BCom 2nd Year Memorandum Articles Association Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Memorandum Articles Association Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Memorandum Articles Association Study Material notes in Hindi: Forms of Memorandum of Association Subject matter Clauses or Contents of Memorandum of Association Declaration by the Applicant Importance of Memorandum of Association Alteration in Memorandum of Association Contents of Articles of Association Effect of Articles Alteration Procedure Distinction Between Memorandum and Articles of Association  Doctrine of Ultra Vitres Important Examination Question Long Answer Questions Short Answer Questions :

Memorandum Articles Association
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BCom 2nd year Formation Company Incorporation Commencement business Study Material Notes In Hindi

पार्षद सीमानियम एवं अन्तर्नियम

(Memorandum and Articles of Association)

पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जो कम्पनी का समामेलन कराते समय अनिवार्य रूप से रजिस्ट्रार को प्रस्तुत करना पड़ता है। इसके बिना किसी भी कम्पनी का समामेलन नहीं हो सकता। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे कम्पनी का चार्टर अथवा विधान भी कहते हैं। इसे ‘स्मृति पत्र’, ‘स्मृति ज्ञापन’, ‘स्मारक पत्र’ अथवा ‘ज्ञापन पत्र’ के नाम से भी पुकारते हैं। इस प्रलेख में कम्पनी के कार्य-क्षेत्र, उद्देश्य, पूँजी व दायित्वों एवं अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख होता है। इसके बाहर किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ माना जाता है, अत: इसे पर्याप्त सावधानी के साथ तैयार करना चाहिए।

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कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (56) के अनुसार, “सीमानियम से आशय एक कम्पनी के ऐसे पार्षद सीमानियम से है जो पिछले कम्पनी अधिनियमों अथवा इस अधिनियम के अधीन मूल रूप से बनाया गया अथवा समय-समय पर परिवर्तित किया गया है।” (यह परिभाषा सीमानियम की विशेषताओं व स्वभाव को स्पष्ट नहीं करती है, केवल वैधानिक पक्ष पर ही जोर देती है।)

लार्ड केयर्न्स के अनुसार, “सीमानियम कम्पनी का आज्ञा-पत्र (Charter) होता है एवं यह अधिनियम के अधीन स्थापित कम्पनी के अधिकारों की सीमा का उल्लेख करता है।”

लार्ड सेलबोर्न के अनुसार, “सीमानियम कम्पनी का महत्वपूर्ण एवं अपरिवर्तनीय विधान है। कम्पनी का समामेलन केवल उन्हीं उद्देश्यों के लिए होता है जो सीमानियम में उल्लेखित हैं।”3

लार्ड मैकमिलन के अनुसार, “सीमानियम का कार्य अंशधारियों, ऋणदाताओं एवं कम्पनी के साथ व्यवहार करने वाले अन्य व्यक्तियों को कम्पनी के सम्पूर्ण कार्य-क्षेत्र के बारे में जानकारी प्रदान करना  हैं ।

निष्कर्षउपर्युक्त परिभाषा “पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक आधारभूत प्रलेख है जो उसके उद्देश्यों को परिभाषित करता है तथा इसके कार्य-क्षेत्र एवं अधिकारों की सीमायें निर्धारित करता है।

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पार्षद सीमानियम के प्रारूप धारा 4 एवं 51

(Forms of Memorandum of Association)

कम्पनीज अधिनियम, 2013 की अनुसूची प्रथम की तालिका A, B, C, D तथा E में कम्पनियों के लिए पार्षद सीमानियम के आदर्श प्रारूप दिये हुए हैं। __विभिन्न प्रकार की कम्पनियों के लिए बनाये जाने वाले पार्षद सीमानियम का प्रारूप निम्न प्रकार होगा

तालिक कम्पनी
A अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी
B गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी (अंश पूँजी रहित)
C गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी (अंश पूँजी रहित)
D असीमित दायित्व वाली कम्पनी (अंश पूँजी रहित)
E असीमित दायित्व वाली कम्पनी (अंश पूँजी रहित)

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पार्षद सीमानियम तैयार करते समय ध्यान देने योग्य बातें।

(Factors To Be Considered While Preparing Memorandum of Association)

(1) पार्षद सीमानियम का प्रारूपपार्षद सीमानियम का प्रारूप कम्पनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची प्रथम में दिये गये आदर्श प्रारूप के अनुरूप हो अथवा परिस्थितिनुसार यथा सम्भव उसके अनुरूप होना चाहिए।

(2) मुद्रित होनापार्षद सीमानियम का मुद्रित (Printed) होना आवश्यक है।।

(3) अनुच्छेदों में विभाजितपार्षद सीमानियम पैराग्राफ में बँटा होना चाहिए।

(4) पैराग्राफ पर क्रम संख्या का अंकित होना-प्रत्येक पैराग्राफ पर क्रम संख्या अंकित होनी चाहिए।

(5) हस्ताक्षरित प्रमाणितसीमानियम पर प्रत्येक प्राथमिक सदस्य (Subscriber) के हस्ताक्षर होने चाहिये और इसके साथ ही अपना पूरा पता, विवरण और पेशा भी लिख देना चाहिए। प्रत्येक हस्ताक्षर कम से कम एक साक्षी (गवाह) द्वारा प्रमाणित भी होना चाहिए। गवाह का पता, विवरण व पेशा भी लिखा जाना चाहिए।

(6) हस्ताक्षरकर्ताओं की संख्यासार्वजनिक कम्पनी की दशा में कम से कम सात और प्राइवेट कमपनी की दशा में कम से कम दो सदस्यों को पार्षद सीमा नियम पर हस्ताक्षर करने होते हैं। सदस्यों के स्थान पर उनके अधिकृत एजेन्ट भी पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर कर सकते हैं।

(7) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में लाभों में भाग लेने का अधिकार नहीं-यदि गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी (जिसके पास अंश पूँजी नहीं है) के पार्षद सीमा नियम में कोई प्रावधान जो किसी व्यक्ति को सदस्य के रूप के अतिरिक्त कम्पनी के लाभों में भाग लेने के अधिकार का आशय प्रकट करता है तो ऐसा प्रावधान व्यर्थ (Void) होगा। पार्षद सीमानियम पर स्टाम्प ड्यूटी भी लगती है जो विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है।

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पार्षद सीमानियम की विषयसामग्री या वाक्य

(Subject-Matter, Clauses or Contents of Memorandum of Association)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 4 के अनुसार पार्षद सीमानियम के वाक्यों या विषय-सामग्री में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है

(1) नाम वाक्य (Name Clause) प्रत्येक कम्पनी के पार्षद सीमानियम के प्रथम वाक्य में कम्पनी के नाम का उल्लेख किया जाता है। कम्पनी वैधानिक व्यक्ति होने के कारण पहचान हेतु इसका कोई न कोई नाम होना आवश्यक है। सैद्धान्तिक रूप में कम्पनी अपनी इच्छानुसार कोई भी नाम रख सकती है, किन्तु यह नाम किसी पूर्व पंजीकृत (Registered) कम्पनी से मिलता जुलता तथा केन्द्रीय सरकार की दृष्टि से अवांछनीय नहीं होना चाहिये। इसके साथ-साथ सार्वजनिक कम्पनी (जो कि अंशों अथवा गारण्टी द्वारा सीमित है) को अपने नाम के अन्त में ‘लिमिटेड’ शब्द तथा एक निजी कम्पनी को ‘प्राइवेट लिमिटेड’ शब्द लिखना आवश्यक है।

कम्पनी के पंजीयन के बाद पार्षद सीमानियम में दिये गये नाम को कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय तथा कारोबार के स्थान के बाहर लिख कर या नाम पट्ट पर सुस्पष्ट लिखकर टाँगा जाना चाहिए। ऐसा नाम अंग्रेजी अथवा प्रादेशिक भाषा में या सामान्य प्रचलित भाषा में लिखा होना चाहिए। इसके अतिरिक्त कम्पनी के बिलों, सूचना पत्रों, विनिमय साध्य विलेखों, रसीदों, व्यापारिक-पत्रों पर भी कम्पनी का नाम स्पष्ट शब्दों में अंकित होना चाहिए।

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आवेदक द्वारा घोषणा (Declaration by the Applicant)

कम्पनी (समामेलन) नियम 2014 के अनुसार जब भी आवेदक डिजीटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र (DSE) का प्रयोग करते हुए निर्धारित e-form-1A पर कम्पनी के नाम के लिये आवेदन करेगा, उसे निम्नलिखित से सम्बन्धित घोषणा करनी होगी कि

(i) उसने निगमित मामलों में मंत्रायल के वेब पोर्टल अर्थात् www.mca.gov.in/mca21 पर। उपलब्ध खोजने की सुविधा का प्रयोग किया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कम्पनी का प्रस्तावित नाम, पहले से ही पंजीकृत या पहले से ही अनुमोदित किसी कम्पनी अथवा सीमित दायित्व साझेदारी से मिलता जुलता नहीं है।

(ii) प्रस्तावित नाम ट्रेड मार्क अधिनियम, 1999 का उल्लंघन नहीं करता तथा पहले से ही पंजीकटेडमार्क या पंजीकरण के लिये आवेदित ट्रेड मार्क से मिलता जुलता नहीं है।

(iii) समय-समय पर संशोधित “चिन्ह एवं नाम (निरोधक एवं अनुचित प्रयोग) अधिनियम 1950” के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं करता।

(iv) प्रस्तावित नाम व्यक्तियों के किसी भी वर्ग के लिए अप्रिय नहीं है।

(v) उसने इन नियमों के अधीन दिये गए सभी दिशा निर्देशों को न कवल समझ लिया है बल्कि उनका पालन भी किया है, तथा प्रस्तावित नाम इन दिशा-निर्देशों के अनरूप हैं।

(vi) इसके बाद यदि पाया जाता है कि वह नाम निर्धारित दिशा-निर्देशों के विरुद्ध हैं. तो वह इससे सम्बन्धित परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा।

(2) रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य या स्थान वाक्य (Registered Office Clause or Domicile Clause) [धारा 4 (1) (b) एवं धारा 12]—इस वाक्य में कम्पनी को उस राज्य का नाम लिखना होता है. जहाँ कम्पनी का प्रधान कार्यालय स्थित होगा। यह वह स्थान होता है जहाँ कम्पनी के समस्त रिकार्ड रखें। जाएंगे तथा प्रधान कार्यालय की स्थिति के आधार पर ही कम्पनी का न्याय क्षेत्र निर्धारित होता है। यहाँ पर यह ध्यान देना आवश्यक है कि पार्षद सीमानियम में कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय का पता नहीं लिखा जाता, बल्कि उस राज्य का नाम लिखा जाता है जिसमें रजिस्टर्ड ऑफिस स्थापित किया जाएगा। जैसे यदि एक कम्पनी का रजिस्टर्ड कार्यालय गाजियाबाद में रखा जाएगा तो पार्षद सीमानियम में गाजियाबाद का पता न लिखकर उत्तर प्रदेश लिखा जाएगा। प्रत्येक कम्पनी इसके समामेलन के 15वें दिन

और उसके बाद सभी समय एक पंजीकृत कार्यालय रखेगी, जो सभी सन्देश और सूचनाओं को जो उक्त कम्पनी को सम्बोधित की जाए, प्राप्त करने और उनकी पावती (Acknowledgement) देने के योग्य है। इसके अतिरिक्त समामेलन के 30 दिन के अन्दर कम्पनी रजिस्ट्रार को ऐसे ढ़ग से, जैसा निर्दिष्ट हो, कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय का सत्यापन कराना आवश्यक है।

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(3) कम्पनी का उद्देश्य वाक्य (Objects Clause)-उद्देश्य वाक्य किसी भी कम्पनी के पार्षद सीमानियम का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाक्य है, जिसमें कम्पनी के उद्देश्यों का विवरण होता है तथा यह कम्पनी के कार्यक्षेत्र की सीमा भी निर्धारित करता है जिनके बाहर कम्पनी कोई भी कार्य नहीं कर सकती। उद्देश्य वाक्य से बाहर किया गया प्रत्येक कार्य व्यर्थ होता है। वस्तुत: उद्देश्य वाक्य में कम्पनी के उद्देश्यों का वर्णन होता है जो यह समामेलित होने के बाद करेगी और उन बातों का वर्णन होता है जो उद्देश्य वाक्य में उल्लिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। एक कम्पनी को अपना उद्देश्य चुनने का पूर्ण अधिकार है, परन्तु यह अवैध, गैर-कानूनी, सार्वजनिक नीति के विरुद्ध या कम्पनी अधिनियम के विरूद्ध नहीं होना चाहिए। उद्देश्य वाक्य से बाहर किया गया प्रत्येक कार्य व्यर्थ होता है। इसके साथ-साथ इसमें परिवर्तन करना भी काफी कठिन होता है, अत: इसके बनाने में पर्याप्त दूरदर्शिता एवं सतर्कता से काम लेना चाहिये। इसके साथ-साथ इसमें परिवर्तन करना भी काफी कठिन होता है, अत: इसके बनाने में पर्याप्त दूरदर्शिता एवं सतर्कता से काम लेना चाहिये।

(4) दायित्व वाक्य (Liability Clause) यह वाक्य कम्पनी के सदस्यों (अंशधारियों) के दायित्व को बताता है। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 4 के अनुसार, “प्रत्येक अंश द्वारा या गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के पार्षद सीमानियम में इस बात का उल्लेख अवश्य होना चाहिए कि उसके सदस्यों का दायित्व सीमित है।”

अंशों द्वारा सीमित कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा धारित अंशों की अदत्त राशि तक सीमित होता है जबकि गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा प्रदत्त गारण्टी की राशि तक सीमित होता है।

यहाँ पर यह ध्यान रखना होगा कि असीमित दायित्व वाली कम्पनी के पार्षद सीमानियम में दायित्व वाक्य नहीं होता।

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(5) पूँजी वाक्य (Capital Clause) [धारा 4(1) (e)] (i) प्रत्येक अंश पूँजी वाली कम्पनी (असीमित दायित्व वाली कम्पनी को छोड़कर) के पार्षद सीमानियम में यह भी लिखा होना चाहिए कि कितनी अंश पूँजी से कम्पनी का रजिस्ट्रेशन किया जायेगा और यह पूँजी एक निश्चित रकम वाले कितने अंशों में बंटी हुई है। अंशों की विभिन्न श्रेणियों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है क्योंकि यह जानकारी पार्षद अन्तर्नियम में दी जाती है।

(ii) अभिदाताओं (Subscribers) द्वारा लिये जाने वाले अंशों की संख्या का वर्णन उनके नाम के

कम्पनी सन्नियम सामने होता है जो एक अंश से कम नहीं होगा।

(iii) एक व्यक्ति वाली कम्पनी की दशा में, उस व्यक्ति का नाम दिया जायेगा जो अभिदाता की मृत्यु होने पर कम्पनी का सदस्य बन जायेगा।

(6) संघ तथा हस्ताक्षर वाक्य (Association and Signature Clause) यह सीमानियम का। अन्तिम वाक्य होता है। इस वाक्य में उन व्यक्तियों के हस्ताक्षर होते हैं जो कि कम्पनी बनाने को अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं। इसलिए इसे हस्ताक्षर वाक्य भी कहते हैं। इस वाक्य में कम्पनी बनाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति निम्नलिखित घोषणा करते हैं

हम सब व्यक्ति जिनके नाम पते नीचे दिये गये हैं इस बात के इच्छुक हैं कि हमको, इस सीमानियम के अन्तर्गत, कम्पनी के रूप में निर्मित कर दिया जाये तथा हम अपने नाम के सम्मुख लिखे हुए अंशों की संख्या भी कम्पनी की पँजी में से लेना स्वीकार करते हैं।

इस घोषणा के उपरान्त सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों के नाम, पते व अन्य विवरण तथा उनके द्वारा लिए जाने वाले अंशों की संख्या आदि लिखी जाती है और ये उसके सामने अपने-अपने हस्ताक्षर कर देते हैं। ये व्यक्ति कम्पनी के प्रथम सदस्य माने जाते हैं और प्रत्येक को न्यूनतम एक अंश लेना अनिवार्य है। सार्वजनिक कम्पनी के सीमानियम पर कम से कम 7 व्यक्तियों के तथा निजी कम्पनी के सीमानियम पर कम से कम 2 व्यक्तियों के हस्ताक्षर होना अनिवार्य है। ये हस्ताक्षर साक्षी (गवाह) द्वारा प्रमाणित होने चाहिये।

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पार्षद सीमानियम का महत्त्व

(Importance of Memorandum of Association)

पार्षद सीमानियम के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कम्पनी विधि विशेषज्ञ एस० एम० शाह ने लिखा है कि, “पार्षद सीमानियम एक ऐसा प्रलेख है जो कम्पनी के संविधान को निश्चित करता है और इसीलिए यह वास्तव में वह नींव या आधारशिला है जिस पर कम्पनी का ढाँचा आधारित होता है।” | पामर (Palmer) ने भी पार्षद सीमानियम को एक ‘अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रलेख’ कहा है। वास्तव में, इस प्रलेख का प्रत्येक कम्पनी के लिए विशेष महत्त्व है। पार्षद सीमा नियम का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है

  1. यह कम्पनी की स्थापना के लिए एक अनिवार्य प्रपत्र है।
  2. यह कम्पनी के समामेलन की आधारभूत शर्तों को स्पष्ट करता है।
  3. यह कम्पनी तथा बाहरी व्यक्तियों के सम्बन्ध को परिभाषित करता है।
  4. कम्पनी के उद्देश्य, कार्यक्षेत्र, अधिकार एवं शक्तियों को परिभाषित करता है।
  5. कम्पनी के पूँजी ढाँचे को स्पष्ट करता है।
  6. सीमानियम में परिवर्तन करना सरल कार्य नहीं है।
  7. यह कम्पनी के सदस्यों की जोखिमों का वर्णन करता है।
  8. उद्देश्य वाक्य के बाहर किया गया प्रत्येक कार्य व्यर्थ होता है।

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पार्षद सीमानियम में परिवर्तन

(Alteration In Memorandum of Association)

सामान्यतः पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक अपरिवर्तनशील अधिकार पत्र (Charter) कहलाता है, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसमें परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता। कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 13 में यह स्पष्ट किया गया है कि कोई भी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम में दी हई शर्तों में परिवर्तन केवल अधिनियम में दी हुई स्पष्ट दशाओं, निर्धारित तरीकों एवं निर्धारित सीमाओं के अतिरिक्त नहीं कर सकती है। इस प्रकार का परिवर्तन कुछ दशाओं में अंशधारियों के बहमत से, कुछ दशाओं में कम्पनी विधान मण्डल की अनुमति प्राप्त होने पर, कुछ दशाओं में केन्द्रीय सरकार की सहमति प्राप्त करके और साथ में कम्पनी के सदस्यों की सभा में आवश्यक प्रस्ताव पारित होने पर ही किया जा सकता है। पार्षद सीमानियम के विभिन्न वाक्यों (Clause) को निम्नलिखित प्रकार परिवर्तित किया जा सकता है

(1) नाम वाक्य में परिवर्तन (Change in Name Clause) कम्पनी के नाम में कोई परिवर्तन धारा 4 की उप-धारा (2) और (3) के प्रावधानों के अनुसार होगा एवं केन्द्र सरकार की लिखित अनुमति के बिना प्रभावी नहीं होगा परन्तु ऐसी अनुमति आवश्यक नहीं होगी जहाँ नाम में केवल उससे ‘निजी’ शब्द को जोडने अथवा हटाने के सम्बन्ध में है जो एक कम्पनी को दूसरी कम्पनी में परिवर्तित करने के कारण इस अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत हुआ है।

जहाँ उप-धारा (2) के अन्तर्गत नाम में परिवर्तन किया जाता है तो.रजिस्ट्रार कम्पनी रजिस्टर में पुराने नाम के स्थान पर नया नाम लिख देगा और नए नाम के साथ एक नया समामेलन का प्रमाण-पत्र जारी करेगा। नाम में परिवर्तन केवल ऐसा प्रमाण-पत्र जारी करने पर पूर्ण एवं प्रभावी होगा।

केन्द्रीय सरकार के निर्देश पर कम्पनी के नाम को ठीक करना (धारा 16)—यदि भूल या अन्य कारण से पहली बार या नये नाम से कम्पनी का पंजीकरण किसी ऐसे नाम से हो जाए जो सरकार की राय में विद्यमान कम्पनी के नाम जैसा है या उससे अधिक मिलता-जुलता है तो केन्द्र सरकार, कम्पनी को नाम में परिवर्तन करने का निर्देश दे सकती है और कम्पनी ऐसे निर्देश के जारी होने के तीन माह में एक साधारण प्रस्ताव पारित करके इसका नाम या नया नाम बदल लेगी, जैसी भी स्थितित हो।

(2) रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य में परिवर्तन (Change in Registered Office Clause) [धारा 12] —इस वाक्य में परिवर्तन की निम्नलिखित तीन दशायें हो सकती हैं

(i) एक कम्पनी अपने रजिस्टर्ड कार्यालय को एक ही शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है तो इसे पार्षद सीमानियम का परिवर्तन नहीं माना जाता है। इसके लिए केवल संचालक मण्डल द्वारा प्रस्ताव पास किया जाता है तथा इसकी सूचना 30 दिन के अन्दर रजिस्ट्रार को दी जाती है।

(ii) एक ही राज्य में एक स्थान से दूसरे स्थान पर रजिस्टर्ड कार्यालय ले जाना चाहती है तो कम्पनी को इसके बारे में विशेष प्रस्ताव पास करना पड़ेगा एवं ऐसे परिवर्तन हेतु क्षेत्रीय निदेशक द्वारा परिवर्तन की पुष्टि अनिवार्य होगी। इसके लिए कम्पनी निर्धारित प्रारूप में क्षेत्रीय निदेशक (Regional Director) को एक प्रार्थना-पत्र देगी एवं प्रार्थना-पत्र प्राप्त करने के तिथि से 30 दिन (चार सप्ताह) के अन्दर क्षेत्रीय निदेशक द्वारा पुष्टिकरण की सूचना दी जाएगी।

(iii) एक राज्य से दूसरे राज्य में रजिस्टर्ड कार्यालय ले जाना-यदि कम्पनी अपने रजिस्टर्ड कार्यालय को एक राज्य से दूसरे राज्य में किसी स्थान पर ले जाना चाहती है तो एक विशेष प्रस्ताव इसके लिए पास कराया जाता है और केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है। केन्द्र सरकार उप-धारा (4) के अन्तर्गत प्रार्थना-पत्र का 60 दिन के अन्दर निपटान कर देती है, परन्तु कार्यालय परिवर्तन की आज्ञा देने से पूर्व इस बात की पूर्ण सन्तुष्टि कर लेती है कि प्रस्तावित परिवर्तन का लेनदारों एवं ऋण-पत्रधारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा तथा लेनदारों एवं ऋण-पत्रधारियों की लिखित सहमति प्राप्त कर ली गई है और सहमति न मिलने पर उनके ऋणों का भुगतान अथवा उन्हें सन्तुष्ट कर दिया गया है।

इसके पश्चात् केन्द्रीय सरकार द्वारा उक्त परिवर्तन को अनुमोदित करने के आदेश की प्रमाणित प्रति एवं विशेष प्रस्ताव की प्रतिलिपि सम्बन्धित कम्पनी द्वारा निर्दिष्ट समय तथा प्रारूप में दोनों राज्यों के रजिस्टार के पास फाइल की जाती है, जो इसे पंजीकृत करते हैं एवं जिस राज्य में पंजीकृत कार्यालय स्थानान्तरित किया जा रहा है उस राज्य का रजिस्ट्रार परिवर्तन प्रकट करते हुए समामेलन का नया प्रमाण-पत्र जारी करेगा।

अन्त में, रजिस्टर्ड कार्यालय परिवर्तित नये स्थान पर स्थानान्तरित कर दिया जायेगा तथा स्थान परिवर्तन की सूचना परिवर्तन के 15 दिनों के अन्दर नये पते सहित नये रजिस्ट्रार को प्रेषित कर दी जायेगी।

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(3) उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन (Alteration in Object Clause) (धारा 13)–धारा 61 में किये गये प्रावधानों को छोड़ कर कम्पनी विशेष प्रस्ताव पारित करके और इस धारा में निर्दिष्ट प्रक्रिया का अनुपालन करके अपने उद्देश्य वाक्य में परविर्तन कर सकती है।

(i) उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन के लिए विशेष प्रस्ताव पारित करना-कम्पनी जिसने प्रविवरण के माध्यम से जनता से धन एकत्रित किया है और अभी तक उस धन का उपयोग नहीं किया है, तो जिस । उद्देश्य के लिए कम्पनी ने प्रविवरण के द्वारा धन इकट्ठा किया है तब तक उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन नहा। कर सकती जब तक कि कम्पनी द्वारा विशेष प्रस्ताव पारित न किया जाए एवं

(ii) विवरण समाचार पत्रों में प्रकाशित करना-उपरोक्त पारित विशेष प्रस्ताव के सम्बन्धमा निर्धारित विवरण समाचार पत्रों (एक अंग्रेजी में और एक स्थानीय भाषा) में प्रकाशित किया जाएगा जा। उस स्थान पर परिचारित है जहाँ कम्पनी का पंजीकृत कार्यालय स्थापित है एवं कम्पनी की वेबसाइट पर। भी यदि कोई है, ऐसे परिवर्तन के औचित्य को सूचित करना होगा एवं;

(iii) असन्तुष्ट अशधारियो को कम्पनी छोड़ने का अवसर प्रदान करना-ऐसे अंशधारी जो परिवर्तन से असहमत हों उन्हें प्रवर्तकों एवं नियन्त्रण रखने वाले अंशधारियों द्वारा सेबी द्वारा नियमित नियमों के अनुसार कम्पनी छोड़ने का अवसर प्रदान किया जाएगा।

(iv) परिवर्तन का रजिस्ट्रार द्वारा पंजीकरण-कम्पनी रजिस्ट्रार पार्षद सीमा नियम के उद्देश्य वाक्य में हुए किसी भी परिवर्तन को पंजीकृत करेगा एवं विशेष प्रस्ताव फाइल करने की तिथि के 30 दिन के अन्दर पंजीकरण को प्रमाणित करेगा।

(v) परिवर्तन, बिना पंजीकरण के प्रभावी नहीं-इस धारा के अन्तर्गत किया गया कोई भी परिवर्तन तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक कि उसे इस धारा के प्रावधानों के अनुसार पंजीकृत न किया जाए।

(vi) कुछ दशाओं में गारन्टी वाली कम्पनी के उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन वैध नहीं-गारन्टी द्वारा सीमित कम्पनी एवं जिस कम्पनी के पास अंश पूँजी नहीं है, उसके सीमा नियम के परिवर्तन की दशा में ऐसा परिवर्तन अवैध होगा जो उसे सदस्य के अन्यथा लाभों में हिस्सा देने का अधिकार देता हो।

(4) दायित्व वाक्य में परिवर्तन (Alteration in Liability Clause) [धारा 7 व धारा 18] कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 7 के अनुसार कम्पनी के सदस्यों के दायित्व में परिवर्तन दो प्रकार से किया जा सकता है-(i) अधिकरण के आदेश द्वारा, एवं (ii) स्वेच्छा से।

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धारा 18 के अनुसार एक सीमित दायित्व वाली कम्पनी अपना नया पंजीकरण कराके अपना दायित्व असीमित करा सकती है। इसी प्रकार से एक असीमित दायित्व वाली कम्पनी भी इस अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन करके अपने आपको सीमित कम्पनी के रूप में पंजीकृत करा सकती है। रजिस्ट्रार पुराने पंजीकरण को निरस्त करके नया पंजीकरण कर लेगा एवं कम्पनी को पंजीकरण का नया प्रमाण-पत्र जारी कर देता है। इस धारा के अन्तर्गत नये पंजीकरण के कारण कम्पनी के पुराने दायित्वों अथवा अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जैसे कि नया पंजीकरण किया ही न गया हो। असीमित कम्पनी को सीमित कम्पनी में परिवर्तित करने पर धारा 65 के अन्तर्गत सुरक्षित अंश पूँजी का भी प्रावधान करना पड़ता है।

निदेशकों (संचालकों) आदि के दायित्व में परिवर्तन की विधि

(i) अन्तर्नियम में प्रावधानकम्पनी के अन्तर्नियमों में प्रावधान होने पर निदेशकों आदि के दायित्व में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि कम्पनी के अन्तर्नियमों में निदेशक आदि के दायित्व में परिवर्तन करने का प्रावधान नहीं है तो विशेष प्रस्ताव पारित करके अन्तर्नियमों में परिवर्तन करना होगा।

(ii) विशेष प्रस्ताव पारित करनाकम्पनी की साधारण सभा में निदेशकों आदि का दायित्व असीमित करने के लिए विशेष प्रस्ताव पारित करना चाहिए।

(iii) निदेशकों आदि की लिखित सहमति-सम्बन्धित पक्षों की लिखित सहमति प्राप्त करना।

(iv) रजिस्ट्रार को सूचित करना व प्रपत्र फाइल करना-पारित विशेष प्रस्ताव व सम्बन्धित पक्षों की लिखित सहमति की प्रति के साथ रजिस्ट्रार को सूचित करना।

(v) रजिस्ट्रार द्वारा परिवर्तन का पंजीकरण करना।

समामेलन प्रमाण पत्र सीमा नियम में परिवर्तन-अन्त में, रजिस्ट्रार कम्पनी के समामेलन प्रमाण-पत्र व सीमा नियम में आवश्यक परिवर्तन करेगा।

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(5) पूँजी वाक्य में परिवर्तन (Change in Capital Clause) [धारा 61]–अंश पूँजी वाली सीमित कम्पनी के अन्तर्नियम यदि उसको अधिकृत करते हैं तो साधारण प्रस्ताव पास करके कम्पनी अपनी अंश पूंजी में निम्नलिखित परिवर्तन कर सकती है

(i) नये अंशों के निर्गमन द्वारा अंश पूँजी में वृद्धि करना,

(ii) अंश पूँजी का एकीकरण करके अंशों को अधिक मूल्य के अंशों में विभाजित करना,

(iii) अंशों को कम मूल्य के अंशों में उप-विभाजित करना,

(iv) अंशों को स्टॉक में तथा स्टॉक को अंशों में परिवर्तित करना.

(v) अंशों को रद्द करना,

यदि पार्षद अन्तर्नियमों में अंश पूँजी में परिवर्तन की व्यवस्था नहीं है तो कम्पनी को अंश पूँजी में परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए विशेष प्रस्ताव पास करके अन्तर्नियमों में वांछित परिवर्तन कर लेना चाहिए।

(6) अंश पूँजी में कमी करनाइसके लिए कम्पनी एक विशेष प्रस्ताव पारित कर उसकी पुष्टि न्यायालय में करायेगी तभी यह परिवर्तन प्रभावी होगा।

स्वाति प्रकाशन पार्षद अन्तर्नियम का अर्थ एवं परिभाषाएँ

(Meaning And Definitions of Articles of Association)

पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जो समामेलन हेतु रजिस्ट्रार के पास दाखिल किया जाता है। कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम से आशय कम्पनी के उद्देश्यों को प्राप्त करने एवं उसकी आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था को संचालित करने के लिए बनाये गये नियमों तथा उपनियमों से है। कम्पनी की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था उसके पार्षद अन्तर्नियमों के अनुसार होती है। इसमें इस बात का उल्लेख रहता है कि कम्पनी के कौन-कौन से कार्य किस प्रकार किये जायेंगे तथा उसके पदाधिकारियों के क्या-क्या अधिकार, कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होंगे। कम्पनी और उसके सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध पार्षद अन्तर्नियम द्वारा ही निश्चित होते हैं। पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी अधिनियम एवं पार्षद सीमानियम के अधीन होता है। पार्षद अन्तर्नियम की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (5) के अनुसार, “पार्षद अन्तर्नियम से आशय एक ऐसे अन्तर्नियम से है जो पिछले कम्पनी अधिनियमों अथवा इस अधिनियम के अधीन मूल रूप से बनाया गया अथवा समय-समय पर परिवर्तित किया गया है।”

लार्ड केयर्न्स (Lord Cairns) के अनुसार, “अन्तर्नियम, पार्षद सीमानियम के अधीन कार्य करते हैं और वे सीमानियम को चार्टर के रूप में स्वीकार करते हैं। वे उन रीतियों तथा स्वरूपों को स्पष्ट करते हैं जिनके अनुसार कम्पनी का व्यवसाय चलाया जाता है और जिनमें समय-समय पर आन्तरिक प्रबन्ध के लिये परिवर्तन किये जा सकते हैं।’

न्यायाधीश बोवेन (Justice Bowen) के अनुसार, “पार्षद सीमानियम में वे आधारभूत शर्ते होती हैं जिनके आधार पर कम्पनी का समामेलन होता है, अन्तर्नियम कम्पनी के आन्तरिक नियम होते हैं।” 2

निष्कर्षउपयुक्त परिभाषा-पार्षद अन्तर्नियम की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि, “पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी के पार्षद सीमानियम के अधीन बनाये गये नियमों व उपनियमों की व्याख्या करता है जिनसे कम्पनी के आन्तरिक मामलों को नियन्त्रित एवं नियमित किया जाता है।”

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कम्पनी के अन्तर्नियम (i) छपे हुए हों, (ii) पैराग्राफ में विभाजित हों तथा, (i) सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वाले प्रत्येक व्यक्ति (अभिदाता) द्वारा हस्ताक्षरित हों। अन्तर्नियमों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों द्वारा उस पर अपना नाम, पता, व्यवसाय व अन्य विवरण दिया जाना चाहिए तथा उनके हस्ताक्षर कम से कम एक साक्षी द्वारा प्रमाणित किये जाने चाहिए। साक्षी का नाम, पता व अन्य विवरण भी दिया जाना आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त इन पर पर्याप्त स्टाम्प भी होना आवश्यक है। पार्षद अन्तर्नियम पर स्टाम्प ड्यूटी प्रत्येक राज्य में अलग-अलग हो सकती है क्योंकि यह राजकीय अधिकार का विषय है। पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी के पार्षद सीमा नियम के साथ कम्पनी के पंजीकरण के लिए रजिस्ट्रार के यहाँ फाइल करना होता है।

पार्षद अन्तर्नियमों की आवश्यकता अथवा महत्त्व

(Need or Importance of Articles of Association)

यह कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जिसे समामेलन हेतु रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत करना होता है। अन्तर्नियमों के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है

(1) रजिस्ट्रेशन हेतु आवश्यकअंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी को छोड़कर प्रत्येक कम्पनी के रजिस्ट्रेशन के लिए अन्तर्नियग तैयार करना व रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत करना अनिवार्य हैं। इसके अभाव में अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी पर ‘Table F’ के नियम लागू होते हैं।

(2) उद्देश्य प्राप्ति में सहायकसीमानियम उन उद्देश्यों को स्पष्ट करता है जिनके लिए कम्पनी की पापना की गई है जबकि अन्तनियम उन नियमों एवं उप-नियमों की व्याख्या करता है जो उन उद्देश्यो। की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। इस प्रकार अन्तर्नियम कम्पनी के उद्देश्य प्राप्ति में सहायक होते हैं।

(3) आन्तरिक प्रबन्ध संचालन में सहायक-इससे कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध संचालन में सावधा रहता ह क्याकि आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था से सम्बन्धित नियमों व उपनियमों का उल्लखा अन्तर्नियमों में ही होता है।

(4) पारस्परिक समझौतापार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी एवं सदस्यों के मध्य ठहराव है जो दोनों पक्षकारों को परस्पर बाध्य करता है। ।

(5) सार्वजनिक प्रलेखपार्षद अन्तर्नियम एक सार्वजनिक प्रलेख है अर्थात् इसे कोई भी व्यक्ति देख सकता है। इसी आधार पर यह माना जाता है कि कम्पनी के साथ व्यवहार करने वाले प्रत्येक पक्षकार को इस प्रलेख की समुचित जानकारी है।

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पार्षद अन्तर्नियम की विषयसामग्री या विषयवस्तु

(Contents of Articles of Association)

अन्तर्नियम में कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध से सम्बन्धित नियमों, उपनियमों व प्रावधानों का उल्लेख होता है। कम्पनी अपने आन्तरिक प्रबन्ध के लिए जो भी चाहे नियम व उपनियम बना सकती है। हाँ, अन्तर्नियम के नियम, उपनियम व अन्य प्रावधान कम्पनी अधिनियम तथा सीमानियम के प्रावधानों के विपरीत न हों, कम्पनी के सामान्य कानून जन-नीति के सिद्धान्तों का विरोध न करते हों तथा कम्पनी के उद्देश्यों की पूर्ति को सुगम व कार्यों में कुशलता प्रदान करते हों। सामान्यतया अन्तर्नियम में निम्नलिखित बातों का समावेश होता है_

1 जहाँ तक सारणी EG, H, I, J (जो भी लागू हो) लागू होगी, 2. प्रारम्भिक अनुबन्ध, यदि कोई है को अपनाना, 3. विभिन्न प्रकार के अंश और उनेक अधिकार, 4. अंशों को जारी करने और उनके आबण्टन करने के नियम, 5. अंशों पर याचना माँगने के नियम, 6. अंश प्रमाण पत्रों के सम्बन्ध में नियम, 7. अंशों के अपहरण, समर्पण और उन्हें पुन: जारी करने के नियम, 8. अंशों के हस्तान्तरण और हस्तांकन (Transmission) के नियम, 9. निदेशक मण्डल के और साधारण सभाओं के नियम, 10. प्रति पुरूष (Proxy) मतदान के नियम, 11. प्रबन्ध कर्मचारियों, निदेशकों, प्रबन्धक, प्रबन्ध निदेशक आदि की नियुक्ति, पारिश्रमिक के सम्बन्ध के नियम, 12. कम्पनी की सार्वमुद्रा के प्रयोग के बारे में नियम, 13. लाभांश और संचय के सम्बन्ध में नियम, 14. लेखों और अंकेक्षण के सम्बन्ध में नियम, 15. अंकेक्षकों की नियुक्ति और उनके पारिश्रमिक के सम्बन्ध में नियम, 16. कम्पनी के समापन के सम्बन्ध में नियम।

क्या प्रत्येक कम्पनी के लिए पार्षद अन्तर्नियम को तैयार करना अनिवार्य है?

भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी को अपने अन्तर्नियम तैयार करना अनिवार्य नहीं है। यदि कोई अंशों द्वारा सीमित सार्वजनिक कम्पनी अन्तर्नियम तैयार नहीं करती, तो उस पर सारणी ‘एफ’ (Table F) के समस्त नियम लागू होंगे। इस सारणी में 90 नियम दिये गये हैं। यदि पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी के समामेलन के समय प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं तो पार्षद सीमानियम के ऊपर ‘बिना अन्तर्नियमों के रजिस्टर्ड’ (Registered without Articles) लिखा रहना चाहिए।

(i) निजी कम्पनियों, (ii) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनियों, तथा (iii) असीमित दायित्व वाली कम्पनियों को अपने अन्तर्नियम प्रस्तुत करना अनिवार्य है। एक व्यक्ति वाली कम्पनी अपने अन्तर्नियम फाइल करने के लिए स्वतन्त्र है या सारणी F, G या H में दिये गये आदर्श अन्तर्नियम अपना सकती है।

पार्षद अन्तर्नियम के प्रारूप

(Forms of Articles of Association)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की प्रथम अनुसूची में विभिन्न प्रकार की कम्पनियों के लिए प्रयक्त होने वाले विभिन्न अन्तर्नियमों के प्रारूप दिये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं

तालिका ‘एफ’ (Table F) :            अंशों द्वारा सीमित कम्पनी के लिए।

तालिका ‘जी’ (Table G) :            गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के लिए जिसमें अंश पँजी नहीं है।

तालिका ‘एच’ (Table H) :            गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के लिए जिसमें अंश पूँजी है। ।

तालिका ‘आई’ (Table I) :            असीमित कम्पनियों के लिए।

तालिका ‘जे’ (Table J) :             असीमित कम्पनियों के लिए जिनमें अंश पूँजी नहीं है।

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अन्तर्नियमों का प्रभाव

(Effect of Articles)

अन्तर्नियम कम्पनी को इनके सदस्यों के प्रति तथा सदस्यों को कम्पनी के प्रति और सदस्यों को एक-दूसरे के प्रति भी बद्ध (Bound) कर देते हैं। “अन्तर्नियम एक प्रकार का अनुबन्ध है, जो सदस्यों को कम्पनी से और कम्पनी को सदस्यों से बाँध देता है।” |

धारा 10 के अनुसार, “इस अधिनियम में अन्यथा व्यवस्था न हो तो सीमानियम तथा अन्तर्नियमों का पंजीयन होने पर वे कम्पनी तथा कम्पनी के सदस्यों को उसी सीमा तक बाध्य कर करते हैं जैसे कि कम्पनी तथा कम्पनी के प्रत्येक सदस्य ने सीमानियम तथा अन्तर्नियमों पर हस्ताक्षर किये हों तथा इनकी समस्त व्यवस्थाओं को मानने के लिये वचन दिया हो।”

अन्तर्नियमों के बन्धनकारी प्रभाव को निम्नांकित शीर्षकों में स्पष्ट किया जा सकता है:

1. कम्पनी द्वारा सदस्यों को बद्ध करना।

2.सदस्यों द्वारा कम्पनी को बद्ध करना।

3. सदस्यों द्वारा पारस्परिक रूप से बद्ध होना।

4. कम्पनी द्वारा सदस्यों को बद्ध करना अथवा सदस्यों के दायित्व की उत्पत्ति-अन्तर्नियमों का पंजीयन हो जाने पर कम्पनी उन अन्तर्नियमों के अनुसार कार्य करके अपने सदस्यों को ठीक उसी प्रकार बाध्य कर सकती है जैसे कि उन्होंने कम्पनी के साथ उन सभी कार्यों को करने के लिये अनुबन्ध कर लिया हो। दूसरे शब्दों में, कम्पनी तथा सदस्यों के बीच अनुबन्धात्मक सम्बन्धों (contractual relations) का जन्म हो जाता है। परिणामस्वरूप, प्रत्येक सदस्य कम्पनी के अन्तर्नियमों का पालन करने के लिये बाध्य होता है। याचना राशि (call money) चुकाने, अंशों के अन्तरण करने, विक्रय करने आदि से सम्बन्धित अन्तर्नियमों के प्रावधानों से भी वह बद्ध होता है।

इस सम्बन्ध में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि कम्पनी अपने अन्तर्नियमों द्वारा सदस्यों को केवल सदस्यों के रूप में ही उत्तरदायी ठहरा सकती है, तृतीय पक्षकार के रूप में नहीं। दूसरे शब्दों में, कम्पनी अपने अन्तर्नियमों द्वारा सदस्यों को उनके सदस्य के रूप में प्राप्त अधिकारों के प्रति ही उत्तरदायी ठहरा सकती है तथा बाध्य कर सकती है। इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य रूप में उन्हें बाध्य नहीं कर सकती है। कोई भी सदस्य यदि कम्पनी का ऋणदाता, ऋणपत्रधारी, कर्मचारी, वकील आदि है तो उसे सदस्य होने के कारण इन विभिन्न स्थितियों में अन्तर्नियमों से बाध्य नहीं किया जा सकता है।

2. सदस्यों द्वारा कम्पनी को बद्ध करना अथवा कम्पनी का सदस्यों के प्रति दायित्व उत्पन्न होना-अन्तर्नियमों के पंजीयन का एक प्रभाव यह भी होता है कि सदस्य कम्पनी को बाध्य कर सकते हैं। यदि कम्पनी अन्तर्नियमों का पालन नहीं कर सकती है अथवा उनका उल्लंघन करके कार्य करती है तो कम्पनी का कोई भी सदस्य कम्पनी पर वाद प्रस्तुत कर सकता है। अन्तर्नियमों के विपरीत या बाहर किये जाने वाले कार्यों को रोकने के लिये न्यायालय निषेधाज्ञा (Injunction) जारी कर सकता है। कोई भी कम्पनी अपने सदस्यों के अधिकारों को छीन नहीं सकती है, अत: प्रत्येक सदस्य कम्पनी के विरुद्ध अपने अधिकारों को कानूनी रूप से प्रवर्तित भी करवा सकता है।

केस लॉ : (i) इस सम्बन्ध में जानसन बनाम लिटल्स आयरन एजेन्सी [Johnson v. Lyttles Iron Agency (1875) 5 Ch. D. 687] का मामला उल्लेखनीय है।इस मामले के तथ्यों के अनुसार वादी के पास प्रतिवादी कम्पनी के कुछ अंश थे। प्रतिवादी ने उसके अंशों का मनमाने ढंग से हरण (Forfeiture of shares) कर लिया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अंशों का इस प्रकार से हरण व्यर्थ है।

3. सदस्यों को पारस्परिक रूप से बद्ध करना–कम्पनी के सभी सदस्य आपस में भी एक दूसरे को बाध्य कर सकते हैं। यद्यपि कम्पनी के सदस्यों के बीच आपस में कोई अनुबन्ध नहीं होता है किन्तु जब वे अन्तर्नियमों की व्यवस्था के अधीन अपने अधिकारों का प्रयोग करते हैं तो एक सदस्य दूसरे सदस्य को भी कम्पनी के माध्यम से बाध्य कर सकते हैं।

जहाँगीर आर. मोदी बनाम श्यामजी लढ्ढा के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने लिखा कि बालकों द्वारा (अन्तर्नियमों के विरुद्ध) कम्पनी के धन का दुरुपयोग करने पर कम्पनी का कोई भी मरस्य उन पर वाद प्रस्तुत कर सकता है। इस वाद में कम्पनी के संचालकों ने कम्पनी की ओर से दसरी पानी के अंशों को क्रय किया था। यद्यपि उस कम्पनी के पार्षद सीमानियम में इस प्रकार के किसी भी

उल्लेख नहीं था। बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि संचालकों का यह के बाहर है क्योंकि यह पार्षद सीमा नियम द्वारा अधिकृत नहीं है।

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पार्षद अन्तर्नियमों में परिवर्तन धारा 141

(Alteration of Articles of Association)

कोई भी कम्पनी, अधिनियम के आदेशों का पालन करते हुए तथा अपने पार्षद सीमानियम का उल्लंघन न करते हुए विशेष प्रस्ताव द्वारा अपने अन्तर्नियमों में परिवर्तन कर सकती है। यह परिवर्तन उसी प्रकार वेध (Legal) होगा, जिस प्रकार प्रारम्भिक अन्तर्नियम वैध होता है।

लॉर्ड लिण्डले (Lord Lindley) ने इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है, “कम्पनी को विधान द्वारा यह अधिकार दिया गया है कि वह अपने अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं को समय-समय पर विशेष प्रस्ताव पारित करके परिवर्तित कर सके तथा प्रत्येक ऐसा नियम या अन्तर्नियम जो कम्पनी के इस अधिकार को छीनता है तो वह अन्तर्नियम इस आधार पर अवैध होगा कि वह विधान के विरुद्ध है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि कम्पनी को अपने अन्तर्नियमों में परिवर्तन करने से कोई नहीं रोक सकता है।

परिवर्तनप्रक्रिया

(Alteration Procedure)

कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत एक कम्पनी को अपने अन्तर्नियमों में परिवर्तन करने के लिए अत्याधिक व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। अन्तर्नियमों के परिवर्तन पर निम्नलिखित नियम लागू होते हैं

1 अन्तर्नियमों में परिवर्तन केवल विशेष प्रस्ताव द्वारा-कम्पनी के अन्तर्नियम कभी भी साधारण प्रस्ताव के द्वारा परिवर्तित नहीं किए जा सकते।

2. अन्तर्नियम में परिवर्तन, कम्पनी अधिनियम अथवा अन्य कानून के विरोध में नहीं होने चाहियें-उदाहरण के लिए, कम्पनी के अन्तर्नियम एक कम्पनी को पूँजी में से लाभांश वितरित करने का अधिकार नहीं दे सकते क्योंकि कम्पनी अधिनियम के द्वारा एक कम्पनी को पूँजी में से लाभाश देने पर प्रतिबन्ध है।

3. परिवर्तन, पार्षद सीमा नियम के विरोध में नहीं होना चाहिए-अन्तर्नियम, पार्षद सीमा नियम के अधीन होते हैं और ये पार्षद सीमा नियम का उल्लंघन नहीं कर सकते। एक कम्पनी अपने अन्तर्नियमों में अपने आपको यह अधिकार नहीं दे सकती जिसके द्वारा ऐसा कोई कार्य किया जाए तो पार्षद सीमा नियम द्वारा अधिकृत न हो। उदाहरण के लिए, एक मामले में कम्पनी ने अपने अन्तर्नियमों में लाभांश के पूर्वाधिकार के साथ नए अंश जारी करने का अधिकार प्रदान किया है, परन्तु इसके पार्षद सीमा नियमों में ऐसा कोई अधिकार विद्यमान नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि परिवर्तन अवैध और निष्क्रिय था।

4. परिवर्तन, अवैध नहीं होना चाहिएअन्तर्नियमों में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे कम्पनी को कोई अवैध कार्य करने का अधिकार दिया जाए। उदाहरण के लिए, एक कम्पनी अपने अन्तर्नियमों में लॉटरी चलाने के लिए परिवर्तन नहीं कर सकती।

5. परिवर्तन, केवल केन्द्र सरकार की अनुमति से-कुछ मामलों में अन्तर्नियमों में परिवर्तन केवल उस दशा में प्रभावी होगा, जब इसे केन्द्र सरकार ने अनुमोदित कर दिया हो। उदाहरण के लिए, एक कम्पनी का पंजीकृत कार्यालय एक राज्य से दूसरे राज्य में परिवर्तित करने के लिए अन्तर्नियमों में परिवर्तन तब तक वैध नहीं होगा जब तक कि केन्द्र सरकार द्वारा अनुमोदित न कर दिया जाए। (धारा 14)

6. परिवर्तन, एक अंशधारी को अतिरिक्त अंश खरीदने के लिए विवश नहीं कर सकते-एक अन्तर्नियम में कोई परिवर्तन एक सदस्य को अधिक अंश लेने के लिए विवश करने के लिए प्रभावी नहीं होगा जब तक कि अंशधारी लिखित में इसके लिए सहमत न हो।

7. अधिकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक कम्पनी का निजी कम्पनी में परिवर्तन नहीं (No Conversion of a Public Company into a Private Company without the Approval of the Tribunal) (धारा 14)–एक सार्वजनिक कम्पनी को निजी कम्पनी में परिवर्तित करने के लिए अधिकरण की अनुमति आवश्यक है।

8. परिवर्तन, कम्पनी अधिकरण के आदेश के विरूद्ध नहीं हो सकता-उदाहरण के लिए, यदि कम्पनी अधिकरण ने अन्याय और कुप्रबन्ध रोकने हेतु कम्पनी के अन्तर्नियमों में परिवर्तन कर दिया है तो कम्पनी अधिकरण की अनुमति के बिना अपने अन्तर्नियमों में ऐसा परिवर्तन नहीं कर सकती जो प्राधिकरण के आदेश के विरुद्ध हो।

9. परिवर्तन, कम्पनी के समग्र रूप से लाभ के लिए सविश्वास से किया जाना चाहिए।

10. परिवर्तन अल्पमत अंशधारियों के ऊपर कपट नहीं होना चाहिए।

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अधिनियम का स्थान सीमानियम, अन्तर्नियमों से ऊपर (धारा 6)

(Act to Override Memorandum, Articles, etc. [Section 6])

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 6 के अनुसार, यदि कम्पनी अधिनियम के प्रावधानों एवं कम्पनी के अन्तर्नियमों, सीमानियमों में विरोधाभास (Conflict) है तो ऐसी दशा में कम्पनी अधिनियम के। प्रावधान लागू होंगे। उदाहरणार्थ-कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 267 (2) के अनुसार निदेशक-मण्डल की सभा हेतु कोरम की पूर्ति दो (two) निदेशकों या कुल निदेशकों की संख्या का एक-तिहाई (one-third), जो भी अधिक हो, से होगी तथा अब यदि एक कम्पनी अपने अन्तर्नियमों के अधीन यह व्यवस्था कर ले कोरम की पूर्ति हेतु न्यूनतम तीन (three) होने चाहियें, तो यह व्यवस्था व्यर्थ एवं अप्रभावी मानी जायेगी।

सीमानियम, अन्तर्नियम, अनुबन्ध या पारित-संकल्प में शामिल कोई भी प्रावधान उस सीमा तक व्यर्थ माना जायेगा, जिस सीमा तक वह कम्पनी अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है।

_ सीमानियम अथवा अन्तर्नियमों में परिवर्तन का प्रभाव

(Effects of Alteration in Memorandum or Articles)

सीमानियम अथवा अन्तर्नियम में किया गया कोई भी ऐसा परिवर्तन व्यर्थ एवं अप्रभावी माना जायेगा जिसके परिणामस्वरूप सदस्यों के दायित्व में वृद्धि होती हो। तथापि, यह प्रावधान उन दशाओं में लागू नहीं होता, जहाँ

() उस परिवर्तन के पूर्व या पश्चात् सदस्य उस परिवर्तन के पक्ष में लिखित सहमति प्रदान कर दें कि वे उस परविर्तन से बाध्य माने जायेंगे; अथवा

() कम्पनी एक क्लब या व्यक्तियों का संघ है तथा परिवर्तन, शुल्क-वृद्धि हेतु किया गया है, जबकि सदस्यों ने इस सम्बन्ध में अपनी लिखित सहमति प्रदान नहीं की है।

ऐसे परिवर्तन का उद्देश्य बहुसंख्यकों से अल्प-संख्यक सदस्यों के हितों की रक्षा करना है।

सीमानियम या अन्तर्नियमों आदि में किये गये परिवर्तन का प्रत्येक प्रति में

उल्लेख करना (धारा 15)

(Alteration in Memorandum or Articles etc. to be noted in every copy

[section 151)

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धारा 117 में संदर्भित सीमानियम अन्तर्नियम, कोई ठहराव या संकल्प, में यदि कोई परिवर्तन किया गया है, तो ऐसा परिवर्तन किये जाने की तिथि के बाद जारी किये गये दस्तावेज तथा उसकी प्रत्येक प्रति में उस परिवर्तन का समावेश होना चाहिये। इसका उल्लंघन करने पर कम्पनी तथा उसके प्रत्येक अधिकारी को इस प्रकार से जारी की गई प्रत्येक प्रति के लिये दण्डित किया जा सकता है।

आन्तरिक प्रबन्ध (संचालन )का सिद्धान्त

(Doctrine of Indoor Management)

‘रचनात्मक सूचना’ सिद्धान्त के अनुसार यह माना जाता है कि प्रत्येक उस व्यक्ति ने जो कम्पनी के साथ व्यवहार कर रहा है, न केवल सीमानियम व अन्तर्नियमों को पढ़ लिया है बल्कि उनके प्रावधानों को सही अर्थों में समझ भी लिया है। अत: यदि वह कम्पनी के साथ कोई ऐसा अनुबन्ध करता है जो इन प्रलेखों द्वारा प्रदत्त अधिकार क्षेत्र के बाहर है तो वह ऐसे अनुबन्ध के क्रियान्वयन हेतु कम्पनी पर वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता। परन्तु बाहरी व्यक्ति का यह कार्य कदापि नहीं है कि वह यह देखे कि कम्पनी की आन्तरिक कार्यवाहियाँ नियमानुसार हैं या नहीं। जैसे अन्तर्नियमों ने संचालकों को कोई अधिकार दिया है तो बाहरी व्यक्ति, यह ज्ञात करने के लिए कि कम्पनी से अमुक व्यवहार संचालकों के अधिकार में है या नहीं, यह नहीं देखेंगे कि इस अधिकार का प्रयोग जिस सभा द्वारा किया जाना चाहिए था, वह उचित प्रकार बुलाई गई थी या नहीं तथा उनमें कोरम पूरा था या नहीं आदि। ये विषय कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध से सम्बन्धित हैं। संक्षेप में, कम्पनी के साथ आर्थिक या व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करते समय बाहरी व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वे कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध की उचित क्रियाशीलता की जाँच करें। वे यह मानकर कम्पनी से सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं कि आन्तरिक प्रबन्ध से। सम्बन्धित कार्यवाहियाँ नियमानुसार कर ली गई होंगी। इस मान्यता को ही आन्तरिक प्रबन्ध (संचालन) का सिद्धान्त कहते हैं। इस प्रकार यदि किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा किये जाने वाला व्यवहार सीमानियम व अन्तनियमों के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत है तो कम्पनी उन व्यवहारों से बाध्य होगा भला ही कम्पनी ने उन व्यवहारों के सम्बन्ध में कुछ आन्तरिक अनियमितताएँ बरती है।

केस लॉ (Case Law)-इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन 1856 में रायल ब्रिटिश बक बनाम टरक्वैन्ड नामक विवाद में किया गया था। इस विवाद में कम्पनी के संचालकों को अन्तर्नियमों के अधीन बॉण्ड के निर्गमित करने का अधिकार था, यदि एक उचित प्रस्ताव द्वारा कम्पनी उन्हें ऐसा करने का अधिकार दे देती है। उन्होंने एक बॉण्ड टरक्वैड को दिया परन्त इस बॉण्ड के निर्गमन के पहले कोई भी प्रस्ताव कम्पनी द्वारा पास नहीं किया गया था। यह निर्णय दिया गया था कि टरक्वेड इस बॉण्ड के आधार। पर कम्पनों पर वाद प्रस्तुत कर सकता था क्योंकि बाहरी व्यक्ति होने के नाते उसे यह मानने का अधिकार था कि कम्पनी द्वारा प्रस्ताव पास किया जा चुका था।

आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त के अपवाद (Exceptions of the Doctrine of Indoor Management) यद्यपि आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त के अनुसार बाहरी व्यक्तियों को कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध के कार्यों की नियमित जाँच करना आवश्यक नहीं है, परन्तु फिर भी इस सिद्धान्त के निम्नलिखित अपवाद हैं

(1) अनियमितता का ज्ञान होने पर यह सिद्धान्त लाग नहीं होता है-यह कोई व्यक्ति कम्पनी के आन्तरिक नियम की अनियमितता से परिचित है और फिर भी वह कम्पनी के साथ व्यवहार करता है। तो उसे इस सिद्धान्त का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता।

(2) अनियमितताओं की शंका होने पर लापरवाही बरतना-संदेहजनक परिस्थितियों में, जहाँ उचित जाँच-पड़ताल द्वारा अनियमितता का पता लगाया जा सकता है, लापरवाही बरतते हुए अनुबन्ध कर लेने पर भी यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

(3) कपटपूर्ण एवं व्यर्थ कार्य होने पर-यह सिद्धान्त ऐसे व्यवहारों पर भी लागू नहीं होता जो प्रारम्भ से व्यर्थ अथवा कपटपूर्ण हैं और कम्पनी के नाम से किये गये हैं। सामान्यत: एक कम्पनी अपने अधिकारियों द्वारा की गई जालसाजियों के लिए उत्तरदायी नहीं होती है।

केस लॉ (Case Law)-रूबिन बनाम ग्रेट फिंगाल कन्सोलिडेटेड कम्पनी-नामक विवाद में कम्पनी के सचिव ने जाली अंश प्रमाण-पत्र बिना किसी अधिकार के निर्गमित कर दिया। धारक ने इस प्रमाण-पत्र के आधार पर धारित अंशों के सम्बन्ध में रजिस्टर्ड होने का वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने अंश प्रमाण-पत्र को जाली होने के आधार पर व्यर्थ घोषित कर दिया और कहा कि जाली अंश प्रमाण-पत्र के अधीन धारक को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

(4) अन्तर्नियमों की अज्ञानता-एक व्यक्ति जो कम्पनी के साथ व्यवहार कर रहा है. यदि कम्पनी के अन्तर्नियमों की जानकारी नहीं रखता है तो वह इस नियम का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

(5) सामान्यतया अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य-यदि कम्पनी का कोई अधिकारी या प्रतिनिधि बाहरी व्यक्ति के साथ ऐसा अनुबन्ध कर रहा है जो सामान्यतया उसके अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं हो सकता, किन्तु बाहरी व्यक्ति, बिना यह जानकारी प्राप्त किये कि सम्बन्धित व्यक्ति उस कार्य के लिए अधिकृत है अथवा नहीं उस अधिकारी के साथ यह सोचकर अनुबन्ध करता है कि वह अधिकारी इस कार्य के लिए अधिकृत होगा, जबकि यह अधिकारी अधिकृत नहीं था, तो ऐसे व्यवहार को आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त के आधार पर, कम्पनी पर बाधित नहीं किया जा सकता।

(6) कम्पनी के साधारण व्यापार से सम्बन्धित व्यवहार न होने पर-यदि कम्पनी के साथ किये जाने वाला व्यवहार कम्पनी के साधारण व्यापार से सम्बन्धित नहीं है तो भी यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

रचनात्मक सूचना का सिद्धान्त

(Doctrine of Constructive Notice)

या

पार्षद सीमानियम और अन्तर्नियम सार्वजनिक प्रलेख हैं

(Memorandum And Articles of Association Are Public Documents)

समामेलन होने के बाद प्रत्येक कम्पनी का सीमानियम एवं अन्तर्नियम सार्वजनिक प्रलेख (Public Documents) हो जाते हैं। रजिस्ट्रार के कार्यालय में निर्धारित शुल्क देकर कोई भी व्यक्ति इनको देख। सकता है, इनका अध्ययन कर सकता है और यदि इनमें से कुछ नोट करना चाहे तो नोट कर सकता है। एवं चाहे तो प्रमाणित प्रतिलिपि प्राप्त कर सकता है। इन दोनों प्रलेखों के सार्वजनिक प्रलेख होने के। कारण कम्पनी के साथ व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है उसने इन प्रलेखों। को पढ़ लिया है और इनके प्रावधानों को सही अर्थों में समझ लिया है अर्थात् कम्पनी से व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बारे में यह मान लिया जाता है कि उसको कम्पनी के पार्षद सीमानियम एवं पार्षद। अन्तर्नियम की रचनात्मक सूचना है। संक्षेप में, रचनात्मक सूचना के सिद्धान्त से आशय पार्षद सीमानियम, पार्षद अन्तर्नियम एवं अन्य सार्वजनिक प्रलेखों की आवश्यक बातों की रचनात्मक सूचना से है।

प्रभाव (Effect) उपर्युक्त सिद्धान्त का महत्वपूर्ण प्रभाव यह होता है कि यदि कोई व्यक्ति कम्पनी के साथ कोई ऐसा अनुबन्ध करता है जो इन सार्वजनिक प्रलेखों में दिये गये अधिकारों के बाहर है तो इसका प्रभाव यह होता है कि वह स्वयं अपने आपको जोखिम में डालता है। ऐसा व्यक्ति कम्पनी द्वारा उक्त अनुबन्ध का पालन न किये जाने पर कम्पनी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए, कोटला बैंकट स्वामी बनाम राममूर्ति के विवाद में कम्पनी के अन्तर्नियमों में इस बात का उल्लेख था कि सभी अनुबन्धों, विलेख आदि पर प्रबन्ध संचालक, सचिव तथा एक कार्यशील संचालक–तीनों के संयुक्त रूप में हस्ताक्षर होने चाहिए। कम्पनी द्वारा एक रहन विलेख कम्पनी की ओर से राममूर्ति के पक्ष में निर्गमित किया गया। इस विलेख पर केवल सचिव तथा एक कार्यशील संचालक के हस्ताक्षर थे। न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि कम्पनी उक्त रहन विलेख के अन्तर्गत भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि उस पर प्रबन्ध संचालक के हस्ताक्षर नहीं थे। राममूर्ति से यह आशा की जाती थी कि उक्त विलेख को स्वीकार करने से पूर्व वह यह देखेगा कि उस पर कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं के अनुरूप निश्चित व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं।

अपवाद (Exception) उपर्युक्त नियम का एक अपवाद है जिसे ‘आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त’ कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि बाहरी व्यक्ति द्वारा किये जाने वाला व्यवहार सीमानियम एवं अन्तर्नियमों के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत है तो कम्पनी उन व्यवहारों से बाध्य होगी भले ही कम्पनी ने उन व्यवहारों के सम्बन्ध में कुछ आन्तरिक अनियमितताएँ बरती हों।

पार्षद सीमानियम पार्षद अन्तर्नियम की रजिस्ट्री का प्रभाव

(Effects of Registration of Memorandum of

Association And Articles of Association)

धारा 10 के अनुसार, कम्पनी अधिनियम की व्यवस्थाओं के अधीन जब पार्षद सीमानियम और पार्षद अन्तर्नियम की रजिस्ट्री हो जाती है, तब वे कम्पनी तथा उनके सदस्यों को उस प्रकार से बाध्य करते हैं. जैसे कि उन पर कम्पनी तथा प्रत्येक सदस्य ने क्रमश: हस्ताक्षर किये हों तथा उसकी समस्त व्यवस्थाओं को मानने के लिये सहमति दी हो। वस्तुत: सीमानियम, कम्पनी को बाहरी व्यक्तियों के साथ अनबन्धित करता है जबकि अन्तर्नियम कम्पनी को सदस्यों के साथ तथा सदस्यों को आपस में सदस्यों के साथ अनुबन्धित करता है। स्पष्ट है कि ये दोनों प्रलेख कम्पनी, उसके सदस्यों एवं तीसरे पक्षकारों के मध्य एक अनुबन्ध उत्पन्न करते हैं अर्थात् (1) कम्पनी को सदस्यों के प्रति. (2) सदस्यों को कम्पनी के प्रति, (3) सदस्यों को सदस्यों के प्रति, तथा (4) कम्पनी को तीसरे पक्षकार के प्रति बाध्य करते हैं। संक्षेप में, पार्षद सीमानियम एवं पार्षद अन्तर्नियम के वैधानिक प्रभावों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) सदस्यों का कम्पनी के प्रति दायित्व-कम्पनी का प्रत्येक सदस्य कम्पनी के सीमानियम एवं अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए वैधानिक रूप से बाध्य है। यदि कोई सदस्य अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं को लागू करने में रुकावट डालता है अथवा पालन करने में त्रुटि करता है तो कम्पनी ऐसे सदस्य पर वाद प्रस्तुत कर सकती है। इस सम्बन्ध में बोरलैंड्स टुस्टी बनाम स्टील ब्रदर्स क० लिमिटेड का मुकद्दमा उल्लेखनीय है जिसमें कम्पनी के अन्तर्नियमों में यह प्रावधान था कि किसी सदस्य के दिवालिया हो जाने पर उसके अंश कम्पनी के द्वारा नामांकित व्यक्ति को निश्चित मूल्य घर बेचे जायेंगे। इस कम्पनी का एक सदस्य दिवालिया हो गया, तो इसके लिये नियुक्त हुये प्रन्यासी को दिवालिया की अन्य सम्पत्ति की तरह कम्पनी के अंशों को अपनी मर्जी से बेचने का अधिकार नहीं लिया योकि कम्पनी और सदस्यों के बीच में पार्षद अन्तर्नियम के द्वारा एक अनुबन्च हो गया था।

(2) कम्पनी का सदस्यों के प्रति दायित्व-सदस्यों की भांति कम्पनी भी चार्षद सीमानियम और पार्षद अन्तर्नियमों मे दी गई व्यवस्थाओं से अपने सदस्यों के प्रति बाध्य होती है। यदि कम्पनी पार्षद सीमानियम कम्पनी सन्नियम और पार्षद अन्तर्नियमों में दी हई व्यवस्थाओं के विपरीत कोई ऐसा कार्य करती है जिससे उसके सदस्यों के हितों को हानि पहुँचती है, तो सदस्य कम्पनी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकते हैं और कम्पनी उनके प्रति उत्तरदायी होगी। कोई भी अंशधारी कम्पनी को ऐसे कार्य करने से रोकने के लिये वाद प्रस्तुत कर सकता है जो कम्पनी के अधिकारों से बाहर’ (Ultra Vires) हैं।

(3) सदस्यों का सदस्यों के प्रति अर्थात सदस्यों का परस्पर दायित्व-यद्यपि कम्पनी के पार्षद सीमानियम और पार्षद अन्तर्नियम के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से सदस्यों में आपस में कोई अनुबन्ध नहीं होता, परन्तु फिर भी कम्पनी के अन्तर्नियम सदस्यों में अप्रत्यक्ष रूप से आपसी सम्बन्ध स्थापित करते हैं

और अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत सदस्य एक-दूसरे के प्रति दायी होते हैं। इसलिए कम्पनी के प्रत्येक सदस्य को कम्पनी के अन्तर्नियमों का पालन करना चाहिए। यदि कुछ सदस्य इन नियमा का पालन नहीं करते हैं तो अन्य सदस्य कम्पनी के निस्तारण के समय इन पर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं।।

(4) कम्पनी का बाहरी व्यक्ति (तीसरे पक्षकार) के प्रति दायित्व-अन्तर्नियम, कम्पनी एवं बाहरी व्यक्तियों के मध्य अनुबन्ध का निर्माण नहीं करते हैं। एक बाहरी व्यक्ति अन्तर्नियमों में दिये गये प्रावधानों के आधार पर कम्पनी को बाध्य नहीं कर सकता। अत: यदि अन्तर्नियम में प्रवर्तकों को पारिश्रमिक देने का प्रावधान है तो भी प्रवर्तक पारिश्रमिक के लिए कम्पनी के विरुद्ध कोई दावा दायर नहीं कर सकता क्योंकि प्रवर्तक एक बाहरी व्यक्ति है। कम्पनी का सदस्य भी अन्तर्नियमों के प्रावधानों को सदस्य के अलावा अन्य किसी हैसियत से प्रवर्तनीय नहीं करा सकता। वस्तुत: कम्पनी एवं बाहर वाले व्यक्ति के बीच एक स्वतन्त्र अनुबन्ध होना चाहिए।

परन्तु जब पार्षद अन्तर्नियमों की कुछ व्यवस्थायें कम्पनी और तीसरे पक्षकार के साथ किसी अनुबन्ध में गर्भित रूप से स्वीकार कर ली जाती हैं तो स्थिति बदल जाती है। New British Iron Co. के मामले में कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों में संचालकों को 1,000 पौण्ड प्रति वर्ष देने का प्रावधान था, परन्तु कम्पनी ने संचालकों को पारिश्रमिक का भुगतान नहीं किया। इस पर संचालकों ने कम्पनी पर वाद प्रस्तुत किया। इस सम्बन्ध में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कम्पनी और संचालकों के मध्य कोई अनुबन्ध न होने पर भी संचालकों ने कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों की इस व्यवस्था के अधीन ही पद स्वीकार किया था, अत: संचालक इसे कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों के द्वारा प्रवर्तनीय करा सकते हैं।

पार्षद सीमानियम एवं पार्षद अन्तर्नियम में अन्तर

(Distinction Between Memorandum And Articles of Association)

 

अन्तर का आधार सीमानियम  अन्तर्नियम
1. प्रमुख एवं सहायक प्रलेख यह कम्पनी का आधारभूत प्रलेख है जिसकी शर्तों के आधीन ही कम्पनी का समामेलन होता है।

 

यह कम्पनी का सहायक प्रलेख है  जो कम्पनी के आन्तरिक संचालन के लिये बनाया जाता है।
2. विषय-सामग्री इसमें कम्पनी के उद्देश्य, कार्यक्षेत्र अधिकार एवं शक्तियों का वर्णन होता है यह कम्पनी व तृतीय पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है

इसके अन्तर्गत सीमानियम में दिये हुए उद्देश्यों तथा अधिकार सीमा को है कार्यान्वित करने के लिए नियमों तथा उपनियमों का उल्लेख होता है।

 

 

3. आवश्यकता

कम्पनी समामेलन के लिये सीमानियम का बनाना तथा रजिस्ट्रार को प्रस्तुत करना प्रत्येक कम्पनी के लिये अनिर्वाय हैं । प्रत्येक कम्पनी के लिए इसे तैयार कराना अनिवार्य नहीं है। इसके करना प्रत्येक कम्पनी के लिये अभाव में एक अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी पर तालिका ‘एफ’ (F) के नियम लागू होते हैं
4. सीमायें इसे कम्पनी अधिनियम की व्यवस्ओं के अधीन ही बनाया जाता है । इसे कम्पनी अधिनियम न सीमानियत के अधीन बनाया जाता है
5. परिवर्तन

 

इसे सरलता से परिवर्तित नहीं किया जा सकता हैं । सदस्यों द्धारा विशेष प्रस्ताव पास करके इसे आसानी से परिवर्तित किया जा सकता हैं ।
6. अधिकारियों के बाहर किये गये कार्यो का पुष्टिकरण सीमानियत के बाहर किये कार्यो की कम्पनी एवं उसके सदस्यों द्दारा किसी भी प्रकार से पुष्टि नहीं की जा सकती हैं ।  अन्तर्नियम के बाहर लेकिन सीमानियत के क्षेत्र में किये गये कार्यो की बाद में भी पुष्टि की जा सकती है ।
7. सम्बन्ध  सीमानियत कम्पनी तथा बाहरी व्यक्तियों के बीच में सम्बन्ध स्थापित करता हैं । अन्तर्नियम कम्पनी तथा सदस्यों के बीच में सम्बन्ध स्थापित करता है ।

 

() अनाधिकृत या शक्ति से परे या अधिकारों के बाहर का सिद्धान्त

(Doctrine of Ultra Vires)

कम्पनी का पार्षद सीमानियम कम्पनी के अधिकारों एवं उद्देश्यों को निर्धारित करता है तथा कम्पनी के कार्यक्षेत्र की सीमा तय करता है। वस्तुत: प्रत्येक कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम में उल्लेखित उद्देश्यों के लिए ही समामेलित की जाती है। अत: यदि कम्पनी द्वारा कोई ऐसा कार्य किया जाता है जो पार्षद सीमानियम के उद्देश्य वाक्य में नहीं दिया गया है या उससे सम्बन्धित नहीं है या उसके विपरीत है अथवा अधिनियम के विरुद्ध है तो ऐसा कार्य कम्पनी के अधिकारों के बाहर’ कहलायेगा। ऐसा कार्य प्रभावहीन एवं व्यर्थ माना जाता है अर्थात् उस कार्य को न तो कार्यशील ही कराया जा सकेगा और न उस कार्य के परिणामस्वरूप होने वाली किसी हानि के लिए कम्पनी को उत्तरदायी ठहराया जा सकेगा। अधिकारों के बाहर किये गये कार्यों (Ultra Vires Acts) को किसी भी प्रकार से वैध (Legal) नहीं कहा जा सकता भले ही कम्पनी के सभी सदस्यगण एकमत (Unanimous) से प्रस्ताव पारित करके उसकी पुष्टि ही क्यों न कर दें।

भारतवर्ष में इस सिद्धान्त को सर्वप्रथम सन् 1866 में जहाँगीर आर. मोदी बनाम श्यामजी लढूढ़ा [Jahangir R. Modi Vs. Shyamji Ladha (1866) 4 Bom. CHR 185] के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया था। इस विवाद की विवेचना पीछे की जा चुकी है। इसके बाद भी अनेक मामलों में इस सिद्धान्त को लागू किया गया था। कुछ वर्षों पूर्व भारत के उच्चतम न्यायालय ने लक्ष्मण स्वामी बनाम लाइफ इन्श्योरेन्स कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया [Lakshmanswami Vs. Life Insurance Corporation, AIR (1963) SC 1185] के मामले में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया था। उच्चतम न्यायालय ने लिखा है कि “सीमानियम में वर्णित उद्देश्यों के बाहर का कार्य अधिकारों के बाहर होता है तथा व्यर्थ होता है जिसका पुष्टिकरण नहीं किया जा सकता है।” अधिकारों के बाहर किये गये कार्य निम्न प्रकार के हो सकते हैं

(1) कार्य कम्पनी के मुख्य उद्देश्यों के अन्तर्गत नहीं आता हो-जब कम्पनी कोई ऐसा कार्य करती है जो उसके सीमानियम में उल्लिखित मुख्य उद्देश्यों के अन्तर्गत नहीं आता है तो वह कार्य अधिकारों के बाहर या अनाधिकृत कार्य कहलाता है और यह व्यर्थ होता है। इस सम्बन्ध में लन्दन काउन्टी काउन्सिल बनाम एटार्नी जनरल [London County Council Vs. Attorney General, (1902) 1 Ch. 359] का मामला महत्त्वपूर्ण है। इस मामले के तथ्यों के अनुसार काउन्सिल को केवल टाम चलाने का अधिकार था। काउन्सिल ने ट्राम के साथ-साथ बसें भी चलाना प्रारम्भ कर दिया। न्यायालय ने बसें चलाने के सम्बन्ध में निषेधाज्ञा जारी कर दी तथा निर्णय दिया कि बसें चलाने का कार्य मुख्य उद्देश्य के बाहर का कार्य है।

(2) कम्पनी के मुख्य उद्देश्य को पूरा करना असम्भव हो जाने पर किया गया कार्य-यदि किसी कम्पनी के मुख्य उद्देश्यों को पूरा करना असम्भव हो जाये फिर भी वह कम्पनी अपने व्यवसाय को चाल रखती है तथा कुछ अन्य कार्य करती है तो उस कम्पनी द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य अधिकारों के बाहर माना जायेगा और व्यर्थ होगा।

केस लॉ इस सम्बन्ध में जर्मन डेट कॉफी कम्पनी का मामला उल्लेखनीय है। इस कम्पनी के निगम में लिखा था कि कम्पनी जर्मन पेटेण्ट (Patent right) के आधार पर खजरों से कॉफी तेयार। । कम्पनी को कॉफी बनाने का जर्मन पेटेण्ट नहीं मिला। किन्तु कम्पनी ने स्वीडन से पेटेण्ट प्राप्त ऑी नैयार की तथा विक्रय चालू कर दिया। इस पर कम्पनी के दो अंशधारियों ने कम्पनी के विरुद्ध पानी के समापन की प्रार्थना की। उन्होंने तर्क दिया कि जिस उद्देश्य से कम्पनी स्थापित का न्यायालय से कम्पनी के समापन की प्रार्थना की। उन्होने तर्क दिया कि जिस उद्देश्य से कम्पनी के समापन से प्रार्थना की गई थी । उस उद्देश्य को पूरा करना असम्भव हो गया है। अत: कम्पनी का समापन कर दिया जाना चाहिए। गई थी उस उद्देश्य को पूरा करना असम्भव हो गया है। अतः

न्यायालय ने इसी आधार पर कम्पनी के समापन का आदेश दे दिया।

(3) कार्य कम्पनी के उद्देश्य के लिये पासंगिक Incidental तथा आनषंगिक न हान पर प्रासंगिक तथा आनुषंगिक कार्यों से तात्पर्य उन कार्यों से है जो कम्पनी के मुख्य उद्देश्यों से उचित एव निकटतम सम्बन्ध रखते हैं। अत: जब कभी किसी कार्य को प्रासंगिक तथा आनुषंगिक ठहराना हो तो यह सिद्ध करना पड़ेगा कि उस कार्य का कम्पनी के मुख्य उद्देश्यों के साथ उचित निकटतम सम्बन्ध है।जब कभी ऐसा कार्य किया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्यों से उचित एवं निकटतम सम्बन्ध नहीं होता है तो वह कार्य अधिकारों के बाहर माना जाता है और व्यर्थ होता है।

(4) कार्य अन्तर्नियमों के बाहर होने पर जब कोई कम्पनी ऐसा कार्य करती है जो अन्तनियमा के बाहर है तो वह अन्तर्नियमों द्वारा अनाधिकृत कार्य कहलाता है। ऐसे कार्य दो प्रकार के हो सकते हैं। प्रथम वे कार्य जो अन्तर्नियमों के बाहर किन्तु सीमानियम के भीतर होते हैं। द्वितीय वे कार्य जो अन्तनियमों तथा सीमानियमों दोनों के बाहर होते हैं। दूसरे प्रकार के कार्य सदैव व्यर्थ होते हैं। उनका पुष्टिकरण। करके भी वैध नहीं बनाया जा सकता है। किन्तु प्रथम प्रकार के कार्यों को वैध बनाया जा सकता है यदि कम्पनी अपनी साधारण सभा में एक विशेष प्रस्ताव पारित करके अन्तर्नियमों में आवश्यक परिवर्तन कर। ले। दूसरे शब्दों में, प्रथम प्रकार के कार्यों का पुष्टिकरण करके उन्हें वैध बनाया जा सकता है। ।

(5) कार्य संचालकों के अधिकारों के बाहर होने पर जब कोई कार्य कम्पनी के संचालकों के अधिकारों के बाहर हो तो वह भी अनाधिकृत कार्य कहलाता है। ऐसे कार्य भी दो प्रकार के हो सकते हैं। प्रथम, जो कम्पनी के अधिकारों के अन्तर्गत किन्तु संचालकों के अधिकारों के बाहर होते हैं। द्वितीय, कम्पनी तथा संचालकों दोनों ही के अधिकारों के बाहर होते हैं। इन कार्यों का पुष्टिकरण नहीं किया जा सकता है। किन्तु प्रथम प्रकार के कार्य जो कम्पनी के अधिकार में होते हैं किन्तु संचालकों के अधिकार में नहीं होते हैं, उनको कम्पनी द्वारा पुष्टि करके वैध बनाया जा सकता है। इसके लिये कम्पनी को अपनी साधारण सभा में एक विशेष प्रस्ताव पारित करना पड़ता है। किन्तु जब तक पुष्टि नहीं हो जाती है तब तक ये कार्य भी व्यर्थ ही रहते हैं।

(6) कम्पनी के अधिकार क्षेत्र के बाहर किये गये कार्ययदि कोई कार्य सीमानियम के उद्देश्य वाक्य के बाहर या सीमानियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बाहर या कम्पनी अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बाहर किया गया है तो वह कार्य कम्पनी के अधिकार क्षेत्र के बाहर कहा जाता है। यह कार्य पूर्णरूपेण व्यर्थ होता है और कम्पनी ऐसे कार्य से कभी भी बाध्य नहीं हो सकती। यदि कम्पनी के समस्त अंशधारी भी चाहें तो ऐसे कार्यों को मान्यता प्रदान नहीं कर सकते। ऐसे कार्यों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं

(i) पूँजी में से लाभांश का भुगतान करना, (ii) अनाधिकृत पूँजी का निर्गमन करना, (iii) वैधानिक आवश्यकता को पूरा किये बिना ही कम्पनी की पूँजी को कम करना, (iv) हरण किये अंशों की बिक्री के लाभ को सदस्यों में बाँट देना, तथा (v) कम्पनी के उद्देश्य वाक्य के बाहर कार्य करना।

अधिकार से बाहर किये गये कार्यों का प्रभाव

 (Effects of UltraVires Acts)

अधिकारों से बाहर किये गये कार्यों के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं

(1) व्यर्थ अनुबन्धकम्पनी अधिनियम एवं सीमानियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बाहर किया गया कोई भी कार्य प्रारम्भ से ही व्यर्थ होता है और कोई दायित्व उत्पन्न नहीं करता। अत: कम्पनी ऐसे कार्यो। के लिये बाध्य नहीं है और ऐसे कार्यों के लिये तृतीय पक्षकार कम्पनी पर अथवा कम्पनी तृतीय पक्षकार पर वाद प्रस्तुत नहीं कर सकती क्योंकि सीमानियम एक पंजीकृत एवं सार्वजनिक प्रपत्र है और यह माना जाता है कि कम्पनी से व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसका ज्ञान है।

(2) निषेधाज्ञा प्राप्त करनायदि कम्पनी अधिकारों के बाहर कार्य कर रही है या करना चाहती है तो कम्पनी का कोई भी सदस्य न्यायालय से निषेधाज्ञा प्राप्त करके कम्पनी अथवा संचालक को ऐसा कार्य करने से रोक सकता है।

(3) संचालकों का व्यक्तिगत दायित्वकम्पनी के संचालकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे कम्पनी की पँजी का उपयोग केवल अधिकृत एवं वैध कार्यों के लिए ही करें, अतएव यदि वे कम्पनी की। पॅजी का उपयोग पार्षद सीमानियम में उल्लिखित उद्देश्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए करते हैं तो वे उन कार्यों के परिणामस्वरूप होने वाली क्षति के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होंगे।

(4) अधिकारों के बाहर प्राप्त की गई सम्पत्ति पर अधिकार-यदि कम्पनी के धन से अधिकारों के बाहर कोई सम्पत्ति क्रय की गई है तो उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में कम्पनी के अधिकार साशित क्योंकि भले ही सम्पत्ति अधिकारों के बाहर क्रय की गई है फिर भी वह कम्पनी की पूँजी का प्रतिनिधिल करती है। ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में कम्पनी की स्थिति एक अवयस्क की भांति होती है।

(5) कर्त्तव्य भंग का दायित्वसंचालक कम्पनी के एजेण्ट होते हैं। अत: उनका यह कर्त्तव्य है। कि वे कम्पनी के अधिकारों के अन्तर्गत ही कार्य करें। यदि वे किसी बाहरी व्यक्ति को कम्पनी के साथ एक ऐसा अनुबन्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं जिसके लिए कम्पनी को अधिकार नहीं है तो इस व्यक्ति को होने वाली सारी हानि के लिए संचालक स्वयं उत्तरदायी होंगे।

(6) अनाधिकृत ऋण वसूल करने का अधिकारयदि कोई कम्पनी अपने अधिकारों के बाहर किसी व्यक्ति को ऋण प्रदान करती है तो उसे वसूल करने का उसका अधिकार बना रहता है, समाप्त नहीं होता।

(7) संचालकों एवं अन्तर्नियमों के बाहर किये कार्यों का पुष्टिकरण-यदि कम्पनी द्वारा किया गया कोई कार्य (i) अन्तर्नियमों के बाहर, परन्तु सीमानियम के अन्दर है, (ii) संचालकों के अधिकार से बाहर, परन्तु कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत है, (iii) कम्पनी के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत तो आता है, परन्तु अनियमित ढंग से किया गया है तो कम्पनी की सभा में प्रस्ताव पारित करके उसका पुष्टिकरण किया जा सकता है अर्थात् अंशधारियों की सहमति से उसे वैध बनाया जा सकता है।

() शक्ति के अन्तर्गत या अधिकारों के अन्दर का सिद्धान्त

(Doctrine of Intra-Vires)

जो कार्य कम्पनीज अधिनियम, पार्षद सीमानियम एवं पार्षद अन्तर्नियमों के अन्दर किये जाते हैं उन्हें अधिकारों के अन्दर का कार्य कहा जाता है। इस प्रकार के कार्यों के लिए कम्पनी उसी प्रकार से उत्तरदायी होती है जिस प्रकार कि एक एजेण्ट के द्वारा किये गये कार्यों के प्रति उसका नियोक्ता उत्तरदायी होता है। इन्हें निम्नांकित तीन भागों में बाँटा जा सकता है

(1) कम्पनीज अधिनियम के अन्तर्गत किये गये कार्य (Intra-vires Companies Act)—ऐसे सभी कार्य जो कम्पनीज अधिनियम की व्यवस्थाओं के अधीन किये जाते हैं, कम्पनीज अधिनियम के अधिकारों के अन्दर माने जाते हैं।

(2) पार्षद सीमानियम के अधिकारों के अन्तर्गत किये गये कार्य (Intra-vires of Memorandum)-ऐसे कार्य जो पार्षद सीमानियम के अधिकारों के अन्तर्गत किये जाते हैं, पार्षद सीमानियम के अन्तर्गत कहे जाते हैं। __(3) पार्षद अन्तर्नियमों के अधिकारों के अन्तर्गत किये गये कार्य (Intra-vires of Articles)—जो कार्य पार्षद अन्तर्नियमों के अन्तर्गत किये जाते हैं, वे पार्षद अन्तर्नियमों के अधिकारों के अन्तर्गत कहे जाते हैं।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

1 पार्षद सीमानियम की महत्ता दर्शाइये। उसके अनिवार्य वाक्यों की संक्षेप में व्याख्या कीजिये। इसमें किस प्रकार परिवर्तन किया जा सकता है?

Discuss the importance of the Memorandum of Association. Explain in brief its compulsory clauses. How it can be altered?

2. पार्षद सीमानियम के प्रमुख वाक्यों के बारे में लिखिये। उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये।

Write the main clauses of Memorandum of Association. Describe the procedure of altering the objective clauses.

3. संगम जापन के विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिये। संगम ज्ञापन के नाम खण्ड को किस प्रकार परिवर्तित किया जा सकता है ?

Describe various clauses of memorandum of various clauses of the memorandum of association. How far the name clause of the memorandum of association be altered ?

4. पार्षद सीमानियम की परिभाषा दीजिये तथा इसकी विषय सामग्री को बतलाइये।

Define Memorandum of Association and discuss its subject matter.

5. “पार्षद सोमानियम कम्पनी का सबसे महत्त्वपूर्ण चार्टर होता है।” इस कथन को समझाइये।।

*Memorandum of Association is the most important charter of a company. Explain it.

6. “कम्पनी का पार्षद सीमानियम एक सार्वजनिक प्रलेख है।” इस कथन को समझाइये।

“Memorandum of Association is public document.” Explain it.

7. पार्षद सीमानियम क्या है ? ‘उद्देश्य वाक्य’ के महत्त्व की विवेचना कीजिये तथा बताइये कि इसमें परिवर्तन किस प्रकार किया जा सकता है ?

What is a Memorandum of Association? Discuss the importance of the ‘Object Clause’ and show how it can be altered ?

8. पार्षद सीमानियम एवं अन्तर्नियमों में अन्तर कीजिये एवं पार्षद सीमानियम के रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य में किस प्रकार परिवर्तन किया जा सकता है ?

Distinguish between the Memorandum of Association and Articles of Association. How can the registered office clause of the Memorandum of Association be altered ?

9. पार्षद सीमानियम एक कम्पनी क्षेत्र के अस्तित्व का एक चार्टर है।” इस कथन की विवेचना कीजिये।

“Memorandum of Association is the charter of a company’s existence.” Discuss this statement.

10. “कोई भी कम्पनी अपने सीमानियम में दी गई शर्तों को उन दशाओं में, उस विधि से तथा उस सीमा तक जिसकी अधिनियम में स्पष्ट व्याख्या है, छोड़कर परिवर्तित नहीं कर सकती है।” व्याख्या कीजिये।

“A company shall not alter the conditions in its Memorandum except in the cases, in the mode and to the extent for which express provision is made in the Act.” Discuss.

11. पार्षद अन्तर्नियम क्या है ? क्या प्रत्येक कम्पनी के लिये अपना स्वयं का अन्तर्नियम होना अनिवार्य हे?

What is the Article of Association ? Is it compulsory for every company to have its own Articles?

12. पार्षद अन्तर्नियम की परिभाषा दीजिये तथा इसकी विषय सामग्री बताइये। क्या प्रत्येक कम्पनी को अपना पार्षद अन्तर्नियम तैयार करना आवश्यक है?

Define Articles of Association and give the contents thereof. Is it necessary for every company to have Articles of Association of its own ?

13. पार्षद अन्तर्नियम से आप क्या समझते हैं ? यह पार्षद सीमानियम से किस प्रकार भिन्न है ? यह बताइये कि अन्तर्नियम में परिवर्तन कैसे किया जा सकता है ?

What do you understand by Articles of Association ? How does it differ from Memorandum of Association ? State how articles can be altered.

14. रचनात्मक सूचना के नियम से आप क्या समझते हैं ? यह नियम किस पार्टी के पक्ष में लागू होना माना जाता है ? इस नियम की “आन्तरिक प्रबन्धन का सिद्धान्त” नियम के सापेक्ष विवेचना करें।

What do you understand by the rule of constructive notice ? In whose favour does this doctrine operate ? Discuss the viability of this doctrine vis-a-vis doctrine of indoor management.

15. रचनात्मक सूचना के सिद्धान्त एवं उसके अपवादों को समझाइये। किसी महत्त्वपूर्ण वैधानिक विवाद का नाम भी लिखिये।

What is the “Doctrine of Indoor Management” ? Discuss its exceptions and one decided case law.

16. “पार्षद सीमानियम एवं अन्तर्नियम लोक दस्तावेज है जिनकी रचनात्मक सूचना कम्पनी से व्यवहार करने वालों की होती है।” इस कथन की व्याख्या कीजिये तथा दोनों में मुख्य अन्तर बताइये।

The Memorandum and Articles of Association are the public documents of which those dealing with the company have Constructive Notice.” Explain this statement and state the main difference between Articles of Association and Memorandum

17. अधिकारों के बाहर के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं ? कम्पनी अधिकारों के बाहर के कार्यों को समझाइये तथा ऐसे कार्यों के प्रभावों को उल्लेख कीजिये।

What do you mean by doctrine of ultra vires ? Explain the ultra vires acts and state the effects of such acts.

18. “पार्षद अन्तर्नियमों को कम्पनी तथा उसके सदस्यों के मध्य तथा उसके प्रत्येक सदस्य और अन्य सदस्यों के मध्य हुआ प्रसंविदा माना जाता है।” इस कथन को समझाइये।

“Articles of Association constitute a contract between the company and its members and between the members interse.” Elucidate this statement.

19. एक कम्पनी के अन्तर्नियम कैसे और किस सीमा तक परिवर्तित किये जा सकते हैं ?

Discuss how and to what extent Articles of Association of a company can be altered?

Memorandum Articles Association Study

लघु एवं अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

(Short and Very Short Answer Questions)

1 पार्षद सीमानियम क्या है ?

What is memorandum of Association ?

2. पार्षद अन्तर्नियम को परिभाषित कीजिये।

Define Articles of Association,

3. पार्षद सीमानियम तैयार करते समय किन बातों पर ध्यान देना चाहिये।

While preparing memorandum of Association what factors should be considered?

4. पार्षद सीमानियम के उद्देश्य वाक्य का वर्णन कीजिये।

Describe the object clause of Memorandum of Association.

5. पार्षद सीमानियम का महत्त्व बताइये।

Explain importance of Memorandum of Association.

6. नाम वाक्य में परिवर्तन किन दशाओं में किया जा सकता है ?

In which conditions name clause can be changed ?

7. एक कम्पनी अपने नाम में परिवर्तन किस प्रकार कर सकती है?

How a company can change its name?

8. एक कम्पनी रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य में परिवर्तन किस प्रकार कर सकती है?

How a company can change its Registered Office Clause?

9. पार्षद सीमानियम के उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन किस प्रकार किया जा सकता है ? समझाइये।

How can object clause of Memorandum of Association be altered ? Explain.

10. पार्षद अन्तर्नियमों की आवश्यकता/महत्त्व बताइये।।

Describe the need/importance of Articles of Association.

11. पार्षद अन्तर्नियमों की विषय सामग्री को स्पष्ट कीजिये।।

Explain the contents of Articles of Association.

12. क्या प्रत्येक कम्पनी के लिये पार्षद अन्तर्नियम को तैयार करना अनिवार्य है?

Is it compulsory for a company to prepare its Articles of Association.

13. पार्षद सीमानियम की विषय सामग्री स्पष्ट कीजिये।

Discuss subject matter of memorandum of Association

14. रचनात्मक सूचना सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिये।

Explain the doctrine of Constructive Notice.

15. कम्पनी के ‘आन्तरिक प्रबन्ध सिद्धान्त’ को स्पष्ट कीजिये।

Explain the ‘Doctrine of Indoor Management of company.

16. आन्तरिक प्रबन्ध सिद्धान्त के अपवाद बताइये।

Describe the exceptions of the Doctrine of Indoor Management.

17. पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम सार्वजनिक प्रलेख हैं।” समझाइये।

“Memorandum and Articles of Association are public documents.”‘ Explain.

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chetansati

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