BCom 3rd Year Auditing Principles Techniques Preparation Procedure Notes in Hindi

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BCom 3rd Year Auditing Principles Techniques Preparation Procedure Notes in Hindi: Principles of Auditing Techniques of Auditing Preparation Before Audit Procedure of Audit  Checking or selective verification Short Answer Question ( Most Important Post For BCom 3rd  Year Students )

Principles Techniques Preparation Procedure
Principles Techniques Preparation Procedure

BCom 3rd Year Audit Types Classification Study Material Notes in Hindi

अंकेक्षण सिद्धान्त, तकनीक, तैयारी

एवं कार्यपद्धति

PRINCIPLES, TECHNIQUES, PREPARATION, AND PROCEDURE OF AUDIT]

(अंकेक्षण कार्यक्रम AUDIT PROGRAMME)

“अंकेक्षण-कार्य के व्यावहारिक पहलुओं के लिए आधुनिक तकनीकी के अनुसार नवीन दृष्टिकोण की आवश्यकता है।”

अंकेक्षण सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF AUDITING)

प्रत्येक वैज्ञानिक क्षेत्र के कुछ आधारभूत नियम होते हैं जिन्हें उस विज्ञान के सिद्धान्तों की संज्ञा दी जाती है। सिद्धान्तों के अध्ययन से उन उद्देश्यों का ज्ञान होता है जिनकी प्राप्ति के लिए वे प्रतिपादित किये गये हैं। अंकेक्षक को सिद्धान्त की जानकारी के साथ-साथ उन प्रक्रियाओं तथा प्रविधियों से भलीभांति परिचित होना चाहिए जिनके अपनाने से वह लेखों की जांच का कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न कर सकता है।

स्पष्टतः यह कहा जा सकता है कि सिद्धान्त आधारभूत नियम हैं तथा प्रक्रिया में वे सभी कार्य सम्मिलित होते हैं, जो जांच के दौरान पूरे किये जाते हैं। प्रविधि वे उपाय तथा तरीके हैं जो इन सिद्धान्तों के लागू करने की प्रक्रिया में अपनाये जाते हैं। संक्षेप में, कार्य के पूर्ण करने की प्रक्रिया ही प्रविधि कहलाती है। उदाहरण के लिए, कच्चे माल का क्रय सदैव आयगत माना जाता है। यह एक सिद्धान्त है। इसके सम्बन्ध में आदेश, बीजक व प्रपत्रों की प्राप्ति तथा मौजूदगी की जानकारी एक प्रक्रिया है और इन सबकी सत्यता व पूर्णता प्रमाणित करना प्रविधि बन सकती है।

अंकेक्षण के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं.

(1) सत्यता का सिद्धान्त (Principle of True)—यह एक आधारभूत सिद्धान्त है। सत्य से आशय यह । है कि कम्पनी के अन्दर बने सभी खाते पूर्ण रूप से अधिनियम के अनुरूप बने हैं और अंकेक्षक द्वारा यह भली प्रकार से सत्यापित किया है कि कम्पनी के सभी लेन-देन व सम्पत्तियां एवं दायित्व ठीक है।

(2) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Independence)—स्वतन्त्रता के अभाव में कोई भी अंकेक्षण सफल नहीं है। किसी भी अंकेक्षण कार्य में स्वतंत्रता बहुत ही आवश्यक होती है। अतः इसके लिए अंकेक्षक पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए तथा वह यह कार्य किसी भेदभाव के बिना पूर्ण करें।

(3) प्रकटता का सिद्धान्त (Principle of Disclosure)—इस सिद्धान्त के अनुसार व्यापारी के द्वारा सभी प्रकार के लेन-देनों, सम्पत्तियों, दायित्वों के पूर्ण प्रमाण प्रकट किये गए हों। इन प्रमाणों के बिना अंकेक्षण। सही नहीं माना जा सकता है।

(4) भौतिकता का सिद्धान्त (Principle of Materiality)- इस सिद्धान्त के अनसार अंकेक्षक द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि किन लेन-देनों को छोड़ा जाना चाहिए एवं किन लेन-देनों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। यह एक जटिल एवं महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

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अंकेक्षण की प्रविधियां

(TECHNIQUES OF AUDITING)

प्रत्येक लेन-देन की सत्यता व पूर्णता प्रमाणित करना एक परम्परागत प्रविधि का भाग है। सत्यता व पूर्णता प्रमाणित करने के लिए कुछ अंकेक्षण प्रविधियाँ निम्न हो सकती हैं :

(1) भौतिक सत्यापन (Physical Verification) भौतिक सत्यापन के द्वारा स्वयं के निरीक्षण से लेखा-पुस्तकों में लिखी गयी मदों की जांच की जा सकती है। किसी मद की विद्यमानता प्रमाणित करने के लिए भौतिक सत्यापन किया जा सकता है। ऐसा करने पर अंकेक्षक को किसी अधिकारी के प्रमाण-पत्रों का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यह सत्यापन तब ही सम्भव है जबकि जांच की जाने वाली मद स्पष्ट है और भौतिक इकाइयों के रूप में नापे जाने के योग्य है। भौतिक सत्यापन में गणना व पहचान सम्मिलित है।

(2) भौतिक गणना (Physical Counting)—भौतिक गणना एक सरल उपाय है, बशर्ते कोई मद स्पष्ट रूप से गिने जाने योग्य हो। गणना उन्हीं मदों की हो सकती है जिनकी पहचान व एकरूपता स्पष्ट व सरल हो। गणना की तकनीक से सत्यापन व जांच एक सर्वमान्य उपाय है।

(3) परीक्षण जांच (Test Checking)-परीक्षण जांच के अन्तर्गत कुछ मदों के जांच में सही मिलने पर शेष मदों को सही मान लेने की प्रक्रिया है। ऐसी जांच में लेखों का चयन प्रायः यकायक ही किया जाता है किन्हीं विशेष सिद्धान्तों का प्रयोग नहीं होता है।

(4) नैत्यक जांच (Routine Checking)—नैत्यक जांच में वह जांच सम्मिलित है जो संस्थाओं में सामान्य रूप से रखी जाने वाली पुस्तकों तथा लेखों से सम्बन्धित है। जांच सामान्य है और साधारण योग्यता वाले व्यक्ति इसको कर सकते हैं। यह सम्पूर्ण कार्य यथावत् होता है। नैत्यक जांच से कपट व त्रुटियों का आसानी से पता चल सकता है। यह जांच प्रारम्भ से अन्त तक किये गये लेखों की जा सकती है। यह एक सरले प्रविधि है।

(5) मल प्रपत्रों और संलेखों की जांच (Examination of Original Documents and Contracts) व्यवसाय के लेन-देनों के सत्यापन के लिए अंकेक्षक को विभिन्न संलेखों तथा प्रसंविदों की जांच करनी होती है। अतः संलेखों व प्रसंविदों की जांच अंकेक्षण की अत्यधिक महत्व की प्रविधि है, क्योंकि अधिकांशतः लेन-देन संलेखों से सम्बन्धित होते हैं। संलेखों व प्रलेखों की जांच सम्बन्धित लेन-देनों की अधिकारपूर्णता, शुद्धता एवं उचित लेखों की सत्यता प्रमाणित करने के लिए की जाती है।

(6) पूछताछ (Enquiry) अंकेक्षक को आन्तरिक नियन्त्रण व आन्तरिक निरीक्षण के क्षेत्र तथा औचित्य की जानकारी करनी होती है। उसको पुस्तकों में किये गये लेखों के लिए उचित साक्ष्य एकत्रित करने होते हैं तथा साक्ष्यों की अधिकारपूर्णता संगठन में प्रचलित आन्तरिक नियन्त्रण व आन्तरिक निरीक्षण की पद्धति पर निर्भर करती है। अतः पूछताछ के माध्यम से अंकेक्षक यह कार्यवाही सुनिश्चित कर सकता है।

(7) प्रमाणन (Vouching)—प्रमाणन की प्रविधि से अंकेक्षक प्रविष्टियों के आधारभूत प्रमाणकों की जांच करता है। यह सत्यापन करना होता है कि कोई भी प्रमाणक ऐसा न हो जिसके लिए प्रविष्टि न की गयी हो और ऐसी कोई भी प्रविष्टि न हो जिसका प्रमाणक मौजूद न हो। इस प्रकार अंकेक्षक को प्रमाणकों की सहायता से खाता-पुस्तकों के लेखों की जांच करनी होती है।

(8) गहन जांच (Detailed Checking)—गहन जांच में अंकेक्षक को प्रत्येक लेन-देन के सम्बन्ध में प्रारम्भ से अन्त तक उसके प्रत्येक पहलू पर ध्यान देना होता है। लेन-देन व्यवसाय के हित में किया गया है। और उसका लेखा आवश्यक पुस्तक में किया गया है जो पूर्णरूपेण सही है, यह सब देखना गहन जांच में आता है। गहन जांच की प्रविधि का प्रयोग व्यापारिक संस्था की कार्यप्रणाली पर निर्भर करता है।

(9) सम्बन्धित सूचना से मद का सहसम्बन्ध स्थापित करना (Co-relating an item with related Information) विभिन्न लेखा प्रविष्टियों के सम्बन्ध में व्यवसाय की वित्तीय स्थिति के रुझान को समझने। के लिए इसकी निरन्तरता की जांच करनी चाहिए। इस प्रकार के विश्लेषण से विभिन्न मामलों की अनियमितता। प्रकाश में आ जाती हैं। विश्लेषण की विभिन्न विधियों के अनुपात-विश्लेषण (ratio analysis) सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं जिनके द्वारा लेखा किये गये लेन-देनों की निरन्तरता की जांच की जा सकती है। विभिन्न प्रकार। के अनुपातों की सहायता से फर्म की लाभदेयता व साख-सक्षमता का ज्ञात हो सकता है।

(10) सम्पष्टीकरण (Confirmation) किसी लेन-देन की शुद्धता, सक्षमता तथा सही होने की जानकारी के उद्देश्य के लिए अंकेक्षक को उचित अधिकारियों से सम्पुष्टता-प्रमाणपत्र एकत्रित करने होते हैं। आवश्यकता होने पर अंकेक्षक बाहरी व्यक्तियों से पत्र-व्यवहार कर सकता है। उदाहरणस्वरूप देनदारों से सम्पर्क करके संगठन के ऋणों की राशि का सही ज्ञान किया जा सकता है। वैसे ही बैंकों से प्रमाण-पत्र लेकर निक्षेपों (deposits) की जानकारी की जा सकती है।

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आधुनिक प्रविधियों में विशेष रूप से आन्तरिक नियन्त्रण की पद्धति का प्रमापीकरण, कार्यकलाप की छानबीन, सम्पत्तियों एवं दायित्वों का सत्यापन जिससे कि इनका सही व उचित प्रस्तुतीकरण हो सके, आदि अब अधिक प्रचलित हैं।

अब यह विचारधारा कि अंकेक्षण कपट के पता चलाने व रोकने के लिए विशेष रूप से उपयोगी है, अधिक व्यापक रूप से स्वीकार नहीं की जाती है। वरन् अब इस दृष्टिकोण को अधिक मान्यता मिल रही है कि अंकेक्षण के द्वारा किसी संस्था के कार्यकलापों का सत्य व सही प्रस्तुतीकरण किया जा सके तथा कुशल व्यापार की पद्धतियों के परिपालन कराने व बनाये रखने में यह विशेष रूप से उपयोगी बन सके।

अंकेक्षण के पूर्व तैयारी

(PREPARATION BEFORE AUDIT)

अंकेक्षण के पूर्व अंकेक्षक को क्या तैयारी करनी चाहिए, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसे किसी व्यापारिक संस्था का हिसाब-किताब जाँचने में कितना समय लगेगा, यह अंकेक्षक की शिक्षा, अनुभव तथा ज्ञान पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक अंकेक्षक को अपना कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ तैयारी अवश्य करनी चाहिए। वह क्या तैयारी करे, यह उन परिस्थितियों पर निर्भर होगा जिनमें उसे कार्य के लिए नियुक्त किया गया है।

1 कार्य का क्षेत्र तय करना

सबसे पहले अंकेक्षक को स्पष्ट रूप से देखना होगा कि उसे कितना कार्य करना है। कार्य की सीमा अंकेक्षक तथा उनके नियोक्ता के बीच हुए समझौते अथवा उसके नियुक्ति-पत्र (appointment letter) की शो पर निर्भर होगी। हां, यदि अंकेक्षक को किसी कम्पनी की जांच करनी है, तो पूर्णतया कम्पनी अधिनियम के आधार पर कार्य करना पड़ेगा और इसीलिए समझौते का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु अन्य निजी संस्थाओं के विषय में नियोक्ता यह स्वयं तय करता है कि अंकेक्षक को कितने हिसाब-किताब का अंकेक्षण करना है। कार्य का क्षेत्र जानने के लिए अंकेक्षक को अपनी नियुक्ति के समय सभी बातों का. जैसे अंकेक्षण का उद्देश्य, कार्य की सीमा इत्यादि विषय की पूर्ण जानकारी नियोक्ता से कर लेनी चाहिए। यदि उसके कार्य पर कोई सीमाएं (limitations) हैं, तो उनके बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इन सभी सूचनाओं और आदेशा को उसे अपनी डायरी में भली प्रकार नोट करना चाहिए।

2. संस्था के विषय में जानकारी

कार्य का क्षेत्र व उद्देश्य समझ लेने के पश्चात् जिस संस्था का उसे अंकेक्षण करना है उसके विषय में। परी जानकारी करनी होती है। इस सम्बन्ध में उसे निम्नलिखित बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए :

(1) नियमावली जिसके अनुसार संस्था का कार्य चलता है। उदाहरणस्वरूप कम्पनी के लिए पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association) तथा अन्तर्नियम(Articles of Association) और साझेदारी संस्था के लिए साझेदारी संलेख (Partnership Agreement) आदि। इन आधारस्वरूप नियमों का अध्ययन

अंकेक्षण सिद्धान्त, तकनीक, तैयारी एवं कार्यपद्धति करने से वह संस्था की कार्य-प्रणाली से पूर्ण परिचित हो सकता है। नियमों का गहन अध्ययन एवं उनका विशेष ज्ञान अंकेक्षक के लिए अत्यन्त ही आवश्यक है।

(2) हिसाब-किताब रखने की पद्धति कैसी है यह भी देखना चाहिए। ध्यान रहे कि बीमा कम्पनी, बैंक, संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी, सिनेमाघर, बिजली-कम्पनी, शिक्षा-संस्था, आदि सभी संस्थाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार से खाते बनाती हैं और विभिन्न पुस्तकों का प्रयोग करती हैं। अतः अंकेक्षक को संस्था के स्वभाव से परिचित होना चाहिए, जिससे वह उसी प्रकार लेखा-प्रणाली की उपयुक्तता के बारे में निश्चित और सन्तुष्ट हो सके।

(3) पुस्तकों और उनके लिखने वालों के नाम मालम करने चाहिए। संस्था में कौन-कौन सी पुस्तकें रखी जाती हैं और जो व्यक्ति उनके लिखने से सम्बन्धित हैं. उनके नाम भी मालूम करने चाहिए। इनके लिए नियोक्ता से पुस्तकों तथा उनके लिखने वाले व्यक्तियों के नाम की सूची प्राप्त करनी चाहिए।

(4) यह भी देखना चाहिए कि आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली कैसी है। आन्तरिक निरीक्षण वह व्यवस्था है जिसके आधार पर एक संस्था के कार्य का बँटवारा उसके कर्मचारियों के बीच इस प्रकार किया जाता है कि कार्य करने के साथ-साथ जांच भी होती जाए। यदि कार्य के बँटवारे में कोई दोष है तो संस्था के हिसाब-किताब में त्रुटियां और कपट होने की सम्भावना है। अतः अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि आन्तरिक निरीक्षण की पद्धति सन्तोषजनक है अथवा नहीं। यदि नहीं है तो उन कमियों को ध्यान में रखकर उसे अपने कार्य की सीमा तय करनी चाहिए।

(5) यदि संस्था के सम्बन्ध में कोई अन्य तकनीकी बातें (technical details) हों, तो उसे अपने नियोक्ता से उनका पता करना चाहिए। एक-सा व्यापार करने वाली संस्थाओं का कार्य भी पूर्णतः समान नहीं होता। अतः अंकेक्षक को उन सभी बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जो एक संस्था से सम्बन्धित हों। ये विशेष बातें क्या और कितनी हो सकती हैं यह संस्था के स्वभाव पर निर्भर होगा।

(6) यह भी आवश्यक है कि अंकेक्षक संस्था के पिछले वर्ष के अंकेक्षित चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाते का अध्ययन करे और यह जानने का प्रयत्न करे कि पिछले अंकेक्षक की रिपोर्ट में किन विशेष बातों का उल्लेख किया गया है।

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उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरणएक निर्माणी संस्था (Manufacturing concern) के हिसाब-किताब और लेन-देन के सम्बन्ध में निम्नांकित बातों की विशेष जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता है:

(1) रोकड़ की प्राप्ति और भुगतान के सम्बन्ध में क्या नियम हैं और रोकड़िये का क्या कार्य है? विशेषकर यह जानकारी करनी चाहिए कि रोकड़िये का सम्बन्ध अन्य पुस्तकों के लिखने से तो नहीं है।

(2) मजदूरी तालिका (wage sheet) तैयार करने और मजदूरी का भुगतान करने की क्या व्यवस्था है?

(3) बीजक तथा अन्य विवरण-पत्रों की जाँच की क्या व्यवस्था है ?

(4) फुटकर खर्चे (petty expenses) का नियन्त्रण कैसे किया जाता है ?

(5) व्यक्तिगत खाताबहियों में किस प्रकार प्रविष्टियाँ की जाती हैं और इन बहियों के शेष निकालने की क्या व्यवस्था है ?

3. नियोक्ता को स्पष्ट निर्देश

व्यापारिक संस्था की कार्य पद्धति से परिचित होने के पश्चात् जो निर्देश अंकेक्षक आवश्यक समझे उन्हें अंकेक्षण करने से पूर्व अपने नियोक्ता को दे दे। क्या और कितने निर्देश देने होंगे, यह बहत कछ संस्था के स्वभाव, आकार तथा उनके हिसाब-किताब रखने की प्रणाली पर निर्भर होगा। सामान्यतः उसे निम्न बातों के विषय में निर्देश देने चाहिए :

(1) पुस्तकों के जोड़ किये जायें तथा तलपट व अन्तिम खाते तैयार रखे जायें: ।।

(2) सभी प्रमाणक (vouchers) क्रम के अनुसार रखे जायें:

(3) देनदारों व लेनदारों की सूची तैयार की जाए।

(4) अप्राप्य व संदिग्ध ऋणों की सूची बना ली जाए:

(5) अदत्त व्ययों (outstanding expenses), पेशगी व्ययों (prepaid expenses) एवं अर्जित आय (accrued income) की सूची तैयार की जाए।

(6) स्टॉक की सूची बनायी जाए तथा इसके मूल्यांकन करने का ढंग भी बताया जाए;

(7) विनियोगों की सूची बनायी जाए तथा इसमें उनका लागत मूल्य व बाजार मूल्य भी लिखा जाए।

(8) विभिन्न शाखाओं, प्रतिनिधियों एवं अन्य सम्बन्धित संस्थाओं के लेन-देन से सम्बन्धित वापस माल की प्रामाणिक सूचियां बनायी जाएं।

(9) स्थायी पूंजीगत व्यय (Permanent capital expenditure) का पूर्ण विवरण तैयार किया जाए.

(10) जिन संलेखों (documents) को अंकेक्षक को देखने का अधिकार है, उनकी सूची बनायी जाण. तथा

(11) प्रबन्धकों के नाम, पते आदि लिखकर सूची बनायी जाए।

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4. अंकेक्षण की तैयारी

जब अंकेक्षक को अपने कार्य-क्षेत्र का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है तो वह अपने कार्य की वास्तविक तैयारी। करता है। इस तैयारी के निम्न अंग हैं :

(अ) कार्य वितरणअंकेक्षक को अपने अधीन कर्मचारियों को उनकी योग्यता, अनुभव तथा शिक्षा के अनुसार कार्य बांटना चाहिए। इन कर्मचारियों में दो तरह के व्यक्ति होते हैं—सीनियर (senior) तथा जनियर (junior)। यह आवश्यक है कि सरल कार्य जूनियर कर्मचारियों को तथा कठिन व विशेष प्रकार का कार्य सीनियर कर्मचारियों को दिया जाए।

जूनियर कर्मचारियों को सीनियर कर्मचारियों तथा सीनियर कर्मचारियों को स्वयं अंकेक्षक के अधीन कार्य करना चाहिए। सभी को अपने प्रधान के आदेशों के अनुसार कार्य करना चाहिए। सीनियर कर्मचारियों के साथ जूनियर कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग उपलब्ध होना उसके कार्य की सफलता की कुन्जी है।

साधारणतया सहायक पुस्तकों के लेखों का प्रमाणकों से मिलान, खाताबही में खतियाने की जांच, जोड़ों तथा बाकियों की जाँच तथा खाताबही की बाकियों का तलपट से मिलान, इत्यादि कार्य जूनियर कर्मचारियों को सौंपने चाहिए।

इसके विपरीत, अदत्त व्ययों की जांच, ह्रास की रकम के आयोजन का ढंग, अप्राप्य तथा संदिग्ध ऋणों के लिए की गयी व्यवस्था, रोकड़ बही की जांच, सम्पत्तियों तथा देनदारियों का मूल्यांकन, आदि कार्य सीनियर कर्मचारियों को सौंपने चाहिए। ध्यान रहे कि जाँच की सफलता कार्य के वितरण पर काफी हद तक निर्भर है।

कुछ भी हो, अन्तिम उत्तरदायित्व अंकेक्षक का ही है। अंकेक्षक को ही अन्तिम रिपोर्ट देनी है और उस पर अपने हस्ताक्षर करने हैं। अतः जांच की यह प्रारम्भिक तैयारी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

(ब) अंकेक्षण कार्यक्रम (Audit Programme)—अंकेक्षण के कार्य वितरण को एक योजना के रूप में लिखना ही अंकेक्षण-कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम निम्नांकित तीन प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता है:

(1) कितना कार्य ? (2) किसके द्वारा? (3) कितने समय में? ।

अंकेक्षक जानता है कि उसे कितना कार्य करना है, कितने कर्मचारी उसके पास हैं और कितने समय में वह उनके सहयोग से कार्य पूरा कर सकता है ? किसी विशेष अंकेक्षण के सम्बन्ध में अंकेक्षक को उसके स्टाफ द्वारा ही कार्य किया जाता है। उसकी सही-सही एवं विस्तृत लिखित योजना को ही ‘अंकेक्षण कार्यक्रम (Audit Programme) कहते है।

अंकेक्षण के कार्यक्रम का उद्देश्य एक निश्चित रूपरेखा तैयार करना है ताकि अंकेक्षक पूर्व-नियोजित ढंग से अपना कार्य यथासम्भव निर्धारित समय में परा कर सके। इस कार्यक्रम में लिखित कार्य के सामने कुछ स्थान छोड़ दिया जाता है, जिसमें प्रत्येक क्लर्क अपना निश्चित काम पूरा करने की तारीख लिखकर हस्ताक्षर । कर देता है।

अंकेक्षण-कार्यक्रम के बनाने में सावधानियां जैसा कि बताया जा चका है. अंकेक्षण-कार्यक्रम के बनान का एक निश्चित उद्देश्य होता है। यह तय है कि कार्य के स्वभाव के अनुसार यह कार्य तैयार किया जाता। है फिर भी इसके बनाने में निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए :

(1) अंकेक्षण-कार्यक्रम की योजना बहुत कुछ निश्चित होनी चाहिए। अंकेक्षण कार्य को भली-भाति। समाप्त करने की यह रूपरेखा स्पष्टतया तैयार की जानी चाहिए। अंकेक्षक स्वयं यह जानता है कि किस प्रकार जॉच का काय उसके स्टाफ के द्वारा निर्धारित समय में हो सकता है। अतः उसकी योजना मलशमान भी अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए।

(2) कार्य का विभाजन कार्य के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर इस प्रकार करना चाहिए जिससे जांच का कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो सके। ध्यान देने योग्य यह है कि कार्य का कोई भी अग या भाग अंकेक्षक के द्वारा की गयी जाँच से छूट न सके।

(3) अकेक्षण कार्यक्रम लोचदार होना चाहिए ताकि परिस्थितियों के अनुरूप उसमें परिवतन करन किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। वास्तव में कार्यक्रम का लोचदार होना ही उसे उपयोगी बना सकता है।

(4) साधारणतया अंकेक्षक कार्य का विभाजन विभिन्न विभागों में कार्य के क्षेत्र के अनुसार करते है जिससे कार्य की प्रगति का ज्ञान समय-समय पर होता रहता है। यह अच्छे कार्यक्रम की विशेषता है।

(5) अंकेक्षण-कार्यक्रम में अंकेक्षण करने वाले कर्मचारियों के हस्ताक्षर करने तथा तारीख डालने के लिए स्थान रहना चाहिए। इससे कार्य का दायित्व सौंपने में सुविधा रहती है।

(6) अंकेक्षण-कार्यक्रम लिखित रूप से तैयार किया जाना चाहिए।

(7) कार्यक्रम तैयार करते समय सदस्य के कार्य व दायित्व का स्पष्ट निर्धारण किया जाना चाहिए।

अंकेक्षण कार्यक्रम में क्या-क्या बातें हों और कितने कर्मचारियों में कार्य का बँटवारा हो, यह सब भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर निर्भर होगा। इसका एक सामान्य नमूना (Specimen) निम्न प्रकार है :

Specimen of Audit Programme

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अंकेक्षण कार्यक्रम के लाभ-(1) इसे देखने से अंकेक्षण के कर्मचारियों को यह पता चल जाता है कि उनमें से प्रत्येक की क्या जिम्मेदारी है। इस प्रकार कार्य का बंटवारा प्रत्येक की योग्यता के अनुसार हो जाता है।

(2) इसकी सहायता से अंकेक्षक इसी प्रकार कार्य की प्रगति का अनुमान लगा सकता है।

(3) चंकि कार्यक्रम में सभी आवश्यक विषयों का उल्लेख रहता है, अतः जाँच से उनके छटने का भय नहीं रहता है।

(4) कार्यक्रम से कर्मचारियों की कार्यकुशलता बढ़ जाती है और कार्य में असावधानी तथा अशदि की सम्भावना नहीं रहती है।

(5) कार्यक्रम से एक लाभ यह है कि यदि कोई कर्मचारी छुट्टी पर जाए या काम छोड़ दे, तो कार्य की। प्रगति का ज्ञान सरलता से हो सकता है।

(6) यदि अंकेक्षक के विरुद्ध लापरवाही का दोष लगाया जाता है वह अपने बचाव के लिए कार्यक्रम का साक्ष्य प्रस्तुत करके बच सकता है।

(7) इससे प्रधान अंकेक्षक को कार्य-व्यवस्था करने में सहायता मिलती है।

(8) अंकेक्षण-कार्य में एकरूपता (uniformity) आ सकती है क्योंकि भविष्य के अंकेक्षण के लिए भी इस कार्यक्रम का प्रयोग किया जा सकता है।

(9) मुख्य अंकेक्षक को अंकेक्षण रिपोर्ट तैयार करते समय अंकेक्षण कार्यक्रम से काफी सहायता मिलती है।

(10) अंकेक्षक भविष्य के लिए अपने कार्य की योजना बनाने में अंकेक्षण कार्यक्रम का सहारा ले सकता है।

(11) अंकेक्षण कार्यक्रम एक प्रकार से प्रगति चार्ट (progress chart) का कार्य देता है और अंकेक्षक को योजनानुसार कार्य सम्पन्न होने पर रिपोर्ट को अन्तिम रूप देने में सहायता देता है जिससे कि वह अन्तिम रिपोर्ट पर पूर्ण विश्वास के साथ हस्ताक्षर कर सकता है। __

अंकेक्षण कार्यक्रम की हानियाँ

(1) अंकेक्षण का कार्य यन्त्रवत् एवं नीरस हो जाता है। आवश्यक परिवर्तन करने की सम्भावना नहीं रहती है। वर्ष प्रतिवर्ष यही कार्यक्रम चलता रहता है।

(2) कुशल क्लर्कों को अपनी बुद्धि तथा योग्यता दिखाने का कम अवसर मिलता है क्योंकि इन्हें कार्यक्रम के अनुसार ही कार्य करना पड़ता है। उन्हें अपने सुझाव के लिए भी पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होता है।

(3) चाहे कितना भी विस्तृत कार्यक्रम बनाया जाए, उसमें सभी बातें नहीं आ सकती हैं जो समय-समय पर कार्य करते समय उत्पन्न होती रहती हैं।

(4) प्रत्येक व्यवसाय के लिए एक ही प्रकार का कार्यक्रम लागू नहीं किया जा सकता है, इसका स्पष्ट कारण यह है कि प्रत्येक संस्था की अपनी भिन्न-भिन्न समस्याएँ होती हैं।

(5) अकुशल अंकेक्षक ‘अंकेक्षण कार्यक्रम’ का सहारा लेकर अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास करते हैं।

(6) अंकेक्षण करने वाले स्टाफ को अंकेक्षण कार्यक्रम के अनुरूप ही आगे कार्य करना होता है, अतः आवश्यकता पड़ने पर भी कार्य सम्पन्न करने की नयी पद्धति या तकनीकी को वह प्रयोग नहीं कर सकता है।

उपर्युक्त दोषों से बचने के लिए यह सुझाव दिया जा सकता है कि अंकेक्षण कार्यक्रम को दो भागों में विभाजित किया जाए :

(i) ऐसा कार्य जो सभी प्रकार के अंकेक्षण-कार्य के लिए समान हो, तथा

(ii) ऐसा कार्य जो किसी प्रकार के अंकेक्षण से सम्बन्धित हो।

वास्तविकता यह है कि एक ही कार्यक्रम के सहारे सभी संस्थाओं का अंकेक्षण करना कभी अच्छा नहीं माना जा सकता है। अनुभव के अनुसार उसमें आवश्यक परिवर्तन करने की गुंजाइश होनी चाहिए। इस हेतु अंकेक्षण-कार्यक्रम कठोर न बनाकर लोचदार बनाना चाहिए।

एक लचीला अंकेक्षण कार्यक्रम बन जाने से अंकेक्षक को अपने विवेक एवं प्रेरणा के उपयोग का अवसर मिल जाता है। व्यापार के स्वभाव तथा संगठन के अनुसार कार्यक्रम को पूर्ण तथा उपयोगी बनाया जा सकता है।

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(स) ऑडिट फाइल (Audit-files) अंकेक्षण का कार्य वर्ष-प्रतिवर्ष चलते रहने के कारण पुनरावृत्ति वाला है। जहाँ एक ओर स्थायी स्वभाव का है तो साथ ही यह चालू प्रकृति भी रखता है। अंकेक्षक के कार्यालय के लिए फाइलों का रखना अति आवश्यक है, क्योंकि इनके न रखने से भावी कार्य को सचारु रूप से चलाने में असविधा होती है। ये फाइले दो प्रकार की होती हैं—

(1) स्थायी फाइल (Permanent file), तथा चालू स्थायी फाइल में साधारणतया निम्न बातों का सार रहता है :

(1 संस्था के संगठन में सम्बन्धित अधिनियम तथा उपनियम।

(2) संस्था के प्रारम्भ से लेकर अब तक के अंशधारियों के हिसाब-किताब का विश्लेषण ।

(3) अंशधारी, संचालक तथा कार्यकारिणी समिति की बैठकों की कार्यवाही।

(4) दीर्घकालीन दायित्व के प्रसविदे व अन्य समझौते।

(5) आन्तरिक नियन्त्रण की पद्धति का विवरण लेखा-बहियों के सारांश व अन्य सूचनाए।।

चालू फाइल (Current file) को सामान्यतया वार्षिक कार्य से सम्बन्धित कागज-पत्रों की संज्ञा दी जाता। है। इस फाइल में अंकेक्षण-कार्यक्रम की प्रतिलिपि के अतिरिक्त अंकेक्षक के द्वारा किये गये कार्य की सक्षापका भी रखी जाती है। कार्य सम्बन्धी कागजों की अनक्रमणिका (Index) चिट्टे की मदों की व्यवस्था के अनुरूप रखी जाती है। सामान्यतया रोकड़ से सम्बन्धित मदों की तालिका और वैसे ही देनदारों की सूचियाँ अलग-अलग इस फाइल में रखी जाती है। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि इन कागज-पत्रों में संलेखों के स्वभाव तथा जाँची गयी प्रविष्टियों का लेखा रखा जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि इन कागजों के तैयार करने वाले स्टाफ से सदस्यों को अपने हस्ताक्षर तारीख सहित कर देने चाहिए।

इस प्रकार चालू फाइल में निम्न बातें रखनी चाहिए :

(1) आन्तरिक नियन्त्रण से सम्बन्धित प्रश्नावली।

(2) सामयिक बजट (Time budget) के अनुरूप बनाया गया चार्ट।

(3) अंकेक्षक कार्यक्रम।

(4) सभी महत्वपूर्ण नोट्स जिनको उचित रूप से फाइल किया जाता हो।

(5) बैंक व रोकड़ के समाधान-विवरण।

(6) नियोक्ता (client) से पूछने के लिए संक्षिप्त प्रश्न।

(7) आन्तरिक नियन्त्रण की पद्धति में निहित दोष।

(8) अन्तिम खातों से सम्बन्धित सूचना।

ऑडिट फाइलों के लाभ (1) ये फाइलें अंकेक्षक की कार्य की योजना बनाने में सहायक होती हैं।

(2) इन फाइलों से वह सभी सामग्री उपलब्ध हो सकती है जो अंकेक्षक की रिपोर्ट के लिए आवश्यक होती है।

(3) ये फाइलें भावी सन्दर्भो (references) के सुरक्षित रखने तथा आवश्यकतानुसार कार्य को सम्पन्न करने में सहायक बनती हैं।

(4) अंकेक्षक को इन फाइलों में वह सभी सामग्री मिल सकती है जिसके आधार पर वह नियोक्ता को माँगे जाने पर उपयोगी सुझाव दे सकता है।

(5) अंकेक्षक के लिए आवश्यक प्रक्रिया की कुशलता बढ़ाने में ये फाइलें सहायक होती हैं।

(द) अंकेक्षण नोट-बुक (Audit Note-Book) कोई भी अंकेक्षक प्रत्येक बात को याद नहीं रख सकता। कार्य करते समय अंकेक्षक एक पुस्तक अपने पास रखते हैं जिससे वे सभी महत्वपूर्ण बातों को। समय समय पर लिख लिया करते हैं। इस पुस्तक को अंकेक्षण नोट-बुक कहते हैं।

इस पुस्तक की उपयोगिता के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत है। कुछ लोग इस पुस्तक को अधिक महत्व देते। हैं और अपना अंकेक्षण-कार्यक्रम भी इसी में लिख लेते है। परन्तु अनेक व्यक्ति उसे इतना महत्व नहीं देते। जो भी हो. अंकेक्षक के लिए इसकी पर्याप्त उपयोगिता है। उचित तो यह मालूम पड़ता है कि साधारण गलतियों तथा शंकाओं को यथाशीघ्र ठीक कर दिया जाए और यदि कुछ बाते ऐसी हो जिनका समाधान एकदम नहीं हो सकता है, तो उन्हें अंकेक्षण नोट-बुक में लिख देना चाहिए। ऐसी कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं।

(1) एक व्यापार की तान्त्रिक बारीक बातें:

(2) शंकाएँ जिनका समाधान तथा स्पष्टीकरण भविष्य में करना है।

(3) खोये हुए प्रमाणकों तथा बीजकों का विवरण जिनकी दूसरी प्रतिलिपि प्राप्त करनी है..

(4) कपट तथा विशेष त्रुटियां जो जाँच करते समय मिली थीं।

(5) रिपोर्ट में उल्लेख करने योग्य बातें:

(6) अंकेक्षण-कार्यक्रम

(7) संस्था के हिसाब-किताब की पद्धति से सम्बन्धित जानकारी:

(8) भावी कार्य के लिए उपयोगी सूचनाएँ:

(9) अप्राप्य ऋण, ह्रास आदि के सम्बन्ध में प्रमाण-पत्र देने वाले अधिकारियों का उल्लेख

(10) किसी अन्य पत्र-व्यवहार का लेखा जो आवश्यक समझा जाए;

(11) मुख्य मुख्य बातों का जोड़, बैंक समाधान विवरण आदि:

(12) अंकेक्षण के कार्य की प्रगति;

(13) अंकेक्षण करने वाले कर्मचारियों के सुझाव:

(14) पार्षद सीमानियम तथा पार्षद अन्तर्नियम के वे प्रावधान जो हिसाब-किताब तथा अंकेक्षण से सम्बन्ध रखते हों

(15) अंकेक्षण प्रारम्भ करने व समाप्त करने की तिथि:

(16) प्रमुख कर्मचारियों के नाम, उनके कर्तव्यों एवं दायित्वों सहित;

(17) व्यवसाय में रखी जाने वाली समस्त पुस्तकों की सूची; तथा

(18) वे बातें जिनके सम्बन्ध में अंकेक्षण कर्मचारी प्रमुख अंकेक्षक से विचार-विमर्श करना चाहते हैं।

लाभ–अंकेक्षण नोट-बुक रखने के निम्न लाभ होते हैं :

(1) इसके कारण अंकेक्षक महत्वपूर्ण बातों को भूल नहीं सकता, क्योंकि वे सब इसमें लिखी होती हैं।

(2) अंकेक्षक अपने विरुद्ध लापरवाही के आरोप से बचाव के लिए इसे पेश कर सकता है।

(3) अंकेक्षण कार्य में सुविधा मिल सकती है क्योंकि इस पुस्तक में सभी आवश्यक बातें समय-समय पर लिखी जाती हैं और इस प्रकार कर्मचारियों के बदलते रहने पर भी अंकेक्षण कार्य में बाधा नहीं आती।

(4) इस पुस्तक से अंकेक्षक की योग्यता, कार्यकुशलता तथा कार्य के प्रति उसकी रुचि का अनुमान हो सकता है।

(5) एक लाभ यह भी है कि यह पुस्तक भविष्य में किये जाने वाले अंकेक्षण कार्य के लिए विशेष उपयोगी है। पिछली अनियमितताएँ तथा महत्वपूर्ण बातें प्रकाश में आ जाती हैं और कार्य सुलभ एवं सुविधाजनक हो जाता है।

(6) नोट-बुक में लिखे गये स्पष्टीकरण, सूचनाएँ, त्रुटियाँ व अनियमितताएं आदि की सहायता से अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट तैयार करते समय काफी सहायता मिलती है।

हानियाँ—(1) अंकेक्षण-कर्मचारियों के मस्तिष्क में दूसरों में कमियाँ देखने की भावना विकसित हो जाती है।

(2) इसको बनाने के लिए नियोक्ता के स्टाफ पर अत्यधिक विश्वास रखना होता है जो कभी घातक सिद्ध हो सकता है।

(3) यदि यह नोट-बुक लापरवाही से तैयार की जाए, तो न्यायालय में साक्ष्य के रूप में प्रयोग करके इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।

(4) प्रायः इस पुस्तक से अंकेक्षण कर्मचारी एवं नियोक्ता के कर्मचारियों के मध्य गलतफहमी उत्पन्न हो सकती है।

(य) अंकेक्षण कार्यकारी प्रपत्र (Audit Working Papers) अंकेक्षण करते समय अंकेक्षक जिन कागजों का प्रयोग करता है, ये सभी अंकेक्षण सम्बन्धी कार्यकारी प्रपत्र (Audit working papers) कहलाते हैं। ये कागज-पत्र निम्नांकित हैं :

(1) अंकेक्षण-कार्यक्रम (audit programme);

(2) अंकेक्षण नोट-बुक (audit note-book);

(3) अंकेक्षक की नियुक्ति सम्बन्धी अनुबन्ध (contract) या नियुक्ति-पत्र (appointment letter);

(4) उन पत्रों documents) की नकल जो अंकेक्षक ने अपने पास रख लिये हैं:

(5) स्वयं किये हुए गुणा, आदि के कागज

(6) लेनदारों तथा देनदारों की सूचियाँ;

(7) प्रारम्भिक तथा अन्तिम तलपट;

(8) अंकेक्षण की रिपोर्ट की प्रतिलिपि;

(9) अन्य पत्र-व्यवहार की प्रतिलिपि जो अंकेक्षण के सम्बन्ध में किया गया हो, जैसे देनदारों तथा लेनदारों, बैंक इत्यादि से किया गया पत्र-व्यवहार:

(10) संस्था के नियम, अन्तर्नियम आदि;

(11) खोये हुए प्रमाणकों की सूची:

(12) अन्तिम रहतिये के मूल्यांकन के सम्बन्ध में प्रबन्ध से प्राप्त प्रमाण-पत्र:

(13) समायोजन सम्बन्धी जर्नल प्रविष्टियाँ;

(14) विनियोगों की सूची;

(15) अंकेक्षण के दौरान प्राप्त किये गये स्पष्टीकरण;

(16) कार्यवाही पुस्तकों (minute books) के सारांश:

(17) ह्रास सम्बन्धी विवरण।

अंकेक्षण सम्बन्धी कार्यकारी प्रपत्रों के उद्देश्य-अंकेक्षण सम्बन्धी कार्यकारी प्रपत्र निम्न उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं :

(1) अंकेक्षण तथा उसके स्टाफ के द्वारा किये गये कार्य अंकेक्षण सम्बन्धी कार्यकारी प्रपत्रों की प्रगति इन कागजों से पता चलती रहती है। इनके सहारे के उद्देश्य अंकेक्षक को विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने में सहायता मिलती है ।

(2) रिपोर्ट के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने में इन रिपोर्ट के लिए उपयोगी होना। कागजों से सहायता मिलती है। अंकेक्षकों के विरुद्ध कार्यवाही में

(3) अंकेक्षक के पास इन कार्यकारी प्रपत्रों के होने से बचाव होना। उसके विरुद्ध की गयी कार्यवाही में उसके बचाव के लिए पर्याप्त अंकेक्षक के द्वारा अपने साथियों साक्ष्य उपलब्ध हो सकता है। के कार्य का ज्ञान होना।

नियोक्ता को वांछित सलाह देने में

(4) इन कार्यकारी प्रपत्रों की सहायता से अंकेक्षक अपने सहायक होना। साथियों के कार्य का समन्वय भली प्रकार कर सकता है। भविष्य के अंकेक्षण-कार्य में

(5) साथ ही अंकेक्षक को अपने नियोक्ता को विस्तृत सहायक होना। सलाह देने में भी काफी मदद मिलती है उसकी सलाह से क्लर्कों को प्रशिक्षण देने का नियोक्ता अपनी संस्था को अच्छी कुशलता से चला सकता है तथा संस्था में प्रचलित आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली में पर्याप्त यह देखना कि निर्देशों का पालन एवं अपेक्षित सुधार कर सकता है।

(6) भविष्य के अंकेक्षण कार्य में इन कार्यकारी प्रपत्रों से अंकेक्षक को काफी मदद मिलती है।

(7) अंकेक्षण क्लर्कों को प्रशिक्षण देने का अच्छा तरीका है।

(8) मख्य अंकेक्षक यह जान सकता है कि उसके सहायकों ने उसके द्वारा दिये गये निर्देशों का कहां तक पालन किया है।

अंकेक्षक को इन कार्यकारी प्रपत्रों को अपने पास सुरक्षित ढंग से रखना चाहिए। क्योंकि ये कागज उसकी रिपोर्ट को सही सिद्ध करने में सहायक होने के साथ-साथ भविष्य में उसी संस्था के अंकेक्षण के लिए भी उपयोगी होते हैं। इस प्रकार अंकेक्षक को इन प्रपत्रों को सुरक्षित रखना चाहिए। किसी भी प्रकार ये प्रपत्र नियोक्ता के कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं होने चाहिए।

कार्यकारी प्रपत्रों का स्वामित्व (Ownership of Working Papers)-अंकेक्षण सम्बन्धी कार्यकारी प्रपत्र अत्यधिक विश्वस्त पत्र होते हैं। वे किसी को भी दिखलाये नहीं जाने चाहिए, क्योंकि कोई भी इनका दुरुपयोग कर सकता है। जहाँ तक इनके स्वामित्व का प्रश्न है, इस पर कुछ विवाद हैं कि ये प्रपत्र नियोक्ता के स्वामित्व में रहने चाहिए अथवा अंकेक्षक के। नियोक्ता का तर्क यह है कि अंकेक्षक उनके एजेण्ट के रूप में कार्य करता है. अतः उन पर नियोक्ता का पूर्ण अधिकार है। इसके विपरीत, अंकेक्षक का कहना यह है। कि उसने अपने अंकेक्षण कार्य को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक सूचनाएँ एकत्रित की हैं और इन प्रपत्रों को तैयार किया है। अतः ये उसके स्वामित्व में रहने चाहिए।

वास्तव में ये प्रपत्र, अंकेक्षक के बचाव में तब काम आते हैं, जबकि उसके विरुद्ध नियोक्ता के द्वारा कोई मामला न्यायालय में उठाया जाता है। ये प्रपत्र उसके अपने बचाव में सहायक बनते हैं।

सौकौकिन्स्की बनाम ब्राइट ग्राहम एण्ड कं. (1938) तथा चैन्टरी मार्टिन एण्ड कं. बनाम मार्टिन (लंदन, 1953) [Sockockinsky Vs. Bright Graham and Co. (1938) In England and Chantry Martin & Co. Vs. Martin, London, 1953] के मामलों में यह प्रश्न उठाया गया था कि ये प्रपत्र नियोक्ता के स्वामित्व के हैं अथवा अंकेक्षक के। क्या अंकेक्षक को उसके स्वामित्व में दे देने चाहिए? निर्णय यह हुआ कि ये प्रपत्र अंकेक्षक के अधिकार के हैं, नियोक्ता के अधिकार के नहीं हैं।

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अंकेक्षण विधि

(PROCEDURE OF AUDIT)

1 चिह्नों का प्रयोग

अंकेक्षक को हिसाब किताब की जांच करते समय विशेष प्रकार से भिन्न भिन्न चिह्नों का प्रयोग करना चाहिए। इस सम्बन्ध में उसे निम्नांकित सावधानियां रखनी चाहिए :

(1) प्रमापीकरण, जोड़, खतौनी (postings), इत्यादि के लिए भिन्न-भिन्न चिह्न लगाने चाहिए।

(2) अपने कर्मचारियों को स्पष्ट आदेश देना चाहिए कि वे इन चिह्नों के प्रयोग के सम्बन्ध में संस्था के क्लर्कों को जानकारी न होने दें। साथ ही उनसे अनावश्यक मेल-जोल भी नहीं बढ़ाना चाहिए।

(3) ये विशेष चिह्न स्पष्ट तथा छोटे होने चाहिए।

(4) जिन चिह्नों का प्रयोग अंकेक्षक द्वारा किया जाए, उनका प्रयोग संस्था के कर्मचारियों को नहीं करने देना चाहिए।

(5) अंकेक्षक को चिह्नों का प्रयोग करते समय विभिन्न रंगों की स्याही या पेन्सिल को अपने अधिकार में रखना चाहिए।

(6) प्रति वर्ष पेन्सिल के रंगों में परिवर्तन जाँच की दृष्टि से अच्छा होता है।

(7) मिटाये हुए या गन्दे ढंग से लिखे हुए अंकों पर निशान लगाने के लिए विशेष चिह्नों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे यह पता चल सके कि चिह्न लगाने के पश्चात् कोई परिवर्तन नहीं किया गया है।

(8) प्रमाणन (vouching) करने का कार्य दो क्लर्कों के द्वारा किया जाना चाहिए। सीनियर क्लर्क प्रमाणकों की जांच करे और रकमों के बोलने (calling out) का कार्य करे और जूनियर क्लर्क रोकड़ पुस्तक में रकमों के मिलान और विशेष चिह्न लगाने का कार्य करे।

अन्य बातें—(1) यथासम्भव एक कार्य को एक ही बैठक में समाप्त करना चाहिए। यदि ऐसा न हो सके, तो उसके आवश्यक जोड़-बाकियां अंकेक्षण-नोट-बुक में लिख देनी चाहिए।

(2) चालू अंकेक्षण करते समय। अंकेक्षण का कार्य एक निर्धारित तारीख तक ही करना चाहिए, जहां तक खातों का कार्य पूर्ण हो गया हा।। किसी भी स्थिति में पेन्सिल से लिखे हुए अंकों को स्वीकार नहीं करना चाहिए और स्याही के प्रयोग पर हा। सदैव जोर देना चाहिए।

(3) अंकेक्षक का यह कार्य नहीं है कि वह पस्तकों की बाकियां (balancing) स्वय निकाले। यदि वह ऐसा करना स्वीकार कर ले, तो ऐसी परिस्थिति में वह लेखापाल की तरह कार्य करता है। कि अंकेक्षक के रूप में। प्रायः छोटी संस्थाओं में जहाँ योग्य लेखापाल नहीं होते. अंकेक्षक को ही कार्य। करना पड़ता है।

2. नैत्यक जांच (Routine Checking)

व्यापारिक संस्था का आकार अथवा उसका संगठन या स्वभाव कैसा भी हो कछ पुस्तकें तथा लेखे ता। प्रत्येक संस्था को रखने पड़ते हैं। इन पुस्तकों तथा लेखों (records) की जांच नैत्यक जांच (routine checking) कहलाती है।

नैत्यक जांच में निम्नलिखित कार्य आते हैं :

(1) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों का जोड़ना, जोड़ों को अगले पृष्ठ पर ले जाना (carry forward)||

(2) खाताबही में खतियाने (posting) की जांच करना।

(3) विभिन्न खातों के जोड़ तथा बाकियां (casts and balances) की जांच करना।

(4) यह देखना है कि ये बाकियां तलपट में सही लिखी गयी हैं या नहीं।

यह कार्य उस अन्तिम जांच का आधार है जिसके सहारे अंकेक्षक अपनी रिपोर्ट पेश करता है। नैत्यक जांच से त्रुटियों तथा कपट का पता चल जाता है। अंकेक्षक को सभी पुस्तकों की प्रारम्भ से अन्त तक नैत्यक जांच करनी चाहिए अथवा केवल परीक्षण जाँच करनी चाहिए. यह संस्था के हिसाब-किताब की व्यवस्था तथा उसमें प्रचलित आन्तरिक रोकथाम (Internal check) की प्रणाली पर निर्भर होगा।

लाभ—(1) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों की शुद्धता का ज्ञान हो सकता है। इनमें की गयी त्रुटियां शीघ्र ही प्रकाश में आ जाती हैं।

(2) साथ ही खाताबही में किया गया लेखा भी शुद्ध हो जाता है। यह निर्धारित किया जा सकता है कि खाताबही में की गयी खतौनी कहां तक ठीक है?

(3) तलपट एवं अन्तिम खातों की जांच में भी सहायता मिलती है।

(4) संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि नैत्यक जांच से पुस्तकों तथा खातों की अंकीय शुद्धता का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। इनमें किये गये परिवर्तन भी प्रकाश में आ जाते हैं।

(5) नैत्यक जांच एक सरल कार्य है जिसको साधारण योग्यता वाला व्यक्ति सुविधापूर्वक कर सकता है।

हानियां-(1) नैत्यक जांच के कार्य के यन्त्रवत् होने से कार्य में नीरसता आ सकती है। इसी कारण अंकेक्षण करने वाले कर्मचारी इस कार्य को खानापूरी मात्र समझते हैं तथा इस ओर विशेष ध्यान नहीं देते हैं।

(2) केवल छोटे-छोटे छल-कपट को ही नैत्यक जाँच में पकड़ा जा सकता है। बड़े-बड़े कपट प्रकाश में नहीं लाये जा सकते हैं।

(3) नैत्यक जांच में सैद्धान्तिक तथा पूरक त्रुटियों के पता चलाने में कठिनाई होती है।

(4) एक व्यवसाय में जहां स्वकीय-सन्तुलन की पद्धति (self-balancing system) प्रचलित है नैत्यक जाँच सदैव अंकेक्षण के लिए महत्वपूर्ण नहीं समझी जाती है।

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3. परीक्षण जांच या चयनित सत्यापन

(Test Checking or Selective Verification)

अंकेक्षण का कार्य करते समय अंकेक्षक प्रायः सभी खातों तथा लेखों की पूर्ण तथा विस्तृत जांच नहीं करते हैं, वरन् जहां-तहां परीक्षण जांच में सावधानियां कुछ लेखों को चुनकर और उनकी जांच करने से ही बाकी सभी प्रतिनिधि लेखे छांटना। खातों तथा लेखों को सही मान लेते हैं। “यदि ये चुने हुए लेखे ठीक प्रत्येक क्लर्क के कार्य की हैं, तो बाकी सभी ठीक होंगे।” इसी आधार पर जांच करने को परीक्षण जाँच होना। जांच (test checking) कहते हैं।

परीक्षण जांच में लेखे अचानक ही चुने जाते हैं, किन्हीं महीनों विशेष सिद्धान्तों का प्रयोग नहीं होता। इस जांच की उपयोगिता संस्था में प्रचलित आन्तरिक निरीक्षण (Internal check) की प्रणाली पर निर्भर है। यदि आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली सन्तोषजनक है, तो परीक्षण जांच बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती यदि ऐसा नहीं है, तो विस्तृत जांच करना आवश्यक होगा। परीक्षण जाँच करते समय निम्न सावधानियां रखनी चाहिए:

 (1) यथासम्भव सभी पुस्तकों में प्रतिनिधि (representative) लेखे छांटने चाहिए। लेखों को छांटने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है।

(2) परीक्षण जांच में ऐसा प्रयत्न हो कि प्रत्येक क्लर्क के कार्य की जांच हो जाय। किसी क्लर्क का कार्य जांच से छूटना नहीं चाहिए क्योंकि इसमें कपट को बढ़ावा मिलने की गुंजाइश हो जाती है।

(3) लेखों तथा प्रविष्टियों का चुनाव यथासम्भव अनायास (at random) होना चाहिए। अनायास चुनाव करने से लाभ यह होता है कि प्रायः सभी प्रकार के लेखे चनाव में आ जाते हैं तथा जांच की शुद्धता बनी रहती है।

(4) प्रथम तथा अन्तिम महीने में की गयी प्रविष्टियों की जांच बड़ी संख्या में होनी चाहिए।

(5) प्रविष्टियों तथा लेखों के चुनाव में यह ध्यान रखना चाहिए कि हर अंकेक्षण में परीक्षण जांच के लिए भिन्न-भिन्न प्रविष्टियां तथा लेखे हों। उदाहरण के लिए, यदि 2013 के अंकेक्षण में जून तथा नवम्बर की प्रविष्टियां परीक्षण जांच के लिए चनी गयी हैं, तो 2014 में किन्हीं अन्य महीनों की प्रविष्टियां छांटनी चाहिए।

(6) रोकड़ पुस्तक (Cash Book) तथा पास बुक (Pass Book) के लिए परीक्षण जाँच का प्रयोग कभी नहीं होना चाहिए। इन पुस्तकों की पूर्ण जांच होनी चाहिए।

(7) जब अंकेक्षक परीक्षण जांच के लिए लेन-देनों का चुनाव करता है, तब उसे नियोक्ता के कर्मचारियों से किसी भी प्रकार की पूछताछ नहीं करनी चाहिए। यह उसका कार्य है जिसको उसे पूर्णतया गुप्त रखना चाहिए।

उपरोक्त सावधानियों को ध्यान में रखकर ही परीक्षण जांच का प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि परिणाम सन्तोषजनक मिल सके। परीक्षण जाँच का प्रयोग करना तथा किस सीमा तक इस पर आश्रित होना अथवा इसका प्रयोग न करना पूर्णरूपेण अंकेक्षक का ही दायित्व है।

लाभ (1) समय तथा शक्ति की बचत होती है, जो समय बचता है अंकेक्षक उसका उपयोग किन्हीं अन्य उपयोगी कार्यों के लिए कर सकता है। (2) यदि परीक्षण जांच के लिए लेखों तथा प्रविष्टियों का चुनाव ठीक हो, तो परीक्षण जांच लाभदायक होती है। (3) अंकेक्षक कई अंकेक्षण एक साथ सुविधापूर्वक कर सकता है। (4) स्टाफ के ऊपर नैतिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह अनिश्चितता बनी रहती है कि कौन सा कार्य तथा किस समय का कार्य परीक्षण जांच के अन्तर्गत आयेगा। (5) परीक्षण जांच की सफलता के लिए सुव्यवस्थित आन्तरिक निरीक्षण की पद्धति होना आवश्यक है। अतः आवश्यकतानुसार अंकेक्षक इस सम्बन्ध में अच्छे सुझाव दे सकता है।

हानियां (1) परीक्षण जांच में लेखों के चुनाव के आधार पर कार्य होता है। अतः त्रुटियां तथा कपट के छिपाने की गुंजाइश रहती है। (2) साथ ही संस्था के कर्मचारी भी लापरवाह हो सकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि सारे कार्य की विस्तृत जांच नहीं होगी। (3) अंकेक्षण के कार्य में अंकेक्षक का उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है तथा शंकाओं के लिए स्थान हो जाता है। (4) विश्वसनीय जांच भी नहीं हो पाती है। (5) छोटे व्यवसायों के लिए यह अनुपयोगी होती है। (6) अंकेक्षक परीक्षण जांच की आड़ में अपनी लापरवाही छिपाने का प्रयास करते रहते हैं।

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परीक्षण जांच व अंकेक्षक

अंकेक्षण यह स्वयं निर्धारित करेगा कि उसे परीक्षण जांच का प्रयोग करना चाहिए अथवा गहन जांच के द्वारा अंकेक्षण का कार्य पूरा करना चाहिए। वास्तव में, यहां यह कहना पर्याप्त होगा कि यदि अंकेक्षक संस्था में प्रचलित आन्तरिक परीक्षण की प्रणाली से पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता है, तो उसे परीक्षण जांच का प्रयोग निःसंकोच करना चाहिए। यदि नहीं. तो इस जांच का प्रयोग उसकी लापरवाही का कारण बन सकता है।

अतः हर प्रकार से पूर्ण दायित्व अंकेक्षक का ही है। उसे जांच करनी है तथा अपनी रिपोर्ट लिखकर यह प्रमाणित करना है कि खाते सही हैं। यह उसकी बुद्धिमत्ता एवं निष्पक्ष निर्णय पर निर्भर होता है कि वह अपना कार्य परीक्षण जांच से पूरा करता है या किसी अन्य विधि से।

4. गहन जांच (Audit in Depth)

गहन जांच से आशय यह है कि प्रत्येक लेन-देन को प्रारम्भ से अन्त तक उसके क्रियाकलाप के अनुसार क्रमबद्ध श्रृंखला के साथ जांच लिया जाये। गहन जांच में विस्तृत जांच निहित है और इसमें चुने हुए लेन-देनों की जांच प्रारम्भ से अन्त तक की जाती है। इस प्रकार की जांच का प्रमख उद्देश्य यह है कि खातों का अंकेक्षण शीघ्रातिशीघ्र समाप्त कर लिया जाये। अंकेक्षक इस विधि से चुनी हुई मदों (items) का अंकेक्षण सविधापूर्वक कर सकता है। यह पद्धति उसके लिए तब ही सहायक व उपयोगी हो सकती है जबकि संस्था में आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली प्रभावशाली हो।

अंकेक्षण सिद्धान्त, तकनीक, तैयारी एवं कार्यपद्धति उदाहरणस्वरूप, यदि कच्चे माल (raw materials) के क्रय को गहन जांच के लिए चुना जाता है, तो इसके लिए निम्नलिखित कार्यवाही करनी होगी : ।

उत्पादन विभाग द्वारा निर्गमित मूल मांग-पत्र को सर्वप्रथम देखना होगा।

2 क्रय-विभाग के प्रबन्धक के द्वारा दिये गये क्रय-आदेश (purchase order) का निराक्षण करता होगा।

3. इसके पश्चात् अंकेक्षक को फर्म में ‘प्राप्त टेण्डरों’ (tenders) की जांच करनी होगी।

4. तदुपरान्त माल-प्राप्ति पत्र (Goods received note) की जाँच करनी होगी। यह स्टोर प्रबन्धक के द्वारा स्टोर में माल की प्राप्ति के उपरान्त निर्गमित किया जाता है।

5 अंकेक्षक को गणवत्ता-नियन्त्रण रिपोर्ट (Ouality control report) को भी देखना चाहिए कि क्या अमुक सामान उस मानक (standard) की पूर्ति करता है, जो सम्बन्धित विभाग ने तय किया है।

6. फिर बिन-कार्ड में किये गये लेखों की जांच करनी चाहिए।

7. स्टोर्स-खाताबही की भी जांच की जानी चाहिए। चालान व बीजकों का भी निरीक्षण किया जाना चाहिए जो इस माल की प्राप्ति से सम्बन्धित है।

इस प्रकार अंकेक्षक प्रत्येक लेन-देन से सम्बन्धित लेखे सम्बन्धी तथा प्रारम्भ से अन्त तक अपनायी गयी प्रक्रिया की पूर्ण जाँच करता है।

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पुस्तकों की बाकियों का अन्तर मिलाना

(1) यदि खाताबही स्वकीय सन्तुलन प्रणाली (self-balancing system) के अनुसार रखी गयी है, तो यह पता लगाना चाहिए कि अन्तर किस खाताबही में है और तदनुसार उस खाताबही के खातों की जांच करनी चाहिए।

(2) यदि स्वकीय सन्तुलन प्रणाली का प्रयोग नहीं होता है तो अन्तर का पता लगाना कुछ कठिन हो जाता है। ऐसी दशा में निम्न विधियां प्रयोग में लानी चाहिए :

(क) अंकेक्षक को सभी खाताबहियों की बाकियों को तलपट तथा देनदारों और लेनदारों की सूची से मिलाना चाहिए।

(ख) तलपट के जोड़ों (castings) को देनदारों और लेनदारों की सूची से मिलाना चाहिए।

(ग) खाताबही की बाकियों का मिलान करते समय सभी खातों के जोड़ों तथा उनके दूसरे पृष्ठ पर ले जायी गयी (carry forward) रकमों को सावधानी से जांचना चाहिए।

(घ) यदि आवश्यक समझा जाए तो प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों की खाताबही से तुलना करनी चाहिए. क्योंकि हो सकता है कि प्रविष्टियों के खतियाने में त्रुटियां हो गयी हों।

(ङ) यदि किसी अंक को काटा गया हो या उसमें कोई परिवर्तन किया गया हो, तो फिर से देखना चाहिए और इस सम्बन्ध में सभी शंकाओं का समाधान भली प्रकार करना चाहिए।

(च) यदि अन्तर की संख्या 30 ₹ या 100 ₹ हो, तो इस प्रकार की अशुद्धि या तो जोड़ने में अथवा किसी जोड़ को अगले पन्ने पर ले जाने में हो सकती है।

(छ) यदि अन्तर में 2 का भाग चला जाता है तो ऐसी अशुद्धि किसी प्रविष्टि (entry) को किसी खाते के गलत पक्ष में खतियाने से हो सकती है। उदाहरण के लिए, किसी तलपट के क्रेडिट पक्ष से डेबिट पक्ष में 20 ₹ 50 पैसे अधिक हैं। इसमें 2 का भाग देने से 10 ₹ 25 पैसे आते हैं। यह सम्भव है कि इस रकम की खतौनी क्रेडिट में न करके डेबिट में कर दी गयी हो। ऐसी परिस्थिति में पुस्तकों की गहन जांच करके 10₹ 25 पैसे की रकम का पता लगाना चाहिए।

(ज) कभी-कभी अंकों की उलट-फेर से भी अशुद्धि हो जाती है। ऐसी दशा में अन्तर की संख्या में 9 का भाग देकर देखना चाहिए। यदि भाग पूरा चला जाता है, तो अवश्य अंकों के उलट-फेर में अशद्धि हो गयी है। उदाहरण के लिए, यदि कहीं 27 के स्थान पर 72 अथवा 16 के स्थान पर 61, 45 के स्थान पर 54. 36 के स्थान पर 63, 545 के स्थान पर 554,817 के स्थान पर 871 या 23 के स्थान पर 32 लिख दिये गये हैं तो अन्तर में 9 का भाग चला जायेगा।

(झ) यदि कहीं गलत खाते में राशि के लिखने में त्रुटि हो, जैसे-10 ₹ 9 पैसे के स्थान पर 97 10 पैसे लिख दिये गये हों, तो इसके लिए गहन जांच करनी होगी और ऐसी रकम का पता लगाना होगा।

यदि इन उपायों से अन्तर का पता न चले तो अंकेक्षक को तब तक जांच का कार्य जारी रखना होगा जब तक अन्तर न मिल जाए। यही एकमात्र तरीका शेष रह जाता है। उसे खातों के जोड़ों को फिर से बोलने (calling back) और उन्हें प्रारम्भिक लेखेकी पस्तकों से मिलाने की आवश्यकता पड़ सकती है। कभी-कभी अन्तर मिलाने के लिए पिछले वर्ष की अन्तिम बाकियों को इस वर्ष की प्रारम्भिक बाकियों से मिलाना होता है।

वस्तुतः विस्तृत जांच ही अन्तर मिलाने का सही तथा स्पष्ट उपाय है।

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प्रश्न

1 आपको ‘वार्षिक अंकेक्षण’ करना है। अंकेक्षण सम्बन्धी प्रारम्भिक तैयारी करने के लिए आप किन बातों पर ध्यान देंगे ?

You have to conduct an Annual Audit’. On what points will you pay your attention for carrying out preliminary preparations with regard to auditing?

2. अंकेक्षण कार्यक्रम क्या है तथा यह किस प्रकार तैयार किया जाता है ?

What is Audit Programme and how should it be prepared?

3. अंकेक्षण कार्यक्रम क्या है ? इसके गुण-दोष बताइए।

What is an audit programme? Give its advantages and disadvantages.

4. अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तक क्या है ? इसकी क्या उपयोगिता है? इसकी विषय-सामग्री क्या है? एक अंकेक्षक के लिए यह कितनी सहायक होती है?

What is audit note book. What is it utility ? What is it utility. What is it subject matter. To what extent is it helpful for auditor.

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5. अंकेक्षण में परीक्षण जाँच से आप क्या समझते हैं? इस बारे में क्या सावधानियां बरतनी चाहिए? वर्णन कीजिए।

What do you mean by Test Check in Auditing ? State what precautions should be taken in this connection.

6. नैत्यक जांच क्या है? इसके क्या उद्देश्य हैं? इसके गुणों तथा अवगुणों की विवेचना कीजिए।

What is Routine Checking? What are its objects? Describe the advantages and disadvantages of routine checking.

7. सूक्ष्म टिप्पणियाँ दीजिए :

(अ) अंकेक्षण फाइल, (ब) अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तक, (स) नैत्यक जांच। Write short notes on :

(a) Audit File (b) Audit Note Book, and (c) Routine Checking.

8. “अंकेक्षण कार्यकारी प्रपत्रों’ से क्या आशय है ? क्या अंकेक्षक को इन्हें स्वयं के पास रखने का अधिकार है?

बताइए। What do you mean by Audit Working Papers. Does the auditor has the right to retain with him. Explain.

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1 एक सुव्यवस्थित व्यवसाय में अंकेक्षण के लिए सर्वोत्तम प्रविधि है :

(अ) भौतिक गणना

(ब) नैत्यक जांच

(स) परीक्षण जांच

(द) इनमें से कोई नहीं

2. अंकेक्षण आरम्भ करने से पूर्व अंकेक्षक सर्वप्रथम निम्न की जांच करता है :

(अ) आन्तरिक अंकेक्षण

(ब) आन्तरिक निरीक्षण

(स) खाताबही

(द) वैधानिक पुस्तकें

3. खातों को अंकेक्षण करने के लिए निम्न में से कौन-सा उपयोगी है?

(अ) नैत्यक जांच

(ब) अंकेक्षण कार्यक्रम

(स) प्रमाणन

(द) इनमें से कोई नहीं

4. सभाओं की कार्यवाही नोट करने के लिए कौन-सी पुस्तक प्रयोग की जाती है?

(अ) अंकेक्षण फाइल

(ब) अंकेक्षण नोट बुक

(स) कार्यवाही पुस्तक

(द) इनमें से कोई नहीं

5. परीक्षण जांच के लिए लेखों का चयन किया जाता है :

(अ) योजनानुसार

(ब) परम्परा के आधार पर

(स) अनायास

(द) भावी रणनीति के सहारे

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