूचनांक 120 हो तो 2014 में विनियोजित ₹ 10,000 की क्रय शक्ति 2018 में ₹ 12,000 (120/100 x10,000) के बराबर होगी। अत: 2018 में ₹ 12.000 पर हास की गणना की जायेगी। इस प्रकार इस विधि में मुद्रा की क्रय शक्ति का ज्यों का त्यों बनाये रखने का प्रयत्न किया जाता है। लेकिन इस विधि से लेखों में अनिश्चितता बनी रहती है।

(द) प्रतिस्थापन के लिये आयोजन (Provision for Replacement)– यद्यपि उपरोक्त तीनों ही विधियाँ सम्पत्ति की मूल लागत के आधार पर ह्रास के आयोजन की विधि पर सुधार हैं, किन्तु इनसे लेखों में अनिश्चितता आ जाने का भय रहता है और ये साध्य और वस्तुपरक (objective) भी नहीं हैं। इस समस्या या सर्वोत्तम हल यह होगा कि सम्पत्ति पर हास और उसके प्रतिस्थापन की क्रियाओं को अलग-अलग रखा जाये। इस विधि में ह्रास का आयोजन परम्परागत विधि से (अर्थात् मूल लागत के आधार पर) किया जाता है तथा सम्पत्ति के प्रतिस्थापना की अतिरिक्त लागत (प्रतिस्थापना लागत और मूल लागत के अन्तर ) को पूरा करने के लिये सामान्य ह्रास के अतिरिक्त पृथक से एक आयोजन किया जाता है। यह आयोजन प्रतिस्थापना के लिये आयोजन कहलाता है। इससे एक ओर तो ह्रास की राशि निश्चित रहेगी और दूसरी ओर सम्पत्ति से प्रतिस्थापना के लिये | उचित व्यवस्था भी हो जायेगी। यदि सम्पत्ति की प्रतिस्थापना लागत से परिवर्तन आ जाता है तो उसके अनुसार प्रतिस्थापना आयोजन को भी समायोजित किया जा सकता है। प्रतिस्थापना के लिये आयोजन की राशि को लेखा-पुस्तकों में दिखलाने के निम्न दो विकल्प हैं ।

(1) इसे असाधारण अथवा अपवादात्मक लागत मानते हुए लाभ-हानि नियोजन खाते से चार्ज करना तथा इस राशि को चिट्ठे के दायित्व पक्ष में एक विशेष पूँजी संचिति खाता, जैसे सम्पत्तिा प्रतिस्थापना आयोजन खाता, में दिखलाना।

(2) इसे संचालन की वास्तविक लागत मानते हुए लाभ-हानि खाते में चार्ज करना तथा उपर्युक्त (1) की तरह दायित्व पक्ष में विशेष पूँजी संचिति के रूप में दिखलाना।

अधिकांश लेखापाल प्रथम दृष्टिकोण को अपनाते हैं। ध्यान रहे कि उपर्युक्त दोनों ही स्थितियों में सम्पत्ति की मूल लागत पर सामान्य ह्रास लाभ-हानि खाते से ही चार्ज किया जाता है तथा स्थायी सम्पत्ति को चिट्ठे में उसकी मूल लागत पर ही दिखलाया जा सकता है। इस अतिरिक्त ह्रास आयोजन का प्रभाव केवल इतना ही होता है कि संस्था के वितरण-योग्य लाभ का कुछ भाग पूंजी। संचिति में डाल देने से व्यवसाय की वास्तविक पूँजी में कटौती (depletion) का भय नहीं रहता क्योंकि इस आयोजन की सीमा तक व्यवसाय के लाभों का वितरण नहीं हो सकेगा।

(ii) स्कन्ध का चालू मूल्य पर परिवर्तन (Conversion of Stock to Current Prices)

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मूल्य-स्तर में परिवर्तन के समय लाभों की सही गणना के लिये यह आवश्यक है विक्रीत माल की लागत में स्कन्ध को उसके चालू मूल्य के अधिकतम निकट मूल्य पर दिखलाया जाये। इस समस्या के समाधान के लिये निम्न सुझाव दिये जाते हैं

(अ) लिफोपद्धति का प्रयोग–यदि विक्रीत माल का मूल्यांकन मूल लागत के आधार पर किया जाता है तो स्कन्ध का निर्गमन एवं मूल्यांकन लिफो पद्धति के आधार पर किया जाना चाहिये। यह पद्धति वित्तीय लेखा-विधि के अन्तर्गत मान्यता भी प्राप्त कर चुकी है। इस पद्धति के अन्तर्गत सबसे अन्त में आया माल सबसे पहले बिका या निर्गमित किया माना जाता है तथा अन्तिम स्कन्ध प्रारम्भिक क्रयों का अवशेष माना जाता है और उसका मूल्यांकन भी इन क्रयों के लागत-मूल्य पर ही किया जाता है। इस पद्धति में विक्रीत माल को अति शीघ्र ही क्रयों का भाग मानने के कारण विक्रीत माल की लागत अपने चाल मल्य के समान रहता है। अतः । व्यवसाय के लाभ मल्य स्तर के परिवर्तनों से बहत कम प्रभावित होते हैं। किन्त यह ध्यान रहे कि लिफो पद्धति के प्रयोग से विक्रीत माल की लागत सदैव ही चालू मूल्य के समान नहीं रहती। इसका कारण यह है कि यदि अन्तिम स्कन्ध प्रारम्भिक स्कन्ध से कम है तो

प्रारम्भिक स्कन्ध के मूल्य का एक भाग (जो कि ऐतिहासिक लागत पर होता है) लाभ निर्धारण में वर्ष की लागत में सम्मिलित हो जायेगा। अतः ऐसी स्थिति में बेचे गये माल की लागत में प्रयुक्त प्रारम्भिक स्कन्ध को चालू मूल्य पर लाना चाहिये तथा चिट्रे में। अन्तिम स्कन्ध को भी चालू मूल्य पर ही दिखलाना चाहिये।

(ब) प्रतिस्थापन लागतका प्रयोग-इस विधि में विक्रीत माल की लागत में स्कन्ध को उस मूल्य पर दिखलाया जाता है। जिस पर उसे बाजार से पुन: क्रय किया जा सके। यद्यपि यह विधि वित्तीय लेखा-विधि में सामान्य स्वीकृति नहीं प्राप्त कर सकती है, फिर भी बहुत से लेखापाल एवं अर्थशास्त्री इस विधि का प्रयोग वांछनीय मानते हैं।

पूर्ण-पुनर्मूल्यन लेखा-विधि

(Complete Revaluation Accounting)

मूल्य-स्तर में परिवर्तन की दशा में परम्परागत आधार पर तैयार किये गये वित्तीय विवरणों की तुल्यता समाप्त हो जाती है। क्योंकि इन विवरणों की मदें विभिन्न आकार के रुपयों में दी गयी होती हैं और ऐसे विवरणों में कोई विश्लेषक त्रुटिपूर्ण एवं भ्रमात्मक निष्कर्ष निकाल सकता है। किन्तु लेखों में निश्चितता व वस्तुपरता बनाये रखने के लिये इन्हें परम्परागत आधार पर तैयार करना आवश्यक होता है। इस समस्या के समाधान के लिये वित्तीय लेखापाल पूर्ण पुनर्मूल्यान लेखा-विधि का सुझाव देते हैं।

जे बैटी के शब्दों में “पूर्ण पनर्मल्यन लेखा-विधि सभी स्थायी सम्पत्तियों को चाल मल्यों पर समायोजित करती है और इसके अतिरिक्त चालू सम्पत्तियों की क्रय-शक्ति में हुई हानि (अथवा बढ़ोत्तरी) को ध्यान में रखते हुए पूँजी को अक्षुण्ण बनाये रखने को आश्वस्त करने का प्रयत्न करती है।”। इस विधि के अन्तर्गत संस्था के वार्षिक खाते मूल्य स्तर के परिवर्तनों को ध्यान किये बिना प्रचलित रीति से तैयार किये जाते हैं तथा मूल्य स्तर के परिवर्तनों को दिखलाने के लिये इनके अतिरिक्त पुरक विवरण (Supplementary Statements) भी तैयार किये जाते हैं।

I.A.S.C. ने भी पूरक विवरणों का ही सुझाव दिया है। इन पूरक विवरणों में भी वित्तीय विवरणों की विभिन्न मदों में मूल्य-स्तर के परिवर्तनों के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन करके उन्हें उसके चालू मूल्य पर दिखलाया जाता है। ध्यान रहे कि ये पूरक विवरण परम्परागत आधार पर तैयार किये गये वित्तीय विवरणों के स्थानापन्न न होकर उनके पूरक होते हैं।

आंशिक पुनर्मूल्यन लेखा-विधि और पूर्ण पुनर्मूल्यन लेखा-विधि में प्रमुख अन्तर यह है कि पहली पद्धति में केवल स्थायी सम्पत्तियों व उन पर ह्रास और स्कन्ध को चालू मूल्यों पर लाया जाता है किन्तु दूसरी पद्धति में वित्तीय विवरणों की समस्त मदों को चालू मूल्यों पर लाया जाता है तथा इन्हें दिखलाने के लिये परम्परागत वित्तीय विवरणो के अलावा पूरक विवरण तैयार किये जाते हैं।

पूरक विवरणों की तैयारी (Preparation of Supplementary Statements)-इसकी निम्न मान्य विधियाँ हैं

(1) चालू क्रय शक्ति पद्धति (Current Purchasing Power Method)

(2) पुनस्र्थापन लागत लेखा-विधि पद्धति (Replacement Cost Accounting Method)

(3) चाल मूल्य लेखा-विधि पद्धति (Current Value Accounting Method)

(4) स्थिर रूपया लेखा-विधि पद्धति (Constant Rupee Accounting Method)

(5) चालू लागत लेखा-विधि पद्धति (Current Cost Accounting Method)

(1) चालू क्रय शक्ति पद्धति (Current Purchasing Power or C.P.P. Method)

इस पद्धति को सामान्य मूल्य-स्तर लेखा-विधि (General Price Level Accounting) अथवा समान रुपया लेखा-विधि (Common Rupee Accounting) भी कहते हैं। इस विधि का प्रादुर्भाव मई 1974 में ब्रिटेन के इन्स्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टैन्ट्स ने किया। इसके अन्तर्गत चिट्टा और आय विवरण की समस्त मदों को चालू रुपये की क्रय शक्ति ( Purchasing Power of Currrent Rupee ) में परिवर्तित करके दिखलाया जाता है ।  और इस प्रकार वित्तीय विवरणों पर मुद्रा की समान्य क्रय शक्ति  में परिवर्तन के प्रभावों को दूर किया जाता है ।  इससे किसी मद विशेष के मूल्य की वास्तविक वृद्धि या गिरावट की उपेक्षा की जाती है । वित्तीय विवरणों को चालू रुपये की क्रय शक्ति पर लाने के लिये किसी प्रचलित और स्वीकृत सामान्य मूल्य निर्देशांकों (General Price Index Number) का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिये भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा प्रकाशित थोक मूल्य सूचकांक को इसके लिये प्रयोग किया जाता है। इसके पश्चात् वित्तीय विवरणों की मदा। का विश्लेषण करके उनके उदय (origination) के समय का पता लगाया जाता है ताकि उस समय के सामान्य मूल्य-स्तर की तलना चालू मूल्य-स्तर में आये परिवर्तन के आधार पर इन मदों को समायोजित किया जा सके।

पूरक वित्तीय विवरणों की तैयारी में मौद्रिक मदों (Monetary Items) और अमौद्रिक मदों (Non-Monetary Items) के बीच भेद किया जाता है।

(अ) मौद्रिक मदें-ये वे मदें होती है जिनकी राशियाँ मूल्य स्तर में परिवर्तनों पर ध्यान दिये बिना किसी समझौते द्वारा अथवा किसी अन्य प्रकार से मौद्रिक इकाई में (अर्थात् रुपया में) निश्चित होती है। इन मदों की देय या प्राप्त राशियों पर सामान्य मूल्य स्तर में परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। प्राय: ये मदें चालू वर्ष के लेन-देनों का परिणाम होती हैं। इन मदों में रोकड़, शेष, देनदार, ऋणपत्रों में विनियोग, प्राप्त बिल, अदत्त व्यय, पूर्वदत्त व्यय आदि (अर्थात् स्कन्ध को छोड़कर समस्त चालू सम्पत्तियों), सभी चालू दायित्व और ऋणपत्र या ऋणपूँजी व शोध्य पूर्वाधिकार अंश पूँजी सम्मिलित हैं। ये सभी मदें अपने चालू मुद्रा मूल्य पर ही दिखाई गई होती है, अत: इनमें किसी प्रकार का समायोजन करने की आवश्यकता नहीं होती है।

सामान्य मूल्य-स्तरों में परिवर्तन पर मौद्रिक मदों के धारण से संस्था पर पढ़ने वाले प्रभाव को लाभ-हानि खाते में पृथक से दिखलाया जाता है। मुद्रा प्रसार के काल में मौद्रिक सम्पत्तियों के धारकों को हानि होती है क्योंकि इन सम्पत्तियों से वसूल होने वाली राशि तो निश्चित होती है किन्तु मुद्रा मूल्य की गिरावट के फलस्वरूप इस वसूल की गयी धनराशि की क्रय-शक्ति पहले से कम होती है। इसी तरह मौद्रिक दायित्वों के धारकों को इस काल में लाभ होता है क्योंकि इन पर भुगतान की जाने वाली धनराशि की क्रय शक्ति उस समय से कम होती है जिस समय ये ली गई थीं।

मौद्रिक मदों के धारण से लाभ-हानि की गणना के लिये निम्न प्रक्रिया अपनानी चाहिये

(i) चालू वर्ष के प्रारम्भ के मौद्रिक दायित्वों को प्रारम्भिक निर्देशांक के आधार पर तथा वर्ष में हुई इनमें वृद्धि को औसत निर्देशांक के आधार पर परिवर्तित करते हैं। यदि औसत निर्देशांक की सूचना नहीं है तो वर्ष में हुई वृद्धि की निरपेक्ष राशि को ध्यान में रखते हैं। इन दोनों के परिवर्तित मूल्य के योग से चालू वर्ष के अन्त में मौद्रिक दायित्वों के मूल्य को घटा देने पर मौद्रिक दायित्वों के धारण से लाभ (Gains) की राशि ज्ञात की जाती है।

(ii) उक्त की भाँति चालू वर्ष के प्रारम्भ की मौद्रिक सम्पत्तियों को प्रारम्भिक निर्देशांक के आधार पर तथा वर्ष में हुई इनमें वृद्धि को औसत निर्देशांक के आधार पर परिवर्तित करके इनके योग से चालू वर्ष के अन्त में मौद्रिक सम्पत्तियों के मूल्य को घटाकर मौद्रिक सम्पत्तियों के धारण से हानि की राशि ज्ञात की जाती है।

(iii) उक्त (i) और (ii) का अन्तर ही शुद्ध मौद्रिक लाभ या हानि (Net Monetary Gain or Loss) होता है।

(ब) अमौद्रिक मदें-ये वे होते हैं जिनके मूल्य सामान्य मूल्य-स्तर में परिवर्तन या परिवर्तित होते जाते हैं। अत: यह माना जाता है कि मुद्रा की क्रय-शक्ति के परिवर्तनों से इन सम्पत्तियों के धारकों को न तो कोई लाभ होता है और न कोई हानि। इन मदों में स्कन्ध, स्थायी सम्पत्तियाँ, समता अक्ष पूँजी आदि सम्मिलित होते हैं। पूरक विवरणों में इन मदों को विवरण की तिथि पर चालू मुद्रा के आधार पर पुनर्णित (restate) करके दिखलाया जाता है।

chetansati

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